शनिवार, 31 जुलाई 2010

आखिर किसने सुलाया बनारस को?

तुलसी ,कबीर और रविदास की धरती कभी भी सो नहीं सकती ,ये तो सदियों से जीवंतों का शहर रहा है,और अगर इसे सोने जैसी निगाह से देखा भी जा रहा है तो इसे सुलाया कौन? अभी कल चिलचिलाती धुप में नन्हे -मुन्ने बच्चों को तस्बीर अख़बारों में दिखी मानों पूरा बनारस घेर डाला था इन नौनिहालों ने,लेकिन किसके इशारे पर और आज कैसे इनकी बुध्धि को सदमा लगा या कहीं ये अपने किये का पश्चाताप तो नहीं।
अस्सी के दशक तक का यदि ध्यान दिया जाय तो बनारस में इक्के-दुक्के अंग्रेजी मीडियम स्कूल हुआ करते थे ,नब्बे के दशक में इसमें काफी बढ़ोत्तरी हुई और दो हजार से अब तक में तो मानो इनकी बाढ़ सी आ गयी है। आज स्थितियां यहाँ तक पहुच चुकी हैं कि हर व्यक्ति आज अपने बच्चों को अंगरेजी मीडियम से ही पढ़ाना चाहता है। तो क्या दिया अब तक के तीस सालों में इन आंग्ल भाषी लोगों ने इस पर भी विचार होना जरूरी है। अब क्या वो लोग जो अंग्रेजियत के नाम पर आधुनिकता के अंधेपन में हमारी संस्कृति का नंगा नाच करवाए उन्ही के माथे हमारी संस्कृति चलेगी। ये स्कूल पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी तक को एक चाकलेट भी बच्चों को नसीब नहीं करा पाते और फ्रेंडशिप डे ,वेलेंटाइन दे और हसबैंड डे को केक काट बच्चों में बट्वाते हैं,वो आज जन यात्रा निकाल कर कौन सा सन्देश देना चाहते हैं। रही बात सड़कों की तो आये दिन अखबारों के पन्ने बस स्कूलों द्वारा किये गए दुर्घटनाओं से भरे पड़े हैं सुबह छः बजे से दश बजे तक सड़कों पर चलना दूभर कर दिया है ,इन स्कूल बसों ने। तो कहीं ये कई स्कूलों की श्रंखला चलने वाले शिक्षा के अंगरेजी व्यवसायियों का नाम चमकाने का रास्ता तो नहीं या कोई नया स्वार्थ आ टपका है,अन्यथा जो-जो लोग इस जन्जारण को अगुवाई कर रहे हैं उनसे किसी सामाजिक सुधर की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती। बनारस हमेशा से जीवंत शहर रहा है ढोल बजा कर नाटक करने की कोई जरूरत नहीं ।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

राजतंत्र से भी बदतर भारतीय लोकतंत्र

लोकतंत्र के इतिहास को अगर खंगाला जाय तो समझ में आएगा कि भारतवर्ष को अन्य लोकतान्त्रिक देशों की तुलना में लोकतंत्र काफी आसानी से या यूं कहिये लगभग घलुआ में हाशिल हो गया .....लोकतंत्र । अमेरिका में लोकतंत्र की खातिर सैकड़ों वर्ष जंग हुई,अब्राहम लिंकन से लेकर बी.टी.वाशिंगटन तक की कहानी दुनिया चाह के भी भुला नहीं सकती। हम तो गुलामी के दौर से गुजर रहे थे और हमारी राजतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न -भिन्न करने का काम अंग्रेजों ने पहले ही कर दिया था। यानि कि गुलाम हुआ था राजतांत्रिक भारत और आजाद हुआ सूद-मूल लेकर लोकतान्त्रिक भारत के रूप में। और उसी अपनी गलती का अंग्रेजों को भोग भोगना पड़ा भारत को मुक्त करने के रूप में। लाख हम चिल्ला लें लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का गलतिय नारा अंग्रेजों का ही दिया हुआ था।
लेकिन आज आजादी के तिरसठ सालों बाद भी हम ऐसे मानसिक दिवालियेपन कि स्थिति से गुजर रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं तक में नेताओं को उठा के मार्शल से फेक्वाया जाता है,इतना ही नहीं महिला विधायिकाओं तक को। ये क्या है ,कहाँ चली गयी सत्तासीन नेताओं को ऊचीं मानसिकता ,जहाँ दो विरोधी ध्रुव के लोग भी एक दुसरे का सम्मान करते थे। ये तो राजतन्त्र से भी बदतर है। अतः ,इसके विरोध में व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सारे दलों के नेताओं को आगे आना चाहिए जिससे देश कि संसद,विधायिका का तो कम से कम मटियामेट होने से बच जाय।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

