सोमवार, 31 दिसंबर 2012

                       गत की पूर्णाहुति आगत का संकल्प

हर बरस के बीते सालों  की तरह वर्ष 2012 की पूर्णाहुति भी  समय के सचल भाव का बोध करा रही है ।अंततः यह भी हमारा साथ छोड़ने की जिद ठान  आज आ धमका है।क्या खोया क्या पाया पर अगर तटस्थ  विचार करने की गलती किया जाय तो हम पायेंगे कई प्रदेशों में सत्ता परिवर्तन हुआ ,कही गेरुआ बढा  तो कही टोपी चढी ,पर  देश की टोपी हर हाल में उछली इतनी उछली की अंत रुआंसा हो गया।लोकतंत्र में तंत्र छाया रहा लेकिन लोक का सर्वथा अभाव रहा ।रसोई भारी  हुई और जनता अपने चुनाव की आभारी हुई ।रेत पर नाम लिख मोमबत्तियां जलाना परचम पर रहा।खूब लूटा गया खूब लुटाया गया ,जनता तमाशबीन थपोड़ी बजाने से बाज भी नहीं आई।
देश को एक आम मिला मौसमी से बरहोमासी बन गया।अब देखना है आम के कोल्ड स्टोरज उसे कितने दिनों तक सजो  पाते हैं।अंतिम महीने में फिर देश गरम हुआ गर्माहट की वजह अंतर्राष्ट्रीय शर्मसारक बना ।नदियों में बाढ़ आयी कही गंगा में ,कही गोमती में ,कही जमुना में तो बनारस में असि और वरुणा  भी उफनाने से बाज नहीं आयी।असि तो कुछ लोगों का अंत देश से भी बुरा की और शुरुआत भी रक्तचाप से ही गुजरने देगी।मनरेगा चहका पेड़ भले न लगे गड्ढे ही गड्ढे खुदे।पैसे पेड़ पर नहीं उगते जैसी नसीहत जनता को मुफ्त में मिली।देश के प्रथम नागरिक को विश्वविद्यालयों में हुंकार भरनी पड़ी कि  विश्वविद्यालयों से चेतना निकालनी चाहिए ,,छात्रों को छात्रों का मंच मिला ,बीएचयूं में फिर भी प्रणब दादा के शब्दों की चेतना को रोकने का पूरा पूरा प्रयास हुआ ,अभी भी जारी है।इन्तजार करना है आगे आने वाले 2013 में रसोई गैस कौन चौकाने वाली खबर देती है ,गाय खरीदिये दूध पीजिये ,उपले तैयार कीजिये टाइल्स तोडिये ।पान दुकान भी भी शैक्षणिक डिग्रियां बाँट  सकती हैं स्वागत के लिए हाथ में कटोरे की व्यवस्था की तत्परता की जरुरत है ।पड़ोसी कसाब गया घरेलू कसाबों की काफिलों का क़तार लिफ्ट देने को तैयार मिलेगी ।
फिर भी हम आदी हैं बन्दर क्या जाने आदी का स्वाद,,हम मनुष्य है वो भी भारतीय मनुष्य ,,मना के ही छोड़ेंगे अंत और प्रथम को ,,,,,अंततः गत की पूर्णाहुति हुई आगत का स्वागत हमारा फर्ज मिश्रित धर्मं है जिसे हम निभाते रहे हैं ,,,,एक दो बाते हों तो संकल्प लें ,,,ढेर सारे  अनगिनत संकल्पों के साथ फिर नव वर्ष के मंगलमय होने की कामना आप सबके लिए करने की गुस्ताखी करता हूँ ....।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2012

असि नदी के पुनर्जीवन हेतु प्रशासन ने उठाया कदम 

काशी का वाराणसी नाम जिस वरूना और असि नदी के नाम पर सृजित हुआ है ,आज वो दोनों ही नदिया अतिक्रमण और प्रशासनिक लापरवाही की   भेंट चढ चुकी है ।जि स में असि तो लुप्त प्राय हो गयी है।जब हम लोगों ने इस पर काम करना शुरू किया था तो महीनो बीत गए लोगों को विश्वास दिलाने में की यही वो नदी है जिसने इस शहर को वाराणसी नाम दिया है।प्रशासन के भी हाथ पाँव फूलने लगे थे ,कारन नदी का रास्ता तक प्रशासनिक अनदेखी और व्यक्तिगत स्वार्थों में निगल लिया गया है।कई लोगों ऐतराज भी जताया ,एक साथी ने तो इसे अंगरेजी का जुमला बाचते हुए ,वाइल्ड गूज चेज ,,,भी कहा।लेकिन जब भी उस नदी की तरफ निगाहे जाती ,मन खुद को कोसने लगता था ,,साथियों की मेहनत्त और मनोंनत किये रहना अब रंग लाया।लेकिन सर्कार 8.80 करोड़ सिर्फ असि के नाम पर देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री  नहीं कर सकती ।डर भी है की जनता विरोध करेगी और गंगा की तर्ज पर वे फिर वापस चले जायेंगे।
एक सवाल यहाँ उठता है की जब भी नदियों के उद्धार या सुधार  की बात होती है तो करोड़ों में पैसा आता है ,और किसी की कोठी तनती है किसी के कार के काफिले बढ़ जाते हैं लेकिन नदी वैसी की वैसी ही रह जाती है ।एक मित्र ने  कमेन्ट किया देखते रहिये ये आठ नौ करोड़ भी हजम कर जायेंगे लोकशाह और उनके चट्टे  बट्टे।मैंने उन्हें जवाब देकर तो संतोष पा लिया की,, अगर ये गलती वो लोग असि के सन्दर्भ में करते हैं तू इस बार उनका हाजमा भी खराब होगा मित्रवर ,,,लेकिन मैं अपनी जुबान रख पाऊं उसमे आप सभी खास कर काशी वासियों का सहयोग अति महत्वपूर्ण है, आवेदित है , जिससे किसी कुर्सी पकड़ का कोलेस्ट्राल इस पवित्र नदी के धन से न बढ़ने पाए।
आशा ही नहीं विश्वास है की आप सबका शुभ आशीष मिलेगा ,,,,,, 

