पंडितजी बद्बदाये जा रहे थे ,,,केतनो रटावा ,,इ सब सूरत हराम हवे, खाली बढ़िया कपडा ,बढ़िया टाई ,बढ़िया फीस ,,पावरोटी वाली टिफिन ,,,,चटनी के पाकिट के साथ ,,,कायदे से गोड़ परत रहलन ,वोकरे जगह गुड मार्निंग ,,,,इ कुल फुटानी बरदास हो जात अगर कुछ बनी जाते सब ,,,,लेकिन,,,त ,,,,,तब तक पंडिताइन का धैर्य जवाब दे दिया ,,,सबेरे सबेरे लईकन प पर गयला ,,,,कुल कमी हमराही बच्च्वान में दिखाल तोहके ,,,सोना जैसन लईकन क दिन खराब ,,,,पंडित पर्पराए ,,,इ अपने सोनवन के मढ़ा के रख ला ,,,जब सोना महंग होइहें त कामे आयी ,,,,वैसहू हम खाली तोहरे लईकवन के ही ना कहत है ,,इ देशवे का हाल हौ ,,,,इ सीटी बजावे वाले ज्ञान दूकान प हमार गुस्सा हौ ,,,कुल स्कूल फटाहा कपडा वालन के पढ़वात रहलन ,,,लेकिन कौनो ऐसन न हौ जो एक आ ई एस ना बनवले हौ ,,अ इ साला शुरुवे में टाई बध्वाय के वोसे ऐसन घिरना पैदा कराय देत हवे की ,,,पढ़ लिख के फटाहा पहिरे बदे परशान हो जान ,,,कौनो के पल्ले के अलावा एक अधिकारी बनावे क इतिहास न बा ,,,कुल खपड़ेल्वे सैक्ड़न क इतिहास बतोराले बाडन ,,,,तबले साइकिल क घंटी बजावले कुरता पहिने दूधवाला चिल्लाया ,,दूध लेल पंडित जी ,,पैसा खोदात हौ ,,देखे के हौ ,,,,,पैसा के नाम पर पंडितजी क गुस्सा फुर्र
शुक्रवार, 18 अक्टूबर 2013
मंगलवार, 3 सितंबर 2013
जग जाहिर है जब जब प्रकृति के साथ अप्राकृतिक व्यवहार हुआ है तब तब विनाश गले का हार बनती है । अभी कुछ दिन पहले काशी हिन्दू विश्विविद्यालय में आपदा प्रबंधन पर चर्चा के दौरान कुछ पर्यावरण के विद्वानों ने नदियों को जोड़ने की कवायद की । मुझे नहीं लगता कि दुनिया में कोई ऐसी नदी है जो किसी दूसरी नदी से जुडी न हो । हां नए विकास के माडल और नए पर्यावरण के विद्वानों ने अपने इन्ही कृत्रिम सोचों से प्राकृतिक आपदाओं को बखूबी न्योता दिया है । एकाक न्योतों की तादात और बढ़ जायेगी । हाँ एक फायदा जरूर होगा जैसा की होता रहा है ,,कुछ पर्यावरण का जबरन झोरा ढोने वालों के आलमारियों में कुछ गद्दियों की संख्या बढ़ जायेगी ,,या बैंक बचत में कई शून्य । प्रकृति जब जब छेड़ी जाती है धरासायी होता है सामान्य जन जीवन ,,जो तैयार रहे अगले के लिए,,,,,,,,
एक तरफ पंद्रह साल से पहले आप हाईस्कूल नहीं पास कर सकते ,,तो फिर मेरे समझ में नहीं आता की तेरह साल की बच्ची सुषमा को लखनऊ विश्वविद्यालय में एम्एससी में दाखिला कैसे मिल गया या इसके पहले की पढ़ाई उसको इतने कम उम्र में करने की छूट कहाँ से मिली ,,इस तरह की चर्चाएँ अक्सर अख़बारों में बखानी जाती हैं ,,उस बिटिया की तेजी से कोई ऐतराज नहीं है उसे कोटि शह प्रशंसा मिलनी चाहिए ,,,पर ये व्यवस्था कैसे मिलती है ,,कृपया शिक्षाविद महोदय लोग सुझाएँ ।
गुरुवार, 29 अगस्त 2013
