गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

गत की विदाई आगत का स्वागत

नया साल क्या आया मानो सारे लोग शिकायतों का पिटारा खोले सब कुछ सुना देने को तैयार हैं। अरे भाई इस देश में हमेशा से घोटाले होते रहते हैं,नेहरु से लेकर नरसिम्हा राव तक का घोटालिक इतिहास रहा तो फिर इस साल थोडा ज्यदा हो गया ,इसको चर्चेआम करने से बढ़िया है की इसका नाम तक न लिया जाय अन्यथा कही नए साल में भी ये घोटालेबाज गुरुगड़ कही इसको अपना महिमामंडन समझ बैठे तो फिर अगले क्या कई बरस होंगे लगातार इसके चौके-छक्के। इस लिए छोडिये हँसी-ख़ुशी करिए गत की विदाई और जोश से लबरेज हो आगत का स्वागत..........
नव वर्ष के नव प्रभात का नव भावाभिनंदन

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

नव प्रभात के सुरमयी आगाज का स्वागत

कलुष-भेद तम हर प्रकाश नव ,जग-मग जग कर दे........फिर आया नूतन बरस पर खुशियों के बरसने और बरसाने का अद्भुत अवसर। अपने गलतियों को साल भर बाद याद करने का ,उससे और उसमें क्या खोया और क्या पाया से सीख लेने की नाटक करने का ,और फिर एक-एक दिन करके पुराने ढर्रे में ढल जाने का। वैसे अपने देश भारत वर्ष के बीते वर्ष पर अगर एक नजर रखी जाय तो पाएंगे की पूरी तरह से बीता साल भ्रष्टाचार को समर्पित रहा और महगाई को। घोटालों की लम्बी तादात की गिनना मुश्किल,कितनो की तो अर्थ भी समझ पाना कठिन।
लेकिन क्या हुआ,फिर नया साल अपने समय पर पहुच गया है,जरूरत है तो अपने गलतियों को स्वीकार करने की,यद्यपि ये हमारे देश के राजनेताओं के शब्दकोष में नहीं। फिर भी शायद देर सबेर होश आ ही जाय। बाकी घोटालेबाजों को घोटाले मुबारक,गरीबों को उनकी गरीबी मुबारक तो शरद पवार को प्याज औरन्य खाद्यों की महगाई मुबारक। प्रधानमंत्री को जेपीसी मुबारक तो सोनियां जी को अध्यक्षी मुबारक। सब अपनी मुफलिसी और अस्तित्व के संकट में ही सही एक बार ही सही बोल,दे सुस्वागतम,क्योको फिर भी थर्टी फर्स्ट मानेगा और लोग थिरकेंगे। नक्सली घटनाओं में हताहत और आये दिन अपने सरकारी विकास के खाते में ब्लास्ट की घटनाओं को सजोये सरकार की हर पहल मुबारक। तो आइये कराहों के बीच ही सही फिर से बोल ही दिया जाय.............नूतन वर्षाभिनंदन । जय हिंद।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

सचिन और भारत रत्न

सचिन तेंदुलकर का नाम क्रिकेट प्रेमियों के अलावा भी लगभग हर कोई जानता है। इससे कत्तई नाकारा नहीं जा सकता कि सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट कि दुनिया में देश का सर ऊचा किया। लेकिन उनके नाम को राम नाम की तरह जो जपा जा रहा है कि उन्हें भारत रत्न मिलना चाहिए तो रत्नीय ख़िताब पहचान पाने के लिए होते है न कि पहचान पर आईएसआई मार्क लगाने के लिए। भारतीय सिनेमा के हरदिल अजीज अमिताभ बच्चन साहब कही सचिन कि पहल इस लिए तो नहीं कर रहे कि वो भी अपने को भारत रत्न कि कतार में आक रहे है।
मैं सचिन का या उनको भारत रत्न देने का विरोधी नहीं,लेकिन भारत रत्न कि अपनी एक गरिमा है,मै ये भी नहीं कहता कि सचिन उस गरिमा के उपयुक्त है या नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि ऐसे बहुत नाम है जो अपने क्षेत्र में बहुत अच्छा किये है ,अगर सबको हम भारत रत्न दिलाने कि मांग करने लगे तो शायद संभव नहीं होगा। वैसे भी सचिन किसी पहचान कि मोहताज नहीं है और न ही भारत रत्न के रूप में मिलनेवाले धन का उनके सामने कोई हैसियत है,ऐसे में सचिन कि चुप्पी या तो ये मान ली जाय कि वो भी इस तमगे कि आस में बैठे है अन्यथा उन्हें खुद कह देना चाहिए कि मुझे भारत रत्न नहीं चाहिए जिससे उनका कद और भी बड़ा हो जाता। भारत रत्न मुफलिसी में जी रहे छोटो को बड़ा बनाने के लिए उपयोग में लाना ही न्याय संगत है।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

शरद पवार को आखिर कांग्रेस क्यों ढोने की कशम खा रखी है

कांग्रेस के तथाकथित मनबढ़ मंत्री शरद पवार गरीबों की गरीबी के नाम जहर उगले जा रहे हैं। गेहूं सडा देंगे ,चावल सडा देंगे लेकिन रेट कम नहीं करेंगे,गरीबों में नहीं बाटेंगे। एक तरफ उनकी मुखिया सोनियां जी चिल्ला रही है की संगठन के खिलाफ कोई मंत्री बोला तो उसे निकल फेकेंगी,तो क्या ये मान लिया जाय की शरद पवार संगठन से बाहर होने वाले है या कांग्रेस उनकी इस नीति से सहमत है। और अगर ये दोनों बाते नहीं है तो कांग्रेस पार्टी ऐसे हेक्ढे को क्यों झेल रही है ,राजनैतिक स्वार्थ ,और उनकी बम्बैया पूंछ सब ठीक है लेकिन इतना ये गर गिरेंगे तो अल्ला ही जाने इनकी गति क्या होगी।

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

राष्ट्र राज्य और अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता

काकोरी के शहीदों की याद में राष्ट्र राज्य और अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक गोष्ठी तो हुई वैचारिक बहसे भी हुई,लेकिन शीर्षक केंद्र में नहीं रहा। कारन की जब-जब विद्वानों को जोड़ने का प्रयास किया जाता है तब तब यही होता है। सच तो यह है की अभिब्यक्ति ही है जी कभी परतंत्र नहीं होती और इतना ही नहीं उसको जितना परतंत्र करने को कोशिश की जाती है वो उतना ही स्वतंत्र होती जाती है। बहुतेरे क्रांतिकारी नेता जो फासी पर तो चढ़ा दिए गए लेकिन उनकी अभिब्यक्ति अंग्रेजो के लिए ताबूत का कील साबित हुई। उनके विचार आज भी मरे हुए में जोश पैदा कर देती हैं। बहस चल ही रही थी की बीच में अपने भाषण के दौरान एक प्रोफ़ेसर साहब राम की तुलना लादेन से कर बैठे ,मैंने कहा अब कितनी अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए आप लोगों को भाई। जब जान पर बाण आती है तो अभिब्यक्ति सबसे मजबूत स्थिति में होती है ,उन प्रोफ़ेसर साहब लोगों की मिलने वाली एक लाख तनख्वाह में से नब्बे हजार उनको दे दिया जाय और दस हजार गरीबो में बाट दिया जाय तो शायद किसी एक की ऐसी पहल न रह जायेगी और फिर जो इनकी अभिब्यक्ति होगी देखने योग्य होगी। अतः अभिब्यक्ति के छलावे मत गरीबों को घसीतिये अरुंधती रॉय कभी गरीब नहीं रही है,जिनके लिए आप लोग चिल्ला रहे है ।

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

देश को कंगाल बना रही कांग्रेस की नीतियां

आजादी के बाद देश की बागडोर ज्यादातर कांग्रेसी सरकारों के हाथ में रही है। महगाई और कोटेदारी,ठेकेदारी इनकी नीतियों में हैं। गरीब इनके एजेंडे के कभी हिस्से नहीं होते। और देश के गरीबों के नाम की अरबों खरब संपत्ति इनके अलमारियों की तो औकात नहीं की अपनी शोभा बढवा पाए लेकिन स्विटजरलैंड के बैंकों में वो पैसे बेनामी दिन झेलने को मजबूर होते हैं। इनके यहाँ जो जितना बड़ा ईमानदार छबि का होता है ,जब पोल खुलता है तो उतना बड़ा डकैत साबित होता है। बाबू जगजीवन राम भी सबसे इमानदार नेता के रूप में जगजाहिर थे,लेकिन बाद में इनकी रकम सुन कितनों के हृदयघात हो गए। पंडित सुखराम भी ऐसे ही टिकेदार ब्राम्हण थे संचार ही निगल गए।
आये दिन जन्जरूरत के चीजों का दम बढ़ानेवाले कांग्रेसियों का परिवार तो अधिकतर विदेशी आबोहवा में रहता है,उसे पेट्रोल और दाल की कीमत से क्या लेना देना । शरद पवार चिल्ला-चिल्ला के कह ही दिए की अनाज सदा देंगे लेकिन गरीबों को नहीं देंगे न ही सस्ता करेंगे,फिर भी कांग्रेस उन्हें सर आखों पर बैठाये हुई है,क्योंकि ये उसके टेस्ट के नेता हैं। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री जी निश्चय ही इमानदार छबि के है लेकिन क्या कहा जाय अगर गरीबों के लिए नहीं खड़े हो सकने की ताकत है तो अब उनको खाने की कमी कभी थोड़े ही रहेगी ,न ही उनको और प्रसिध्ही ही अब मिल सकती,वो इतने ऊचे पड़ाव पर पहुच चुके है,तो कुर्सी की लालच क्यों लगाये हुए है ,जाए राम -राम करे। या फिर मान लें की हर गड़बड़ी उनकी जानकारी में हो रहे है। देश के आईने में अपना प्रतिबिम्ब एक ईमानदार और उनके सरीखे विद्वान आदमी को नहीं खरब करना चाहिए ।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

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Check out Pitney Bowes India Launches 'DocWell'

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जाने -अनजाने में आतंकवादियों के हौसले बढ़ा रहीं सरकार की ध्वस्त नीतियां