बुधवार, 26 दिसंबर 2012

अब कोई सिद्धार्थ गौतम बुद्ध नहीं बन सकता

एक सवाल उठता है राष्ट्रपति महोदय की यात्रा के समापन के बाद की क्या अब किसी सिद्धार्थ को हम गौतम बुद्ध नहीं बनाने देंगे।जब भी देश का कोई बड़ा नेता आता है तब रातोंरात सड़के बन जाती हैं,गमले में नकली रजनीगंधा महका दिए जाते हैं ,हर जगह रोड लाईट लग जाती है ,यथार्थ से उनको इतना दूर रखा जाता है मानो अगर वे हकीकत देख लेते है तो कौन सी तबाही आ जायेगी ,ये सारे लोग सुद्धोधन की भूमिका में हो जाते हैं ,और आज के सिद्धार्थों का किसी चन्ना जैसे सारथि पर न विश्वास रहा न ही वैसा सम्बन्ध।और जब उनको सब कुछ चमचमाती हुई ही नजर आअति है तो फिर किस बात की गला फाडू रोना रोते हो आप सभी ।क्या संतरी क्या मन्त्री सारे लोग रंगाई पुताई में लगे होते है ।पहले जो सड़के दो दो चार साल पर बनती थी और फिट रहती थी आज वो आये दिन किसी वीआईपी के आने पर बनती रहती है पर उसके जाने के ठीक बाद धुल बन जाती हैं ।ईमानदारी की चुरकुन भी नहीं लगती और नियति के अभाव में बने इन सडको की मियाद से क्या  करेंगे आप?अतः आज भी  हो सकता है सब कुछ लेकिन जैसे ही सड़कों पर जहा आये दिन कचरे बिखरे रहते हैं वहां जब किसी वीआईपी के आने पर जब झाड़ू और पोछे की बौछारें होती है तो निश्चित उनका विरोध इस कदर  चाहिए की आने वाले मुखिया को हकीकत के दर्शन हो सकें।क्यों की लोकशाह कभी सही कानो और आँखों तक जनता की पीड़ा को पहुचने नहीं देना चाहते ,अतः अब कोई गौतम बुध्ह नहीं बनाने दिया जायेगा ,,,कही सारनाथ भी उनसे खली न हो जाए यह भय है।
दादा कबहु न आना मेरे देश

कल  देश के महामहिम राष्ट्रपति महोदय का बनारस आगमन काशी  हिन्दू विश्वविद्यालय  में महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की 150 वीं जयंती पर आयोजित विशेष दीक्षांत समारोह के अवसर पर हुआ था।पूरा बनारस चील्ह पों से ग्रसित था ।पता नहीं ये दिल्ली के गर्माहट का भय था या जो भी लेकिन लोगो की दबी जुबान आवाज तो सुनाई पड  ही रही थी कि जितना सुरक्षा व्यवस्था महामहिम शब्द का आडम्बर हटाने की कवायद करने वाले माननीय राष्ट्रपति जी के लिए थी पुरे देश से सिपाही लाठी डंडे से लैश ,उनके लिए लगाये गए थे ,अगर उसका हजारवा हिस्सा भी सामान्य आदमी को मिल जाता तो शायद दिल्ली को इस ठंडी में गरम होने का अवसर नहीं मिलता।
हर तरफ रोक थाम कही एम्बुलेंस रोके गए थे जिसमे रोगियों की तड़प थी तो कही सटीक महामना के प्रतिमा के सामने एक शव यात्रा को रोका  गया था ,महामना की आडम्बर हीन  जीवन पर इस महान  आडम्बर का लाजवाब तड़का देखने लायक था।एक बुजुर्ग को साईकिल समेत पुलिस कर्मियों ने उठा कर जब चौराहे से किनारे किया तो उनका धैर्य जवाब दे दिया उनकी बद्बदाहत थी की  ,,उ कहे क नेता जब उन्हें जनता से ही इतना भय हौ ,काश अपने से उतर के आगे बढ़ के सबसे मिलते ,,,बात भारत में तो सम्भव तो नहीं है लेकिन इतना जनता त्रस्त पहले कभी किसी राष्ट्रपति या  के आने पर नहीं हुई थी,कुछ लोगों का कहना था की ये दिल्ली  में अचानक उपजी गर्मी की देन है ,ये  जिसकी भी  देन  हो लेकिन इतनी जलालत पहली बार देखने को मिली मनो पूरा बनारस चिल्ला रहा था की अगर ऐसे ही आना है तो ,,दादा कबहु न आना मेरे देश ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

                   
                               चाय की महानता .............

इस देश में चाय की भी   अपनी एक संस्कृति है  जिसकी अनगिनत  महान उपलब्धियां  है।ऐसे में जब हम बनारस शहर के होते हैं तो बनारसी संस्कृति में चाय का तड़का क्या अमेरिका   क्या जापान सबको अपने में समेट  लेता है ।यहाँ  चाय दुकानों जिस पर देश विदेश के मुद्दों पर चर्चाएँ होती हैं,वो अगर शहर के एक छोर से शुरू की जाय तो महामना की तपोस्थली  द्वार  स्थित टंडन टी  स्टाल से शुरू होती है जो कभी समाजवादी नेताओं की सिद्धपीठ होती थी, उसके ठीक  सामने अब जहाँ आज प्रेस की ईमारत खडी है मैनेजर की चाय दुकान हुआ करती थी,उसके आगे चौराहे   पर फक्कड़ की चाय दुकानं और दाल  में घी की तरह केशव पान ,आगे दूध और काम रोक कर   चाय पिला   कर  लोगों की राय सुनने और अपनी कहने   वाले मन्ना सरदार  ,आगे बढे तो अस्सी की चाय दुकानों चाहे पप्पू हो या कोई ,ये महज चाय दुकान नहीं राष्ट्रीय मंच हैं,आगे  बढिए तो इसी तर्ज पर सोनार पूरा , कमच्छा , गोदोलिया ,मैदागिन ,तेलियाबाग ,इंग्लिशियालाइन  फूल मंडी  के  सामने ,सरीखे ऐसी कई जहाँ  स्वस्थ स्वस्थ चर्चाएँ होती हैं ।लेकिन तब भी चाय की महानता  के प्रति इतना गंभीर नहीं हो पाया था।
लेकिन इसी चाय दुकान की उप्लब्धि गुजरात के तिबारा चुने मुख्यमंत्री माननीय मोदी जी भी हैं। बनारस न सही गुजरात ही लेकिन चाय दुकान की उपलब्धि है।कल एक स्व वित्त पोषित नेता जी ने कहा की यार काँग्रेस   गुजरात में  हुई इसका  नहीं ,बीजेपी   आगे  गयी इसका भी क्षोभ नहीं पर मोदी साहब जैसे का इतना महिमा मंडन  अपच कर रहा है। दो सीनियर सिटिजन की तरफ अग्रसर  की  का जिक्र कर   देना लाजमी होगा एक ने कहा की मोदी क आगे  जाना साम्प्रदायिकता को बढ़ावा है ,तो दुसरे ने छूटते ही कहा अब साम्प्रदायिकता जैसे  शब्द छोडिये नहीं तो हो  इतिहास हो जायेंगे।  इतिहास बिना भूगोल कैसे बनेगा ।
तब तक पीछे से एक सज्जन    कलमाड़ी भी चाय  काफी  वाले थे ।एक और ने   टांग अदाई बोले कहा इ तुलना टीक नहीं है।खैर मैं जब अहलूवालिया साहब ने चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने की हुंकार भरी थी तो मैंने बनारस से  उनका विरोध जताते हुए मठ्ठे  को राष्ट्रीय पेय बनाने की गुहार की थी,पर आज लगता है चाय राष्ट्रीय नहीं तो राजनैतिक पेय घोषित हो जाना चाहिए।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

