मंगलवार, 14 अगस्त 2012

देशी गुलामी का पैसठवा साल

१५ अगस्त उनीस सौ सैतालिस ,भारतीय इतिहास का वो दिन जब विदेशी गुलामी से मुक्ति पाने का स्वांग रचा गया था ,आज हम उस दिन का पैसठवा साल गिरह मनाने की तैयारी कर रहे हैं। क्या मिला देश की माटी को अपनी तथाकथित पैदावारो से ,इन पैसठ सालो में। और कितना चूसा इस माटी को । इस लेने देने के क्रम में किसी व्यक्ति विशेष जाती विशेष पेशा विशेष और धर्म विशेष की तरफ हमारा फोकस कत्तई नहीं है। लेकिन हाँ इससे अच्छी सड़के ,इससे अच्छा पानी ,इससे अच्छी बिजली ,इससे मजबूत पुल और इमारतो का निर्माण कराया था उन विदेशिओं ने जिनका ये अपना देश नहीं था,और आज ,,,,,,,कालांतर में कुछ दिखा तो राजनीती में बढती दुश्मनी ,कुरते का सबसे बड़ा दुश्मन कुरता ,,,,क्या इसी के साथ हम स्वागत करने की तैयारी कर रहे है स्वतंत्रता दिवस मनाने की,,,,,,,,फिर भी इस अवसर पर देश की माटी को प्रणाम कर उससे ही अब भरोसा मांगने की जरुरत है की अब और न लुटोगी,और न शोषित होगी,,,,,जय हिंद.....

अन्ना ,रामदेव,लोकपाल और काला धन

पिछले बरस अन्ना बाबा ने लोकपाल के लिए मुहिम छेड़ देश में आंदोलनों की बाढ़ ला दी। कई बार स्वामी जी उनके पास दिखे कई बार दूर। अन्ना के बेताली डफलियां ज्यादे हो गयी जिससे उन्हें अपना तथाकथित टीम अन्ना ख़त्म करने का ऐक्षिक घोषणा करना पड़ा,आनन फानन में अन्ना ने कहा कि देश को राजनैतिक विकल्प देंगे ,दुसरे ही दिन फिर दूसरी बात कहे कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे या लड़ायेंगे,बल्कि देश का दौरा करेंगे । शायद अन्ना की इस बेबाक यात्रा से उनके निकटस्थ साथी अरविन्द जी आहत हुए और अपनी संगिनी किरन जी के साथ पत्रकार वार्ता में देश को बताये कि वो लोग पार्टी कि घोषणा एकाक दिन में करेंगे उसके बाद चुनाव में भी दिखेंगे। अन्ना शायद स्वास्थ्य लाभ के लिए मजबूर हो चले हैं । लोकपाल ठंढे बसते में चला गया। वही कांग्रेस की बुध्हिमत्ता की भी दाद देनी होगी की चौसठ सालो के सबसे लम्बे राजनैतिक सफ़र में उन्होंने देश को कितना समझा ,आये दिन एक विधेयक पारित होता है उसे कोई जनता तक नहीं,सबसे अधिक लोकप्रिय सूचना के अधिकार अधनियम को भी हम उदहारण के तौर पर ले सकते हैं ,जिसे आज भी सहज संज्ञान में नहीं कहा जा सकता है। काश एक बार में लोकपाल पारित हो जाता तो अन्ना और टीम का जन्म नहीं होता । खैर उनके आन्दोलन ने अरविन्द केजरीवाल एक नए नाम को पैदा किया ,बाकि कुछ भूले बिसरे लोग भी फिर से याद कर लिए गए।
आगे अब इस गरम माहौल का फायदा उठाते हुए स्वामी जी एक बार असफलता और बेईज्जती का आनंद लेने के बाद मजबूती से आगे आये ,इस बार सलवार पहन कर नहीं भागे ,उनके पेशे से जुड़े उनकी भीड़ हमेशा उनके साथ रहती है,रहेगी। बाबा कितना काला धन वापस लायेंगे कहना मुश्किल है,उसकी जरुरत भी नहीं है जितने का बबुआ नहीं उतने का खिलौना जैसी देशी कहावत चरितार्थ होती है। काला धन को गोरा करने की लड़ाई लड़ने की बजाय आत्म सुध्ही के लिए भ्रमण जरुरी है,आज काला धन गोरा हो भी गया तो क्या गारंटी है की फिर कोई गोरा धन काला नहीं होगा। लेकिन अगर इससे मानसिक सुधार होगा तो एक सौ एक्केस करोड़ की आबादी में धन को काले होने से बचा कर हम उस घटे की पूर्ति कर सकते हैं। खैर अब जब बाबा मजबूत दिखे तो अब तक कमियां निकलती भाजपा उनके साथ हो ली,मुह दबाये सपा और बसपा भी उनके साथ होने की बात कर रही है। पहले बाबा भी राजनैतिक पार्टी बनानाने की बात कर चुके है,उनके चरित्र बताते है की वो काभी भी ऐसा कुछ कर सकते हैं,वो भी खुद को एक विकल्प के रूप में देख रहे हैं। उधर अन्ना की पैदावार भी विकल्प दे रहे है,तो कांग्रेस राहुल को विकल्प बता रही है,,,,,,क्या ये देश अब विकल्पों से चलेगा....

