मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
दूरस्थ शिक्षा के छात्रों के साथ ही भेद -भाव क्यों
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय निश्चय ही एक अग्रणी शिक्षण संस्थान जोकि देश ही नहीं विदेशों में भी ख्यातिलब्ध है का दूरस्थ शिक्षा के बच्चों को कानून की पढाई में अपने यहाँ न प्रवेश देने का निर्णय एक दम हजम नहीं होता। एक तरफ चिल्ला-चिल्ला कर कहा जाता है की यूजीसी के हर मानक के अनुरूप दूरस्थ शिक्षा पद्धति है तो फिर बीएचयू असी मन मानी क्यों कर रहा है और इस पर अब तक देश के शैक्षणिक नीति-नियंताओं का विश्लेषण क्यों नही आ रहा है। या ये मान लिया जाय की लोग इससे सहमत हैं और छात्रों को मूर्ख बनाने के लिए सिर्फ उन्हें बरगलाया जाता है और सभी लोग उनके प्रति भेद-भाव रखते ही हैं। एक तरफ पूरी दुनियां चिल्ला कर ये कहने में अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहा है कि दूरस्थ शिक्षा सबसे बड़ी शिक्षा प्रणाली के रूप में विकसित हो चुकी है तो दूसरी तरफ ऐसा क्यों । अतः छात्र भावना और देश कि एकता और अखंडता को दिमाग में रखते हुए तत्काल इस नियम को वापस लिया जाना चाहिए।
मिस्र और लीबिया जैसी शुरुआत की जरूरत है भारत में
मिस्र में तीस बरस से तानाशाही का जलवा बिखेरे सरकार का अठारह दिन के जनांदोलन के बाद नस्त-नाबूद हो जाना लीबिया को भी आत्म बल दिया और उसी तर्ज पर लीबिया के लोगों को भी तानाशाही से मुक्ति मिली। लेकिन भारत गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है जहाँ नाम बड़े और दर्शन छोटे का जुमला शत -प्रतिशत चरितार्थ होता है। यहाँ हर कोई ट्रस्ट है लेकिन सड़क पर उतरने की स्थिति में जनता नहीं दिख रही है। निश्चय ही मिस्र और लीबिया की कहानी आन्दोलनों के इतिहास में सबसे ऊपर की कतार में राखी जाएगी,भारतीय मीडिया उसको चाहे जितना दबा ले। इससे कम अत्याचार पर १९७७ में इस देश के युवाओं ने ऐसे ही अत्याचार के खिलाफ सड़कों पर उतर नया इतिहास रचा था जब कांग्रेस अपने घरों में पराजित हुई थी। अब कितने महगाई और कितने लूट-खसोट और भ्रष्टाचार का इंतजार कर रहे हो देश वासियों भारत मान की आत्मा रो रही है ऐसे गैर जिम्मेदाराना राजनीतक रवैये पर जहा नौनिहाल कार्यालयी आकड़ो से तो मलाई खा रहा है लेकिन दूधमुहे बच्चों का मरना जारी है। अतः उठो ,मिस्र और लीबिया की नक़ल नहीं बल्कि अपने अधिकारों के प्रति एक दिन की मेहनत देश की तस्बीर बदल सकती है जोकि बरसों के लूट -पाट पर भारी पड़ेगा।
शनिवार, 19 फ़रवरी 2011
आखिर कहाँ जायेंगे झोलाछाप चिकित्सक और चिकित्सार्थी
आज कल जिसको सुनो वही झोलाछाप चिकित्सकों के खिलाफ खड़ा दिख रहा है। भारत गावों का देश है,दूर दराज के बहुत ऐसे गाँव है जहाँ दूर-दूर तक कोई डिग्रीधारी डाक्टर नहीं है । अगर गलती से स्वास्थ्य सामुदायिक केंद्र स्थापित भी है तो वहां के डाक्टर्स अधिकतर शहरों में रहते है, और शहरके सरकारी अस्पतालों को देख कर ये आसानी से आका जा सकता है की वो कितनी अच्छी सेवा देते होंगे गाँव वालों को। बीमार होने का कोई समय तो होता नहीं लेकिन ये डिग्री धारी डाक्टर लोग इतनी मोटी रकम सरकार से पाते है की इनमे सेवा भाव तो है नहीं, हमेशा इनका झोला उठा रहता है ऐसे में झोलाछाप कह बदनाम किये जाने वाले चिकित्सक ही उनके दुःख के असली सहभागी हो पाते हैं। ये भी सच है की कही-कही इनके ज्य्दाती की कहानियां सुनने को मिलती है।