गुरुवार, 19 अगस्त 2010

क्या राष्ट्रीय पर्व महज भ्रामक जिम्मेदारियां बनकर रह गयी हैं

इस पंद्रह अगस्त को देश अपना चौसठवां स्वतंत्रता दिवस काफी हर्षो-उल्लास भरे उदासीनता से मनाया। क्या यह सच नहीं है। मुझे चिंता इस बार की नहीं हैं ,इसके बाद के आने वाले सौ सालों बाद क्या होगा इसकी चिंता है। शायद आने वाली पीढ़ी के पास इतना समय नहीं होगा की वे ऐसे राष्ट्रीय पर्वों को अपने भाग -दौड़ का भाग बना सके । हर बार तो कम से कम अखबार तवज्जो देते थे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को। वे खूब छापते थे की कहा-कहा क्या-क्या हुआ। लेकिन इस बार अखबारों तक की उदासीनता स्पष्ट समझ में आयी। कही कोई जोश नहीं था। ले देकर थोड़ी राजनीति जरूर हो जाती है प्लास्टिक के झंडे इत्यादि के नाम पर। बच्चों में स्कूलों में होने वाले कार्यक्रम और मिठाइयों के वजह से थोड़ी खुशियाँ दिखी,अन्यथा सब कुछ धूमिल सा था।
इतना ही नहीं देश के प्रधानमंत्री का भी उदबोधन भी देश के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठ कम और अपने संगठन और संगठन के मुखिया के प्रति ज्यादा दिखी।क्या -क्या देश पर एहसान उन लोगों ने किया अपने कार्यकाल में उसका ढिढोरा ज्यादा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का उदबोधन सुना तो वहां नॉएडा से बालियाँ तक बन्ने वाले गंगा एक्सप्रेस जैसे अपने महान कारनामों और अपराधियों को जेल में डालने की खुशी के अलावा शायद कुछ भी बताने को नहीं था।हाँ एक चीज जरूर था की वो जयकार करते समय जय हिंद,जय भारत के साथ जय भीम और जय कांशीराम का उद्घोष करना नहीं भूली। कम से कम एक दिन तो ईमानदारी से हम राष्ट्र के नीव में दबे पुराने ईटों को याद कर लेते जिनके कपार पे एक से एक ईमारते हम तानते जा रहे हैं। लगता है अगर यही दशा बरकरार रही तो आने वाली पीढ़ी भगत सिंह और गाँधी को विदेशी किताबों के माध्यम से जानेगी। कितनी शर्म भरी खुशियाँ होती हैं जब हम सुनते हैं की गाँधी को साउथ अफ्रीका में भगवान् की तरह पूजा जाता है.उनका जन्मदिन २ अक्टूबर वहां का सबसे बड़ा जलसा होता है। और हमारे यहाँ अनी पीढ़ी गांधी को विचित्र-विचित्र शब्दों से गाली भरे अंदाज में सम्मान देती है। अगर हम सच्चाई पर पर्दा न डालें तो।
तो क्या सिर्फ और सिर्फ आने वाली पीढ़ी ही जिम्मेदार होगी इसके लिए तो कत्तई नहीं। क्योंकि सुने-सुनाये कुछ घटिया जुमले मानसिक रूप से महापुरुषों के प्रति विकृति लाने का काम करते है,जिनके पीछे कोई सत्य का बाँध नहीं खड़ा होता। अतः गुजारिश है देश के नीति नियंताओं से की कम से कम अपने नीव की ईट को भी कायदे से सलाम करने का मौका और संस्कार फिर से उसी तरह से जगाये जैसे १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने दिखया था ,एक बध्याँ सन्देश हो सकता है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

आजकल राजनीतिज्ञों को बड़े आर्थिक घोटालों का अवसर नहीं मिल रहा है क्या भाई?