देश में हर सुरक्षा व्यवस्था की बधिया उकेर रही आतंकवादी घटनाएं कहीं न कहीं इन आतंकवादियों के हौसले में इजाफा कर रही हैं। हमारे यहाँ ब्लास्ट होता है और अमेरिका सावधान होजाता है,उदाहरा के लिए आये दिन हम उनकी एअरपोर्ट चेकिंग में राजनयिकों के साथ दुर्व्यवहार की खबर पढ़ते हैं,और सिर्फ उनकी सुरक्षा की कडाई को गलियां देते है,कारण की हम ऐसा नहीं कर पाते। सुरक्षा व्यवस्था तो अस्वस्थ स्थिति में है ही दाद में खाज का काम कर रही है,जो पकडे गए आतंकवादी हैं उनकी दामादी सुरक्षा और मेहमानवाजी। समझ में नहीं आता की क्या न्यायलय अगर इन आतंकवादीयों को निरपराध साबित कर ही दे तो हम ये मान लें की वे हत्यारे नहीं है,और कहना बहोत गलत नहीं होगा की सरकार जैसे उन्हें निरपराधी सुनने की ही बाट जोह रही हो।
हमारे देश में ऐसे दुर्घटनाओं में मारे जानेके बाद मुवावजे पर भी बड़ा झगडा होता है। और फिर सरकार दिल खोल कर खर्च करने पर उतारू होती है ,और फिर उसकी देख रेख भी भूल जाती है,जो आदर्श सोसाइटी जैसे घोटालों को जन्म देते हैं और मुफ्त में मिलने वाले फ्लैट्स को करोड़ों में दुसरे को बेच दिया जाता है। फिर मामला खुलता है,उस पर जांच बैठती है,करोड़ों रूपये की आहुति चढ़ती है,तब तक हो हल्ला होता है जब तक कोई दूसरा मामला घोटाले का रूप ले दरवाजा न खटखटा रहा हो,और पहले वाले की इतिश्री ।
सुरक्षा तंत्रों की हर पल की पोल खोलते है वर्दीधारी सिपाही जो सिर्फ वसूली में लगे रहते है,कैसे वो राजा हो जाए। करोड़ों की संपत्ति एक सिपाही के पास है। सरकारी तंत्र के लोग भी दो चार दिन फास्ट रहते है,किसी दुर्घटना के बाद,फिर वही पुराना ढर्रा। कई अखबारों ने बनारस घटना के दुसरे दिन से ही यहाँ की सुरक्षा की पोल खोलनी शुरू कर दी ,तंत्रों को तो मानो ये सब झेलने की आदत हो गयी हो। अभी किसी वी आई पी के आने की खबर होगी तो रातोरात सड़कें बन जायेंगी,नक्के-नक्के पे सिपाही अपने वर्दी की हरयाली से नाक में दम कर देंगे ,लेकिन अभी अपनी रोज की ड्यूटी की बात हो तो इनकी नानी मरती है। जनता के पैसे पर ये पलते है,सिर्फ ये कहना गलत होगा,जोभी बड़े राजनेता या अधिकारी है,लेकिन जनता ही इनके एजेंडे में नहीं होते।
कब तक हम इन्तजार करते रहेंगे इनके सुधरने की,जनता खुद जिस दिन अपने निजी स्वार्थों को थोडा ताज दुसरे की भी सोंचने लगेगी,उस दिन इनको भी सुधारना मजबूरी हो जायेगी,और जिस दिन हम सभी अपनी वास्तविक भूमिका में आ गये उस दिन इस दो तकिये आतंकवादियों की क्या औकात है,हम उन्हें समझा लेंगे। भाग दौड़ वाली जिन्दगी में लोक विचार के लिए लोगों के पास समय नहीं रह गया साथ ही ऐसी बातों में रूचि भी नहीं है। इसलिए जरूरत है तो विचार मंचों की,उनके पहल की क्योंकि विचार काभी अकेला नहीं होता,और कमजोर नहीं होता।

गुरुवार, 9 दिसंबर 2010

ग़मों में मुस्कराती युवा पीढ़ी

आल इस वेल के तर्ज पर पूरा -पूरा युवा समाज चल रहा है। कहने को तो चैन सुकून नहीं है लेकिन मुस्कराने के आदी से हो गए हैं। पहले के लोगों यानि हमारे बुजुर्गों की तुलना में आज के युवाओं की यही अदा उन्हें उन लोगों से अलग कर देती है । पुराने लोगों के दर्द जुबान पे आजाते थे लेकिन आज इसका प्रतिशत बड़ा ही कम है। निश्चय ही ये युवा धैर्य विचारणीय है। किसी की मुस्कान और चेहरे की लकीरे पहले उसकी माली हालत को आसानी से बयां कर देती थी। लेकिन आज ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत की तर्ज पर युवा समाज अपनी हँसी को कायम करने पर तुला है। पहले पतलून फटते थे तो उसे सिलने का प्रयास होता था आज उसे और फाड़ कर एक नया अंदाज इजाद कर दिया जाता है। और फिर लोग अपनी नई पतलून फाड़ के पहनने लगते है,इतना ही नहीं कम्पनियाँ फटी डिजाइन वाली पतलून बनाने भी लगती है।
इससे चिंतित होने की कत्तई जरूरत नहीं है निश्चय ही आज का युवा मन ज्यादा सामंजस्य स्थापित कर लेता है बनस्पत पुरानों के। इसलिए जरूरत है तो इस जोशीले अंदाज को प्रशंसनीय बनाने का , बाकी काम ये खुद कर लेंगे। वैसे तो दुनिया भर में लाफ्टर चैनल्स काम कर रहे है,गुदगुदाना ही उनका व्यवसाय है जहा लोग मुह में अंगुली डाल-डाल हँसते है,लेकिन किसी के चेहरे पर एक मुस्कान ला देना जो चैन और सुकून देगा उसे सिर्फ और सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। तो आइये युवाओं के आदर्श पर चलते हुए उनकी हँसी और मुस्कान कास्वागत किसी रोते हुए को हँसाने के सुख और सेज पर सोने का एक छोटा सा प्रयास कर ही लिया जाय,क्या आप भी चल रहे हैं।

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

आतंकवाद और आतंकवादी कायर और कायरता के सबसे बड़े पर्यायवाची

आतंकवाद से बड़ी कोई कायरता नहीं हो सकती और आतंकवादियों से बड़ा कोई कायर नहीं हो सकता। यही अपराध और आतंकवाद का अंतर है। हर अपराध आतंवाद नहीं होता । ये अपराध की बडाई नहीं है लेकिन कम से कम एक अपराधी लक्ष्य कर किसी एक को मारता है,पर इन कायर आतंकवादियों का तो कोई लक्ष्य ही नहीं,बच्चा,बूढा, बेहाल,कभी अनजाने में हो सकता है इनके तथाकथित अपने भी इनके घटिया कृत्य के शिकार होते हैं। जिसको कायरता भी कहने में शर्म आती है।
इस तरह की लुकाछिपी ,करके मार देना ,इनकी कलुषित सोंच के अलावा कुछ भी नहीं है। वैसे भी बनारस जैसे मस्तों के शहर में तो उनके मायूसी फ़ैलाने की एक न चलेगी। भूतभावन की नगरी काभी आतंक के आगोश में नहीं आती । फिर सुबह कचौड़िया छनी ,जलेबियाँ बनी,पान और भांग रमें लोग बरबस हर चौराहे पर इनकी कृत्य को गाली देते सुने जा सकते हैं। किसी पर शक करने की जरूरत नहीं, ये बनारसी अक्खडपन किसी को थमने नहीं देंगे। ईश्वर इसमें घायल लोगों को जल्दी से ठीक करे और हताहतों की आत्मा को शांति दें,। और इन निरीह कायरों को सदबुद्धि दें ,दया के पात्र इस भुक्तभोगी नहीं बल्कि ये कायर हैं जिन्हें हम आतंकवादी कहते हैं।
जय हिंद,जय बनारस।

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

टेलीविजन कायक्रमों की हदें

आये दिन तमाम चैनलों पर ऐसे कार्यक्रम बढ़ते जा रहे हैं,जिनका न तो कोई सामाजिक सरोकार है,न ही किसी रूप में वो नई पीढ़ी के लिए लाभप्रद साबित हो सकती हैं। हदें तो तब पार हो जाती है जब घर की बंद कोठारी में होने वाली गंदगियों को दुनियां भर के चैनलों पर दिखने को हम अपनी तरक्की समझने लगे हैं। अब बिग बॉस जैसे कार्यक्रम को ही ले लीजिये,ये आडीसन के नाम पर सिर्फ और सिर्फ छलावा है,शायद यही कारण नरः की इसके शुरुआती दौर में ही सेंसर बोर्ड द्वारा इस पर रोक लगाया गया था,फिर पता नहीं कौन सा जादू चलाया इन लोगो ने की इसे अनुमति मिल गयी। मेरे इस विचार को कत्तई किसी प्रतियोगी के विचारों से नहीं जोड़ा जाना चाहिए,लेकिन जब ऐसे छोटे-मोटे कार्यक्रमों की ये साफगोई है तो बड़ी-बड़ी सिनेमा वगैरह में किस हद तक लोगों को अपने स्वाभिमान से समझौता करना पड़ता होगा। नई पीढ़ी ग्लैमर की चमक के अर्दब में आ जाती है,लेकिन ऐसे कार्यक्रम उसके किसी पसंदीदा के प्रति घृणा के अलावा और कुछ नहीं दे सकते। साथ ही ये मानसिक बुराइयों और छिछोरेपन को सीधे निमंत्रण के अलावा और कुछ भी नहीं है ।
अतः इसे ही नहीं ऐसे किसी भी कार्यक्रम को तत्काल बंद करना चाहिए।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

सरकारी लूट और निठल्लेपन के बढ़ते खतरे

किसी भी देश में भ्रष्टाचार की हदें तब पार कर जाती है,जब नीचे से ऊपर तक इसके फंदे बिछे हुए होते हैं। किसको सही कहें और विश्वास का स्वास भरें समझना कठिन है। चाँद पैसे की खातिर गलत करना तक ही यहाँ गलत नहीं रह गया है,सरकारी महकमों से जुड़े लोग कुछ भी करना चाहते ही नहीं,उनका सारा समय एफडी और वित्तीय सुविधाओं की जानकारी करने में लग जाता है,कारण उनको इतना अधिक पैसा मिलने लगा है।
अभी एड्स दिवस पर कई बड़े डॉक्टरों की कलई खुली,जो कैसा व्यवहार करते है,वो अपने रोगियों के साथ ,जिनकी सेवा की रोटी खाते हैं वो। सर सुन्दर लाल अस्पताल बीएचयू जिसके विषय में अखबार वाले भी छपने से कतराते हैं की स्थिति ये है की वहां पहुचने वाले रोगियों के साथ ये डाक्टर साहब लोग ऐसा व्यवहार करते है,मानो ये किसी दुसरे गृह से आये हों। सब तो सब जो रेसिडेंट अभी पीजी का छात्र होता है,और ट्रेनिंग के लिए रेजिडेंट डाक्टर के रूप में कार्यरत होता है,उसकी गति यह है की किसी बुजुर्ग को भी आप नहीं कह सकता तुम तो मानो उनकी छठी में दाल दिया गया हो। ये है सरकारी छुआछूत का ऐठन।
ऐसे में सबसे पहले जरूरी है की ,बढाई हुई छठां वेतन की तनख्वाह वापस करना तो हवा-हवाई हो जाएगा लेकिन कषम खा लेना की इनको अगले पच्चीस सालों तक अब इसी वेतन पर काम करना है,नीचे से ऊपर तक सारे महकमों के सारे कर्मचारियों के साथ। उसके बाद बदली तस्बीर सामने होगी,इनकी औकात की थाली में,क्योंकि सरकारी नौकरों का मन का बढ़ना लोकशाही का बढ़ना है,जो कभी सत्य का नुमैन्दगार नहीं हो सकता। इनके खिलाफ भी सड़कों पर देर सबेर उतरना ही होगा,तभी सच्चा भारत दिखेगा।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

