बुधवार, 3 अगस्त 2011

स्लाट वाक की नौटंकी भारतीय महिलाओं के लिए नहीं

भारत का एक दर नकलची इतिहास रहा है। अगर कोई बीच सड़क खड़ा होकर अपनी गर्दन असमान की तरफ कर देखना शुरू कर दे तो दस मिनट बाद एक लम्बी कतार बिना ये जाने या पूछे की असमान में है क्या ऊपर गर्दन किये नजर आएगी। महिलाओं का आन्दोलन स्लाट वाक अगर अमेरिका या ब्रिटेन में होता है तो ये बात समझ में आती है लेकिन भारत जैसे सांस्कृतिक देश में यह आवाज बेमानी लगती है। खास कर तब और क्षोभ होता है जब काफी पढ़ी लिखी और सुलझी मानसिकता की छवि रखने वाली महिलाएं सिर्फ महिला से जुड़े सवाल के वजह से इस बात की पक्षधर दिखती हैं वस्त्रों का विचारों पर असर नहीं पड़ता । इसका ये मतलब कत्तई नहीं है की मैं उनका विरोध और महिलाभक्षियों का पक्षधर हूँ । आज भी जो लोग चाहे वो पुरुष समाज के हों या महिला दुसरे घर की लड़की को कम वस्त्र में देखना तो पसंद करते हैं पर अपने घर की लड़की को कौन कम वस्त्र पहना नुमाईस का निमंत्रण देगा। इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ गलत ही नहीं लगाया जाना चाहिए महिला किसी भी सभी समाज की गहना होती है और गहनों को सहेज कर और सलीके से रखा ही जाता है ,अगर विदेशी ऐसा करते है तो वो सिर्फ महिला को महिला ही समझते हैं या उनके यहाँ गहने सजोने का चलन नहीं रहा है,या हमारे यहाँ गहनों की पूजा भी होती जो उनके यहाँ नहीं होती है इसलिए ये लड़ाई उनके परिवेश में भले उचित हो पर हमारे देश में तो कत्तई उचित नहीं हो सकती।
वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग इसका समर्थन इस तर्क के साथ कर रहे हैं कि हमारा इतिहास नंगा रहा है,ये तर्क तर्क सांगत बस इसलिए नहीं लगता क्योंकि दुनिया का समाज एक साथ चला था ,शुरूआती दौर में कपडे के अभाव का नंगापन रिश्ते नहीं पनपने देता था जो असभ्य होने कि सबसे सटीक परिभाषा कही जा सकती है। इस लिए कम कपड़ों का पहना जाना असभ्यता को निमंत्रण भी हो सकता है। एक तर्क से सहमत तो होता हूँ कि कपडा नहीं सोच बदलने कि जरूरत है ये शत-प्रतिशत सही है पर ये बात पुरुष ही नहीं स्त्री सोच पर भी लागू होती है,वो अपना सोच कपड़ों के प्रति क्यों नहीं बदलती,और अगर हमें दूध ही पीने है तो क्या जरूरत है कि मधुशाला में बैठ कर पीयें।
जिस तरह कि घटनाये महिलाओं के सन्दर्भ में हो रही है वो चिंता का विषय तो है लेकिन इसको मशाला बनाने के बजाय सार्थक मनन कि जरूरत है न कि अख़बारों में टैटू लगा कर फोटो छपवाने की।

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