                          क्या अमीरी रेखा भी कभी तय होगी

भारत जैसे स्वचालित राष्ट्र में गरीबों के लिए तो आये दिन हदें तय की जाती हैं,लेकिन क्या अमीरी की भी कोई रेखा तय करने की जरुरत नहीं समझी जानी चाहिए।गरीब कितने में खा सकता है कितने में सो सकता है कितने में उसके बच्चों की परवरिश हो सकती  है ये सारी हदें तो तय की जाती हैं लेकिन क्या रातो रात महलों   में तफ्बील हो रही झोपड़ियों की कोई सीमा बद्धिता होगी।सच तो यह है की गरीबी  रेखा नहीं देश में अमीरी रेखा  की जरुरत पर बहसेआम होनी चाहिए।
एक ग्राम प्रधान जब चुनाव लड़ता है तब की उसकी आर्थिक स्थिति और जीतने के बाद पर भी चर्चा जरुरी है ,ये पद जैसे जैसे ऊपर बढ़ता है ,आर्थिक विकास उतना ही उन्नति शील होता है।साइकिल मोटर साइकिल की जगह स्कोर्पियो ले लेती है।समाजसेवा और राजनीती को अनमोल रोजगार समझा जाना कत्तई गलत नहीं है।अम्बानी के पास कितना रहेगा ,ये भी तय होगा 
  

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

बीएचयूं प्रशासन की हेकड़ी
युवा मन जब आंदोलित होता है तो बड़े से बड़े को बौना साबित कर देता है।कारन वह निश्छल होता है।काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में छात्र संघ चुनाव पर लगे ताले को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जब तत्काल ख़ारिज कर छात्र संघ चुनाव शीघ्रादिशीग्र संपन्न कराने  का आदेश पारित कर दिया तो भी विश्वविद्यालय प्रशासन की हेकड़ी काबिले तारीफ है ।ये लोग देश में लोकतंत्र का पाठ पढवाते है पर अपने परिसर में लोकतंत्र को पचा पा रहे हैं।कारन इन्हें भय है की इनकी लूट धराशायी होगी ।ये पकडे जायेंगे ,पकडे तो आज भी जाते हैं लेकिन छात्रों के इस सशक्त मंच के न होने से ये मुक्त ही नहीं उन्मुक्त भवरे  बन धन पुष्पों पर कुंडली मार  बैठे हैं।इस मदमस्त हाथी पर छात्र संघ कोचवान न बन बैठे इसका इनको भय है,और शुरू से रहा है।
   कल कुछ पुराने साथियों से चर्चा हो रही थी जिसमे एक बात निकल कर आयी जिसका जिक्र कर देना उचित है ,उनका कहना था की छात्र संघो की शुचिता की भी तो कोई गारंटी नहीं है।एक समय के बाद ये मंच भी ठेके कोटे की दर्बारगिरी  में लग जाता है।चुनाव लड़ने के लिए विचार नहीं तलाशे जाते धन उगाही को प्रथम अध्याय बनाया जाता है ।ऐसी बहुतायत बाते आयी,जो बहुत बेदम भी नहीं थी।मैंने कहा छात्र संघो की उपज  कितनी  भी गिरेगी  ,महामना की फोटो देखते ही उसकी आत्मा काँप जाएगी,,पर ये उनकी छाती पर बैठ के मूंग दल रहे है।वैसे भी ये मंच कितना हु गलत होगा उसका प्रतिशत कभी सौ नहीं होगा उसी में वो तारा भी निकलेगा जो अकेले दिशा निर्धारण भी करेगा और प्रकाश पुंज भी होगा,,,,।

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

एक मित्र जो पान  के शौक़ीन आदमी हैं एक दिन कहे ये पान की दुकाने रामायण के चरित्र कालनेमी की तरह लगती है,इतना ही नहीं कुछ मशहूर पान दुकानों के नाम के आगे काल्नेमी जोड़ के वो बोल रहे थे बड़ा सटीक सुनने  में लग रहा था ,फिर भी मुझे उनकी बात हजम नहीं हुई तो मैंने पूछा की वो तो ठीक है लेकिन कालनेमी अच्छे चरित्र के रूप में तो देखे नहीं जाते तो आपने इन लोगो को ये संज्ञा क्यों दी ? इसके पीछे भी उनका बड़ा प्यारा और निर्दोष तरह का जवाब था कि देखिये  जब हनुमान जी संजीवनी लाने  की जल्दीबाजी में थे और सुशेन वैद्य ने इसके लिए निर्धारित अवधी तय की थी तो काल्नेमी ने उन्हें रस्ते में डिस्टर्ब करने की कोशिश की थी जिससे वो सही समय पर न पहुच पाए,अब तो अगर आप पान न भी खाते होंगे तो जान गए होंगे की क्यों पान  दुकानदारों  को काल्नेमी की संज्ञा दी महोदय ने ।
  वो बात अलग है की आज काल्नेमियों की अलग अलग वरायटी हाजिर है आपकी सेवा में , पान वाले और  दुकान वाले क्या खाक कल्नेमीहोंगे असल काल्नेमी तो बड़ी बड़ी अट्टालिकाओं में अप्सराओं के साथ आराम फरमा  रहे है और दहाड़े मार रहे है की ,,,दम  है तो बढ़ आगे,,,
भारतीय विकास की आंधी में अगर सबसे अधिक किसी को झटका लगा तो वो है गाँधी का चरखा ,,,सबसे ज्यादा चरमराय़ी  तो ये स्वावलंबी बनाने वाली मशीन जिसे भारतीय जन मानस ने सिर्फ लकड़ी के औजार ,तकुये और सूत तक सीमित करके देखा ,,,,आज सब कुछ है निःसंदेह लेकिन स्वावलंबन नहीं है ,चरखा एक जीवन पद्धति है जो आपको अमेरिका नहीं देता लेकिन अमेरिका जरुरत भी नहीं होने देता ।

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

अरविन्द केजरीवाल बनने  चले आम 

अरविन्द केजरीवाल ने नयी पार्टी को ,,आम ,,नाम दिया ।राम मनोहर गाँधी आम आदमी बने थे जो की सच में आम नहीं अनार थे ।फिर भी आम आदमी ने उन्हें नहीं स्वीकारा ।बनारस के विधानसभा चुनाव में भी एक प्रत्याशी को हम आम आदमी के करीब कहने की जुर्रत करते है ,कारन सबसे अधिक सभाए ,सबसे अधिक गोष्ठियां,और इतना कम खर्च की आम आदमी भी चुनाव लड़ने का मन बना सके।वो बात दीगर है कि सब कुछ अच्छा होने के बावजूद आम आदमी की स्वीकार्यता वहा  भी नहीं बन पायी ।लेकिन हां आम में भी खास बनने  की हिम्मत में इजाफे के नजरिये से इसे न देखना बेमानी होगी ।
अब आप ही बताएँ  अरविन्द जी का आम आदमी कौन है ?करोडो की धन उगाही शुरू है ,।बदलाव जरुरी है ,लेकिन क्या यही ।अगर यही उनका आम है तो आम कहाँ जायेगा?डर है देवानंद ने एक पार्टी बनाई थी ,,इंडियन नेशनल पार्टी,,उसमे विजयलक्ष्मी पंडित को साथ भी जोड़ा था .........