भारत के आर्थिक बदहाली की समीक्षा

कोई भी देश अपनी अर्थ नीतियों और अवस्थाओं के कारण ही विश्व के आर्थिक मंच पर मंचित हो पाता है। ये महज एक उदगार नहीं बल्कि वो मिथ्या सच है जो न उगला पाता है ,न ही निगला पाता है। दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की के वावजूद भिखारियों की संख्या में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी हो रहीहै,रोटी के टुकड़े भी नहीं मिल पाते पेट पालने को ,करोड़ों भारतीयों को। कारण हम अत्याधुनिक विकास के साथ भिखारियों के भी संख्यात्मक विकास को नजर अंदाज करने के आदी हो गए हैं।
भारत में आर्थिक तंगहाली के सबसे बड़े कारणों में यहाँ का भ्रष्टाचार है,चाहे वो आदर्श सोसाईटी का मामला हो,या राष्ट्रमंडल खेलों का। इस देश में एक घोटाले की कलई खुल नहीं पाती है की दुसरे हाजिर,उस पर बहस शुरू। पहले वाले को यूं ही निजात मिल गया। आजादी के बाद सिर्फ घोटालों का इतिहास खंगाल दिया जाय और उसे जनता में ईमानदारी से खर्च करने की सोंच लिया जाय तो ,आज भी हम अमीरों से अमीर है।
तंगहाली का दूसरा कारण सरकारी नौकरियों में तनख्वाह में बेतहासा ब्रिधि भी गरीबी-अमीरी की खाईं को बढाया । सामान्य जनता गरीबी को धोने और रोने में मशगूल होने को मजबूर होती है। तीसरा बड़ा कारण ,दुर्घटनाओं में मुआवजा पर आज इतना लम्बा चौड़ा खर्च हो रहा है,की किसी भी देश का देश निकाला हो जाए। इसके लिए सिर्फ राजनीतिज्ञों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता,जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है। उसे सोचना चाहिए की ये आपका ही पैसा आपको एहसान तौर पर दिया जा रहा है,और अपने भी लूटा जा रहा है । इन तीन मामलो पर सकारात्मक बदलाव फिर से देश को सोने की चिड़िया बना सकते है,सिर्फ बहेलियों से बचाना है।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

बहुरे राजनैतिक बदलाव के दिन

बिहार चुनाव का अगर ईमानदारी से आकलन किया जाय तो यह कहा जा सकता है की देश अब अपराध और धनबल के राज्ज्नैतिक मानकों से ऊपर उठ रहा है। जिसकी जगह जहाँ है वह वहां पहुचना शुरूकर दिया है। काम करने वाले और जनता के हित में सोचने वाले से जनता बहुत दिन तक दूर नहीं रह सकती। यह भी दिख ही गया। आज का बिहार पंद्रह साल पहले के बिहार से काफी अलग है। कारण की वहां काम दिख रहा है। यद्यपि अगर लालू और नितीश दोनों के राजनैतिक जन्म का जिक्र किया जाय तो दोनों ही एक खेत की पैदावार है। जेपी आन्दोलन से दोनों ही राजकार्य शुरू किये। लेकिन दोनों के रस्ते एक दम अलग। एक लोगों को बढ़ा के बढ्नाचाहता था तो दूसरा लोगों को बेच कर। जनता भी समय-समय पर बर्गालाई गयी,लेकिन अंततः कार्य और विचार की जीत हो गयी।
बिहार का बदलाव देश के लिए जहाँ एक शुभ सन्देश है वही राजनेताओं के लिए एक दिशा भी। काम करिए राज करिए । भाषण से देश नहीं चलने वाला। ऐसा नहीं है की अब वहा बदलाव नहीं होंगे कोई और लालू फिर से ढोंग रचा कर जनता को मंत्रमुग्ध कर आ सकता है ,लेकिन पुराने लालू को तो अब सन्यासी हो जाना चाहिए।
इस लिए राजनीती का एक ही फंडा,काम करो राज करो।

गुरुवार, 18 नवंबर 2010

नौजवानों के हिस्से केवल लालीपॉप

भारत जैसे विशाल देश में रोज ही कहीं न कहीं चुनावी समारोह चला करते हैं । नौजवानों की इन राजनीतिक परिदृश्यों में भूमिका को किसी के बस की बात तो नहीं की इंकार कर सके या यहाँ तक की उन्हें नजर अंदाज कर सके,लेकिन सच ये है कि उनके प्रति किसी के भी इरादे सकारात्मक नहीं हैं,और शायद काभी नहीं रहे हैं। आन्दोलनों का इतिहास उठा कर अगर देखा जाय तो जेपी आन्दोलन से लेकर तमाम बदलावकारी रणनीति युवा सोंच और ताकत से ही मिली। लेकिन क्षोभ कि कालांतर में उन्हें फिर पतली गली दिखा दिया जाता है।
आज देश में युवाओं को साथ जोड़ने का जिम्मा चालीस वर्षीय राहुल गाँधी लेलिये हैं। जिन्होंने आन्दोलन तो शायद कभी देखा भी नहीं होगा । आज देश का एक खाशा पढ़ा लिखा युवा जो सामाजिक सरोकारों से जुदा है जुड़ना चाहता है,जीवन के ऐसे दो राहों पर खड़ा है,कि जाय तो जाय कहाँ ? क्या उन तक राहुल जी का नयनाभिराम हो प् रहा है,तो कत्तई नहीं ,अरे ऐसी जगह तो सच्चाई है कि सुध्धोधन टाईप में संगठन के पुराने लोग उन्हें भेजने से कतराते हैं कि कही इनका दिमाग न बदल जाय और किसी और कुशुनगर कि तलाश में न निकल पड़ें। लेकिन एक बात तो समझना चाहिए कि राहुल जी अप चालीस वर्ष के हो गए अब बच्चे नहीं रहे अपनी सोच होनी चाहिए ,क्या संगठन में किसी तरह से युवाओं कि बराबर कि भागीदारी लग रही है आपको,या आप भी सिर्फ लालीपॉप ही पकड़ा रहे है,इन लोगों को। सरपट यात्रा करने से ही देश का कल्याण नहीं होने वाला है। रोज घोटाले घोटने वालों का जन्म हो रहा है,और आप अपनी विजयगाथा गाने में मशगूल है। बदलाव अपने आप होता है, जिसका फायदा आपको मिल रहा है,इस भ्रम में रहने की जरूरत नहीं कि यह आपके सरपट यात्राओं का फल है। देश जरूर आपकी कद्र कर रहा है,लेकिन आपको भी समझना चाहिए कि जीतीं प्रसाद,ज्योतिरादित्य,और सचिंपाय्लत तथा उम्र के अलावा भी नौजवान यहाँ है,जो हर मामले में उनसे योग्य है,सिर्फ जन्म से मिली सोने के कटोरी उनके पास नहीं है। जब तक इनको साथ नहीं लेंगे ,आप साकार बना सकते है,लेकिन नेता नहीं हो सकते। इन्सान बनिए और इन्सान बनाईये।
जाय हिंद

शुक्रवार, 12 नवंबर 2010

गुलामी का आनंद ,स्वतंत्रता के खतरे

आजाद भारत और गुलाम भारत के राजनैतिक परिदृश्य पर अगर एक नजर राखी जाय तो ,एक बारगी लगता है की ,समृद्धि के लिए भूखमरी सबसे कारगर यंत्र है। शोषण जितना ही भयावह होता है ,विरोध उतना ही तीक्ष्ण होता है। आज के राजनैतिक परिवेश अगर बिगड़े है तो,चिंता काविषय नहीं है,चिंता ये है की अभी भी ये सर्वनाशी सतह पर नहीं पंहुचा हुआ है। दमन संस्कारों ,सिद्धांतों और आन्दोलनों का सबसे बड़ा प्रडेता होता है। ये गुलामी का आनंद और उस आनंद से मिलने वाली ताकत ही थी जिसने स्वतंत्रता दिलाई , लेकिन क्षोभ कि कालांतर में इसके बड़े खतरे उभर के आये ।
स्वतंत्रता जीवन के अंदाज को बदल देती है। जो एक अलग संस्कृति को जन्म देती है। स्वतंत्रता का अभिमान या वैचारिक दुरपयोग बिभिन्न संस्कृतियों में सामंजस्य स्थापित नहीं होने देते ,और स्वतंत्रता सामाजिक हाजमे को ख़राब करना शुरू कर देता है। अब इस स्वतंत्रता के खतरे के रूप में हमें सामना करना पड़ता है,लिव इन रिलेशन से लेकर माँ बाप के परवरिश के लिए सर्वोच्च न्यायलय के आदेश तक के के रूप में। एक तरफ जहाँ बचपन और बुढौती कि दुश्वारियों को इस स्वतंत्रता ने बढ़ा दिया तो वहीं विवाह जैसे पवित्र संस्था को भी तलाक के मकडजाल से उलझना आम हो गया। विवाह अब मर्यादा नहीं रही। माँ बाप अब दैवीय नहीं रहे।
अगर यही स्वतंत्रता है तो हमें हमारी गुलामी वापस कर दीजिये,शहीदों को उनकी शहादत वापस कर दीजिये ,रिश्तों के साथ गुलामी मंजूर है,रिश्तों को बेच आजादी का ढोंग अब और नहीं........

