अचानक दो दिन पहले सड़कों पर पगुरी करते सैकड़ों भैसे नजर आते ही एक बात स्पस्ट हो गयी की इनकी जिंदगी का अंत होने वाला है। यूं तो किसी धर्म के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता.क्योंकि धर्म विश्वास पर चलता है और विश्वास से श्वास चलता है। लेकिन ये ख़ुशी मानाने का कैसा तरीका है की सैकड़ों किलो वजन वाले विधाता के एक बड़ी संरचना को इस कदर चंद खुशियों के लिए मरघट पर पंहुचा दिया जाय। कही ऊँट कट रहे है,किसी धर्म में कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती है.इसे समझने की जरूरत है,जब तक इसके विरोध में नहीं बल्कि इन अबोध जानवरों के बचाव में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग ही आगे नहीं आयेंगे तब तक ये ख़त्म नहीं होने वाला है। अगर उनको इतना ही मरने से प्रेम है सिर्फ सीधे साधे जानवरों की ही बलि चढ़ाएंगे ,बाघ क्यों नहीं मारते तो इस कृत्य को बहादुरी से भी जोड़ा जा सकता है ,लेकिन ऊँट सरीखे को मरना शायद ठीक नहीं। इसमें मेरा कोई धार्मिक विरोध नहीं है ऐसा किसी धर्म में है तो गलत है,हिन्दुओं में भी पहले नरबली तक की विधान का जिक्र सुनाई पड़ता है जो अब थमता नजर आ रहा है।
ऐसे वाकयों की शुरुआत निश्चय ही अभाव से प्रारंभ हुई। अशिक्षा से शुरू हुई लेकिन सभी समाज होने के बाद भी इसका इस बड़े पैमाने पर जारी रखना शायद गलत है। इसलिए ये दुहाई है इस सम्प्रदाय विशेष के लोगों से की इस पशु बलि को रोकने में आगे आये, दर है की कही मुझे साम्प्रदायिक करार दे चुप न करा दिया जाय .........
मंगलवार, 8 नवंबर 2011
शुक्रवार, 4 नवंबर 2011
निरंकुश भ्रष्टाचार की पोषक मायावती सरकार
यूं तो भ्रष्टाचार के सवाल पर बोलना महापाप हो गया है क्योंकि इस सवाल पर बोलने वाले मुह तो अनेकानेक है पर कान शायद बंद हो चुके हैं। पूरे देश में इस महातत्व का बोलबाला है। लेकिन उत्तरप्रदेश में तो स्थितियां कुछ अलग ही हैं। मुख्यमंत्री मोहतरमा मायावती मानो कुशल रक्षिका की भूमिका निभा रही हों।
गजब हाल है एक पुलिस का आला अधिकारी चिल्ला -चिल्ला कर कह रहा है की सरकार सरेआम भ्रष्टाचार कर रही है ,इतना ही नहीं वो इस कदर रुष्ट हुआ की अपनी बलि तक चढ़वाने को तैयार है,और सरकार कहे नहीं अघा रही है किवो पगला गए हैं। एक आला अधिकारी डिप्रेसन में चल रहा था तो क्यों,क्या कारण था क्या इसका जवाब सरकार ने बटोरे है,नहीं भी बटोरे होंगे तो कल तक बटोर लेंगे। अब देखना है की अब तक जो भी इस सरकार के खिलाफ मुह खोलने की हिम्मत जुटी है किसी न किसी बहाने जान गवाई है,अब देखने है क्या हश्र होता है डी डी मिश्र जी का। कही उनको भी रास्ते से हटा कर अपना तिलिस्म साफ न करे साहिबा। यूं तो अपराध पर उनकी पकड़ को नाकारा नहीं जा सकता लेकिन अगर यह कहा जाय की उसका कारण यह है की या तो माफिया लोग उनके बन कर रहेंगे या नहीं रहेंगे के रिश्तों पर ही प्रदेश चल रहा है तो बहुत गलत नहीं होगा। वैसे सब कुछ भविष्य के हाथ में है भला हो बिचारे डी डी मिश्र जी का..............