रविवार, 25 नवंबर 2012

वाराणसी के माननीय जिलाधिकारी ,मीडिया घरों के आदरणीय प्रमुख गणों,एवं जन जन  के नाम खुला पत्र 

            ब्रह्माण्ड की प्राचीनतम नगरियों में शुमार वाराणसी (काशी)सदियों  से मोक्ष दायिनी रही है ।इस वाराणसी के नाम निर्माण में वरुणा और असी दो नदियों का संगम है ।नदियाँ पुरे देश में खस्ता हाल हैं।सरकारें  पैसा खर्च कर रही है लेकिन जन भूमिकाये  हाशियें पर आई हैं ।आज वरुणा और असी दोनों ही नदिया अस्तित्व से जूझ रही हैं ।असी का तो रास्ता तक बदल दिया गया है।
लेकिन ये तथाकथित बुद्धजीवी वर्ग जब नदी को नाला कहना स्वीकार करता है या  है तो हताशा होती है।खासकर असी नदी को आज कई अख़बारों ने नाला संबोधित कर समाचार छापा है,जिससे हमें कोफ़्त है ।अख़बार के लोग अगर ऐसी गलतियाँ करते हैं तो बाकि से क्या उम्मीद किया जाये ।प्रशासन भू माफियाओं की  तरफदारी में लगा है नदियों में बीचोबीच ईमारते तन रही है ।तो भी बनारसी जन गण मन शांत था लेकिन अब  ये घोषित गाली बर्दाश्त नहीं है।
अतः इस पत्र  के माध्यम से देश के नीति नियंताओं तथा  बनारस के माननीय  ज़िला अधिकारी मीडिया प्रमुखों एवं जन जन से ये अनुरोध एवं उम्मीद जताते है की असी नदी को नाला का संबोधन बंद होगा।
सधन्यवाद 
गणेश शंकर 

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

Desh Ho Raha Mahan

देश हो रहा महान ....

हम सब विचित्र देश के सुचित्र नागरिक हैं ।  शिक्षा किसी भी देश का भविष्य निर्धारित करती है।  .शिक्षा के नाम पर पहल देश की कुर्सी संभाल  रहे किसी भी सरकार का प्रथम कर्तव्य होता है। फीस प्रतिपूर्ति तथा वजीफा के नाम पर बहुतायत धन उपलब्ध कराये जा रहे है ,गलती से कभी पात्र अन्यथा हमेशा कुपात्र इसका हकदार बन बैठता है ।दूसरी तरफ शिक्षण संथाओं में शिक्षा के स्तर  को ऊचा  करने का कोई प्रयास होता नहीं दिख रहा है ।तमगे पहनाये जा रहे है ।जबकि ,आई आई एम् और आई आई टी जैसी संस्थाए भी विश्वस्तरीय शिक्षण की गणना में शामिल नहीं हो पा रहे ।विश्वविद्यालयों में शोध कार्यों में कट कॉपी पेस्ट का बोलबाला है  ।प्राध्यापक महोदय मोटी  तनख्वाहो को खर्च करने में खासे व्यस्त रहते हैं।तीन कक्षाओं से अधिक लेना नहीं है,वैसे भी कोई संस्था छह सात घंटो से अधिक शिक्षा की व्यवस्था नहीं मुहैया करने की स्थिति में है,खास कर सरकारी।स्वास्थ्य सेवाए चौबीस घंटे,रेलवे चौबीस घंटे ,पिज्जा चौबीस घंटे,सिनेमा चौबीस घंटे ,बस शिक्षा ही है जिसको सबसे कम समय देने की जरुरत समझी जाती है  ।जबकि इस पर पहल बहुत पहले शाम की कक्षाए शुरू कर के बहुत शिक्षण संस्थाओं ने की थी ,पर क्षोभ की वो व्यवस्था तो बंद हो गयी लेकिन उस समय  अंशकालिक नियुक्ति प्राप्त लोग बाद में पूर्णकालिक शिक्षक हो लुत्फ़ उठा रहे हैं।अब ऐसे प्रयोग की भी जरुरत नहीं समझी जाती  ।अब आप ही अंदाजा लगाओ की ये सब ढोंगी प्रयास शिक्षा को कहा पहुचने की निरंतर कोशिश में हैं ।
दूसरा शुरूआती शिक्षा की प्रक्रिया पर अगर जोर दिया जाए तो आज अंग्रेजी माध्यम हो या हिंदी माध्यम ,बारहवी के बच्चे को बीस तक पहाडा नहीं मालूम है ,कारन की अब ,, दो के दो ,,,दो दुने चार ,,के नारे नहीं लगते ।हा हाथ में मोबाइल पहाड़े में मदद करने से बाज नहीं आती ।गुरुकुल शिक्षा पद्धतिओं में भी चौबीस घंटे की व्यवथा सी थी ।सहयोग और समर्पण में खामियां आई है,समाज विघटन की राह चला ।अगर यही विकास है तो ऐसे विकास से तौबा ........निश्चय ही देश हो रहा महान ....
 

मंगलवार, 14 अगस्त 2012

देशी गुलामी का पैसठवा साल

१५ अगस्त उनीस सौ सैतालिस ,भारतीय इतिहास का वो दिन जब विदेशी गुलामी से मुक्ति पाने का स्वांग रचा गया था ,आज हम उस दिन का पैसठवा साल गिरह मनाने की तैयारी कर रहे हैं। क्या मिला देश की माटी को अपनी तथाकथित पैदावारो से ,इन पैसठ सालो में। और कितना चूसा इस माटी को । इस लेने देने के क्रम में किसी व्यक्ति विशेष जाती विशेष पेशा विशेष और धर्म विशेष की तरफ हमारा फोकस कत्तई नहीं है। लेकिन हाँ इससे अच्छी सड़के ,इससे अच्छा पानी ,इससे अच्छी बिजली ,इससे मजबूत पुल और इमारतो का निर्माण कराया था उन विदेशिओं ने जिनका ये अपना देश नहीं था,और आज ,,,,,,,कालांतर में कुछ दिखा तो राजनीती में बढती दुश्मनी ,कुरते का सबसे बड़ा दुश्मन कुरता ,,,,क्या इसी के साथ हम स्वागत करने की तैयारी कर रहे है स्वतंत्रता दिवस मनाने की,,,,,,,,फिर भी इस अवसर पर देश की माटी को प्रणाम कर उससे ही अब भरोसा मांगने की जरुरत है की अब और न लुटोगी,और न शोषित होगी,,,,,जय हिंद.....