शुक्रवार, 8 जून 2012

नगर चुनाव की बढती सरगर्मी

नगर चुनावों की सरगर्मी गर्मी को बढ़ा दिया है,हर तरफ गहमा गहमी बढ़ रही है। कुरता धारी फास्ट हैं किसको हनुमान बन अपना कलेजा फाड़ दिखा दे कि एक दम राम की तरह वो उन्ही को मन में बसाये हुई हैं । सामान्य जनता शांत है समझ नहीं पा रही है इस कदर इन लोकतान्त्रिक उत्सवों कि मरजाद बिगड़ी है कि जनता मौन सी हो गयी है। लेकिन विकल्प का अभाव कभी भी नहीं होता है वो बात दीगर है कि हम समय रहते पहचानते नहीं हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि बरसों सिद्धांत बघारने वाले लोग चंद मिनटों में कही शराब का तो कही अपराध का तो कही अर्थ का कोना पकड़ बस उसी को अपनी राष्ट्रीय राजनीती का द्योतक समझना शुरू कर देते हैं। खुद जब ये लोग काभी कोई चुनाव लड़ते है तो अर्थ हीन और अपराध हीन होने के वजह से सरे स्वस्थ समाज से उम्मीद करते हैं कि लोग उनके साथ हो ,लेकिन खुद कहा रहे हैं या रहते हैं यह भूल जाते हैं....ईश्वर उन सबको सद्बुधी दे,,,,और स्वच्छ को काशी की कमान ।

गुरुवार, 7 जून 2012

जीवन दायिनी नदी असी

विश्व विख्यात वाराणसी शहर जिन दो नदियों के नाम से जाना जाता है-वाह हैं वरुणा और असी। इन दोनों नदियों का पौराणिक महात्म्य है । जैसा कि वामन पुराण में भगवान विष्णु ने भोलेनाथ को बताया है कि ,प्रयाग में योगशायी जोकि विष्णु के ही अंशावतार थे उनके बाये पैर से वरुणा और दाहिने से असी नदी निकली हुई है । इतना ही नहीं भगवान् विष्णु भोलेनाथ को असी और वरुणा में स्नान कर दशास्व्मेध पर निवास कि सलाह भी देते हैं ,और बताते हैं कि ये दोनों ही नदियाँ अति पुण्यदायी और पापनाशक हैं। उस क्षेत्र को जहा से असी और वरुणा निकली हैं इसे योगशायी का क्षेत्र कहा जाता था ,लेकिन क्षोभ कि आज इन दोनों नदियों में असी को तो नदी बताने पर लोग हस्ते हैं,नाला ही उसकी पहचान हो चली है,और वरुणा भी उसी रह पर है। देश विदेश से अरबो खरबों रूपये गंगा के नाम पर आये लेकिन गंगा सेवकों द्वारा इसको बोझ समझ इस कदर बहाया गया कि पैसा नहीं बस रेट दीखता है। हालाँकि असी जैसी हालत गंगा कि कभी भी नहीं होगी ये तय है लेकिन अगर ये सरे कृत्य सिर्फ भविष्य में किसी पूर्व अनुदानित को हटाकर खुद के खाते को खजाना बनाने कि तयारी साबित हुई तो निश्चित असी हो जाएगी,और उसके जिम्मेदार हम सब होंगे।
हमें अपनी जिम्मेदारिओं से मुह नहीं मोदनी चाहिए,मुट्ठी भर सरकारी लोग हर चीज को सही सात जनम में नहीं कर पाएंगे ,वो दाल में घी बन सकते हैं दाल नहीं ,वो बात दीगर है कि घी कौन सा डालेंगे भगवान ही जाने। अतः निवेदन है वाराणसी कि जनता से घबराइये नहीं हम आगे आइये पीछे आइये कि बात नहीं करेंगे बल्कि ये कहेंगे कि लोभ से ऊपर उठे जहाँ भी इसके साथ छल हो रहा है ,अतिक्रमण हो रहा है,वो आदमी ही कर रहा है,संतोष करे सीमित संसाधनों में जीने कि आदत डालें ,नदी क्या पूरा देश फिर से चमक उठेगा।