गजब हाल है एक पुलिस का आला अधिकारी चिल्ला -चिल्ला कर कह रहा है की सरकार सरेआम भ्रष्टाचार कर रही है ,इतना ही नहीं वो इस कदर रुष्ट हुआ की अपनी बलि तक चढ़वाने को तैयार है,और सरकार कहे नहीं अघा रही है किवो पगला गए हैं। एक आला अधिकारी डिप्रेसन में चल रहा था तो क्यों,क्या कारण था क्या इसका जवाब सरकार ने बटोरे है,नहीं भी बटोरे होंगे तो कल तक बटोर लेंगे। अब देखना है की अब तक जो भी इस सरकार के खिलाफ मुह खोलने की हिम्मत जुटी है किसी न किसी बहाने जान गवाई है,अब देखने है क्या हश्र होता है डी डी मिश्र जी का। कही उनको भी रास्ते से हटा कर अपना तिलिस्म साफ न करे साहिबा। यूं तो अपराध पर उनकी पकड़ को नाकारा नहीं जा सकता लेकिन अगर यह कहा जाय की उसका कारण यह है की या तो माफिया लोग उनके बन कर रहेंगे या नहीं रहेंगे के रिश्तों पर ही प्रदेश चल रहा है तो बहुत गलत नहीं होगा। वैसे सब कुछ भविष्य के हाथ में है भला हो बिचारे डी डी मिश्र जी का..............
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
आर टी आई भी संविधान के एक नियम मात्र के अलावा कुछ भी नहीं
सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ पारित हुआ तो मानो साफगोई की अमृत वर्षा होने वाली है ऐसे लोग फूले नहीं समां रहे थे,हर कोई सोच रहा था की किसके सर पर इसका सेहरा बाध उसे भागीरथ क़रार दे दिया जाये लेकिन यह भी महज एक नियम बनकर रह गया बल्कि यूं कहा जाय की सबसे कमजोर नियम तो शायद गलत नहीं होगा। वैसे भी देखा जाय तो हर वो नियम-अधिनियम जो प्रत्यक्ष रूप से जनता के हाथों में होता है उसकी परिणति यही होती है। लेकिन क्षोभ इस अधिनियम को अगर किसी ने निरीह बनाया है तो खुद इसका आयोग यानि सूचना आयोग। इनके अलावा जिस किसी सरकारी गैर सरकारी दफ्तर में इस अधिनियम के तहत सवाल दागे जाते है वहां से गलत ही सही लेकिन तो आते हैं लेकिन । आयोग के निकम्मेपन और निठल्ली हरकत इसको रशातल पंहुचा कर ही दम लेगी ।
शर्म आती है सुन कर जब आयोग के मुखिया अपने भाषण में ललकार के सरे महकमों को आदेश स्वरुप कहते है की आर टी आई के सवालों का जवाब निश्चित रूप से दिया जाय ,जब की जब उन्हें इसपर अक्षां लेने की नौबत आती है तो दरवाजा बंद कर सो जाते हैं। ये सिर्फ कहानी नहीं बल्कि अब तक मैं खुद सैकड़ो जवाब सैकड़ो कार्यालयों से प्राप्त किया हूँगा लेकिन एक मुद्दे पर आयोग को कई बार निवेदन के बाद भी मुझे राष्ट्रपति तक को इसके खिलाफ लिखना पड़ा लेकिन आयोग हरकत में नहीं आया। तो कहना है इस आयोग के दिल्ली में बैठे मसीहों से कि वे काम करना शुरू करे बाकि सब कर रहे हैं,और नौटंकी से बाज आये,अन्यथा उस आर टी आई के अन्दर आप भी आते हैं।
शर्म आती है सुन कर जब आयोग के मुखिया अपने भाषण में ललकार के सरे महकमों को आदेश स्वरुप कहते है की आर टी आई के सवालों का जवाब निश्चित रूप से दिया जाय ,जब की जब उन्हें इसपर अक्षां लेने की नौबत आती है तो दरवाजा बंद कर सो जाते हैं। ये सिर्फ कहानी नहीं बल्कि अब तक मैं खुद सैकड़ो जवाब सैकड़ो कार्यालयों से प्राप्त किया हूँगा लेकिन एक मुद्दे पर आयोग को कई बार निवेदन के बाद भी मुझे राष्ट्रपति तक को इसके खिलाफ लिखना पड़ा लेकिन आयोग हरकत में नहीं आया। तो कहना है इस आयोग के दिल्ली में बैठे मसीहों से कि वे काम करना शुरू करे बाकि सब कर रहे हैं,और नौटंकी से बाज आये,अन्यथा उस आर टी आई के अन्दर आप भी आते हैं।
रविवार, 23 अक्टूबर 2011
दीपावली.....