आजकल अखबार पढने में मजा नहीं आ रहा था ,कारण कि कोई बड़े घोटाले कि खबर नहीं मिल रही थी। बड़े दिनों के बाद तो थोडा सा कामन वेल्थ में कुछ कलाकारों ने लम्बा हाथ मारने को कोशिश की,लगभग सफलता भी हाशिल हो गयी,भले मामला बीच में ही प्रकाश में आने से थोड़ी किरकिरी हो गयी। खैर हमारे यहाँ के लोग न जाने किस मित्त्ती के बने हुए है,इनको इस सब से भय भी नहीं है। भय भी हो क्यों,अब तक के भारतीय इतिहास में जितने बड़े घोटालेबाज हुए उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाया ,और पकड़ में आने के बाद तो गजब का विकास होता है उनके व्यक्तित्व और राजनीति दोनों में। अब माननीय लालू जी का ही ले लीजिये,चारा घोटाला क्या घोटे की देश उनका मुरीद हो गया .लगातार मुख्यमंत्री बनते रहे फिर रेल मंत्री रहे,अब क्या पूछना,क्या कर लोगे भाई । सुखराम बाबा घोट के स्वर्ग को प्राप्त हो गए लेकिन आज भी उनका नाम स्वर्णाक्षरों में बेचा जाता है। तमिल हिरोइन ,फिर मुख्यमंत्री जयललिता इतनी खाई की शरीर धो पाना मुश्किल हो गया.क्या हो गया इन सारे लोगों को ,ऐसा तो नहीं किइन्हें कोई सजा दे सकता है। फिर रही बात कोर्ट कि तो ये क्या इनकी पहुच से बाहर है,तो सुरेश कलमाडी और शरद पवार को भी चिंता करने कि जरोरत नहीं है,अरे भाई आज कि पतझड़ ही तो कल बसंत लाएगी.

बुधवार, 11 अगस्त 2010

डीएनए ,नार्को और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक जाँच विधियों पर रोक का स्वागत

समाज कभी भी अपराध मुक्त नहीं रहा है। पुरुषोत्तम भगवान् राम के समय में जब कहा जाता था कि"नहिं कोई अबुध न लच्छन्हीना"तब भी रावण और बालि जैसे खूंखार समाज में विद्यमान थे। कृष्ण के समय में अगर धर्मराज युधिस्ठिर थे तो शिशुपाल और दुह्शासन भी थे। ऐसे कितने ऋषि-महर्षियों कि तपस्या भंग कर देते थे ये तथाकथित दानव। लेकिन उनको सजा देने कि इतनी क्रूर विधा कभी भी नहीं थी। ईश्वर कि परिभाषा बताई जाती है कि "पग बिनु चलै सुने बिनु काना"। अतः परमसत्ता अगर कोई निर्णय लेती है तो उसी को विश्वासी समाज न्याय मान लेता है.अन्यथा जिस देश का धर्मराज जूया खेलता हो और इतना ही नहीं इतना बड़ा जुआड़ी हो कि अपने पत्नी तक को दाव पर लगा दे वहां अगर दुशासन पनप रहे हैं तो कोई अविश्वास कि बात नहीं है।
लेकिन समयांतर में आज की स्थितियां भी करीब -करीब वैसी ही है। न जाने कितने शिशुपाल सड़कों पर ससम्मान सांड की तरह घुमते हैं,और बड़ी मजे की बात की चिन्हित भी नहीं हैं। जो पकड़ में आ गया वो चोर अन्यथा चोर सबसे बड़ा सिपाही। समाज में अपराधियों को दंड देने की विधा भी समय-समय पर बदलती रहती है.इतिहास गवाह है,सूली पर लटकाया जाना तो सबसे बाद का नियम है। इसके पहले हाथी से कुचलवा देना,सरेआम भुनवा देना ,विष का प्याला देना ,ये सब तो था लेकिन बात उगलवाने के लिए नारको और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक टेस्ट्स को निश्चय ही हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर पेबंद लगाना कहा जा सकता है। आप सारे विद्वान और समाजशास्त्री मिलकर किसी का अपराध नहीं ढूढ़ पा रहे हैं तो फिर आप भी तो अपने काम के प्रति बहुत लोयल नहीं कहे जा सकते,एकबात।
दूसरी बात की क्या इस तरह के घटिया टेस्ट की कोई सही आदमी के ऊपर कर के कभी टेस्ट किया गया है,यदि हाँ तो किस पर और यदि नहीं तो क्या गारंटी है की ये सहे ही होता है। और अगर इतना ही सही और न्याय प्रिय हैं हम तो तमाम आतंकवादी जो पकडे जाते हैं सबसे पहले छूटते ही उनका नार्को और ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं कराया जाता है। यहाँ गवाह को कटघरे में खड़ा करा कर पचहत्तर बार कसमें दिलाई जाती है की मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा,ऐसी कसम न्यायाधीश तो एक बार भी नहीं खता की वो जो निर्णय देगा सच ही देगा। तो पञ्च परमेश्वर को हम कब तक आत्म सात करते रहेंगे। खासकर ऐसे हालात में जब पूरी की पूरी बेंच बेची और खरेदी जाती हो।
ऐसे में यह निर्णय मानव मूल्यों की रक्षा करेगा बाकी अपराध सजा से कभी भी नहीं रुकता ,जरूरत है तो मानव सुधार और वैचारिक शिष्टता के छोटे से पहल की।