दो करोड़ खटाई में,,,,,,,,,,,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रचयिता पंडित मदन मोहन मालवीय ने १९१६ में जिस जगह फावड़ा चलाकर विश्वविद्यालय की नीव रखी थी ,,,वह जगह खाली छोड़ उससे हट कर बाद में विश्वविद्यालय का निर्माण शुरू किया । कारन की वह गंगा का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र था ,और प्रयाग में नदियों के उफान में बाकायदा उनकी समझ थी । अतः उस जगह को स्थापना स्थल के रूप में जाना और पूजा जाता था ,,महामना के फावड़े के निशानी के रूप में सजोया गया था । पर कुलपति डॉ लालजी सिंह ने वहां दो सौ करोड़ की लागत से ट्रामा सेंटर बनवा डाला । जब बाढ़ की विभीषिका में बनारस जलमग्न होना शुरू हुआ तो उन्हें अपने ट्रामा सेंटर की याद आई और उसे देखने सदल पहुचे ,,पूरा प्रस्ताव मानों बाढ़ में आहें भर रहा हो ,,हो सकता है कोई रास्ता कुलपति महोदय को मिल ही जाय और मोटी रकम खर्च कर के पानी को अन्दर आने से कुछ और रोक भी लें ,,लेकिन अदूरदर्शी होने के वजह से राष्ट्र का दो सौ करोड़ तो खटाई में ही दिख रहा है ,,ऊपर से महामना के प्रथम फावड़े की अनमोल निशानी भी निगल ली इस ट्रामा सेंटर ने ।ये देश को फायदा कितना देगा भगवान् जाने पर तत्काल कुछ बिचौलियों की जेबों में तो हरियाली आयी ही होगी ।
सबसे बड़ा कारन की इस इतने बड़े विश्वविद्यालय को समझने में तीन बरस बीत जाते है यहाँ के कुलपतियों को ,,फलतः ये जिन चंद लोगों से घिरे होते हैं उन्ही को बीएचयू समझते हैं ,,और कितने लोगों की नौकरियां गणेश परिक्रमा में ही पूरी ही नहीं होती बल्कि पुष्पित और पल्लवित होती है ,,,महामना जैसे युग पुरुष ने विपन्नता में विश्वविद्यालय का निर्माण कराया देश को संपन्न बनाने के लिए ,,,और उनके मानस पुत्र सम्पन्नता में विश्वविद्यालय का निर्माण करा रहे हैं लेकिन देश को शायद विपन्न बनाने के लिए ।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के रचयिता पंडित मदन मोहन मालवीय ने १९१६ में जिस जगह फावड़ा चलाकर विश्वविद्यालय की नीव रखी थी ,,,वह जगह खाली छोड़ उससे हट कर बाद में विश्वविद्यालय का निर्माण शुरू किया । कारन की वह गंगा का बाढ़ प्रभावित क्षेत्र था ,और प्रयाग में नदियों के उफान में बाकायदा उनकी समझ थी । अतः उस जगह को स्थापना स्थल के रूप में जाना और पूजा जाता था ,,महामना के फावड़े के निशानी के रूप में सजोया गया था । पर कुलपति डॉ लालजी सिंह ने वहां दो सौ करोड़ की लागत से ट्रामा सेंटर बनवा डाला । जब बाढ़ की विभीषिका में बनारस जलमग्न होना शुरू हुआ तो उन्हें अपने ट्रामा सेंटर की याद आई और उसे देखने सदल पहुचे ,,पूरा प्रस्ताव मानों बाढ़ में आहें भर रहा हो ,,हो सकता है कोई रास्ता कुलपति महोदय को मिल ही जाय और मोटी रकम खर्च कर के पानी को अन्दर आने से कुछ और रोक भी लें ,,लेकिन अदूरदर्शी होने के वजह से राष्ट्र का दो सौ करोड़ तो खटाई में ही दिख रहा है ,,ऊपर से महामना के प्रथम फावड़े की अनमोल निशानी भी निगल ली इस ट्रामा सेंटर ने ।ये देश को फायदा कितना देगा भगवान् जाने पर तत्काल कुछ बिचौलियों की जेबों में तो हरियाली आयी ही होगी ।