बुधवार, 23 मई 2012

अगर यही प्रेम है तो तोबा इस प्रेम से

प्रेम उवाच सुनकर थका मन एक दिन प्रेम के विषय में सोचा तो घृणा सी हो गयी,,सड़क पर एक माँ अपने बच्चे को एक बड़े पुरवे मलाई खिला रही थी उसके प्रेम को देख उसे भिखारन खाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हु ,और ये भी कहने में कोई संकोच नहीं की मेरे माँ-बाप ने उतनी मलाई मुझे कभी नहीं खिलाई ,माँ के प्रेम को प्रणाम कह चला आया,रस्ते में एक महिला मुझे लगता है अपने पति से झगड़ रही थी शायद वो अपनी मान को कुछ पैसे देने जा रहा था,महिला की डाट उसकी घिघी बढे थी और वाह वापस रुक जाता है,,मुझे लगा अब रुकना गौतम बुध्ह बनना है,,,

सरकार ,नदियाँ और नदियो के उद्धार हेतु चल रहे आंदोलनों पर एक नजर

नदी ,नारे ,कुण्ड,जलाशय ,जीवन के अंग हैं, इनके बिना जीवन की संभावना को एक दम से नाकारा जा सकता है। आज देश में नदियों की हालत बेहद चिंताजनक है,इस बावत देश में कई छोटे बड़े आन्दोलन भी चलाये जा रहे हैं। बनारस का कार्यकारी बाशिंदा होने के नाते अब बनारस पर आते हैं। इस शहर को गलियों का शहर कहा जाता है,मठ मंदिरों का शहर कहा जाता है,देव देवालयों का शहर कहा जाता है,मस्त मस्तानों का शहर कहा जाता है । इसकी पहचान में चार चाँद लगाने का काम करती थी मान गंगा ,माना जाता है की यह शहर दिगंबर शिव के त्रिशूल पर टिका है। एक सबेरे से गंगा किनारे गमछा लपेटे,गुल घिसते गंगा स्नान करने वालो का ताँता लगा रहता था अभी भी कमो बेश है ।
इस शहर को वाराणसी नाम देने में जिन दो नदिओं ने अपने नाम की आहुति दी है वो हैं:वरुणा और असी ,,आज पुरे बनारस शहर में नदियों के नाम पर आन्दोलन चलाये जा रहे हैं,कोई गंगा की लड़ाई लड़ रहा है तो कोई असी की तो कोई वरुणा के नाम धरना रत हो चला है। गंगा आन्दोलन लगभग देशव्यापी आन्दोलन बन चला है,नेता दलीय सीमाओं से परे गंगा के नाम पर आगे आ संतों की मुहीम को सहारा देने का काम कर रहे हैं,शिक्षक से लेकर वकील से लेकर समाज का हर एक तबका इस अभियान से जुड़ता नजर आ रहा है।
इस आन्दोलन गंगा अभियान के लोगो द्वारा गंगा की अविरलता की मांग की जा रही है। अविरलता जहाँ तक मेरी समझ है कोई स्पष्ट विषय नहीं है,अब सवाल उठता है की गंगा अविरल हो कैसे। टेहरी में बाँध बना है क्योकि हमें बिजली चाहिए ,क्या हम बिजली से इंकार कर सकते हैं तो शायद नहीं। अब समझिये की जब जब सुविधाओं को केंद्रीयकृत करने की बात होती है तो ऐसी समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। तथ्य बताते है,बनारस के पुरनिये कह कर थक जाते हैं की बनारस में बनारस के काम भर की बिजली का उत्पादन खुद कमच्छा के पावर प्लांट पर कर लिया जाता था ,जरुरत पड़ने पर आस पास के छोटे शहरो के लिए भी बिजली की व्यवस्था कुछ समय के लिए बनारस कर देता था ,बी एच यूं अपने काम भर के बिजली का उत्पादन खुद करता था ,अब जब केन्द्रीय नीति बनेगी तो बड़े पैमाने पर चीजो को करने के लिए बाँध की आवश्यकता होगी ही। मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जब पं मदन मोहन मालवीय सरीखे व्यक्तित्व ने उस समय इस व्यवस्था का विरोध किया था तब भी ऐसा किया ही क्यों गया। अब रास्ता है बिजली या पानी। हम लाख उछल कूद मचा ले।
दूसरा गंगा उत्तर भारत की अधिकांशतः नदियों को बंगाल की खाड़ी तक ले जा उनको मुक्ति दिलाती है,मुझे लगता है गलत नहीं होगा यदि हम कहे कि हिन्दू विधान में अंतिम समय में गंगाजल मुह में डालने कि व्यवस्था के पीछे भी तार्किक दर्शन यही रहा है कि जैसे गंगा सारी नदिओं को मुक्ति दिला देती है उसी तरह से उस व्यक्ति को भी पार लगा देगी। यानि गंगा का अस्तित्व छोटी नदियों से भी है अगर ये नदिया लुप्त होती है तो गंगा लुप्त होकर रहेगी,इसको समझना पड़ेगा। इसलिए मेरी समझ से गंगा आन्दोलन के लोगो को असी और वरुणा सरीखे छोटी नदियों कि लड़ाई लड़ने वालों का साथ उन्हें खोजकर देना चाहिए,अगर वे सही मायने में गंगा के प्रति संवेदनशील हैं तो।
नदिओं के खनन कि व्यवस्था कि मांग होनी चाहिए ,तथा पता नहीं क्या हो गया हैइन विद्वानों, को सिर्फ राग अलाप रहे हैं,किसी को सुला रहे हैं किसी को जगा रहे हैं,हम ने खुद सरकार से कछुआ सेंचुरी के नाम पर रोकी गयी बालू खनन प्रक्रिया पर विरोध जताया है तथा सरकार से तत्काल रोक हटाने कि मांग कि हैं। स्थिति ये है कि गंगा शहर तोड़ने कि स्थिति में है घाट तोड़ रही है,बरसात में उससे बचाना मुश्किल हो जायेगा अगर बालू का खनन नहीं किया गया तो।
यह कड़वा सत्य है कि अब तक सरकार ने गंगा के नाम पर अब तक जितना राशि दिया है अगर उसका ईमानदारी से खर्च गंगा पर हुआ होता तो गंगा के हालत कि बात छोड़े नयी गंगा गोमुख से बंगाल तक खोद दी जाती अगर आस्था कि बात न हो तो। अब समझना यह है कि क्या गंगा के सवाल पर राशियाँ किसी और को न मिलकर हमें मिलने लगे अगर सिर्फ इसकी लड़ाई बनकर यह अभियान यह रह जाय तो दुःख होगा ,,अन्यथा आप सभी साथ दे आगे आये छोटी नदियों को बचाएं ,कछुआ सेंचुरी का विरोध करें,नदी खनन कि बात करे जिससे गंगा बचे और हमारी भाषा समझने में सरकार को आसानी हो सके ।