अन्ना ,रामदेव,लोकपाल और काला धन

पिछले बरस अन्ना बाबा ने लोकपाल के लिए मुहिम छेड़ देश में आंदोलनों की बाढ़ ला दी। कई बार स्वामी जी उनके पास दिखे कई बार दूर। अन्ना के बेताली डफलियां ज्यादे हो गयी जिससे उन्हें अपना तथाकथित टीम अन्ना ख़त्म करने का ऐक्षिक घोषणा करना पड़ा,आनन फानन में अन्ना ने कहा कि देश को राजनैतिक विकल्प देंगे ,दुसरे ही दिन फिर दूसरी बात कहे कि वो चुनाव नहीं लड़ेंगे या लड़ायेंगे,बल्कि देश का दौरा करेंगे । शायद अन्ना की इस बेबाक यात्रा से उनके निकटस्थ साथी अरविन्द जी आहत हुए और अपनी संगिनी किरन जी के साथ पत्रकार वार्ता में देश को बताये कि वो लोग पार्टी कि घोषणा एकाक दिन में करेंगे उसके बाद चुनाव में भी दिखेंगे। अन्ना शायद स्वास्थ्य लाभ के लिए मजबूर हो चले हैं । लोकपाल ठंढे बसते में चला गया। वही कांग्रेस की बुध्हिमत्ता की भी दाद देनी होगी की चौसठ सालो के सबसे लम्बे राजनैतिक सफ़र में उन्होंने देश को कितना समझा ,आये दिन एक विधेयक पारित होता है उसे कोई जनता तक नहीं,सबसे अधिक लोकप्रिय सूचना के अधिकार अधनियम को भी हम उदहारण के तौर पर ले सकते हैं ,जिसे आज भी सहज संज्ञान में नहीं कहा जा सकता है। काश एक बार में लोकपाल पारित हो जाता तो अन्ना और टीम का जन्म नहीं होता । खैर उनके आन्दोलन ने अरविन्द केजरीवाल एक नए नाम को पैदा किया ,बाकि कुछ भूले बिसरे लोग भी फिर से याद कर लिए गए।
आगे अब इस गरम माहौल का फायदा उठाते हुए स्वामी जी एक बार असफलता और बेईज्जती का आनंद लेने के बाद मजबूती से आगे आये ,इस बार सलवार पहन कर नहीं भागे ,उनके पेशे से जुड़े उनकी भीड़ हमेशा उनके साथ रहती है,रहेगी। बाबा कितना काला धन वापस लायेंगे कहना मुश्किल है,उसकी जरुरत भी नहीं है जितने का बबुआ नहीं उतने का खिलौना जैसी देशी कहावत चरितार्थ होती है। काला धन को गोरा करने की लड़ाई लड़ने की बजाय आत्म सुध्ही के लिए भ्रमण जरुरी है,आज काला धन गोरा हो भी गया तो क्या गारंटी है की फिर कोई गोरा धन काला नहीं होगा। लेकिन अगर इससे मानसिक सुधार होगा तो एक सौ एक्केस करोड़ की आबादी में धन को काले होने से बचा कर हम उस घटे की पूर्ति कर सकते हैं। खैर अब जब बाबा मजबूत दिखे तो अब तक कमियां निकलती भाजपा उनके साथ हो ली,मुह दबाये सपा और बसपा भी उनके साथ होने की बात कर रही है। पहले बाबा भी राजनैतिक पार्टी बनानाने की बात कर चुके है,उनके चरित्र बताते है की वो काभी भी ऐसा कुछ कर सकते हैं,वो भी खुद को एक विकल्प के रूप में देख रहे हैं। उधर अन्ना की पैदावार भी विकल्प दे रहे है,तो कांग्रेस राहुल को विकल्प बता रही है,,,,,,क्या ये देश अब विकल्पों से चलेगा....

शुक्रवार, 8 जून 2012

नगर चुनाव की बढती सरगर्मी

नगर चुनावों की सरगर्मी गर्मी को बढ़ा दिया है,हर तरफ गहमा गहमी बढ़ रही है। कुरता धारी फास्ट हैं किसको हनुमान बन अपना कलेजा फाड़ दिखा दे कि एक दम राम की तरह वो उन्ही को मन में बसाये हुई हैं । सामान्य जनता शांत है समझ नहीं पा रही है इस कदर इन लोकतान्त्रिक उत्सवों कि मरजाद बिगड़ी है कि जनता मौन सी हो गयी है। लेकिन विकल्प का अभाव कभी भी नहीं होता है वो बात दीगर है कि हम समय रहते पहचानते नहीं हैं।
दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि बरसों सिद्धांत बघारने वाले लोग चंद मिनटों में कही शराब का तो कही अपराध का तो कही अर्थ का कोना पकड़ बस उसी को अपनी राष्ट्रीय राजनीती का द्योतक समझना शुरू कर देते हैं। खुद जब ये लोग काभी कोई चुनाव लड़ते है तो अर्थ हीन और अपराध हीन होने के वजह से सरे स्वस्थ समाज से उम्मीद करते हैं कि लोग उनके साथ हो ,लेकिन खुद कहा रहे हैं या रहते हैं यह भूल जाते हैं....ईश्वर उन सबको सद्बुधी दे,,,,और स्वच्छ को काशी की कमान ।

गुरुवार, 7 जून 2012

जीवन दायिनी नदी असी

विश्व विख्यात वाराणसी शहर जिन दो नदियों के नाम से जाना जाता है-वाह हैं वरुणा और असी। इन दोनों नदियों का पौराणिक महात्म्य है । जैसा कि वामन पुराण में भगवान विष्णु ने भोलेनाथ को बताया है कि ,प्रयाग में योगशायी जोकि विष्णु के ही अंशावतार थे उनके बाये पैर से वरुणा और दाहिने से असी नदी निकली हुई है । इतना ही नहीं भगवान् विष्णु भोलेनाथ को असी और वरुणा में स्नान कर दशास्व्मेध पर निवास कि सलाह भी देते हैं ,और बताते हैं कि ये दोनों ही नदियाँ अति पुण्यदायी और पापनाशक हैं। उस क्षेत्र को जहा से असी और वरुणा निकली हैं इसे योगशायी का क्षेत्र कहा जाता था ,लेकिन क्षोभ कि आज इन दोनों नदियों में असी को तो नदी बताने पर लोग हस्ते हैं,नाला ही उसकी पहचान हो चली है,और वरुणा भी उसी रह पर है। देश विदेश से अरबो खरबों रूपये गंगा के नाम पर आये लेकिन गंगा सेवकों द्वारा इसको बोझ समझ इस कदर बहाया गया कि पैसा नहीं बस रेट दीखता है। हालाँकि असी जैसी हालत गंगा कि कभी भी नहीं होगी ये तय है लेकिन अगर ये सरे कृत्य सिर्फ भविष्य में किसी पूर्व अनुदानित को हटाकर खुद के खाते को खजाना बनाने कि तयारी साबित हुई तो निश्चित असी हो जाएगी,और उसके जिम्मेदार हम सब होंगे।
हमें अपनी जिम्मेदारिओं से मुह नहीं मोदनी चाहिए,मुट्ठी भर सरकारी लोग हर चीज को सही सात जनम में नहीं कर पाएंगे ,वो दाल में घी बन सकते हैं दाल नहीं ,वो बात दीगर है कि घी कौन सा डालेंगे भगवान ही जाने। अतः निवेदन है वाराणसी कि जनता से घबराइये नहीं हम आगे आइये पीछे आइये कि बात नहीं करेंगे बल्कि ये कहेंगे कि लोभ से ऊपर उठे जहाँ भी इसके साथ छल हो रहा है ,अतिक्रमण हो रहा है,वो आदमी ही कर रहा है,संतोष करे सीमित संसाधनों में जीने कि आदत डालें ,नदी क्या पूरा देश फिर से चमक उठेगा।