रविवार, 8 अगस्त 2010

फिर शुरू हो गयीं विदेशी गुलामी के खात्में और देशी गुलामी के जश्न की तैयारियां

देश अपनी तथाकथित आजादी का चौसठवां सालगिरह मनाने को आतुर है। कही परेड की तैयारियां तो कहीं मुर्दे खंगाले जा रहे हैं। आये दिन अब एक हफ्ते तक आपको अखबारों में किसी शहीद के कारनामों की गूँज सुनाई पड़ेगी। ले देकर एक हफ्ता तक चलना है ये सिलसिला फिर सब शांति की कोखमें समा जाता है।

कड़वा जरूर है पर बड़ा ही सच कि विदेशी गुलामी तो ख़त्म हुई आज के दिन यानि १५ अगस्त १९४७ को लेकिन देशी गुलामी कि नीव भी तो आज के ही दिन पड़ी। आप कह सकते हैं कि वो क्या जाने गुलामी का मतलब जिसने इसको ...............................

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

देश की जनता क्या आकड़ों से अपना पेट भरेगी

देश में आजादी के बाद से आज तक सबसे ज्यादा कांग्रेसी सरकार शासन की है। जैसे किसी दुखांत नाटक के बीच में चुटकुले आजाये ,उसी माफिक गैर कांग्रेसी सरकारें बीच-बीच में आती जाती रहीं । देश की आर्थिक नीति काफी तंगहाल हो चली थी .विश्वनाथ प्रताप के आरक्षण के सामाजिक लालीपॉप के आस-पास। उसके बाद जब सरकार नरसिम्हा राव के हाथ में आई और यही मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुए तो अर्थव्यवस्था को इस कदर सुसंगठित और संचालित किया की आज तक हम घिस रहे है ,अन्यथा जाने कहाँ होते?


आज देश में पी चिदंबरम से लेकर स्वयं प्रधानमंत्री और प्रणव मुकर्जी इत्यादि सारे विद्वान भरे पड़े हुए हैं फिर भी हम देश की खस्ताहाल गरीबी और महगाईं को आकडे देकर दबाना चाहते हैं । देश की गरीब जनता जिसका इन आकड़ों से कोई लेना देना नहीं होता क्या आकडे खायेगी। आप लाख चिल्ला लें ,अपनी सफलता का डंका पीट लें लेकिन गवईं गरीब को आपके सब्सिडी से क्या लेना देना ,वो बस इतना जानती है की चीनी और दाल जैसे खाद्य पदार्थ भी उनके पहुच से बाहर हो रही है। देश का तो मई कत्तई नहीं कह सकता लेकिन तथाकथित कांग्रेस के राजकुमार बारात निकाल कर सन्देश यात्रायें कर रहे हैं। उनकी एक सन्देश यात्रा जो उत्तर प्रदेश के अहरौरा में आयोजित थी,में कई करोड़ रूपये खर्च हो गए ,जैसा की मेरे एक मित्र जो कांग्रेसी नेता हैं बताये। कास उस पैसे को ये राजकुमार उसी अहरौरा के विकास में खड़े होकर खर्च करा देते तो पूरे देश का भले नहीं लेकिन वहां के तो राजकुमार हो ही जाते। सांगठनिक विकास के लिए इतना कुछ कर रही है कांग्रेस सरकार वो सब सिर्ग जनता के विकास में ईमानदारी से खर्च करा दिया जाय तो अपने आप उनके संगठन का विकास हो जाएगा और इस पार्टी को देश की राजनीती में छोटे दलों को फेक पुनः स्थापित होने का मौका मिल जाएगा। आखिर छोटे दल कम से कम जनता के संपर्क में तो हैं यही कारन है उनके विकास का जो ईन राष्ट्रीय पार्टियों लिए खतरा बने हुए है। अभी समय है चेत जाओ