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

कहीं दिया जले कहीं दिल

त्यौहार रोजमर्रा की उबाईयों से बचाकर बीच-बीच में नयापन देने की एक सामाजिक विधान था। लेकिन महगाई की मार त्योहारों पर इस कदर वार करना शुरू कर दी हैं की इन की महत्ता भी घटती जा रही है। सरकारों का ध्यान सड़कों,मल्टीप्लेक्सेस पर तो है कितना जल्दी अंग्रेजियत की सम्पूर्ण खाल में ढक दिया जाय पूरे देश को लेकिन किसी गरीब के घर में दिवाली को दिया जला या नहीं इस पर भला कौन सोंचे। सरसों की तेल की कीमत अब इस कदर बढ़ चुकी है की दीयों से तेल गायब है,इतना ही नहीं अब तो मोमबत्तियां भी साथ छुड़ाने लगी है। कभी किसी एनजीओ को अख़बार वाले साथ देने के लिए तैयार हो गए तो किसी अनाथालय में दिखा दिया अपनी दरियादिली ,हो गयी गरीबो,अनाथों की रखवारी।
तो क्या इतने से ही राष्ट्र की रखवारी हो जायेगी। करोड़ों रूपये के भ्रष्टाचारी गुब्बारे दुनियां में भारत को भले ही एक मजबूत अर्थव्यवस्था वाले मुल्क के रूप में स्थापित करा दे लेकिन ओ बच्चे जो कभी अपने हाथ में खेलने वाले गुब्बारों की खुशी तक नहीं महसूस कर पाए ,उनके गुबार जब फूटेंगे तो वैचारिक बैसाखी पर चलने वाली सरकारों का क्या हश्र होगा। डॉ मनमोहन सिंह विश्व के सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों में से एक ,उनके हाथ में सत्ता की एक मजबूत कमान। हालाँकि खुले बाजारों में सामान खरीदे शायद उन्हें तीस-चालीस बरस हो गए होंगे ,अगर खुद उन्हें दुकानों पर खाद्य सामग्री खरीदने भेज दिया जाय या किसी दुकान पर गरीबों की लाचारगी देखने के लिए बैठा दिया जाय तो उन्हें असली शाइनिंग इंडिया का ज्वलंत तस्बीर दिखेगा॥
पर क्या हुआ छोडिये कही दीप जले कहीं दिल की राग मल्हार को आइये मन ही ली जाय फिर से अपनों की दिवाली...................................ढेरों शुभकामनाओं के साथ।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

आज के राजनेताओं की तुलनात्मक व्याख्या

कांग्रेस प्रवक्ता मोहन प्रकाश ने राहुल गाँधी की तुलना जयप्रकाश नारायण से कर डाली तो कलाम की तुलना पं जवाहर लाल नेहरु से करना कितना बचकाना विषय है ,उनके जैसे नेता से ऐसी उम्मीद नहीं क्योंकि कोई किसी की तरह कत्तई नहीं हो सकता ,उससे बेहतर हो सकता है ,उससे ख़राब हो सकता है। वैसे आज के राजनैतिक परिवेश में कुछ भी गलत नहीं रहा। आन्दोलन और कमर तोड़ म्हणत जयप्रकाश की पहचान थी वो खानदानी बड़ा होने के नाते वह तक का सफ़र तय नहीं किये। जबकि राजीव गाँधी और सोनिया गाँधी के पुत्र होने के अलावा और कोई योग्यता राहुल जी में अभी तक तो नहीं दिखी। इसलिए ऐसे बयानों से बाज आयें ।

गुरुवार, 23 सितंबर 2010

कहीं और कोई चापलूसी राष्ट्रगान न बन जाये

भारत ऐसा अतिथि देवो भव का नारा लगाता है की जो भी अतिथि यहाँ आता है फिर उससे अतिथि तुम कब जाओगे कहना ही पड़ता है और अक्सर बात इतने से नहीं बंटी और हमें लाठी डंडे से लड़ कर भगाना पड़ता है। चाहे ओ अंग्रेज रहे हो या मुग़ल सबको यहाँ की मती ने जो प्रेम प्रसादी बाटी कि वो यहाँ राज्य करने कि जिद ठान लिए। हमारे विद्वान महापुरुष तो गुलामी में भी उनका गुणगान करने से बाज नहीं आते थे। बाद में उनकी कविता को राष्ट्रगान बना दिया जाता है । यह मेरी राष्ट्र और राष्ट्रगान के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है बल्कि एक डर है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कि इतनी आगवानी करने में हम लगे हुए हैं कि कही किसी कवि ने कोई बढ़िया कविता लिख ही दी तो आफत ,कल उसे कहा रहा जायेगा। ओबामा तो आग उगल रहे है कि भारत सबसे बड़ा स्मगलर है उनके लिए हम दिया सलाई में रखे जाने वाले कपडे बुन रहे हैं । इतना भी ठीक नहीं भाई। ....................

पुलिसिया नाटक से तंग लोग कहीं वाकई विद्रोह न मचाने लगें

२४ सितम्बर को अयोध्या मामले का फैसला आने का इंतज़ार पता नहीं जनता कर रही है या नहीं लेकिन पुलिसवालों को इसका इंतज़ार लग रहा है बड़ी बेसब्री से है। अपने प्रचार काटो ये हद कर दिए। कहीं दरोगा को विद्रोही नेता बना कर दबोचने की प्रैक्टिस तो कहीं पुलिस के बड़े अधिकारीयों द्वारा अपने सिपाहियों पर पत्थर मार कर उनकी काबिलियत आकना जहाँ एक तरफ प्रदर्शन की अति है ,वहीं दूसरी तरफ वर्दी पहनाने के यहाँ के तरीके पर भी प्रश्नचिन्ह है। की क्या भर्ती के बाद इन सिपाहियों को ट्रेनिंग नहीं दी जाती है। अगर एकाएक कोई आफत खडी हो गयी तो ये काठ के सिपाही क्या करेंगे।
वैसे तो मायावती सरकार अपने हिम मत के डींगे हांके जा रहे हैं लेकिन परोक्ष रूप से स्कूल,कालेज या हॉस्टल घूम-घूम कर बंद कराये जा रहे हैं। अगर ये कहा जाय कि जनता कुछ भी नहीं करने जा रही इन पुराने मुद्दों पर लेकिन अगर कुछ अस्वाभाविक घटना निर्णय आने के बाद होती है तो उसके लिए शत-प्रतिशत बहन जी के सिपहसालार जिम्मेदार होंगे। जिनको जनता कि रहनुमाई तो छोडिये अपनी वर्दी बचाना मुश्किल हो जायेगा।

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

छात्र-युवा महापंचायत ,क्या खोया क्या पाया ?

१४ सितम्बर ,भारतीय हिंदी दिवस .और ज्ञानपुर का छात्र युवा सम्मलेन संयोग से एक ही दिन था या जान बूझ कर रखा गया था ,भगवान ही जाने। मेघ के प्रसन्न होने से कार्यक्रम गीला होने का बहाना भी मिल ही गया। लेकिन मै चाह कर भी चीजों को बड़े सकारात्मक नजरिये से नहीं देख पाया। वहां मंचासीन नेता जी लोग ज्यादा थे श्रोता कम थे ,देर से पहुचने और श्रोता गण की कमी देख मै श्रोता बन कर ही कार्यक्रम के सफलता को निहारना ज्यादा उचित समझा। अतः श्रोताओं की कतार में जा बैठा,साथ में हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र राजनीति के अपने जमाने के थिंक टैंक रहे चौधरी राजेन्द्र जी थे वे भी नीचे श्रोताओं में ही बैठने पर अड़े थे। हालांकि संचालन कर रहे किसी व्यक्ति से माइक लेकर अरविन्द शुक्ल ने हम लोगों को कई बार मंच पर आमंत्रित किया,लेकिन किसी द्वेष वश नहीं यूं ही हम लोग नीचे ही रहे । इलाहाबाद के छात्रनेता रहे अजीत यादव का भाषण चल रहा था की पानी जोर से आ गयापूरा पंडाल खाली हो गया ,श्रोता बस दो ,मैं और चौधरी राजेन्द्र जी। कई बार संचालक के कहने और अनुरोध के बाद हम लोगों को कहना पड़ा कि जब आप पानी से भाग रहे हो भाई तो आन्दोलन करने जा रहे हो ,अभी गोली चल जायेगी तो क्या करोगे?रही सही भाषण का निष्कर्ष फिर मैंने देखा वही था जो छात्र राजनीति के लोगको बीसों सालों से करता देख रहा हूँ। किसी ने किसी को पचासों टिकट दिलाने कि हैसियत में लाने का प्रयास किया तो किसी द्वारा मंच की मर्यादाये भी तोडी गयीं । एक विकास तिवारी जो इलाहाबाद से आये थे कि बाते काफी तर्क संगत और विचारणीय समझ में आयीं ,बाकी सबका सिर्फ स्वार्थ था।

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

अयोध्या मसले के आने वाले फैसले में फिर भविष्य तलाशने लगे अस्तित्व के खतरे से जूझते लोग

बाबरी मस्जिद विवाद लगभग दम तोड़ चुका था । उसके फैसले का न तो किसी सामान्य जनता को इन्तजार था ,न तो कोई रूचि। लेकिन इसको मीडिया द्वारा इतना प्रचारित करा दिया गया कि लोग अपना फिर दिमाग खपाना शुरू कर दिए। सच यह है कि अगर चुपचाप यह निर्णय सामान्य ख़बरों कि तरह अखबार में आजाता तो शायद किसी का ध्यान भी नहीं जाता ,बाकि प्रतिक्रिया कि तो बात हो छोडिये।
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया पहले से ही इतनी मुस्तैदी और हो हल्ला दिखाया जाने लगा कि न चाहते हुए भी लोग कुछ कर बैठे। ऐसे ही है जैसे किसी के मरने की तैयारी में पहले से ही कफ़न खरीद कर रख लिया जाय। अगर कोई हो हल्ला होता है,कोई विवाद होता है तो सबसे पहले मीडिया और चाँद नेताओं को जो पहले से ही शव-यात्रा के लिए कमर कास रहे हैं,उनको हमेशा-हमेशा के लिए जेल की काल कोठरी में डाल देना चाहिए जिससे फिर किसी जीवित के मरने के तैयारी करने की जुर्रत और हिम्मत जुटाने में इनकी रूह काप जाय ।