लेकिन अपनी आजीविका के साथ -साथ वे गाव वालों के स्वास्थ्य का भी देख भाल कर लेते है। सरकार हर छह महीने पर अपनी धपोरसंखी आवाज में इनके खिलाफ बिगुल तो फूक देती है,लेकिन क्या कोई ऐसा चिकित्सा का माडल है जिससे आम आदमी को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराया जा सके। तो शायद नहीं। ऐसे में जरूरत है तो इन तथाकथित झोलाछापों को कोई प्राथमिक प्रशिक्षण देकर उपयोग में लाने का अन्यथा घर-घर तक स्वास्थ्य पहुचाने का अभी तक तो कोई माडल नहीं दिखा सरकार के पास,तो क्या गरीब जनता मरेगी,एक बात दूसरी बात की येबड़े डाक्टर सर्दी-बुखार जैसे सामान्य रोगों के लिए भी बिना जांच इत्यादि के इलाज शुरू नहीं करते खर्च के नाम से ही इन गरीबों का बुखार उतर जाता है।
सोमवार, 7 फ़रवरी 2011
जातिगत सभाएं राष्ट्रहित में कितनी न्यायोचित
देश पता नहीं विकास कर रहा है कि पीछे जा रहा है ये कह पाना कठिन है। जिस देश में देश की नीतियाँ जातिगत आधार पर बनाई जाती हैं,उसके उद्धार के लिए देर सबेर गाँधी और अब्राहम लिकन जैसे महामानवों का को जन्म लेना ही पड़ता है। गाँधी के देश में इस तरह की विसंगतियां शुरू से ही थी लेकिन बहुत प्रयास और संघर्षों के बाद स्थितियां कुछ सुधरी थीं। लेकिन आजादी के बाद फिर उसी रह पर देश की नीतियां तय की जाने लगी। जोकि किसी भी लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। मुलायम सिंह यादव के समाजवादी पार्टी के निष्कासित नेता अमर सिंह और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह दो धुर विरोधी लोग एक मंच पर अगर दिखे तो सिर्फ जातीय बोलबाले के लिए। अगर ऐसी जातिगत सभाओं पर संवैधानिक अंकुश नहीं लगे तो वो दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र की परिभाषा के परिधि में हमारा देश नहीं होगा। इसका सबको विरोध करना चाहिए खास कर जब कोई नेता जाती के नाम पर लोगो को मुर्ख बनाये तो,उसकी पार्टी तक के भी अस्तित्व को ख़त्म कर देना ही सच्ची लोकतान्त्रिक प्रडाली है।
रविवार, 30 जनवरी 2011
गाँधी दुनियां के अतीत ही नहीं भविष्य भी
मोहनदास नाम के एक बालक का पोरबंदर में २ अक्टूबर १८६९ को जन्म लेना किसी अवतार से कम नहीं था। मोहनदास से महात्मा गाँधी तक की उनकी जीवन यात्रा महज एक यात्रा ही नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है,एक सन्देश है त्याग और तपस्या के नाम ,एक विचार है आधियों में दीपक जलाने का ,एक जिद है आसमान को जमीन पर लाने का ,एक अनुशासन है उन्नति का । स्वतंत्रता संग्राम की भी अगर नीतियों को खगाले तो मिलेगा कि एक तरफ गोली थी तो दूसरी तरफ बोली। गोली कितना प्रभाव जमा पायी कहना कठिन है लेकिन बोली ने उन अंग्रेजों को झुकने और भागने पर मजबूर कर दिया जिनके राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता था जैसी अतिशयोक्तियाँ बकी जाती हैं। वर्तमान में गाँधी कि नीतियां अपने देश में ही धरासायी पड़ती जा रही हैं,खास कर के वो राजनैतिक पार्टी जो गाँधी का ही नाम ढ़ो आज भी जीवित है,सत्ता में काबिज है ,उन्हें भी गाँधी से परहेज होने लगा है।