सबसे बड़ा कारन की इस इतने बड़े विश्वविद्यालय को समझने में तीन बरस बीत जाते है यहाँ के कुलपतियों को ,,फलतः ये जिन चंद लोगों से घिरे होते हैं उन्ही को बीएचयू समझते हैं ,,और कितने लोगों की नौकरियां गणेश परिक्रमा में ही पूरी ही नहीं होती बल्कि पुष्पित और पल्लवित होती है ,,,महामना जैसे युग पुरुष ने विपन्नता में विश्वविद्यालय का निर्माण कराया देश को संपन्न बनाने के लिए ,,,और उनके मानस पुत्र सम्पन्नता में विश्वविद्यालय का निर्माण करा रहे हैं लेकिन देश को शायद विपन्न बनाने के लिए ।
बुधवार, 14 अगस्त 2013
देश में ६७ वाँ आजादी का जश्न मनाने की तैयारियां अंतिम चरण में हैं ,रंगाई पोताई चालू है ,कुछ टूटे फूटे ,भूले और छूटे भी लीप पोत दिए जायेंगे । देश की तरक्कियां गिनाई जाएँगी ,फिर से कुछ कश्मे वायदे होंगे । संस्कारशाला सा माहौल रहेगा ,,महापुरुषों के सिद्धांतों पर चलने की सीख दी जाएँगी ,,,,दुकान डलिया बंद रहेगी ,छात्रों के लिए घुमक्कड़ी का दिन सा होगा ,,,,फिर साल भर के लिए इस भारी खुराक का अंत ,,,,,,कुछ इस तरह से फिर हम जुटेंगे गणतंत्र की तैयारियों में कितना दिन ही बचा है मात्र पांच ही महीने न ,,,,,,फिर भी रश्मों रिवाज की फितरतों से ऊपर उठ कर ,,,,बन्दे मातरम् से लबरेज होना ,,,,,जय हिन्द जय भारत
गुरुवार, 25 जुलाई 2013
अब नहीं रही महामना की बगिया गरीबों के लिए ,,
महात्मा मालवीय जी महराज के सपने का बीएचयू अब शायद नहीं रहा ,,विश्वविद्यालय के निर्माण में निश्चित ही अमीरों के अमीरी का ज्यादा योगदान था लेकिन गरीबों की रेज्कारियां भी पंडित जी के कटोरे में छलकी थी . यही कारन था की उनका पूरा ध्यान गरीब भारत पर था और इसकी जरूरत भी शायद उनके दिमाग में इन्ही गरीबों को ध्यान में रखकर उभरी रही होंगी ,,अन्यथा जो हैसियत वाले थे वो तो उन दिनों भी विदेश पढाई करने जाते ही थे ,,,लेकिन आज का विश्वविद्यालय गरीब भारत को देखना भी पसंद नहीं करता ,,,कल अख़बार में पढने को मिला की एक बच्चे को कुछ छात्र में उठाकर अस्पताल में ले गए तो वह चिकित्सकों ने बद्फी नाटक नौटंकी के बाद उसे इलाज मिला ,,,ऐसे न जाने दूर दराज से आये कितने रोगी रोज बेइज्जती ,और जलालत झेलते हैं ,,साथ ही साथ लूटे भी जाते हैं ,,,यह तो हाल है विश्विद्यालय के प्रवेशद्वार का ,,,अन्दर घुसते ही इस तथाकथित शिक्षा की राजधानी में बहुरूपियों का बोलबाला बढ़ता जा रहा है ,,कुछ ऐसे लोग