बुधवार, 23 मई 2012

अगर यही प्रेम है तो तोबा इस प्रेम से

प्रेम उवाच सुनकर थका मन एक दिन प्रेम के विषय में सोचा तो घृणा सी हो गयी,,सड़क पर एक माँ अपने बच्चे को एक बड़े पुरवे मलाई खिला रही थी उसके प्रेम को देख उसे भिखारन खाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हु ,और ये भी कहने में कोई संकोच नहीं की मेरे माँ-बाप ने उतनी मलाई मुझे कभी नहीं खिलाई ,माँ के प्रेम को प्रणाम कह चला आया,रस्ते में एक महिला मुझे लगता है अपने पति से झगड़ रही थी शायद वो अपनी मान को कुछ पैसे देने जा रहा था,महिला की डाट उसकी घिघी बढे थी और वाह वापस रुक जाता है,,मुझे लगा अब रुकना गौतम बुध्ह बनना है,,,

सरकार ,नदियाँ और नदियो के उद्धार हेतु चल रहे आंदोलनों पर एक नजर

नदी ,नारे ,कुण्ड,जलाशय ,जीवन के अंग हैं, इनके बिना जीवन की संभावना को एक दम से नाकारा जा सकता है। आज देश में नदियों की हालत बेहद चिंताजनक है,इस बावत देश में कई छोटे बड़े आन्दोलन भी चलाये जा रहे हैं। बनारस का कार्यकारी बाशिंदा होने के नाते अब बनारस पर आते हैं। इस शहर को गलियों का शहर कहा जाता है,मठ मंदिरों का शहर कहा जाता है,देव देवालयों का शहर कहा जाता है,मस्त मस्तानों का शहर कहा जाता है । इसकी पहचान में चार चाँद लगाने का काम करती थी मान गंगा ,माना जाता है की यह शहर दिगंबर शिव के त्रिशूल पर टिका है। एक सबेरे से गंगा किनारे गमछा लपेटे,गुल घिसते गंगा स्नान करने वालो का ताँता लगा रहता था अभी भी कमो बेश है ।
इस शहर को वाराणसी नाम देने में जिन दो नदिओं ने अपने नाम की आहुति दी है वो हैं:वरुणा और असी ,,आज पुरे बनारस शहर में नदियों के नाम पर आन्दोलन चलाये जा रहे हैं,कोई गंगा की लड़ाई लड़ रहा है तो कोई असी की तो कोई वरुणा के नाम धरना रत हो चला है। गंगा आन्दोलन लगभग देशव्यापी आन्दोलन बन चला है,नेता दलीय सीमाओं से परे गंगा के नाम पर आगे आ संतों की मुहीम को सहारा देने का काम कर रहे हैं,शिक्षक से लेकर वकील से लेकर समाज का हर एक तबका इस अभियान से जुड़ता नजर आ रहा है।
इस आन्दोलन गंगा अभियान के लोगो द्वारा गंगा की अविरलता की मांग की जा रही है। अविरलता जहाँ तक मेरी समझ है कोई स्पष्ट विषय नहीं है,अब सवाल उठता है की गंगा अविरल हो कैसे। टेहरी में बाँध बना है क्योकि हमें बिजली चाहिए ,क्या हम बिजली से इंकार कर सकते हैं तो शायद नहीं। अब समझिये की जब जब सुविधाओं को केंद्रीयकृत करने की बात होती है तो ऐसी समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। तथ्य बताते है,बनारस के पुरनिये कह कर थक जाते हैं की बनारस में बनारस के काम भर की बिजली का उत्पादन खुद कमच्छा के पावर प्लांट पर कर लिया जाता था ,जरुरत पड़ने पर आस पास के छोटे शहरो के लिए भी बिजली की व्यवस्था कुछ समय के लिए बनारस कर देता था ,बी एच यूं अपने काम भर के बिजली का उत्पादन खुद करता था ,अब जब केन्द्रीय नीति बनेगी तो बड़े पैमाने पर चीजो को करने के लिए बाँध की आवश्यकता होगी ही। मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जब पं मदन मोहन मालवीय सरीखे व्यक्तित्व ने उस समय इस व्यवस्था का विरोध किया था तब भी ऐसा किया ही क्यों गया। अब रास्ता है बिजली या पानी। हम लाख उछल कूद मचा ले।
दूसरा गंगा उत्तर भारत की अधिकांशतः नदियों को बंगाल की खाड़ी तक ले जा उनको मुक्ति दिलाती है,मुझे लगता है गलत नहीं होगा यदि हम कहे कि हिन्दू विधान में अंतिम समय में गंगाजल मुह में डालने कि व्यवस्था के पीछे भी तार्किक दर्शन यही रहा है कि जैसे गंगा सारी नदिओं को मुक्ति दिला देती है उसी तरह से उस व्यक्ति को भी पार लगा देगी। यानि गंगा का अस्तित्व छोटी नदियों से भी है अगर ये नदिया लुप्त होती है तो गंगा लुप्त होकर रहेगी,इसको समझना पड़ेगा। इसलिए मेरी समझ से गंगा आन्दोलन के लोगो को असी और वरुणा सरीखे छोटी नदियों कि लड़ाई लड़ने वालों का साथ उन्हें खोजकर देना चाहिए,अगर वे सही मायने में गंगा के प्रति संवेदनशील हैं तो।
नदिओं के खनन कि व्यवस्था कि मांग होनी चाहिए ,तथा पता नहीं क्या हो गया हैइन विद्वानों, को सिर्फ राग अलाप रहे हैं,किसी को सुला रहे हैं किसी को जगा रहे हैं,हम ने खुद सरकार से कछुआ सेंचुरी के नाम पर रोकी गयी बालू खनन प्रक्रिया पर विरोध जताया है तथा सरकार से तत्काल रोक हटाने कि मांग कि हैं। स्थिति ये है कि गंगा शहर तोड़ने कि स्थिति में है घाट तोड़ रही है,बरसात में उससे बचाना मुश्किल हो जायेगा अगर बालू का खनन नहीं किया गया तो।
यह कड़वा सत्य है कि अब तक सरकार ने गंगा के नाम पर अब तक जितना राशि दिया है अगर उसका ईमानदारी से खर्च गंगा पर हुआ होता तो गंगा के हालत कि बात छोड़े नयी गंगा गोमुख से बंगाल तक खोद दी जाती अगर आस्था कि बात न हो तो। अब समझना यह है कि क्या गंगा के सवाल पर राशियाँ किसी और को न मिलकर हमें मिलने लगे अगर सिर्फ इसकी लड़ाई बनकर यह अभियान यह रह जाय तो दुःख होगा ,,अन्यथा आप सभी साथ दे आगे आये छोटी नदियों को बचाएं ,कछुआ सेंचुरी का विरोध करें,नदी खनन कि बात करे जिससे गंगा बचे और हमारी भाषा समझने में सरकार को आसानी हो सके ।