बुधवार, 4 अगस्त 2010

भारतीय संसद में अमेरीकी राष्ट्रपति का भाषण -ये कैसा गौरव

विश्व पटल पर अपने भाषा और भाषण से हलचल मचा देने स्वामी विवेकानंद की धरती पर ,उसकी लोकतांत्रिक रसोईं में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के भाषण की तैयारिया ऐसे हों जैसे कोई महापर्व आ गया हो,तो बरबस कहना पड़ता है की भारत गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है,और चापलूसी तो मानो इसकी कुर्सियों के एक-एक सोखते मेंलगी हुई है। रविन्द्रनाथ टैगोर को राष्ट्र गुरुदेव की उपाधि दिया ,बड़ा ही सम्मान रहा और आज भी है,उनकी विद्वता पर कोई नुक्ताचीनी भी नहीं है,फिर भी जब-जब उनके द्वारा लिखित राष्ट्रगान की बात आती है,पहली जुबान में लोग ये कहने से बाज नहीं आते की इतना विद्वान आदमी और ऐसी रचना को किसी अंग्रेज की चापलूसी में क्यों लगा दिया,और उनके चरित्र पर लगा ये दाग आज तक नहीं धुल सका । ख़ास कर ऐसे समय में जब देश के नौजवान जान हथेली पर ले देश को मुक्त कराने में लगे हों वैसे समय किसी मुखिया विद्वान द्वारा इस तरह के पहल जेहन में नहीं उतारते। आज का बुध्ह्जीवी वर्ग उसे चाहे जैसे सही साबित करती फिरे लेकिन ये बात गले नहीं उतरती।
ठीक उसी तरह हमारे देश के महापुरुष चाहे वो गाँधी रहे हों,या सुभाष,विवेकानंद रहे हों या अरविंदो,सब ने अपनी भाषा से विदेशियों को इस कदर आशक्त किया की वो हमारे मुरीद हो गए। लेकिन आज विश्वगुरू कहलाने वाला देश दूसरों के नुस्खों पर चलेगा,दूसरों की कार्यशैली को अपना आदर्श बनाएगा तो फिर भारतीय विद्वता की पहचानखतरे में है। और ये कभी भी देशहित में न्याय सांगत नहीं होगा। अतः बराक ओबामा को बुलाये ,उसका विरोध नहीं है,उनका भाषण भी कराये उसका भी विरोध नहीं है,होसके और ज्यादे चापलूसी का शौक चर्राया हो तो उनका कसेट रख भजन की तरह सुने ,इसका भी विरोध नहीं है,लेकिन इसको इतना महिमा मंडित न करे की संस्कृति धूमिल हो अन्यथा विवेकानंद की खडाऊं और मदनमोहन मालवीय की छडी अभी भी सुरक्षित है।

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

अब एक नया ढिढोरा -न्यायिक सुधार का

आज एक हफ्ते से लगातार अख़बारों में छाये हुए है तथाकथित विद्वान लोग जो अपने-अपने ज्ञान बाट रहे हैं की कैसे देश की न्याय व्यवस्था सुधारी जाय। ये वातानुकूलित कार्यालय तक को ही दुनिया समझने वाले कितना सटीक सलाह दे पाएंगे भगवान ही जाने। गाँव में एक नाली के लिए जन्म-जन्मान्तर से केस चल रहे होते हैं और जितना पैसा उस केस के लड़ने में दोनों पक्षों से खर्च हुए उतने में सही मायने में तो कई एकड़ खेत बैनामा करा लिया जाता। बात यहीं नहीं ख़त्म होती अब ये केस इतनी पुरानी हो गयी की दोनों विरोधी पक्षों की दुश्मनी को समय ने दोस्ती में ताफ्दील कर दिया और ओनो पक्षों के लोग एक साथ मोटर साइकल पर सवार हो केस लड़ने कचहरी जाते हैं,एक दुसरे को नाश्ता कराते हैं,लेकिन सिर्फ न्यायलय के लेट लतीफी के कारन आज भी कागजी दुश्मन बने हुए हैं तो समझ में नहीं आता हम जब चाहते हैं,जो चाहते है संवैधानिक सुधार करा लेते हैं,तो इस पर विचार क्यों नहीं होता।

