निश्चय ही किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र का संविधान उस देश की दशा और दिशा तय करता है साथ ही यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इसका निर्माण जनता के लिए होता है न कि सरकार के लिए। एक लोकतान्त्रिक देश में जनता सर्वोपरी होती है चाहे वो कोई राजनेता हो या कोई राजनयिक सभी को पद और प्रतिष्ठा कि शपथ दिलाते समय औपचारिक तौर पर इस तथ्य को याद दिलाया ही जाता है कि उसके कार्यों का एक मात्र उद्देश्य जनसेवा है । यह बात दीगर है कि हमारे थेथर दिमाग कि यह आदत बन चुका है,हम कशमों पर ध्यान देने कि जरूरत नहीं समझते हैं।
आज देश में भ्रष्टाचार एक अहम् सवाल बना हुआ है। इस सवाल ने महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव से उठाकर अन्ना हजारे को अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बना दिया। लेकिन कभी भी किसी सवाल पर अंधानुगाम होना देश को गर्त में पहुचाने सरीखे है। अन्ना के साथ आज लाखों कि भीड़ है,लेकिन क्षोभ कि वे एक ऐसे ईमानदार कहे जा सकते हैं जो बेईमानों से घिरे हैं। उनके साथ जितने भी लोग हैं क्या अन्ना साहब कभी उनसे हाथ उठवा कर कश्में खिलवाये आप लोग न एक रूपये किसी को रिश्वत दोगे न एक रूपये किसी से रिश्वत स्वरुप लोगे,तो शायद नहीं। दूसरी चीज अन्ना का और वैचारिक समर्थन किया जा सकता है लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि क्या इस देश में अन्ना वाला लोकपाल आने से भ्रष्टाचार रुक जायेगा तो शायद नहीं,। ऐसा कहने के पीछे अन्ना कि साफगोई पर शक नहीं बल्कि अपनी मिटटी और खून पर अविश्वास है। जिन पच्घ-छः सदस्यी लोकपाल के सदस्यों कि बात इलेक्सन या सेलेक्शन से करने की हो रही है क्या सदैव इसकी सुचिता की गारंटी अन्ना ले पाएंगे तो शायद कत्तई नहीं। और फिर आगे चलकर यह लोकपाल भी संविधान के एनी अनुच्छेदों की तरह धरासायी पाया जायेगा। तरस तो आता है प्रधानमंत्री या देश की सरकार की मूर्खता पर उन्हें तो छूटते इस पर राजी हो जाना चाहिए ये लोग पता नहीं क्यों अन्ना को जिन्ना बनाने पर तुले हैं।
इस लिए अन्ना का मुहीम अगर घर-घर जाकर अखबारी फोटो के लोभ से ऊपर उठ कर लोगों को नैतिक तौर पर तैयार करता की वो न कही किसी को घूस देंगे न लेंगे तो शायद मैं भी पूरी तरह से उनके साथ होता क्योंकि इसमें जितना दिन बीतेगा उतनी सफाई होती जाएगी,लेकिन लोकपाल जितना पुराना होगा उतनी गन्दगी की पूरी-पूरी संभावना है।
अतएव हर उस राष्ट्रप्रेमी से कर बध्ह अनुरोध है कि अंधानुगाम से बचें और खुद को और अपने लोगों को उनके सबसे प्रिय और मूल्यवान कि कश्में दिलाये कि वो कही से भी भ्रष्टाचार की गंध नहीं बर्दाश्त करेंगे,कही धरना और कहीं प्रदर्शन कि कोई जरूरत नहीं है,और हर आदमी अन्ना होगा ,किसी अन्ना के साथ पिछलग्गू बनने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
जय हिंद..............