रविवार, 20 मई 2012

जनसँख्या बढ़ने वाले तकनीकी विकास का परिणाम

आज निश्चय ही देश में मेडिकल साइंस ने अपना दायरा बढाया है,इससे मृत्यु दर कम हुई है,या यदि बिना आकड़ो के बात की जाय तो कम होनी चाहिए ,लेकिन दूसरी तरफ जनसँख्या की बेबाकी पर पुनः कोई रोक लगाने के लिए गंभीर नहीं दिख रहा है,जो की नसरी समस्याओं के जड़ में हैं। अब तक तो रोग से इलाज कर मरती जाने बचायी जाती थी जिसका प्रतिफल जैसा भी हो जो भी हो लेकिन बुरा कहने में हर आदमी संकोच करेगा। लेकिन आज सेरोगेसी ,टेस्ट ट्यूब बेबी ,स्पर्म सेलिंग ,जैसे प्रकृति के विपरीत विकास जनसँख्या को कहा पहुचाएंगे इश्वर जाने। इन कृत्रिमता से उत्पन्न संतानों से अभी तक तो मेरी भेट नहीं है,अगर काभी ऐसा पता चले तो वो अध्ययन के विषय होंगे।
पहले परिवार में चार भाई हो तो एक दो की शादी यु ही नहीं होती थी जो जाने अनजाने में जनसँख्या नियंत्रण का कार्य करती थी,लेकी अब सबकी शादी होगी और तो और अगर बच्चे पैदा नहीं होते तो प्रकृति को भी ललकारने की साडी विधा हम जूता लिए है,,,,इश्वर देश को सदबुधही दे ,आज बड़े शहरो में सेरोगेसी इत्यादि सुन रहा हु की कमाने का जरिया बनता जा रहा है,ऐसी आधुनिकता और ऐसे विकास को शत शत नमन।

जनसँख्या बढ़ने वाली तकनीकी विकास के parinam

मंगलवार, 8 मई 2012

चाय नहीं मट्ठा हो राष्ट्रीय पेय

भारत सरकार के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा कि शीघ्र ही चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित किया जायेगा। मेरे समझ में नहीं आता कि क्या किसी को राष्ट्रीय पहचान दे देना अकेले सरकार का विषय है। निश्चय ही चाय की लोकप्रियता सेनाकारा नहीं जा सकता लेकिन सिर्फ लोकप्रियता के आधार पर अगर बनाने की शुरुआत हम करेंगे तो शराब की लोकप्रियता इस कदर पिछले कुछ वर्षो से बढ़ी है की प्रदेश सरकार के पूर्व में रहे एक आबकारी मंत्री ने अपने बयां में साफ कहा की बीयर गंगा जल से पवित्र और दूध से अधिक ताकतवर है,उनके बयां को ध्यान में रखते हुए माननीय अहलुवालिया साहब को बीयर और शराब को ही राष्ट्रीय पेय घोषित कर देना चाहिए।
मट्ठा हमारे देश की विरासत है,अगर हम उसकी उपयोगिता पर बात करे तो छे भूख मारने का कम करती है सेहत कही से उससे बेहतर नहीं हो सकता,उसकी चुस्की भर ही ली जा सकती है जबकि मट्ठा गाँव का किसान अपने लिए बोरन के रूप में प्रयोग करता था,रोटी से खाता था ,भात से खाता था,भर पेट उसे पी सकता था ,कोई सुगर और रक्तचाप नहीं बढ़ता,,,,,फिर भी मट्ठा नहीं होगा राष्ट्रीय पेय चाय होगा ,,,,ये बात भी सच है की जो चीजे अब तक राष्ट्रीय हुई है उनका बंटाधार ही हुआ है लेकिन मट्ठा किसी के बंटाधार करने के वश की बात नहीं है कारण टूटते गाँव ने शहरी बनने के चक्कर में पहले ही मट्ठे को बिसरा दिया है,लेकिन शहर उसको अपनाया ,और गाँव गाव ही है चाह कर भी अपने को मट्ठे से अलग नहीं कर पायेगा ,,और मेरे एक बड़े भाई और समाजवादी नेता अफलातून जी के शब्दों में मट्ठा सरकार के बिगडैल तंत्रों के जड़ में डालने में भी मट्ठे की मजबूत उपयोगिता है,,,,,,,,,,,,,अतः मट्ठा ही राष्ट्रीय पेय हो इसके लिए सबको आवाज उठाने की जरूरत है,इसे राजनीती से प्रेरित न मानकर बल्कि मट्ठा महज एक पेय नहीं एक संस्कृति है एक सभ्यता है एक जीवन पध्हती है इस लिए ,,,,,,,,,,,,,,

गुरुवार, 23 फ़रवरी 2012

नेहरू का कांग्रेस बनाम राहुल का कांग्रेस

जहाँ तक मैं जानता हूँ गुलाम भारत को एक अंग्रेज शख्सियत ए ओ ह्युम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में एक मंच देने का प्रयास किया गया था। अगर इमानदारी से विचार किया जाये तो मिलेगा कि कितनी शुध्हात्मा से वह यह काम किया रहा होगा जब ज्यादातर अंग्रेज भारतीयों को देखना भी पसंद नहीं करते थे। उसके बाद बाल गंगाधर तिलक और मोतीलाल नेहरु के हाथो कांग्रेस थमी,एक दौर ख़त्म हुआ और इस दल से आम भारत को जोड़ने का प्रयास किया गया,महामना मालवीय फिर महात्मा गाँधी जैसे संत सरीखे आत्माओं ने इस संगठन कि कमान संभाली । लगभग देश आजाद हुआ ,आजादी में जानता के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता लेकिन अगर एक कडवे सच को बयां किया जाये तो गलत नहीं होगा कि द्वितीय विश्व युध्ह में ब्रिटेन कि पराजय कही अंग्रेजों को अधिक कमजोर करने का काम कि और आनन् फानन में देश कि चाभी गाँधी को पकड़ा के अंग्रेज रवाना हो लिए। मुस्लिम नेता के रूप में जिन्ना ,और धर्म निरपेक्ष के तौर पर गाँधी कि समाज में स्वीकारोक्ति थी। अपने अति निकट होने के कारन गाँधी ने आँख बंद निर्णय नेहरु को प्रधान मंत्री बनाने के लिए ले लिया। अब आजादी के बाद के दौर में संविधान कि जरुरत महसूस कि गयी,जब गाँधी ने ही संविधान सभा का अध्यक्ष गैर कांग्रेसी आंबेडकर को बना दिया ,यहाँ तक कि ये बात नेहरु को नहीं पची और वे गाँधी से पूछ बैठे कि बापू इसका अध्यक्ष कांग्रेस का कोई आदमी नहीं हो सकता तजा इस पर गाँधी नें नेहरु को डाटते हुए कहा कि संविधान देश का बन रहा है न कि कांग्रेस का .... ।
ये तो रहा आजादी के बाद का कांग्रेस जहाँ अदब था ,संस्कार था ,संस्कृति थी ,,,,,,,,,,,,,,आगे आइये राहुल के कांग्रेस में जहाँ काले झंडे देखने कि क्षमता नहीं है,दुसरे संगठन कि इज्जत नहीं है,,,राहुल को पुँनिये कांग्रेसी ये क्यों नहीं बताते कि कांग्रेस एक जानता का संगठन है परिवार कि बंधी जागीर नहीं,,या सब ठान लिए हैं ए ओ ह्युम कि आत्मा को बुलाने कि और फिर से गाँधी का आमरण कराने की.