कांग्रेस की दरबारी नीति

आजादी के बाद देश की बागडोर कांग्रस के हाथों में सबसे ज्यादा दिन तक रही ,लिहाजा जनता यह भी नहीं आकलन कर पाती की उसने देश हित में क्या-गलत किया ,क्या सही किया। कारण करना सब कुछ उन्ही को था । जनता गुलामी के सदमे से नयी-नयी उबरी थी और उसे गैर अंग्रेजियत की हर चीज अच्छी लगती थी चाहे वो सही हो,या गलत। इससे भी नहीं इंकार किया किया जा सकता की बहुत कुछ विकास के कार्य हुए भी,लेकिन वो अधिकतम पंडित नेहरू के कार्यकाल में,या फिर इंदिरा जी तक। लोकतांत्रिक राजघराने के ये चंद लोग मुट्ठी में संविधान और ठेले पे हिमालय को धोने लगे ,और वैसे ही उनकी नीतियां ,जो गरीबों को दिन-प्रतिदिन गरीब बनाती गयी और अमीरों को उनका खून चढ़ा-चढ़ा कर मोटा किया जाता रहा।
लेकिन आज के कांग्रेस की नीतियां तपो अब उबून हो रही हैं,जैसे लग रहा है कम,प्यूटर देश चला रहा है,कई विश्वविख्यात अर्थशास्त्री देश की स्थिति सुधारने के बहाने संगठन को सुदृढ़ बनाने में लगे हुए । नरेगा,या दुनिया भर ऐसी योजनाये जिसमे देश के विकास का पैसा तो खर्च होता ही है,ये गरीबों के नाम पर ही बनती भी हैं,पर अफ़सोस की इनसे एक तरफ गरीब जहाँ कामचोर बन खानदानी गरीब हो जाता है,वहीं इन नेताओं के चट्टे-बट्टे खा-खा कर सुगर ब्लाड्प्रेसर का इलाज करा रहे हैं फिर भी इनको होश नहीं आ रही है। गरीबों के नाम पर आने वाला पैसा अगर उन तक नहीं पहुचता है तो उसके खाने वाले बिचौलिए को कफ़न किरी करने वाले घिनौने कृत्यकारी से बेहतर नहीं समझा जा सकता। अब इन नेताओं को ही तय कर लेने दीजिये की इन्हें नेता बनाना पसंद है यां कफ़न की दलाली। बाद का काम तो उन मरे या मरने वाले लोगो की आत्माएं उनकी जीवित अस्थियाँ उकेल कर उनसे अपना हिसाब देर-सबेर पूरा कर ही लेंगी। ये हाल देश के राजनेताओं के कर्म्हीनता वजह से हुआ है,उसमे कोई दो राय नहीं ,अब तो कम से कम झोपड़ियों का झूठा दौरा करना बंद कर ,अपने किये की पछतावा कर इन लोगों को चेत लेना चाहिए ,अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब देश में सिर्फ नेता रहेंगे और मृत गरीब आत्माए,जिसकी जिसकी जिम्मेदार सरकार होगी।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

