गुरुवार, 23 सितंबर 2010

कहीं और कोई चापलूसी राष्ट्रगान न बन जाये

भारत ऐसा अतिथि देवो भव का नारा लगाता है की जो भी अतिथि यहाँ आता है फिर उससे अतिथि तुम कब जाओगे कहना ही पड़ता है और अक्सर बात इतने से नहीं बंटी और हमें लाठी डंडे से लड़ कर भगाना पड़ता है। चाहे ओ अंग्रेज रहे हो या मुग़ल सबको यहाँ की मती ने जो प्रेम प्रसादी बाटी कि वो यहाँ राज्य करने कि जिद ठान लिए। हमारे विद्वान महापुरुष तो गुलामी में भी उनका गुणगान करने से बाज नहीं आते थे। बाद में उनकी कविता को राष्ट्रगान बना दिया जाता है । यह मेरी राष्ट्र और राष्ट्रगान के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है बल्कि एक डर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कि इतनी आगवानी करने में हम लगे हुए हैं कि कही किसी कवि ने कोई बढ़िया कविता लिख ही दी तो आफत ,कल उसे कहा रहा जायेगा। ओबामा तो आग उगल रहे है कि भारत सबसे बड़ा स्मगलर है उनके लिए हम दिया सलाई में रखे जाने वाले कपडे बुन रहे हैं । इतना भी ठीक नहीं भाई। ....................

पुलिसिया नाटक से तंग लोग कहीं वाकई विद्रोह न मचाने लगें

२४ सितम्बर को अयोध्या मामले का फैसला आने का इंतज़ार पता नहीं जनता कर रही है या नहीं लेकिन पुलिसवालों को इसका इंतज़ार लग रहा है बड़ी बेसब्री से है। अपने प्रचार काटो ये हद कर दिए। कहीं दरोगा को विद्रोही नेता बना कर दबोचने की प्रैक्टिस तो कहीं पुलिस के बड़े अधिकारीयों द्वारा अपने सिपाहियों पर पत्थर मार कर उनकी काबिलियत आकना जहाँ एक तरफ प्रदर्शन की अति है ,वहीं दूसरी तरफ वर्दी पहनाने के यहाँ के तरीके पर भी प्रश्नचिन्ह है। की क्या भर्ती के बाद इन सिपाहियों को ट्रेनिंग नहीं दी जाती है। अगर एकाएक कोई आफत खडी हो गयी तो ये काठ के सिपाही क्या करेंगे।
वैसे तो मायावती सरकार अपने हिम मत के डींगे हांके जा रहे हैं लेकिन परोक्ष रूप से स्कूल,कालेज या हॉस्टल घूम-घूम कर बंद कराये जा रहे हैं। अगर ये कहा जाय कि जनता कुछ भी नहीं करने जा रही इन पुराने मुद्दों पर लेकिन अगर कुछ अस्वाभाविक घटना निर्णय आने के बाद होती है तो उसके लिए शत-प्रतिशत बहन जी के सिपहसालार जिम्मेदार होंगे। जिनको जनता कि रहनुमाई तो छोडिये अपनी वर्दी बचाना मुश्किल हो जायेगा।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

छात्र-युवा महापंचायत ,क्या खोया क्या पाया ?

१४ सितम्बर ,भारतीय हिंदी दिवस .और ज्ञानपुर का छात्र युवा सम्मलेन संयोग से एक ही दिन था या जान बूझ कर रखा गया था ,भगवान ही जाने। मेघ के प्रसन्न होने से कार्यक्रम गीला होने का बहाना भी मिल ही गया। लेकिन मै चाह कर भी चीजों को बड़े सकारात्मक नजरिये से नहीं देख पाया। वहां मंचासीन नेता जी लोग ज्यादा थे श्रोता कम थे ,देर से पहुचने और श्रोता गण की कमी देख मै श्रोता बन कर ही कार्यक्रम के सफलता को निहारना ज्यादा उचित समझा। अतः श्रोताओं की कतार में जा बैठा,साथ में हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र राजनीति के अपने जमाने के थिंक टैंक रहे चौधरी राजेन्द्र जी थे वे भी नीचे श्रोताओं में ही बैठने पर अड़े थे। हालांकि संचालन कर रहे किसी व्यक्ति से माइक लेकर अरविन्द शुक्ल ने हम लोगों को कई बार मंच पर आमंत्रित किया,लेकिन किसी द्वेष वश नहीं यूं ही हम लोग नीचे ही रहे । इलाहाबाद के छात्रनेता रहे अजीत यादव का भाषण चल रहा था की पानी जोर से आ गयापूरा पंडाल खाली हो गया ,श्रोता बस दो ,मैं और चौधरी राजेन्द्र जी। कई बार संचालक के कहने और अनुरोध के बाद हम लोगों को कहना पड़ा कि जब आप पानी से भाग रहे हो भाई तो आन्दोलन करने जा रहे हो ,अभी गोली चल जायेगी तो क्या करोगे?रही सही भाषण का निष्कर्ष फिर मैंने देखा वही था जो छात्र राजनीति के लोगको बीसों सालों से करता देख रहा हूँ। किसी ने किसी को पचासों टिकट दिलाने कि हैसियत में लाने का प्रयास किया तो किसी द्वारा मंच की मर्यादाये भी तोडी गयीं । एक विकास तिवारी जो इलाहाबाद से आये थे कि बाते काफी तर्क संगत और विचारणीय समझ में आयीं ,बाकी सबका सिर्फ स्वार्थ था।