हैं जो सिर्फ चमचागिरी से फलफूल रहे हैं ,चाहे जो कुलपति आये वो सबके करीब होते हैं मोती तनख्वाहों के बेरंगी चश्मे से उन्हें गरीब भारत नहीं दीखता ,,,उन्हें किसान की हैसियत नहीं पता एक बरस के लिए हल चलाना बंद कर देगा तो पूरी कायनात के होश ठिकाने हो जायेंगे ,,,लेकिन यहाँ आये दिन गरीबों को अनदेखा कर फीस वृद्धि इत्यादि जारी है ,,पहले यहाँ गरीब किसी तरह खीच कर प्रवेश पा लिया तो फिर जीवन सुधर जाता था ,,आज इतना खर्च हो जाता है की ,,,,,जब की इतनी अधिक राशी आती है इस संस्थान के नाम पर की खर्च कर पाना सम्भव नहीं हो पाता,,और चैनलों पर बीएचयू का प्रचार करने का फर्जी प्रमाणपत्र सौप घोटाले बाजी होती है ,,,,,आखिर ये सारे लोग छात्रों के मंच छात्र संघ के विरोध में क्यों खड़े हो जाते है कारन की इन्हें पता है अगर ये अधिकार फिर से उन्हें हाशिल हुआ तो अतीत वर्तमान और भविष्य तीनों की काली खुल जायेगी ,,,,,लेकिन वर्तमान रहनुमाओं को एक सार्थक सलाह देने की गुस्ताखी करने की जरुरत समझता हु की बाढ़ पानी को जरुर रोक लेता है लेकि एक समय तक उसके बाद जब बाँध टूटता है तो तो तबाहियां देखे नहीं देख जातीं ,,,,गरीबों की अनदेखी बंद करे और छात्रों को उनका मंच दे सब निपटारा अपने आप हो जायेगा ,,,,
मंगलवार, 23 जुलाई 2013
मेरे महान में जब तक अंगरेज रहे तब तक अंग्रेजी इतनी मजबूती नहीं बना पायी थी ,,, पर अंग्रेजों के जाते जितने दिन बीत रहे हैं अंगरेजी उतनी मजबूत होती जा रही है ,,,पाठशालाओं में मौलबी साहब और पंडित जी या मुंशीजी हुआ करते थे ,,,,अंग्रेजी के गुरुओं का कही जिक्र नहीं सुनाई पड़ता था ,,,,,एक भाषा के तौर पर इसके ज्ञान को बढ़ाना कत्तई बुरा या गलत नहीं है लेकिन भाषाई चोचले बाजी अब अंगरेजी पर भी भरी पड़ने लगी है ,,,,अमेरिकन और ब्रिटिश के चक्कर में अंग्रेजी बेचने की दूकान चमकाए लोग छात्रों को छल रहे हैं ,,,छात्र सही गलत में फस कर दम तोड़ रहा है ,,,,उदहारण के लिए कुछ शब्दों की पेशकश जरुरी है ,,,हमारे किसी गुरु ने या हमारी पीढी के लोगों को शायद were को वर कभी भी नहीं बताया गया ये हमेशा वेयर था ,,,यहाँ तक की हिन्दू विश्वविद्यालय के अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी होने के वजह से अपने समय के गुरुओं को भी याद करते हुए याद आता है की वो लोग भी वेयर ही कहते थे ,,,अब finananceकही फाइनेंस होता ही नहीं फिनांस हो गया ,,director डायरेक्टर ,,डिरेक्टर हो गया ,,,,सिखवाक इस बदलावों से बेहाल हैं ,,,,,हमारे यहाँ एक कहावत कही जाती थी की ,,,,कोस कोस पर पानी बदले ,,तीन कोस पर बानी ,,,,कहा सम्भव है भाइयों की पूरी दुनिया की भाषा एक बना देंगे ,,,ऐसा होना भी ,,खतरा है ,,,,,,,
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