रविवार, 5 सितंबर 2010

किसानो के देश भारत में किसानो की बदहाली

बचपन से ही एक रटा -रटाया जूमला पढता चला आ रहा हूँ कि भारत एक कृषि प्रधान देश है ,जिसकी सत्तर प्रतिशत जनसँख्या आज भी गावों में निवास करती है ,जिसकी आजीविका कृषि पर निर्भर है। मुझे एक बात समझ में नहीं आती कि देशवासियों का अन्नदाता भी किसान ,सीमा पर देश कि सुरक्षा के लिए सीने पर गोलियां भी खाता किसान ,फिर भी उस किसान कि ये बदहाली देश में क्यों है कि वो कभी अपने अधिकारों कि लड़ाई में सरकार कि लाठियां खाता है तो कभी गोलियां। शायद देश के पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का यह नारा कि "जय -जवान,जय-किसान "कहीं न कहीं इसी मनोभाव से प्रभावित था।
आज अलीगढ़ के जमुना एक्सप्रेस कि बात चल रही थी वह किसानो के साथ जुर्म हुआ,बाद में राजनैतिक पार्टियाँ अपनी रोटी-सेकने के चक्कर में उनके साथ हो लिए। कभी सिंगूर तो कभी नैनो का विवाद। ये दर्शाता है कि आजादी के तिरसठ सालो बाद भी हमारे देश में किसानो के जमीन के अधिग्रहण से सम्बंधित कोई पुख्ता नीति नहीं बनी है। गुजरात में तो ऐसे विवाद नहीं होते कारण शायद वह जब ऐसे कारखाने या किसी तरह के प्रोजेक्ट लोअगाये जाते है तो किसानो के साथ बैठ कर सलाह मशविरा किया जाता है,उन्हें उनकी जमीन का उचित मुआवजा दिया जाता है। तो बाकी के प्रान्तों में ऐसा क्यों नहीं होता। हाँ एक बात जरूर है कि इसमें किसानो को भी अपनी जिद छोड़ इतना अधिक मांग नहीं रखनी चाहिए जो देय न हो।
देश के राजनेताओं का हाल यह है कि एक -एक सन्देश यात्राओं में करोड़ों रूपये खर्च हो रहे है और किसानो को मूर्ख बना उनके स्वार्थ के साथ टोपी पहनी जा रही.है। एक कांग्रेसी मित्र ने बताया जो प्रदेश पदाधिकारी भी है कि राहुल गाँधी के अहरौरा आगमन पर दस करोड़ खर्च हुए थे। क्या राहुल गाँधी ये दस करोड़ अगर दो चार महीने वही अहरौरा में रुक कर ये पैसा अपने हाथ से वहा के विकास में लगा देते तो क्या उनको अलग से कोई सन्देश यात्रा भी करनी पड़ती क्या?लेकिन नहीं इनको कितनी कलावती के सूखी रोटी को संसद में प्रचारित करना है,वह कैसे होगा। रत कर भासन देने वालों से आखिर कितनी उम्मीद कि जाय ।
अतः जिसका खा रहे हो उसका तो गावो भी नेताओं ।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

क्या राष्ट्रीय पर्व महज भ्रामक जिम्मेदारियां बनकर रह गयी हैं

इस पंद्रह अगस्त को देश अपना चौसठवां स्वतंत्रता दिवस काफी हर्षो-उल्लास भरे उदासीनता से मनाया। क्या यह सच नहीं है। मुझे चिंता इस बार की नहीं हैं ,इसके बाद के आने वाले सौ सालों बाद क्या होगा इसकी चिंता है। शायद आने वाली पीढ़ी के पास इतना समय नहीं होगा की वे ऐसे राष्ट्रीय पर्वों को अपने भाग -दौड़ का भाग बना सके । हर बार तो कम से कम अखबार तवज्जो देते थे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को। वे खूब छापते थे की कहा-कहा क्या-क्या हुआ। लेकिन इस बार अखबारों तक की उदासीनता स्पष्ट समझ में आयी। कही कोई जोश नहीं था। ले देकर थोड़ी राजनीति जरूर हो जाती है प्लास्टिक के झंडे इत्यादि के नाम पर। बच्चों में स्कूलों में होने वाले कार्यक्रम और मिठाइयों के वजह से थोड़ी खुशियाँ दिखी,अन्यथा सब कुछ धूमिल सा था।
इतना ही नहीं देश के प्रधानमंत्री का भी उदबोधन भी देश के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठ कम और अपने संगठन और संगठन के मुखिया के प्रति ज्यादा दिखी।क्या -क्या देश पर एहसान उन लोगों ने किया अपने कार्यकाल में उसका ढिढोरा ज्यादा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का उदबोधन सुना तो वहां नॉएडा से बालियाँ तक बन्ने वाले गंगा एक्सप्रेस जैसे अपने महान कारनामों और अपराधियों को जेल में डालने की खुशी के अलावा शायद कुछ भी बताने को नहीं था।हाँ एक चीज जरूर था की वो जयकार करते समय जय हिंद,जय भारत के साथ जय भीम और जय कांशीराम का उद्घोष करना नहीं भूली। कम से कम एक दिन तो ईमानदारी से हम राष्ट्र के नीव में दबे पुराने ईटों को याद कर लेते जिनके कपार पे एक से एक ईमारते हम तानते जा रहे हैं। लगता है अगर यही दशा बरकरार रही तो आने वाली पीढ़ी भगत सिंह और गाँधी को विदेशी किताबों के माध्यम से जानेगी। कितनी शर्म भरी खुशियाँ होती हैं जब हम सुनते हैं की गाँधी को साउथ अफ्रीका में भगवान् की तरह पूजा जाता है.उनका जन्मदिन २ अक्टूबर वहां का सबसे बड़ा जलसा होता है। और हमारे यहाँ अनी पीढ़ी गांधी को विचित्र-विचित्र शब्दों से गाली भरे अंदाज में सम्मान देती है। अगर हम सच्चाई पर पर्दा न डालें तो।
तो क्या सिर्फ और सिर्फ आने वाली पीढ़ी ही जिम्मेदार होगी इसके लिए तो कत्तई नहीं। क्योंकि सुने-सुनाये कुछ घटिया जुमले मानसिक रूप से महापुरुषों के प्रति विकृति लाने का काम करते है,जिनके पीछे कोई सत्य का बाँध नहीं खड़ा होता। अतः गुजारिश है देश के नीति नियंताओं से की कम से कम अपने नीव की ईट को भी कायदे से सलाम करने का मौका और संस्कार फिर से उसी तरह से जगाये जैसे १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने दिखया था ,एक बध्याँ सन्देश हो सकता है।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

आजकल राजनीतिज्ञों को बड़े आर्थिक घोटालों का अवसर नहीं मिल रहा है क्या भाई?

आजकल अखबार पढने में मजा नहीं आ रहा था ,कारण कि कोई बड़े घोटाले कि खबर नहीं मिल रही थी। बड़े दिनों के बाद तो थोडा सा कामन वेल्थ में कुछ कलाकारों ने लम्बा हाथ मारने को कोशिश की,लगभग सफलता भी हाशिल हो गयी,भले मामला बीच में ही प्रकाश में आने से थोड़ी किरकिरी हो गयी। खैर हमारे यहाँ के लोग न जाने किस मित्त्ती के बने हुए है,इनको इस सब से भय भी नहीं है। भय भी हो क्यों,अब तक के भारतीय इतिहास में जितने बड़े घोटालेबाज हुए उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाया ,और पकड़ में आने के बाद तो गजब का विकास होता है उनके व्यक्तित्व और राजनीति दोनों में। अब माननीय लालू जी का ही ले लीजिये,चारा घोटाला क्या घोटे की देश उनका मुरीद हो गया .लगातार मुख्यमंत्री बनते रहे फिर रेल मंत्री रहे,अब क्या पूछना,क्या कर लोगे भाई । सुखराम बाबा घोट के स्वर्ग को प्राप्त हो गए लेकिन आज भी उनका नाम स्वर्णाक्षरों में बेचा जाता है। तमिल हिरोइन ,फिर मुख्यमंत्री जयललिता इतनी खाई की शरीर धो पाना मुश्किल हो गया.क्या हो गया इन सारे लोगों को ,ऐसा तो नहीं किइन्हें कोई सजा दे सकता है। फिर रही बात कोर्ट कि तो ये क्या इनकी पहुच से बाहर है,तो सुरेश कलमाडी और शरद पवार को भी चिंता करने कि जरोरत नहीं है,अरे भाई आज कि पतझड़ ही तो कल बसंत लाएगी.

बुधवार, 11 अगस्त 2010

डीएनए ,नार्को और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक जाँच विधियों पर रोक का स्वागत

समाज कभी भी अपराध मुक्त नहीं रहा है। पुरुषोत्तम भगवान् राम के समय में जब कहा जाता था कि"नहिं कोई अबुध न लच्छन्हीना"तब भी रावण और बालि जैसे खूंखार समाज में विद्यमान थे। कृष्ण के समय में अगर धर्मराज युधिस्ठिर थे तो शिशुपाल और दुह्शासन भी थे। ऐसे कितने ऋषि-महर्षियों कि तपस्या भंग कर देते थे ये तथाकथित दानव। लेकिन उनको सजा देने कि इतनी क्रूर विधा कभी भी नहीं थी। ईश्वर कि परिभाषा बताई जाती है कि "पग बिनु चलै सुने बिनु काना"। अतः परमसत्ता अगर कोई निर्णय लेती है तो उसी को विश्वासी समाज न्याय मान लेता है.अन्यथा जिस देश का धर्मराज जूया खेलता हो और इतना ही नहीं इतना बड़ा जुआड़ी हो कि अपने पत्नी तक को दाव पर लगा दे वहां अगर दुशासन पनप रहे हैं तो कोई अविश्वास कि बात नहीं है।
लेकिन समयांतर में आज की स्थितियां भी करीब -करीब वैसी ही है। न जाने कितने शिशुपाल सड़कों पर ससम्मान सांड की तरह घुमते हैं,और बड़ी मजे की बात की चिन्हित भी नहीं हैं। जो पकड़ में आ गया वो चोर अन्यथा चोर सबसे बड़ा सिपाही। समाज में अपराधियों को दंड देने की विधा भी समय-समय पर बदलती रहती है.इतिहास गवाह है,सूली पर लटकाया जाना तो सबसे बाद का नियम है। इसके पहले हाथी से कुचलवा देना,सरेआम भुनवा देना ,विष का प्याला देना ,ये सब तो था लेकिन बात उगलवाने के लिए नारको और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक टेस्ट्स को निश्चय ही हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर पेबंद लगाना कहा जा सकता है। आप सारे विद्वान और समाजशास्त्री मिलकर किसी का अपराध नहीं ढूढ़ पा रहे हैं तो फिर आप भी तो अपने काम के प्रति बहुत लोयल नहीं कहे जा सकते,एकबात।
दूसरी बात की क्या इस तरह के घटिया टेस्ट की कोई सही आदमी के ऊपर कर के कभी टेस्ट किया गया है,यदि हाँ तो किस पर और यदि नहीं तो क्या गारंटी है की ये सहे ही होता है। और अगर इतना ही सही और न्याय प्रिय हैं हम तो तमाम आतंकवादी जो पकडे जाते हैं सबसे पहले छूटते ही उनका नार्को और ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं कराया जाता है। यहाँ गवाह को कटघरे में खड़ा करा कर पचहत्तर बार कसमें दिलाई जाती है की मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा,ऐसी कसम न्यायाधीश तो एक बार भी नहीं खता की वो जो निर्णय देगा सच ही देगा। तो पञ्च परमेश्वर को हम कब तक आत्म सात करते रहेंगे। खासकर ऐसे हालात में जब पूरी की पूरी बेंच बेची और खरेदी जाती हो।
ऐसे में यह निर्णय मानव मूल्यों की रक्षा करेगा बाकी अपराध सजा से कभी भी नहीं रुकता ,जरूरत है तो मानव सुधार और वैचारिक शिष्टता के छोटे से पहल की।

रविवार, 8 अगस्त 2010

फिर शुरू हो गयीं विदेशी गुलामी के खात्में और देशी गुलामी के जश्न की तैयारियां

देश अपनी तथाकथित आजादी का चौसठवां सालगिरह मनाने को आतुर है। कही परेड की तैयारियां तो कहीं मुर्दे खंगाले जा रहे हैं। आये दिन अब एक हफ्ते तक आपको अखबारों में किसी शहीद के कारनामों की गूँज सुनाई पड़ेगी। ले देकर एक हफ्ता तक चलना है ये सिलसिला फिर सब शांति की कोखमें समा जाता है।

कड़वा जरूर है पर बड़ा ही सच कि विदेशी गुलामी तो ख़त्म हुई आज के दिन यानि १५ अगस्त १९४७ को लेकिन देशी गुलामी कि नीव भी तो आज के ही दिन पड़ी। आप कह सकते हैं कि वो क्या जाने गुलामी का मतलब जिसने इसको ...............................