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

अयोध्या मसले के आने वाले फैसले में फिर भविष्य तलाशने लगे अस्तित्व के खतरे से जूझते लोग

बाबरी मस्जिद विवाद लगभग दम तोड़ चुका था । उसके फैसले का न तो किसी सामान्य जनता को इन्तजार था ,न तो कोई रूचि। लेकिन इसको मीडिया द्वारा इतना प्रचारित करा दिया गया कि लोग अपना फिर दिमाग खपाना शुरू कर दिए। सच यह है कि अगर चुपचाप यह निर्णय सामान्य ख़बरों कि तरह अखबार में आजाता तो शायद किसी का ध्यान भी नहीं जाता ,बाकि प्रतिक्रिया कि तो बात हो छोडिये।
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया पहले से ही इतनी मुस्तैदी और हो हल्ला दिखाया जाने लगा कि न चाहते हुए भी लोग कुछ कर बैठे। ऐसे ही है जैसे किसी के मरने की तैयारी में पहले से ही कफ़न खरीद कर रख लिया जाय। अगर कोई हो हल्ला होता है,कोई विवाद होता है तो सबसे पहले मीडिया और चाँद नेताओं को जो पहले से ही शव-यात्रा के लिए कमर कास रहे हैं,उनको हमेशा-हमेशा के लिए जेल की काल कोठरी में डाल देना चाहिए जिससे फिर किसी जीवित के मरने के तैयारी करने की जुर्रत और हिम्मत जुटाने में इनकी रूह काप जाय ।

रविवार, 5 सितंबर 2010

किसानो के देश भारत में किसानो की बदहाली

बचपन से ही एक रटा -रटाया जूमला पढता चला आ रहा हूँ कि भारत एक कृषि प्रधान देश है ,जिसकी सत्तर प्रतिशत जनसँख्या आज भी गावों में निवास करती है ,जिसकी आजीविका कृषि पर निर्भर है। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि देशवासियों का अन्नदाता भी किसान ,सीमा पर देश कि सुरक्षा के लिए सीने पर गोलियां भी खाता किसान ,फिर भी उस किसान कि ये बदहाली देश में क्यों है कि वो कभी अपने अधिकारों कि लड़ाई में सरकार कि लाठियां खाता है तो कभी गोलियां। शायद देश के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का यह नारा कि "जय -जवान,जय-किसान "कहीं न कहीं इसी मनोभाव से प्रभावित था।
आज अलीगढ़ के जमुना एक्सप्रेस कि बात चल रही थी वह किसानो के साथ जुर्म हुआ,बाद में राजनैतिक पार्टियाँ अपनी रोटी-सेकने के चक्कर में उनके साथ हो लिए। कभी सिंगूर तो कभी नैनो का विवाद। ये दर्शाता है कि आजादी के तिरसठ सालो बाद भी हमारे देश में किसानो के जमीन के अधिग्रहण से सम्बंधित कोई पुख्ता नीति नहीं बनी है। गुजरात में तो ऐसे विवाद नहीं होते कारण शायद वह जब ऐसे कारखाने या किसी तरह के प्रोजेक्ट लोअगाये जाते है तो किसानो के साथ बैठ कर सलाह मशविरा किया जाता है,उन्हें उनकी जमीन का उचित मुआवजा दिया जाता है। तो बाकी के प्रान्तों में ऐसा क्यों नहीं होता। हाँ एक बात जरूर है कि इसमें किसानो को भी अपनी जिद छोड़ इतना अधिक मांग नहीं रखनी चाहिए जो देय न हो।
देश के राजनेताओं का हाल यह है कि एक -एक सन्देश यात्राओं में करोड़ों रूपये खर्च हो रहे है और किसानो को मूर्ख बना उनके स्वार्थ के साथ टोपी पहनी जा रही.है। एक कांग्रेसी मित्र ने बताया जो प्रदेश पदाधिकारी भी है कि राहुल गाँधी के अहरौरा आगमन पर दस करोड़ खर्च हुए थे। क्या राहुल गाँधी ये दस करोड़ अगर दो चार महीने वही अहरौरा में रुक कर ये पैसा अपने हाथ से वहा के विकास में लगा देते तो क्या उनको अलग से कोई सन्देश यात्रा भी करनी पड़ती क्या?लेकिन नहीं इनको कितनी कलावती के सूखी रोटी को संसद में प्रचारित करना है,वह कैसे होगा। रत कर भासन देने वालों से आखिर कितनी उम्मीद कि जाय ।
अतः जिसका खा रहे हो उसका तो गावो भी नेताओं ।