बुधवार, 17 अगस्त 2011
बुधवार, 3 अगस्त 2011
स्लाट वाक की नौटंकी भारतीय महिलाओं के लिए नहीं
भारत का एक दर नकलची इतिहास रहा है। अगर कोई बीच सड़क खड़ा होकर अपनी गर्दन असमान की तरफ कर देखना शुरू कर दे तो दस मिनट बाद एक लम्बी कतार बिना ये जाने या पूछे की असमान में है क्या ऊपर गर्दन किये नजर आएगी। महिलाओं का आन्दोलन स्लाट वाक अगर अमेरिका या ब्रिटेन में होता है तो ये बात समझ में आती है लेकिन भारत जैसे सांस्कृतिक देश में यह आवाज बेमानी लगती है। खास कर तब और क्षोभ होता है जब काफी पढ़ी लिखी और सुलझी मानसिकता की छवि रखने वाली महिलाएं सिर्फ महिला से जुड़े सवाल के वजह से इस बात की पक्षधर दिखती हैं वस्त्रों का विचारों पर असर नहीं पड़ता । इसका ये मतलब कत्तई नहीं है की मैं उनका विरोध और महिलाभक्षियों का पक्षधर हूँ । आज भी जो लोग चाहे वो पुरुष समाज के हों या महिला दुसरे घर की लड़की को कम वस्त्र में देखना तो पसंद करते हैं पर अपने घर की लड़की को कौन कम वस्त्र पहना नुमाईस का निमंत्रण देगा। इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ गलत ही नहीं लगाया जाना चाहिए महिला किसी भी सभी समाज की गहना होती है और गहनों को सहेज कर और सलीके से रखा ही जाता है ,अगर विदेशी ऐसा करते है तो वो सिर्फ महिला को महिला ही समझते हैं या उनके यहाँ गहने सजोने का चलन नहीं रहा है,या हमारे यहाँ गहनों की पूजा भी होती जो उनके यहाँ नहीं होती है इसलिए ये लड़ाई उनके परिवेश में भले उचित हो पर हमारे देश में तो कत्तई उचित नहीं हो सकती।
वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग इसका समर्थन इस तर्क के साथ कर रहे हैं कि हमारा इतिहास नंगा रहा है,ये तर्क तर्क सांगत बस इसलिए नहीं लगता क्योंकि दुनिया का समाज एक साथ चला था ,शुरूआती दौर में कपडे के अभाव का नंगापन रिश्ते नहीं पनपने देता था जो असभ्य होने कि सबसे सटीक परिभाषा कही जा सकती है। इस लिए कम कपड़ों का पहना जाना असभ्यता को निमंत्रण भी हो सकता है। एक तर्क से सहमत तो होता हूँ कि कपडा नहीं सोच बदलने कि जरूरत है ये शत-प्रतिशत सही है पर ये बात पुरुष ही नहीं स्त्री सोच पर भी लागू होती है,वो अपना सोच कपड़ों के प्रति क्यों नहीं बदलती,और अगर हमें दूध ही पीने है तो क्या जरूरत है कि मधुशाला में बैठ कर पीयें।
जिस तरह कि घटनाये महिलाओं के सन्दर्भ में हो रही है वो चिंता का विषय तो है लेकिन इसको मशाला बनाने के बजाय सार्थक मनन कि जरूरत है न कि अख़बारों में टैटू लगा कर फोटो छपवाने की।
वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग इसका समर्थन इस तर्क के साथ कर रहे हैं कि हमारा इतिहास नंगा रहा है,ये तर्क तर्क सांगत बस इसलिए नहीं लगता क्योंकि दुनिया का समाज एक साथ चला था ,शुरूआती दौर में कपडे के अभाव का नंगापन रिश्ते नहीं पनपने देता था जो असभ्य होने कि सबसे सटीक परिभाषा कही जा सकती है। इस लिए कम कपड़ों का पहना जाना असभ्यता को निमंत्रण भी हो सकता है। एक तर्क से सहमत तो होता हूँ कि कपडा नहीं सोच बदलने कि जरूरत है ये शत-प्रतिशत सही है पर ये बात पुरुष ही नहीं स्त्री सोच पर भी लागू होती है,वो अपना सोच कपड़ों के प्रति क्यों नहीं बदलती,और अगर हमें दूध ही पीने है तो क्या जरूरत है कि मधुशाला में बैठ कर पीयें।
जिस तरह कि घटनाये महिलाओं के सन्दर्भ में हो रही है वो चिंता का विषय तो है लेकिन इसको मशाला बनाने के बजाय सार्थक मनन कि जरूरत है न कि अख़बारों में टैटू लगा कर फोटो छपवाने की।
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