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

देश की जनता क्या आकड़ों से अपना पेट भरेगी

देश में आजादी के बाद से आज तक सबसे ज्यादा कांग्रेसी सरकार शासन की है। जैसे किसी दुखांत नाटक के बीच में चुटकुले आजाये ,उसी माफिक गैर कांग्रेसी सरकारें बीच-बीच में आती जाती रहीं । देश की आर्थिक नीति काफी तंगहाल हो चली थी .विश्वनाथ प्रताप के आरक्षण के सामाजिक लालीपॉप के आस-पास। उसके बाद जब सरकार नरसिम्हा राव के हाथ में आई और यही मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुए तो अर्थव्यवस्था को इस कदर सुसंगठित और संचालित किया की आज तक हम घिस रहे है ,अन्यथा जाने कहाँ होते?


आज देश में पी चिदंबरम से लेकर स्वयं प्रधानमंत्री और प्रणव मुकर्जी इत्यादि सारे विद्वान भरे पड़े हुए हैं फिर भी हम देश की खस्ताहाल गरीबी और महगाईं को आकडे देकर दबाना चाहते हैं । देश की गरीब जनता जिसका इन आकड़ों से कोई लेना देना नहीं होता क्या आकडे खायेगी। आप लाख चिल्ला लें ,अपनी सफलता का डंका पीट लें लेकिन गवईं गरीब को आपके सब्सिडी से क्या लेना देना ,वो बस इतना जानती है की चीनी और दाल जैसे खाद्य पदार्थ भी उनके पहुच से बाहर हो रही है। देश का तो मई कत्तई नहीं कह सकता लेकिन तथाकथित कांग्रेस के राजकुमार बारात निकाल कर सन्देश यात्रायें कर रहे हैं। उनकी एक सन्देश यात्रा जो उत्तर प्रदेश के अहरौरा में आयोजित थी,में कई करोड़ रूपये खर्च हो गए ,जैसा की मेरे एक मित्र जो कांग्रेसी नेता हैं बताये। कास उस पैसे को ये राजकुमार उसी अहरौरा के विकास में खड़े होकर खर्च करा देते तो पूरे देश का भले नहीं लेकिन वहां के तो राजकुमार हो ही जाते। सांगठनिक विकास के लिए इतना कुछ कर रही है कांग्रेस सरकार वो सब सिर्ग जनता के विकास में ईमानदारी से खर्च करा दिया जाय तो अपने आप उनके संगठन का विकास हो जाएगा और इस पार्टी को देश की राजनीती में छोटे दलों को फेक पुनः स्थापित होने का मौका मिल जाएगा। आखिर छोटे दल कम से कम जनता के संपर्क में तो हैं यही कारन है उनके विकास का जो ईन राष्ट्रीय पार्टियों लिए खतरा बने हुए है। अभी समय है चेत जाओ


बुधवार, 4 अगस्त 2010

भारतीय संसद में अमेरीकी राष्ट्रपति का भाषण -ये कैसा गौरव

विश्व पटल पर अपने भाषा और भाषण से हलचल मचा देने स्वामी विवेकानंद की धरती पर ,उसकी लोकतांत्रिक रसोईं में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के भाषण की तैयारिया ऐसे हों जैसे कोई महापर्व आ गया हो,तो बरबस कहना पड़ता है की भारत गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है,और चापलूसी तो मानो इसकी कुर्सियों के एक-एक सोखते मेंलगी हुई है। रविन्द्रनाथ टैगोर को राष्ट्र गुरुदेव की उपाधि दिया ,बड़ा ही सम्मान रहा और आज भी है,उनकी विद्वता पर कोई नुक्ताचीनी भी नहीं है,फिर भी जब-जब उनके द्वारा लिखित राष्ट्रगान की बात आती है,पहली जुबान में लोग ये कहने से बाज नहीं आते की इतना विद्वान आदमी और ऐसी रचना को किसी अंग्रेज की चापलूसी में क्यों लगा दिया,और उनके चरित्र पर लगा ये दाग आज तक नहीं धुल सका । ख़ास कर ऐसे समय में जब देश के नौजवान जान हथेली पर ले देश को मुक्त कराने में लगे हों वैसे समय किसी मुखिया विद्वान द्वारा इस तरह के पहल जेहन में नहीं उतारते। आज का बुध्ह्जीवी वर्ग उसे चाहे जैसे सही साबित करती फिरे लेकिन ये बात गले नहीं उतरती।
ठीक उसी तरह हमारे देश के महापुरुष चाहे वो गाँधी रहे हों,या सुभाष,विवेकानंद रहे हों या अरविंदो,सब ने अपनी भाषा से विदेशियों को इस कदर आशक्त किया की वो हमारे मुरीद हो गए। लेकिन आज विश्वगुरू कहलाने वाला देश दूसरों के नुस्खों पर चलेगा,दूसरों की कार्यशैली को अपना आदर्श बनाएगा तो फिर भारतीय विद्वता की पहचानखतरे में है। और ये कभी भी देशहित में न्याय सांगत नहीं होगा। अतः बराक ओबामा को बुलाये ,उसका विरोध नहीं है,उनका भाषण भी कराये उसका भी विरोध नहीं है,होसके और ज्यादे चापलूसी का शौक चर्राया हो तो उनका कसेट रख भजन की तरह सुने ,इसका भी विरोध नहीं है,लेकिन इसको इतना महिमा मंडित न करे की संस्कृति धूमिल हो अन्यथा विवेकानंद की खडाऊं और मदनमोहन मालवीय की छडी अभी भी सुरक्षित है।

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

अब एक नया ढिढोरा -न्यायिक सुधार का

आज एक हफ्ते से लगातार अख़बारों में छाये हुए है तथाकथित विद्वान लोग जो अपने-अपने ज्ञान बाट रहे हैं की कैसे देश की न्याय व्यवस्था सुधारी जाय। ये वातानुकूलित कार्यालय तक को ही दुनिया समझने वाले कितना सटीक सलाह दे पाएंगे भगवान ही जाने। गाँव में एक नाली के लिए जन्म-जन्मान्तर से केस चल रहे होते हैं और जितना पैसा उस केस के लड़ने में दोनों पक्षों से खर्च हुए उतने में सही मायने में तो कई एकड़ खेत बैनामा करा लिया जाता। बात यहीं नहीं ख़त्म होती अब ये केस इतनी पुरानी हो गयी की दोनों विरोधी पक्षों की दुश्मनी को समय ने दोस्ती में ताफ्दील कर दिया और ओनो पक्षों के लोग एक साथ मोटर साइकल पर सवार हो केस लड़ने कचहरी जाते हैं,एक दुसरे को नाश्ता कराते हैं,लेकिन सिर्फ न्यायलय के लेट लतीफी के कारन आज भी कागजी दुश्मन बने हुए हैं तो समझ में नहीं आता हम जब चाहते हैं,जो चाहते है संवैधानिक सुधार करा लेते हैं,तो इस पर विचार क्यों नहीं होता।

आजादी के तिरसठ सालों बाद भी इन मदांध ,घटिया और स्वार्थी राजनेताओं को सन्देश यात्राओं में,साइकिल यात्राओं में तो रूचि है जिससे वे भारत ही नहीं अमेरिका के भी राष्ट्रपति हो जाय लेकिन देश के गरीबों के कटोरे में रोटी भी नसीब है या नहीं ,उसकी जहमत ये क्यों लें। अभी चार-पांच साल पहले बनारस के पांडेपुर स्थित पागलखाने में सरला नाम की एक बुजुर्ग महिला का प्रकरण प्रकाश में आया था जिसे न्यायलय ने पागल करार दे पागलखाने पंहुचा तो दिया पर उसकी सुधि उतार दी,अब बेचारी सरला को जबरदस्ती पागल बन अपना जीवन कुर्बान करना पड़ा। उसके घर वाले भी उसे पहचानने से इनकार करतेरहेबाद में एक प्रतिष्ठित वकील रमेश उपाध्याय की निगाह पता नहीं कैसे उसकी बेबसी पर पडी उसे पागलखाने से तो छुटकारा मिल गया ,न्यायलय तो उसे भला ही चूका था ,उसके नाम से कुछ जमीन-जायदाद थी जिसके लालच में बुधिया के तथाकथित देवर उसको अपने साथ ले तो गए। लेकिन न्यायलय क्या सरला के बीते चालीस सालों को वापस कर पायेगा,उसकी नौजवानी जो काल कोठारी में बीतने को मजबूर थी उसको किसी भी तरह से भरपाई किया ज सकता है तो कत्तई नहीं।

दर इतना ही नहींहै की सरला के साथ ऐसा हुआ ,सरला तो देर-सबेर मुक्ति पा गयी,जाने कितनी सरला ऐसे ही सही न्याय के ललक में अंधे क़ानून के सामने दम तोड़ देती होंगी। उनका क्या होगा,क्या व्यवस्था की गयी सरकार द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए। सबसे बड़ा कोढ़ समाज की पुलिस व्यवस्था है,जिस पर कोई रोकटोक नहीं। पहले तो महिलाए कम से कम मारी नहीं जाती थी अब दिन जैसे kal सुलतानपुर में एक अध्यापिका की गयी गयी तो में मौत