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

मतदान या रक्तदान

हालाँकि ये कहना राष्ट्रद्रोह सरीखे है लेकिन एक बार निश्चय ही इस बात पर बहस हो जानी चाहिए की उत्तरप्रदेश में हो रहे चुनाव में मतदाताओं की स्थिति क्या है,ये वास्तव में मतदान है या रक्तदान। फिर मैंने कहा निश्चय ही मतदान कारण रक्तदान कर आदमी तुरंत दुसरे के कल्याण में सहयोगी हो जाता है साथ ही साथ ही रक्तदान की पीड़ा से भी मुक्त होता है लेकिन मतदान पांच साल कष्ट कारी होंगे। फिर मेरे भाव बदलते यहीं बाते आती है कि नहीं निश्चय ही यह भयावह रक्तदान है कारण कि आप के मत के माध्यम से आपके पांच साल तक खून पीने कि छूट जीतने वाले को मिल जाती है । पास बैठे राजनीती के पंडित एक मित्र ने कहा अरे भाईसाब मतदान नहीं मतदाम की बात करिए आज मजा तो कल के सजा की कौन देखता है। बैनर पोस्टर लाउड स्पीकर पर सबसे कम खर्च होते हैं उसपर सरकार के नजर टेढ़ी है,लेकिन उसका क्या होगा जहाँ खुले आम किसी कालेज के आँगन में बाटी चोखा खिला कर दक्षिणा बाटे जा रहे हैं।
बहरहाल मैं तो अब तक उधेद्बुन्द में ही हूँ की ये है क्या......रक्तदान या मतदान ....या फिर वही मतदाम ......अब आप ही अपना विचार दें।

उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में प्रशासन के निकम्मेपन की हदें

आजकल उत्तर प्रदेश में जहाँ देखिये वहां सिर्फ और सिर्फ चुनावी हलचल में सराबोर नजर आ रहा है,लेकिन प्रशासन चुस्ती और सख्ती के नाम पर सिर्फ और सिर्फ संविधान की बढ़िया उकेरने में लगा हुआ है। चुनाव संपन्न करने की शिचिता के बावत लगातार आ रही समस्याओं से जनता त्रस्त होती जा रही है। टी एन शेषन पूर्व मुख्या चुनाव आयुक्त ने जो वोटर लिस्ट को आम करने ढांचा बनाया ,उसकी खामियां आज बीस सालों बाद इस कदर बढ़ गयी हैं कि हाथ में मतदाता पहचान पत्र जोकि चुनाव आयोग द्वारा प्रदत्त है लिए प्रत्याशियों के समर्थक और प्रस्तावक जब कचहरी परिसर पहुच रहे है नामांकन के लिए तो उनका नाम वोटर लिस्ट में न होने कि बात कह उन्हें बेशर्मी से बैरंग वापस कर दिया जा रहा है। आप जरा सोचिये कि जब प्रत्याशियों के साथ जो कि निःसंदेह जागरूक मतदाता होंगे ऐसी घटनाये हो रही है तो आम मतदाता कितना परेशां होगा। इस सबके पीछे निश्चय ही धन और बल का खेल चल रहा है और चुनाव सही से संपन्न कराने के नाम पर ये सरकारी नौकर शाह आसानी से जम्नता को लूट रहे हैं ताकि जागरूक लोग आगे न आ पाए कानूनन उनको बाहर का रास्ता दिखा दिया जाय और फिर वही घोटाले गर्दी बढ़े।

रविवार, 8 जनवरी 2012

सूनी हो गयी अन्ना की भ्रष्टाचार मिटाने वाली दुकान

एक बारगी ऐसा लगा मानो देश से भ्रष्टाचार का नामोनिशान मिट जायेगा। खूब उछले अन्ना और उनके तिकड़ी गिरोह। खूब पैसा भी आया ,और फोटो भी छपा। जिंदगी में और शायद इतिहास में पहली बार इस तरह का बाजारू आन्दोलन देखने को मिला जहा पहले से ही टेंट लगाए ,लोग पहुच रहे हैं जैसे रामलीला होने वाला हो ,भोजन में मेनू बनाये जा रहे है,खूब खिलाने-पिलाने के बाद भी मुंबई में सुपर फ्लॉप हो गयी उनकी रामलीला। सरे चरित्र धरासायी हो गए इसका कारन की अन्ना जी का आन्दोलन बाजारू था ,सबसे पहले धन की व्यवस्था की गयी ,धन की जरूरत से नाकारा नहीं जा सकता लेकिन अगर ये आन्दोलन धुल में बैठ कर लोगों को घर से न बुलाकर बल्कि अकेले बैठ कर चलाया जाता तो देर से ही सही लेकिन सुधार और सफलता मिलती।
अन्ना साब को समझ में नहीं आता की वो अपने को गांधीवादी कहते है,और गांधी चौहत्तर लोगों की दो सौ किलोमीटर की पैदल दांडी यात्रा को हजारो में ताफ्दील कर दिया। खैर बहुत माथा खपाने में मजा नहीं आया इन लोगों को,अब धीरे-धीरे इनकी दुकान फीकी पड़ती जा रही है,हाँ कुछ दिन बाद कोई नया लोकपाल आएगा,इनको कौन समझाए की लोकपाल को कत्तई नहीं नाकारा जा सकता लेकिन सिर्फ लोकपाल से कुछ भी बदलने नहीं जा रहा मित्रों ,,,,,अलबत्ता किसी दुसरे अन्ना की कोई नयी दुकान के नए ग्राहक आप फिर बन सकते हो। .........सावधान

सोमवार, 2 जनवरी 2012

देखो कही कुछ सस्ता तो नहीं रह गया

आज सरकारी नीतियां आये दिन बदल रही हैं। कमजोर और गरीब किसी के पैमाने में नहीं है। अगर कोई गलती से छूट भी गया गरीबी की मर झेलने के लिए तो,उसकी समझ बदल जाती है वो भी कही न कही से लूट खसोट का अंग बनने को आतुर है। सरकारे अब चश्में नहीं लेंस लगाकर जनता को देख रही हैं;एलानियाँ आवाज दे रही है की कही कुछ सस्ता तो नहीं रह गया ,कही अब भी कुछ गरीबों के पहुच में तो नहीं,कही किसी गरीब का बच्चा स्कूलों में दाखिला तो नहीं पा गया,कुछ ऐसी ही अल्लाप लगायी जा रही है हमारे देश के भाग्य विधाताओं द्वारा। तो गरीब अगर अपनी सोंच बदलने को मजबूर हो गया तो कौन सा पाप हो गया।
एक बड़े पुराने साथी दो दिन पहले मिले कहे यार 'ये बार बतावा केकर करी,विधानसभा चुनाव में,तोहरे साथे त रहले घटा हाउ ,अब न रहब ,न खईब्या न खाए देब्या"। बरबस मेरी बदतमीज जुबान बोल पडी कितने वोट हैं आपके पास ,वो बोले पूरे दो हजार जेब में है,अब क्या था बहस सुरु । अभी भी वो या तो खुद को धोखे में रखने के आदी हैं या झूठ में जीने की आदत। कैर अभी भी हिम्मत जुटाए अगर कोई सामाजिक आदमी की उसके कहने पर कोई वोट कर देगा तो उसकी पीठ थपथपानी होगी।
अच्छा लगा मिथ्या विश्वास ही सही की कम से कम ,किसीका विश्वास तो अभी सस्ता है ही...........