आज गाँधी की पूजा दुनियां के हर कोने में एक अवतारी पुरुष के रूप में हो रही है लेकिन गाँधी के देश में आये दिन गाँधी कि प्रतिमाओं पर कालिख पोती जा रही है और देश मौन रहता । हर युवा गाँधी को दीन -हीन भाव से देखता नजर आ रहा है । बिना गाँधी के नाम काम और दर्शन को लिपटाए बिना आज भी एक पग हम चलने की हिम्मत नहीं रखते । अतः देर -सबेर गाँधी के विचारों से दुनियां चल सकती है ,कट्टा और बन्दूक से दुनियां नहीं चलने वाली है।
गाँधी अतीत ही नहीं भविष्य भी है ,इसका ख्याल जरूरी है यही इस महामानव को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
आज गाँधी की पूजा दुनियां के हर कोने में एक अवतारी पुरुष के रूप में हो रही है लेकिन गाँधी के देश में आये दिन गाँधी कि प्रतिमाओं पर कालिख पोती जा रही है और देश मौन रहता । हर युवा गाँधी को दीन -हीन भाव से देखता नजर आ रहा है । बिना गाँधी के नाम काम और दर्शन को लिपटाए बिना आज भी एक पग हम चलने की हिम्मत नहीं रखते । अतः देर -सबेर गाँधी के विचारों से दुनियां चल सकती है ,कट्टा और बन्दूक से दुनियां नहीं चलने वाली है।
गाँधी अतीत ही नहीं भविष्य भी है ,इसका ख्याल जरूरी है यही इस महामानव को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
बुधवार, 26 जनवरी 2011
लोकप्रियता का लोभ कही उत्सव को कातिल तो नहीं बना रहा
बनारस का उत्सव शर्मा एक सुलझे और संस्कारिक परिवार और छठां वेतन लग जाने के वजह से पैसेवाले घर की सन्तान कहा जा सकता है। उसके मानसिक विक्षिप्तता की कहानी की बात अगर की जाय तो उसकी मां इंदिरा शर्मा जी खुद ही सर सुन्दरलाल अस्पताल में मनोचिकित्सक हैं। पिताजी इंजीनियरिंग कालेज में है। सामान्यतया ऐसी घटनाएँ जब होती हैं तो कानूनी तौर पर बचने के लिए ही लोग सबसे नायाब तरीका डिप्रेसन या मनोरोग का प्रमाण पत्र दिखा देना होता है। उत्सव की तो उसमें भी बल्ले-बल्ले क्योंकि उसकी मां ही सारी व्यवस्था कर देंगी।
एक बात गौर करने योग्य है कि उत्सव सिर्फ बड़ी घटनाओं से जुड़े लोगों को ही निशाना बना रहा है कारण रातोरात वह लोकप्रियता के शिखर पर पहुच जाता है,। हिन्दू विश्वविद्यालय के बहुत सरे प्रोफ़ेसर उसे बचने के लिए अपना व्याख्यान देना शुरू ही कर दिए कि यह व्यवस्था के प्रति क्षोभ है। यहाँ दो और बातें जिक्र में लाई जा सकती हैं कि इन घटनाओं से पहले तो काभी उत्सव के मां-बाप ने अख़बार में इश्तिहार नहीं दिया कि उनका बेटा मनोरोग से ग्रसित है,और मनोरोगी को घर में न रखने केबजाय अहमदाबाद या दिल्ली पढने भेजने कि उनकी हिम्मत को दाद देनी होगी। दूसरी चीज उत्सव जिस बीएचयू में पला बढ़ा वो खुद ही दुर्व्यवस्थाओं कि खान है,वहां तो कभी उत्सव व्यवस्था परिवर्तन को सामने नहीं आया। वह फाईन आर्ट्स का स्टुडेंट रहा है ,और कितने छात्र व्यवस्था आदि के विरोध में जेल गए उनकी पढ़ी गयी उसमें तो कभू उत्सव नहीं दिखा।