रविवार, 20 मई 2012

जनसँख्या बढ़ने वाले तकनीकी विकास का परिणाम

आज निश्चय ही देश में मेडिकल साइंस ने अपना दायरा बढाया है,इससे मृत्यु दर कम हुई है,या यदि बिना आकड़ो के बात की जाय तो कम होनी चाहिए ,लेकिन दूसरी तरफ जनसँख्या की बेबाकी पर पुनः कोई रोक लगाने के लिए गंभीर नहीं दिख रहा है,जो की नसरी समस्याओं के जड़ में हैं। अब तक तो रोग से इलाज कर मरती जाने बचायी जाती थी जिसका प्रतिफल जैसा भी हो जो भी हो लेकिन बुरा कहने में हर आदमी संकोच करेगा। लेकिन आज सेरोगेसी ,टेस्ट ट्यूब बेबी ,स्पर्म सेलिंग ,जैसे प्रकृति के विपरीत विकास जनसँख्या को कहा पहुचाएंगे इश्वर जाने। इन कृत्रिमता से उत्पन्न संतानों से अभी तक तो मेरी भेट नहीं है,अगर काभी ऐसा पता चले तो वो अध्ययन के विषय होंगे।
पहले परिवार में चार भाई हो तो एक दो की शादी यु ही नहीं होती थी जो जाने अनजाने में जनसँख्या नियंत्रण का कार्य करती थी,लेकी अब सबकी शादी होगी और तो और अगर बच्चे पैदा नहीं होते तो प्रकृति को भी ललकारने की साडी विधा हम जूता लिए है,,,,इश्वर देश को सदबुधही दे ,आज बड़े शहरो में सेरोगेसी इत्यादि सुन रहा हु की कमाने का जरिया बनता जा रहा है,ऐसी आधुनिकता और ऐसे विकास को शत शत नमन।