कमजोरों के पास शोषित होने के अलावा और कोई रास्ता नहीं

गरीब ,गरीब होता है,कमजोर होता है,वह किसी जाति का नहीं होता ,किसी सम्प्रदाय का नहीं होता और न ही कोई धर्म उसे अपना कहने का फजीहत मोल लेना चाहता है। नेताओं में गरीबों को खरीदने की होड़ होती है ,और गरीब ,कभी तन ढकने के वस्त्र की खातिर,तो कभी पेट की आग बुझाने को ,आखे झुकाए स्वाभिमान के कडवे घूँट को पीकर बिकने वालों की कतार में खड़े होने को मजबूर होता है। कभी कोई अहमद गरीबी और मुफलिसी से विक्षिप्त हो अपने बच्चियों को मार डालता है तो कभी कोई गरीब अपने कमजोरी के गम को जहरीली शराब में घोल के पीने के प्रयास में दुनियां से विदा ले लेता है। प्रशासन भी जो जेब काटते हुए पकड़ा जाता है उसे मार के मुआ डालने को होता है और जो हत्या करके जाता है उसके लिए जेल की कोठरी में भी झकाझक वातानुकूलित व्यवस्था और पञ्च सितारा होटलों के व्यंजन और महंगी विदेशी शराब ,और क्या-क्या नहीं परोसता।
ऐसे में देश के राजनेताओं का रवैया देख तबीयत दंग रह जाती है कि क्या ये भी मनुष्य ही हैं। अब किसी नेता के आंसू नहीं टपकते ,किसी गरीब कि गरीबी पर,अब किसी मंत्री कीनिगाह नहीं पहुचती किसी गरीब झोपडी में ,निगाह पहुचती है तो बस इस पर की वोटर है की नहीं,यदि नहीं तो उसे कितना जल्दी वोटर बनवा दिया जाय और फिर उसके भूख से तड़पते कमजोर कन्धों पर झूठा और घिनौना हाथ रख चाँद रूपये में या दारू की कुछ बोतलों में उसकी गरीबी को अपने राजनैतिक बेसन में लपेट कर पकौड़े बनाकर अपने चखने का इंतजाम किया जाय। देश में कोई भी योजना बनाई तो इन गरीबों के नाम पर जाती है लेकिन उसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा इनके आलमारियों की शोभा बढ़ा रहा होता है।
तो क्या इन अमीर राजनेताओं के बस की बात है देश के गरीबों की गरीबी को समझना और उसे दूर करना तो कत्तई नहीं । इसके लिए अगर पहल की जरूरत है तो आम आदमी की। उसके लिए अलग से कुछ बहुत करने की भी जरूरत नहीं है,सिर्फ और सिर्फ एक सोंच विकसित करने के। हमारे आप के घरों में बहुत ऐसे कपडे होते है जो हम पहनते नहीं वो सिर्फ हमें पुराने यादों के अलावा कुछ भी नहीं देते ,उन कपड़ों को अगर किसी गरीब की झोपडी तक पहुचा दिया जाय,जिससे किसी का तन धक , घरों के उन गैर जरूरी सामानों और भोज्य पदार्थों तक को किसी गरीब को मुहैया करा दिया जाय तो वो दिन दूर नहीं जब इस कड़ी में वो सामान्य जन-जीवन से परिचित हो अपना जीवन स्तर उठा सकेंगे और सही मायने में अपने विकास को समझ सकेंगे। और गरीबों के नाम पर इन राजनेताओं को देश को लूटने का मौका भी नहीं मिलेगा । वश जरूरत है तो एक अनूठे पहल की अन्यथा ये तो शोषित होने के लिए जन्म ही लिए हैं । तो आगे हाथ बढ़ाइए .........क्योंकि
कौन कहता है कि आसमा में छेद नहीं होता ,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

बंद का नाटक हो बंद

५ जुलाई २०१० गैर सत्तासीन पार्टियों द्वारा भारत बंद का वो कुंठित पर्व रहा जो आंकड़ों के मुताबिक़ देश के विकास को तेरह हजार करोड़ रूपये से पीछे कर दिया.इतना से ही पेट नहीं भरा तो बहुजन समाज पार्टी ने उसके ठीक दूसरे दिन यानि ६ जुलाई को विशाल रैली और धरना प्रदर्शन के कार्यक्रम बिभिन्न जनपदों के मुखालयों पर आयोजित करवाया और जनता को कष्ट देने की रही-सही कसर पूरी हो गयी ।
बड़ा विचित्र संयोग है जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और इन नेताओं को बंद सूझ रहा है .क्या ये बंद कराने वालों के दिमाग में कभी ये बात घुसती है की देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं जो रोज कूआं खोदना और रोज पानी पीना वाले जुमले को आज भी चरितार्थ करते हैं. कितने घरों में चूल्हे नहीं जले और कितने मासूमों की मुकान भूख के मारे आसुओं में तफ्दील होती रहीं.क्या जानने की भी कोशिश किया इन राजनीतिज्ञों ने की कितने रोगियों ने इलाज के अभाव में दम तोडा .एक बनावटी तर्क दिया जा सकता है कि इसीलिये तो लड़ाई लड़ी जा रही है कि और कोई गरीब भूखा न रहे तो ये महज एक राजनीतिक नाटक है जिसे आधिकारिक रूप से नहीं बलिकी मानवीय रूप से बंद किया जाना चाहिए.दासकैपिटल लिखते समय कार्ल मार्क्स कि बिटिया मर रही थी लोग जाकर बताये तो उनका जवाब था कि ठीक है मेरी बेटी मर रही है तो मर जाने दीजिये ,कम से कम कल से इस किताब के पूरी होने के बाद से किसी और मार्क्स कि बेटी गरीबी से नहीं मरेगी.कार्ल मार्क्स के भावनाओं का कद्र जरूरी है लेकिन क्या आज किसी गरीबों कि बेटियां अभावों में मरना छोड़ दी हैं ,तो नहीं ,जब कि आज के राजनेताओं का इतना स्पष्ट उद्देश्य और त्याग भी नहीं है।
गजब मजाक है केंद्र सरकार अपनी कमी को कमी मानने को तैयार नहीं है ,और ये पहला मजाकिया वाक्य दिख रहा है कि सत्तासीन लोग आन्दोलन और बंद करा रहे हैं,सिर्फ और सिर्फ जनता को गुमराह करने के लिए.अगर भारतीय जनता पार्टी विरोध करे तो बात समझ में आती है ,समाजवादी पार्टी विरोध करे बात समझ में आती है लेकीन बहुजन समाज पार्टी जिसकी सरकार है वो केंद्र के खिलाफ लगी हुई है और केंद्र सरकार याकि कांग्रेस बसपा के खिलाफ आन्दोलन करके जनता को किस असमंजस के चौराहे पर खड़ा करना चाहते हैं.बसपा कि इतनी ही औकात थी तो क्यों नहीं ५ जुलाई के भारत बंद में बाकि के संगठनों के साथ भाग लिया।
इतना ही नहीं इन बंदियों में भी अस्तित्व कि लड़ाई थी सारे लोग अलग-अलग अंदाज में विरोध कर रहे थे भले ही खेमा एक क्यों न हो.जब देश हित में बड़ा विरोध करना होता है तो पार्टी के अस्तित्व के खतरे से उपरकि सोंच रख कर लद्फ़ाइयन लादेन जाती है ,जनता पार्टी इसकी सबूत है।
अतः राष्ट्रहित में लोकहित में ,मानवहित में ऐसे हड़ताल और बंद का सबसे पहले विरोध इन राजनेताओं को करना चाहिए।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