घुरहू की बिटिया घिघियाती,बोतल दूध से खाली है ,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
दरवाजे पर बूढ़े बाबा आसूं पीकर सोते हैं,
आँगन में बेटवा पतोह दारू पीकर के लोटे हैं।
पेंशन पाने वालों के आगे डायबिटीज की थाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
पाँव परूँ मैं तेरी गरीबी ममता से खिलवाड़ न कर
नित लुभावन दिखावे में रिश्तों पर प्रहार न कर,
लोक लुटेरे होश में आओ दीया तेल से खाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दिवाली है।
दीपशिखा की ढेरों कान्तियाँ हर देशवासी के चरण चूमें ..हे माँ ....
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
दरवाजे पर बूढ़े बाबा आसूं पीकर सोते हैं,
आँगन में बेटवा पतोह दारू पीकर के लोटे हैं।
पेंशन पाने वालों के आगे डायबिटीज की थाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
पाँव परूँ मैं तेरी गरीबी ममता से खिलवाड़ न कर
नित लुभावन दिखावे में रिश्तों पर प्रहार न कर,
लोक लुटेरे होश में आओ दीया तेल से खाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दिवाली है।
दीपशिखा की ढेरों कान्तियाँ हर देशवासी के चरण चूमें ..हे माँ ....
शनिवार, 15 अक्टूबर 2011
मुकम्मल छात्र संघ बनाम तवायफ छात्र संघ
छात्र संघ को लोकतंत्र की नर्सरी के रूप में शुरू से परिभाषित किया जाता रहा है। इस सीढ़ी से देश को अगुवाई तक मिली है सरीखे कई लुभावनी बातें राजनेताओं या कतिपय बुध्ह्जीवियों द्वारा अक्सर सुनने को मिलती हैं। छात्र संघ की जब भी बात होती है तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अग्रणी भूमिका वाले इतिहास में होता है। फिर छात्रों के एक चुनावी मंच की चर्चा इस समय बीएचयू से जुड़े लोगों की जुबान पर सुलभ है। अतीत को बतियाते लोग नहीं अघा रहे हैं ,लेकिन जो वर्तमान में छात्र परिषद् नाम देकर चुनाव कराये जाने का डंका पीटा जा रहा है,ये निश्चय ही छात्र संघ के नाम पर एक मिथ्या मजाक और घटिया छलावा है। विश्वविद्यालय के करता-धर्ता चाहते है कि उनके काली करतूतों पर पर्दा पड़ा रहे और छात्रों को एक तावायफी मंच देकर भुलवाये रहा जाये जिससे साप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। जाहिर सी बात है ये मुकम्मल छात्र संघ नहीं हो सकता और जब तक मुकम्मल छात्र संघ के अलावा और किसी भी छलावे और प्रलोभन में छात्र फसते रहेंगें उन्हें उनका पूर्ण अधिकार नहीं मिल सकता।
छात्र परिषद् के इस चुनाव में एक महा सचिव और आठ सचिवों के चुने जाने की व्यवस्था का जिक्र है।उसमें पढ़ाकू छात्र ही चुनाव लडेगा इससे भी कोई गिला शिकवा नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय निश्चय ही पढने कि जगह है लेकिन इससे भी नाकारा नहीं जा सकता कि विश्वविद्यालय का छात्र अगर राजनीती और देश सेवा के लिए आगे आता था तो अपने कैरियर को बनाने के लिए नहीं बल्कि देश को बनाने के लिए ,वो बात दीगर है कि तरुनाई के अंगनाई में किये गए निःस्वार्थ संघर्ष ही उन्हें मुकाम दिलाते रहे और कालांतर में उसमें से बहुतेरे लूट और स्वार्थ के दलदल में फस गएँ। लेकिन इसका प्रतिशत काभी भी सौ नहीं हो सकता उसी में से विचारवान भी आये जो किसी दशा पर दिशा देने की समझ भी रखते हैं।