नई पीढ़ी रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है

बेशक आज हम इक्कसवीं सदी का आनंद ले रहे हैं। देश अपनी आजादी का चौसठवां सालगिरह मनाने को व्यग्र है। हर तरफ युवाओं को आगे लाने की बात चर्चा आम है,खासकर के देश की राजनीति में। हालाँकि देश की राजनीति में अब भी बुजुर्गों का बोलबाला है। राष्ट्रीय नेताओं में चंद लोगों के नाम पर युवाओं का ढिढोरा पीटा जा रहा है,समझ में नहीं आता की जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया ,सचिन पायलट ,उमर अब्दुल्लाह , अखिलेश यादव,इत्यादि जो नेता पुत्र हैं के नाम पर ही क्या ये ऐलान किया जाना जायज है ,या इन चंद नामों के अलावा देश में युवा नहीं हैं जो सक्रीय राजनीति में सहभागिता कर सकें।
लेकिन ये सवाल यही से शुरू होता है और यहीं पर ख़त्म भी हो जाता है, कारण कि देश का हर युवा रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है। ये तथाकथित नाम जो मैंने ऊपर दिया है,ये भी इनसे अछूते नहीं हैं। राहुल गाँधी का जूता लोट्टो का ही होता है जिसकी कीमत हजरोंमे है,अब ऐसे पैरों से दांडी मार्च की कितनी उम्मीद की जा सकती है। कहने को अखिलेश यादव चिल्लाते रहें की मैं किसान का बेटा हूँ लेकिन खेत की माटी पैर में लगने से इन्फेक्सन हो जाते हैं। कारण कहीं न कहीं रील लाइफ जीवन पध्हती है।
आज देश का हर युवा आगे तो जाना चाहता है लेकिन ,उसके पथ प्रदर्शक या आदर्श कभी शाहरुख़ खान तो कभी रितेश देशमुख हैं। तो वहीं लड़कियां भी बिद्या बालान या कैटरीना कैफ की होड़ में हैं। मैं ये तो नहीं कहता की ये गलत है लेकिन इन मासूम विचारों वाले कन्धों पर हम देश की बागडोर भी तो नहीं सौंप सकते । हेयर स्टाइल से लेकर मोबाइल और ड्रेसिंग सेन्स की तो हुबहू नक़ल है लेकिन क्या उतनी गंभीरता कापी ,कलम और किताब के प्रति भी है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। समसामयिक विकास होना कभी भी गलत नहीं होता लेकिन इस उन्माद में लक्ष्यों को भूल जाना क्या विकास को गति देना है। अब लक्ष्य भी क्या नौकरी ,तो क्यों ? क्योंकि कार ,बंगला घोडा .गाडी चाहिए ,परिवार तक के जिम्मेदारियों की अनदेखी खुलेआम हो रही है तो ऐसे में समाज के मददकितनी उम्मीद की जाय। और कब तक झूठे कोसते रहें की कुछ हाथ नहीं रहा युवाओं के ...............

शनिवार, 31 जुलाई 2010

आखिर किसने सुलाया बनारस को?

तुलसी ,कबीर और रविदास की धरती कभी भी सो नहीं सकती ,ये तो सदियों से जीवंतों का शहर रहा है,और अगर इसे सोने जैसी निगाह से देखा भी जा रहा है तो इसे सुलाया कौन? अभी कल चिलचिलाती धुप में नन्हे -मुन्ने बच्चों को तस्बीर अख़बारों में दिखी मानों पूरा बनारस घेर डाला था इन नौनिहालों ने,लेकिन किसके इशारे पर और आज कैसे इनकी बुध्धि को सदमा लगा या कहीं ये अपने किये का पश्चाताप तो नहीं।
अस्सी के दशक तक का यदि ध्यान दिया जाय तो बनारस में इक्के-दुक्के अंग्रेजी मीडियम स्कूल हुआ करते थे ,नब्बे के दशक में इसमें काफी बढ़ोत्तरी हुई और दो हजार से अब तक में तो मानो इनकी बाढ़ सी आ गयी है। आज स्थितियां यहाँ तक पहुच चुकी हैं कि हर व्यक्ति आज अपने बच्चों को अंगरेजी मीडियम से ही पढ़ाना चाहता है। तो क्या दिया अब तक के तीस सालों में इन आंग्ल भाषी लोगों ने इस पर भी विचार होना जरूरी है। अब क्या वो लोग जो अंग्रेजियत के नाम पर आधुनिकता के अंधेपन में हमारी संस्कृति का नंगा नाच करवाए उन्ही के माथे हमारी संस्कृति चलेगी। ये स्कूल पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी तक को एक चाकलेट भी बच्चों को नसीब नहीं करा पाते और फ्रेंडशिप डे ,वेलेंटाइन दे और हसबैंड डे को केक काट बच्चों में बट्वाते हैं,वो आज जन यात्रा निकाल कर कौन सा सन्देश देना चाहते हैं। रही बात सड़कों की तो आये दिन अखबारों के पन्ने बस स्कूलों द्वारा किये गए दुर्घटनाओं से भरे पड़े हैं सुबह छः बजे से दश बजे तक सड़कों पर चलना दूभर कर दिया है ,इन स्कूल बसों ने। तो कहीं ये कई स्कूलों की श्रंखला चलने वाले शिक्षा के अंगरेजी व्यवसायियों का नाम चमकाने का रास्ता तो नहीं या कोई नया स्वार्थ आ टपका है,अन्यथा जो-जो लोग इस जन्जारण को अगुवाई कर रहे हैं उनसे किसी सामाजिक सुधर की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती। बनारस हमेशा से जीवंत शहर रहा है ढोल बजा कर नाटक करने की कोई जरूरत नहीं ।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

राजतंत्र से भी बदतर भारतीय लोकतंत्र

लोकतंत्र के इतिहास को अगर खंगाला जाय तो समझ में आएगा कि भारतवर्ष को अन्य लोकतान्त्रिक देशों की तुलना में लोकतंत्र काफी आसानी से या यूं कहिये लगभग घलुआ में हाशिल हो गया .....लोकतंत्र । अमेरिका में लोकतंत्र की खातिर सैकड़ों वर्ष जंग हुई,अब्राहम लिंकन से लेकर बी.टी.वाशिंगटन तक की कहानी दुनिया चाह के भी भुला नहीं सकती। हम तो गुलामी के दौर से गुजर रहे थे और हमारी राजतांत्रिक व्यवस्था को छिन्न -भिन्न करने का काम अंग्रेजों ने पहले ही कर दिया था। यानि कि गुलाम हुआ था राजतांत्रिक भारत और आजाद हुआ सूद-मूल लेकर लोकतान्त्रिक भारत के रूप में। और उसी अपनी गलती का अंग्रेजों को भोग भोगना पड़ा भारत को मुक्त करने के रूप में। लाख हम चिल्ला लें लेकिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है का गलतिय नारा अंग्रेजों का ही दिया हुआ था।
लेकिन आज आजादी के तिरसठ सालों बाद भी हम ऐसे मानसिक दिवालियेपन कि स्थिति से गुजर रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं तक में नेताओं को उठा के मार्शल से फेक्वाया जाता है,इतना ही नहीं महिला विधायिकाओं तक को। ये क्या है ,कहाँ चली गयी सत्तासीन नेताओं को ऊचीं मानसिकता ,जहाँ दो विरोधी ध्रुव के लोग भी एक दुसरे का सम्मान करते थे। ये तो राजतन्त्र से भी बदतर है। अतः ,इसके विरोध में व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सारे दलों के नेताओं को आगे आना चाहिए जिससे देश कि संसद,विधायिका का तो कम से कम मटियामेट होने से बच जाय।

गुरुवार, 15 जुलाई 2010

कांग्रेस की दरबारी नीति

आजादी के बाद देश की बागडोर कांग्रस के हाथों में सबसे ज्यादा दिन तक रही ,लिहाजा जनता यह भी नहीं आकलन कर पाती की उसने देश हित में क्या-गलत किया ,क्या सही किया। कारण करना सब कुछ उन्ही को था । जनता गुलामी के सदमे से नयी-नयी उबरी थी और उसे गैर अंग्रेजियत की हर चीज अच्छी लगती थी चाहे वो सही हो,या गलत। इससे भी नहीं इंकार किया किया जा सकता की बहुत कुछ विकास के कार्य हुए भी,लेकिन वो अधिकतम पंडित नेहरू के कार्यकाल में,या फिर इंदिरा जी तक। लोकतांत्रिक राजघराने के ये चंद लोग मुट्ठी में संविधान और ठेले पे हिमालय को धोने लगे ,और वैसे ही उनकी नीतियां ,जो गरीबों को दिन-प्रतिदिन गरीब बनाती गयी और अमीरों को उनका खून चढ़ा-चढ़ा कर मोटा किया जाता रहा।
लेकिन आज के कांग्रेस की नीतियां तपो अब उबून हो रही हैं,जैसे लग रहा है कम,प्यूटर देश चला रहा है,कई विश्वविख्यात अर्थशास्त्री देश की स्थिति सुधारने के बहाने संगठन को सुदृढ़ बनाने में लगे हुए । नरेगा,या दुनिया भर ऐसी योजनाये जिसमे देश के विकास का पैसा तो खर्च होता ही है,ये गरीबों के नाम पर ही बनती भी हैं,पर अफ़सोस की इनसे एक तरफ गरीब जहाँ कामचोर बन खानदानी गरीब हो जाता है,वहीं इन नेताओं के चट्टे-बट्टे खा-खा कर सुगर ब्लाड्प्रेसर का इलाज करा रहे हैं फिर भी इनको होश नहीं आ रही है। गरीबों के नाम पर आने वाला पैसा अगर उन तक नहीं पहुचता है तो उसके खाने वाले बिचौलिए को कफ़न किरी करने वाले घिनौने कृत्यकारी से बेहतर नहीं समझा जा सकता। अब इन नेताओं को ही तय कर लेने दीजिये की इन्हें नेता बनाना पसंद है यां कफ़न की दलाली। बाद का काम तो उन मरे या मरने वाले लोगो की आत्माएं उनकी जीवित अस्थियाँ उकेल कर उनसे अपना हिसाब देर-सबेर पूरा कर ही लेंगी। ये हाल देश के राजनेताओं के कर्म्हीनता वजह से हुआ है,उसमे कोई दो राय नहीं ,अब तो कम से कम झोपड़ियों का झूठा दौरा करना बंद कर ,अपने किये की पछतावा कर इन लोगों को चेत लेना चाहिए ,अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब देश में सिर्फ नेता रहेंगे और मृत गरीब आत्माए,जिसकी जिसकी जिम्मेदार सरकार होगी।