अपने खुद के धर्म की धज्जियाँ उड़ाते तथाकथित धार्मिक कट्टरवादी

कोई भी धर्म सृष्टि रुपी व्यवस्था के एक संचालन के होने की पुष्टि करता है.चाहे हो हिन्दू धर्म हो या मुस्लिम धर्म हो ,चाहे वो इसाई धर्म हो चाहे वो दुनिया के किसी कोने में मान्य होने वाला अनामी धर्म हो.ऐसे में अगर कोई धार्मिक कट्टरवाद के मानसिक अंधेपन में किसी दुसरे धर्म को छोटा ,नीचा या गलत साबित करने की कोशिश करता है तो ये महज उसकी भूल ही नहीं है बल्कि अपने धर्म को भी गर्त में डालने का काम कर रहा है।
कल एकाएक टीवी के एक चैनल पीस टीवी पर एक अंग्रेजी लिवास यानि कोट पैंट में भारतीय डाक्टर जो की मुस्लिम धर्म से थे ,अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के चक्कर में अपने धर्म की ही बंधिया उकेल रहे थे.उनके अनुसार मूर्ती पूजा गलत ही नहीं बल्कि धोखा है.अक्सर यही होता है जब आदमी अपने विषय से हट कर बहस करने बैठ जाता है तो,उनको मालुम होना चाहिए की हिन्दू धर्म की नीव ही शून्य पर टिकी है और कोई मूर्ती नहीं बल्कि प्रतिमूर्ति होती है ,जिसका मतलब हवा में तीर चलाने के बराबर धर्म को न समझा जाय ,इसलिए है अन्यथा उनका ये कहना की पृथ्वी के बीच में सृष्टि का संचालक निवास करता है तो आप अपने ही धर्म के लोगों को तो कटघरे में खड़ा कर रहे हैं ,"साकी शराब पी मस्जिद में बैठ कर ,वरना वो जगह बता दे जहाँ पर खुदा न हो"ये आपके ही लोगों ने ही कहा है।
इतना ही नहीं अपने भाषण में रिग वेद का भी उदाहरण दे डाला की यहाँ उल्लिखित है की प्रथ्वी का केंद्र मक्का -मदीना है .और ये सबसेश्रेष्ठ जगह है,इससे कोई उनकी बात तो नहीं मान ने जा रहा है लेकिन कुछ गैर मुसलमान भी जो कुरान या मुस्लिम धर्म की कद्र करते हैं ,उनकी विश्वसनीयता पे भीधब्बा लगा।
अतः मुलिम धर्म के लोगो को खुद आगे आ कर ऐसे लोगों का विरोध करना चाहिए जो उनकी थाली में खाते भी हैं और छेड़ करने से भी बाज नहीं आते हैं.