कहना गलत नहीं होगा की १९५६ से आज तक संसद और विधानसभाए छात्र संघ के लोगों से भरी रही हैं,आज भी देश के गृह मंत्री से लेकर तमाम बड़े राजनेता इस सीढ़ी से संसद तक ,पहुचे है ,लेकिन आज बीएचयू छात्र संघ चुनाव के नाम पर नौटंकी पर सबकी चुप्पी संदेहास्पद है। यह छात्र परिषद् छात्रसंघ का विकल्प नहीं हो सकता। चालीस साल पहले यहाँ कौन छात्र संघ का अध्यक्ष था वह कहा तक पंहुचा इसको बताने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे लेकिन पिछले चार बार से छार परिषद् के मनोनीत छात्रों को कौन जानता है ,कारण ये उनकी कमी या गलती
नहीं है बल्कि उनको कोई न जाने या वो आगे न जा सके या देश और दुनिया की सक्रिय राजनीति में उनका किसी प्रकार का हस्तक्षेप और समझ न होसके इसीलिए विश्वविद्यालय के लोगों ने ये व्यवस्था बनाई।
अपना मुकम्मल छात्र संघ पाने से कम किसी भी कीमत पर छात्रों को समझौता नहीं करना चाहिए और उन्हें इस परिषद् के तवायफ छात्र संघ का बहिष्कार कर देना चाहिए। जिससे उनको उनका पूरा अधिकार मिल सके ,और ये नौटंकी बंद हो सके। छात्र परिषद् के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सटीक न होने के वजह से लोकतंत्र को धोखा देने के जुर्म में विश्वविद्यालय के नीति-नियंताओं को कितना हूँ कोसा जाये कम है ।
छात्र परिषद् के इस चुनाव में एक महा सचिव और आठ सचिवों के चुने जाने की व्यवस्था का जिक्र है।उसमें पढ़ाकू छात्र ही चुनाव लडेगा इससे भी कोई गिला शिकवा नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय निश्चय ही पढने कि जगह है लेकिन इससे भी नाकारा नहीं जा सकता कि विश्वविद्यालय का छात्र अगर राजनीती और देश सेवा के लिए आगे आता था तो अपने कैरियर को बनाने के लिए नहीं बल्कि देश को बनाने के लिए ,वो बात दीगर है कि तरुनाई के अंगनाई में किये गए निःस्वार्थ संघर्ष ही उन्हें मुकाम दिलाते रहे और कालांतर में उसमें से बहुतेरे लूट और स्वार्थ के दलदल में फस गएँ। लेकिन इसका प्रतिशत काभी भी सौ नहीं हो सकता उसी में से विचारवान भी आये जो किसी दशा पर दिशा देने की समझ भी रखते हैं।
कहना गलत नहीं होगा की १९५६ से आज तक संसद और विधानसभाए छात्र संघ के लोगों से भरी रही हैं,आज भी देश के गृह मंत्री से लेकर तमाम बड़े राजनेता इस सीढ़ी से संसद तक ,पहुचे है ,लेकिन आज बीएचयू छात्र संघ चुनाव के नाम पर नौटंकी पर सबकी चुप्पी संदेहास्पद है। यह छात्र परिषद् छात्रसंघ का विकल्प नहीं हो सकता। चालीस साल पहले यहाँ कौन छात्र संघ का अध्यक्ष था वह कहा तक पंहुचा इसको बताने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे लेकिन पिछले चार बार से छार परिषद् के मनोनीत छात्रों को कौन जानता है ,कारण ये उनकी कमी या गलती