आजादी के तिरसठ सालों बाद भी इन मदांध ,घटिया और स्वार्थी राजनेताओं को सन्देश यात्राओं में,साइकिल यात्राओं में तो रूचि है जिससे वे भारत ही नहीं अमेरिका के भी राष्ट्रपति हो जाय लेकिन देश के गरीबों के कटोरे में रोटी भी नसीब है या नहीं ,उसकी जहमत ये क्यों लें। अभी चार-पांच साल पहले बनारस के पांडेपुर स्थित पागलखाने में सरला नाम की एक बुजुर्ग महिला का प्रकरण प्रकाश में आया था जिसे न्यायलय ने पागल करार दे पागलखाने पंहुचा तो दिया पर उसकी सुधि उतार दी,अब बेचारी सरला को जबरदस्ती पागल बन अपना जीवन कुर्बान करना पड़ा। उसके घर वाले भी उसे पहचानने से इनकार करतेरहेबाद में एक प्रतिष्ठित वकील रमेश उपाध्याय की निगाह पता नहीं कैसे उसकी बेबसी पर पडी उसे पागलखाने से तो छुटकारा मिल गया ,न्यायलय तो उसे भला ही चूका था ,उसके नाम से कुछ जमीन-जायदाद थी जिसके लालच में बुधिया के तथाकथित देवर उसको अपने साथ ले तो गए। लेकिन न्यायलय क्या सरला के बीते चालीस सालों को वापस कर पायेगा,उसकी नौजवानी जो काल कोठारी में बीतने को मजबूर थी उसको किसी भी तरह से भरपाई किया ज सकता है तो कत्तई नहीं।

दर इतना ही नहींहै की सरला के साथ ऐसा हुआ ,सरला तो देर-सबेर मुक्ति पा गयी,जाने कितनी सरला ऐसे ही सही न्याय के ललक में अंधे क़ानून के सामने दम तोड़ देती होंगी। उनका क्या होगा,क्या व्यवस्था की गयी सरकार द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए। सबसे बड़ा कोढ़ समाज की पुलिस व्यवस्था है,जिस पर कोई रोकटोक नहीं। पहले तो महिलाए कम से कम मारी नहीं जाती थी अब दिन जैसे kal सुलतानपुर में एक अध्यापिका की गयी गयी तो में मौत

नई पीढ़ी रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है

बेशक आज हम इक्कसवीं सदी का आनंद ले रहे हैं। देश अपनी आजादी का चौसठवां सालगिरह मनाने को व्यग्र है। हर तरफ युवाओं को आगे लाने की बात चर्चा आम है,खासकर के देश की राजनीति में। हालाँकि देश की राजनीति में अब भी बुजुर्गों का बोलबाला है। राष्ट्रीय नेताओं में चंद लोगों के नाम पर युवाओं का ढिढोरा पीटा जा रहा है,समझ में नहीं आता की जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया ,सचिन पायलट ,उमर अब्दुल्लाह , अखिलेश यादव,इत्यादि जो नेता पुत्र हैं के नाम पर ही क्या ये ऐलान किया जाना जायज है ,या इन चंद नामों के अलावा देश में युवा नहीं हैं जो सक्रीय राजनीति में सहभागिता कर सकें।
लेकिन ये सवाल यही से शुरू होता है और यहीं पर ख़त्म भी हो जाता है, कारण कि देश का हर युवा रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है। ये तथाकथित नाम जो मैंने ऊपर दिया है,ये भी इनसे अछूते नहीं हैं। राहुल गाँधी का जूता लोट्टो का ही होता है जिसकी कीमत हजरोंमे है,अब ऐसे पैरों से दांडी मार्च की कितनी उम्मीद की जा सकती है। कहने को अखिलेश यादव चिल्लाते रहें की मैं किसान का बेटा हूँ लेकिन खेत की माटी पैर में लगने से इन्फेक्सन हो जाते हैं। कारण कहीं न कहीं रील लाइफ जीवन पध्हती है।
आज देश का हर युवा आगे तो जाना चाहता है लेकिन ,उसके पथ प्रदर्शक या आदर्श कभी शाहरुख़ खान तो कभी रितेश देशमुख हैं। तो वहीं लड़कियां भी बिद्या बालान या कैटरीना कैफ की होड़ में हैं। मैं ये तो नहीं कहता की ये गलत है लेकिन इन मासूम विचारों वाले कन्धों पर हम देश की बागडोर भी तो नहीं सौंप सकते । हेयर स्टाइल से लेकर मोबाइल और ड्रेसिंग सेन्स की तो हुबहू नक़ल है लेकिन क्या उतनी गंभीरता कापी ,कलम और किताब के प्रति भी है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। समसामयिक विकास होना कभी भी गलत नहीं होता लेकिन इस उन्माद में लक्ष्यों को भूल जाना क्या विकास को गति देना है। अब लक्ष्य भी क्या नौकरी ,तो क्यों ? क्योंकि कार ,बंगला घोडा .गाडी चाहिए ,परिवार तक के जिम्मेदारियों की अनदेखी खुलेआम हो रही है तो ऐसे में समाज के मददकितनी उम्मीद की जाय। और कब तक झूठे कोसते रहें की कुछ हाथ नहीं रहा युवाओं के ...............