तो मिलाजुला के ये व्यवस्था के प्रति विरोध वगैरह नहीं है सिर्फ और सिर्फ नाम कमाने का जरिया और उसकी मां बढई है अगर मां-बाप ऊचे जगह से जुड़े नहीं होते तो शायद ऐसा नहीं होता। यद्यपि मैं उत्सव का विरोधी नहीं लेकिन अगर उसके मां-बाप इतने ही चिंतित है तो अपने सांड को बाध कर रखे ।
एक बात गौर करने योग्य है कि उत्सव सिर्फ बड़ी घटनाओं से जुड़े लोगों को ही निशाना बना रहा है कारण रातोरात वह लोकप्रियता के शिखर पर पहुच जाता है,। हिन्दू विश्वविद्यालय के बहुत सरे प्रोफ़ेसर उसे बचने के लिए अपना व्याख्यान देना शुरू ही कर दिए कि यह व्यवस्था के प्रति क्षोभ है। यहाँ दो और बातें जिक्र में लाई जा सकती हैं कि इन घटनाओं से पहले तो काभी उत्सव के मां-बाप ने अख़बार में इश्तिहार नहीं दिया कि उनका बेटा मनोरोग से ग्रसित है,और मनोरोगी को घर में न रखने केबजाय अहमदाबाद या दिल्ली पढने भेजने कि उनकी हिम्मत को दाद देनी होगी। दूसरी चीज उत्सव जिस बीएचयू में पला बढ़ा वो खुद ही दुर्व्यवस्थाओं कि खान है,वहां तो कभी उत्सव व्यवस्था परिवर्तन को सामने नहीं आया। वह फाईन आर्ट्स का स्टुडेंट रहा है ,और कितने छात्र व्यवस्था आदि के विरोध में जेल गए उनकी पढ़ी गयी उसमें तो कभू उत्सव नहीं दिखा।
तो मिलाजुला के ये व्यवस्था के प्रति विरोध वगैरह नहीं है सिर्फ और सिर्फ नाम कमाने का जरिया और उसकी मां बढई है अगर मां-बाप ऊचे जगह से जुड़े नहीं होते तो शायद ऐसा नहीं होता। यद्यपि मैं उत्सव का विरोधी नहीं लेकिन अगर उसके मां-बाप इतने ही चिंतित है तो अपने सांड को बाध कर रखे ।
सोमवार, 24 जनवरी 2011
अब वेश्यावृत्ति को सही ठहराने की मुहिम
जाने क्या हो गया भारतवर्ष की जनता को,यहाँ के तथाकथित बौध्हिक लोगों को ,जो ऐसे-ऐसे मांग सामने रखते हैं,जिसे शायद अगर उनको अपनी कीमत पर बनाने को कहा जाय तो सहमती नहीं होगी,ऐसा लगता है। फिल्मस्टार सुनील दत्त की बिटिया और सांसद प्रिय दत्त अब चाहती है की वेश्यावृत्ति को देश में पूरा अधिकार मिले । ये सच है की दुनियां में कितने ऐसे देश है जिनकी अर्थ व्यवस्था इस शारीरिक व्यवसाय पर आधारित है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम उसी रास्ते को अपना लें। एक ऐसा तपका जो शरीर व्यवसाय से अपनी आजीविका तलाशता है निश्चय ही उसे समाज बहुत अच्छी निगाह से नहीं देखता । इस लिए उनके प्रति संवेदना ठीक है ,उनके लिए वैसे भी नियम तो बने ही हुए है लेकिन इसको महिमा मंडित करने कि जरूरत शायद नहीं है क्योंकि ये एक मानसिक खतरा है,उस युवा समाज के लिए जो बेरोजगारी कि मार झेलते त्रस्त हो कही इसी को सबसे आसान रास्ता न समझ बैठे अन्यथा विश्वगुरु कहे जाने वाला भारत कही सबसे बड़ा वेश्यालय न बन जाय,ये कड़वा सच एक बड़ा खतरा है। जो लोग इनकी तरफ दारी कर रहे है ,अगर उनसे पूछा जाय कि अगर ऐसी स्थिति आपके अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ आती है तो उसे आप क्या कहेंगे,क्योकि रील लाईफ और रीयल लाईफ में अंतर होता है। अपने परिवार को भी उदाहरन के तौर पर वो देख सकती हैं।
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