नहीं है बल्कि उनको कोई न जाने या वो आगे न जा सके या देश और दुनिया की सक्रिय राजनीति में उनका किसी प्रकार का हस्तक्षेप और समझ न होसके इसीलिए विश्वविद्यालय के लोगों ने ये व्यवस्था बनाई।
अपना मुकम्मल छात्र संघ पाने से कम किसी भी कीमत पर छात्रों को समझौता नहीं करना चाहिए और उन्हें इस परिषद् के तवायफ छात्र संघ का बहिष्कार कर देना चाहिए। जिससे उनको उनका पूरा अधिकार मिल सके ,और ये नौटंकी बंद हो सके। छात्र परिषद् के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सटीक न होने के वजह से लोकतंत्र को धोखा देने के जुर्म में विश्वविद्यालय के नीति-नियंताओं को कितना हूँ कोसा जाये कम है ।
सोमवार, 3 अक्टूबर 2011
एक सौ बयालीस साल के गाँधी
इस दो अक्टूबर को फिर गाँधी जयंती गाँधी के तथाकथित मानस पुत्रों द्वारा मनाया गया ,खूब हरे-राम के धुन बजाये गए,जो जितने पैसे वाला वो उतना देर तक बजाया ,जो जितने ताकतवाला वो उतने शोर से बजाया,और जो जितना बड़ा चोर था वो उतना दिल खोल कर बजाया। डर लग रहा था की कही कब्र से बाहर निकल कर गाँधी बाबा भी नाचने न लगें नहीं तो ये बड़े सामाजिक कारीगर पकड़ लिए जायेंगे,वैसे तो देश में इनके लिए न तो कोई जेल है न ही कोई कानून,लेकिन ये तर्क जो अच्छा दे लेते है की गाँधी भी तो कानून तोड़ते थे ,नमक कानून तोड़ डाला,अंग्रेजों के हर नियम का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया ,और हम उन्ही रास्तों पर चल रहे हैं ,तो बुरे क्यों,बात में तो जान है । जब ठेले पर हिमालय हो और चुल्लू में हो गंगा ,मुट्ठी में संविधान हो ,तो गाँधी क्यों न हो नंगा।
चलिए अब हम भी रंग जाये इसी रंग में और थोड़ी गाँधी के मन वाला नखरा कर के उन्हें सलाम कर दें...........
जय गाँधी ,जय भारत ।
चलिए अब हम भी रंग जाये इसी रंग में और थोड़ी गाँधी के मन वाला नखरा कर के उन्हें सलाम कर दें...........
जय गाँधी ,जय भारत ।
शनिवार, 3 सितंबर 2011
लोकपाल बनाम भ्रष्टाचार
देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है अगर ऐसा कहा जाय तो शायद बहुत गलत नहीं होगा वो परिवर्तन कितना सार्थक हो पायेगा कितना राष्ट्र हित में चल पायेगा यह भविष्य की कोख में है। क्या भ्रष्टाचार ही बस देश को पीछे किये हुए है ,अगर हाँ तो क्या एक अन्ना की हैसियत है की देश डेढ़ अरब की भेड़-भीड़ को रामलीला मैदान में दहाड़ कर सुधार देंगे। निश्चय ही अन्ना साहब की सामाजिक सरोकारों की रूचि को सलाम किया जा सकता है ,उनके मेहनत,लगन और कारनामे अनुकरणीय रहे हैं । अपने गृह जनपद में सामान्य जनता से जुड़े बहुत सारे कार्य उन्होंने किया जोकि काफी सराहनीय है। लेकिन अन्ना के इस आन्दोलन से राष्ट्र को बड़ी क्षति हुई है,ठीक उसी तर्ज पर जैसे डॉ.अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बना कर देश को वैज्ञानिक दुर्भिक्ष में डाल दिया गया था। वैसे ही अन्ना अगर हर जिले में घूम के हकीकत के पायदान पर चलते हुए वह की विपत्तियों से लोगों को बचाहते और सारे गाँव को अपने गांव सरीखे बनाने का प्रयास करते ,जो उनके रूचि की विषयवस्तु है,तो शायद ज्यादे बेहतर होता। किताबी चापलूस फोटोकारों ने गाँधी से तुलना अन्ना की करके बेमानी की है,गाँधी जिस चम्पारन के विषय में जनता तक नहीं था वह एक गए बर्षों रह गया मगर वहां के हालत सुधार कर ही दम लिया। आज पूरे देश की स्थिति चम्पारन सरीखी हुई है ,लेकिन क्षोभ की गाँधी के नाम पर शोहरत हाशिल करने वाले लोग गाँधी के पद चिन्हों पर चलने में खुद को असहज पा रहे हैं।
दूसरी बड़ी चीज की अन्ना की लडाई भ्रष्टाचार है या लोकपाल। अगर लोकपाल की गोजी से ये भ्रष्टाचार की चुरईन को मरना चाहते है तो शायद बड़ी भूल कर रहे हैं। जो आदमी इतना तय नहीं कर पा रहा है की देश बड़ा है या कौम विशेष,उससे कितनी सार्थक उम्मीद की जाय। बात स्पस्ट करना चाहूँगा कि भारत माता की जय,और बन्दे मातरम का नारा जब उनके आन्दोलन कारियों द्वारा दिया जारहा था तो इमाम बुखारी ने कहा की अन्ना का आन्दोलन इस्लाम के खिलाफ है उर मुस्लिम वहां जाने से परहेज करें,यद्यपि किसी मुस्लिम पर बुखारी का असर नहीं पड़ा लेकिन अन्ना पर इतना असर पड़ा की वे रातोरात मंच से भारत मान की तस्वीर हटवा दिए,इतना ही नहीं अगले दिन अपने दो दूत अरविन्द केजरीवाल साब को और मोहतरमा किरण बेदी को उनको मनाने उनके घर भेज दिए। मुझे एक बात समझ में नहीं आयी की जब सारे मुस्लमान अपने धर्म से ऊपर उठ कर राष्ट्र धर्म के भाव से अन्ना के साथ जुड़े थे तो उन्हें अकेले बुखारी के बयां पर इतना लचीला होने की क्या जरूरत। बुखारी इस्लामिक नेता हो सकते हैं इस्लाम नहीं।
धन्यवाद.............
दूसरी बड़ी चीज की अन्ना की लडाई भ्रष्टाचार है या लोकपाल। अगर लोकपाल की गोजी से ये भ्रष्टाचार की चुरईन को मरना चाहते है तो शायद बड़ी भूल कर रहे हैं। जो आदमी इतना तय नहीं कर पा रहा है की देश बड़ा है या कौम विशेष,उससे कितनी सार्थक उम्मीद की जाय। बात स्पस्ट करना चाहूँगा कि भारत माता की जय,और बन्दे मातरम का नारा जब उनके आन्दोलन कारियों द्वारा दिया जारहा था तो इमाम बुखारी ने कहा की अन्ना का आन्दोलन इस्लाम के खिलाफ है उर मुस्लिम वहां जाने से परहेज करें,यद्यपि किसी मुस्लिम पर बुखारी का असर नहीं पड़ा लेकिन अन्ना पर इतना असर पड़ा की वे रातोरात मंच से भारत मान की तस्वीर हटवा दिए,इतना ही नहीं अगले दिन अपने दो दूत अरविन्द केजरीवाल साब को और मोहतरमा किरण बेदी को उनको मनाने उनके घर भेज दिए। मुझे एक बात समझ में नहीं आयी की जब सारे मुस्लमान अपने धर्म से ऊपर उठ कर राष्ट्र धर्म के भाव से अन्ना के साथ जुड़े थे तो उन्हें अकेले बुखारी के बयां पर इतना लचीला होने की क्या जरूरत। बुखारी इस्लामिक नेता हो सकते हैं इस्लाम नहीं।
धन्यवाद.............
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