सोमवार, 12 जुलाई 2010

कमजोरों के पास शोषित होने के अलावा और कोई रास्ता नहीं

गरीब ,गरीब होता है,कमजोर होता है,वह किसी जाति का नहीं होता ,किसी सम्प्रदाय का नहीं होता और न ही कोई धर्म उसे अपना कहने का फजीहत मोल लेना चाहता है। नेताओं में गरीबों को खरीदने की होड़ होती है ,और गरीब ,कभी तन ढकने के वस्त्र की खातिर,तो कभी पेट की आग बुझाने को ,आखे झुकाए स्वाभिमान के कडवे घूँट को पीकर बिकने वालों की कतार में खड़े होने को मजबूर होता है। कभी कोई अहमद गरीबी और मुफलिसी से विक्षिप्त हो अपने बच्चियों को मार डालता है तो कभी कोई गरीब अपने कमजोरी के गम को जहरीली शराब में घोल के पीने के प्रयास में दुनियां से विदा ले लेता है। प्रशासन भी जो जेब काटते हुए पकड़ा जाता है उसे मार के मुआ डालने को होता है और जो हत्या करके जाता है उसके लिए जेल की कोठरी में भी झकाझक वातानुकूलित व्यवस्था और पञ्च सितारा होटलों के व्यंजन और महंगी विदेशी शराब ,और क्या-क्या नहीं परोसता।
ऐसे में देश के राजनेताओं का रवैया देख तबीयत दंग रह जाती है कि क्या ये भी मनुष्य ही हैं। अब किसी नेता के आंसू नहीं टपकते ,किसी गरीब कि गरीबी पर,अब किसी मंत्री कीनिगाह नहीं पहुचती किसी गरीब झोपडी में ,निगाह पहुचती है तो बस इस पर की वोटर है की नहीं,यदि नहीं तो उसे कितना जल्दी वोटर बनवा दिया जाय और फिर उसके भूख से तड़पते कमजोर कन्धों पर झूठा और घिनौना हाथ रख चाँद रूपये में या दारू की कुछ बोतलों में उसकी गरीबी को अपने राजनैतिक बेसन में लपेट कर पकौड़े बनाकर अपने चखने का इंतजाम किया जाय। देश में कोई भी योजना बनाई तो इन गरीबों के नाम पर जाती है लेकिन उसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा इनके आलमारियों की शोभा बढ़ा रहा होता है।
तो क्या इन अमीर राजनेताओं के बस की बात है देश के गरीबों की गरीबी को समझना और उसे दूर करना तो कत्तई नहीं । इसके लिए अगर पहल की जरूरत है तो आम आदमी की। उसके लिए अलग से कुछ बहुत करने की भी जरूरत नहीं है,सिर्फ और सिर्फ एक सोंच विकसित करने के। हमारे आप के घरों में बहुत ऐसे कपडे होते है जो हम पहनते नहीं वो सिर्फ हमें पुराने यादों के अलावा कुछ भी नहीं देते ,उन कपड़ों को अगर किसी गरीब की झोपडी तक पहुचा दिया जाय,जिससे किसी का तन धक , घरों के उन गैर जरूरी सामानों और भोज्य पदार्थों तक को किसी गरीब को मुहैया करा दिया जाय तो वो दिन दूर नहीं जब इस कड़ी में वो सामान्य जन-जीवन से परिचित हो अपना जीवन स्तर उठा सकेंगे और सही मायने में अपने विकास को समझ सकेंगे। और गरीबों के नाम पर इन राजनेताओं को देश को लूटने का मौका भी नहीं मिलेगा । वश जरूरत है तो एक अनूठे पहल की अन्यथा ये तो शोषित होने के लिए जन्म ही लिए हैं । तो आगे हाथ बढ़ाइए .........क्योंकि
कौन कहता है कि आसमा में छेद नहीं होता ,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ।

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

बंद का नाटक हो बंद

५ जुलाई २०१० गैर सत्तासीन पार्टियों द्वारा भारत बंद का वो कुंठित पर्व रहा जो आंकड़ों के मुताबिक़ देश के विकास को तेरह हजार करोड़ रूपये से पीछे कर दिया.इतना से ही पेट नहीं भरा तो बहुजन समाज पार्टी ने उसके ठीक दूसरे दिन यानि ६ जुलाई को विशाल रैली और धरना प्रदर्शन के कार्यक्रम बिभिन्न जनपदों के मुखालयों पर आयोजित करवाया और जनता को कष्ट देने की रही-सही कसर पूरी हो गयी ।
बड़ा विचित्र संयोग है जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और इन नेताओं को बंद सूझ रहा है .क्या ये बंद कराने वालों के दिमाग में कभी ये बात घुसती है की देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं जो रोज कूआं खोदना और रोज पानी पीना वाले जुमले को आज भी चरितार्थ करते हैं. कितने घरों में चूल्हे नहीं जले और कितने मासूमों की मुकान भूख के मारे आसुओं में तफ्दील होती रहीं.क्या जानने की भी कोशिश किया इन राजनीतिज्ञों ने की कितने रोगियों ने इलाज के अभाव में दम तोडा .एक बनावटी तर्क दिया जा सकता है कि इसीलिये तो लड़ाई लड़ी जा रही है कि और कोई गरीब भूखा न रहे तो ये महज एक राजनीतिक नाटक है जिसे आधिकारिक रूप से नहीं बलिकी मानवीय रूप से बंद किया जाना चाहिए.दासकैपिटल लिखते समय कार्ल मार्क्स कि बिटिया मर रही थी लोग जाकर बताये तो उनका जवाब था कि ठीक है मेरी बेटी मर रही है तो मर जाने दीजिये ,कम से कम कल से इस किताब के पूरी होने के बाद से किसी और मार्क्स कि बेटी गरीबी से नहीं मरेगी.कार्ल मार्क्स के भावनाओं का कद्र जरूरी है लेकिन क्या आज किसी गरीबों कि बेटियां अभावों में मरना छोड़ दी हैं ,तो नहीं ,जब कि आज के राजनेताओं का इतना स्पष्ट उद्देश्य और त्याग भी नहीं है।
गजब मजाक है केंद्र सरकार अपनी कमी को कमी मानने को तैयार नहीं है ,और ये पहला मजाकिया वाक्य दिख रहा है कि सत्तासीन लोग आन्दोलन और बंद करा रहे हैं,सिर्फ और सिर्फ जनता को गुमराह करने के लिए.अगर भारतीय जनता पार्टी विरोध करे तो बात समझ में आती है ,समाजवादी पार्टी विरोध करे बात समझ में आती है लेकीन बहुजन समाज पार्टी जिसकी सरकार है वो केंद्र के खिलाफ लगी हुई है और केंद्र सरकार याकि कांग्रेस बसपा के खिलाफ आन्दोलन करके जनता को किस असमंजस के चौराहे पर खड़ा करना चाहते हैं.बसपा कि इतनी ही औकात थी तो क्यों नहीं ५ जुलाई के भारत बंद में बाकि के संगठनों के साथ भाग लिया।
इतना ही नहीं इन बंदियों में भी अस्तित्व कि लड़ाई थी सारे लोग अलग-अलग अंदाज में विरोध कर रहे थे भले ही खेमा एक क्यों न हो.जब देश हित में बड़ा विरोध करना होता है तो पार्टी के अस्तित्व के खतरे से उपरकि सोंच रख कर लद्फ़ाइयन लादेन जाती है ,जनता पार्टी इसकी सबूत है।
अतः राष्ट्रहित में लोकहित में ,मानवहित में ऐसे हड़ताल और बंद का सबसे पहले विरोध इन राजनेताओं को करना चाहिए।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

अपने खुद के धर्म की धज्जियाँ उड़ाते तथाकथित धार्मिक कट्टरवादी

कोई भी धर्म सृष्टि रुपी व्यवस्था के एक संचालन के होने की पुष्टि करता है.चाहे हो हिन्दू धर्म हो या मुस्लिम धर्म हो ,चाहे वो इसाई धर्म हो चाहे वो दुनिया के किसी कोने में मान्य होने वाला अनामी धर्म हो.ऐसे में अगर कोई धार्मिक कट्टरवाद के मानसिक अंधेपन में किसी दुसरे धर्म को छोटा ,नीचा या गलत साबित करने की कोशिश करता है तो ये महज उसकी भूल ही नहीं है बल्कि अपने धर्म को भी गर्त में डालने का काम कर रहा है।
कल एकाएक टीवी के एक चैनल पीस टीवी पर एक अंग्रेजी लिवास यानि कोट पैंट में भारतीय डाक्टर जो की मुस्लिम धर्म से थे ,अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के चक्कर में अपने धर्म की ही बंधिया उकेल रहे थे.उनके अनुसार मूर्ती पूजा गलत ही नहीं बल्कि धोखा है.अक्सर यही होता है जब आदमी अपने विषय से हट कर बहस करने बैठ जाता है तो,उनको मालुम होना चाहिए की हिन्दू धर्म की नीव ही शून्य पर टिकी है और कोई मूर्ती नहीं बल्कि प्रतिमूर्ति होती है ,जिसका मतलब हवा में तीर चलाने के बराबर धर्म को न समझा जाय ,इसलिए है अन्यथा उनका ये कहना की पृथ्वी के बीच में सृष्टि का संचालक निवास करता है तो आप अपने ही धर्म के लोगों को तो कटघरे में खड़ा कर रहे हैं ,"साकी शराब पी मस्जिद में बैठ कर ,वरना वो जगह बता दे जहाँ पर खुदा न हो"ये आपके ही लोगों ने ही कहा है।
इतना ही नहीं अपने भाषण में रिग वेद का भी उदाहरण दे डाला की यहाँ उल्लिखित है की प्रथ्वी का केंद्र मक्का -मदीना है .और ये सबसेश्रेष्ठ जगह है,इससे कोई उनकी बात तो नहीं मान ने जा रहा है लेकिन कुछ गैर मुसलमान भी जो कुरान या मुस्लिम धर्म की कद्र करते हैं ,उनकी विश्वसनीयता पे भीधब्बा लगा।
अतः मुलिम धर्म के लोगो को खुद आगे आ कर ऐसे लोगों का विरोध करना चाहिए जो उनकी थाली में खाते भी हैं और छेड़ करने से भी बाज नहीं आते हैं.

सोमवार, 28 जून 2010

वास्तविक समाजवादी विचारधारा के एक युग प्रवर्तक का अंत

बनारस के गंगा जमुनी तहजीब के अजीबो-गरीब फक्कडपन और तजुर्बे का नाम था मार्कंडेय सिंह .काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम् एस सी की डिग्री क्या हाशिल की ,मानों यही का होके रह गए.उन दिनों जब छात्र राजनीती का शहर में बोलबाला होता था ,तब अपनी अलग सोंच रखने के वजह से ही सन १९७१ में विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे,वहीं से शुरू हुआ राजनैतिक सफ़र फिर रुकना कहाँ था .राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित श्री मार्कंडेय अंगरेजी हटाओ आन्दोलनमें काफी बढ़ चढ़ के हिस्सा लिए ,बनारस में प्रखर समाजवादी नेता श्री राजनारायण के सबसे करीबियों में थे .बाद में जब जनता पार्टी का गठन हुआ और इंदिरा गाँधी कीसरकार भयंकर रूप से पराजित हुई तो उन्हें जनता पार्टी युवा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया ,बताया जाता है की ये वो समय था जब इनके पास हवाई जहाज से नीचे उतरने का फुर्सत नहीं था.बाद में जनता पार्टी के टूटने पर थोड़े सकते में तो जरूर आये लेकिन हेमवतीनंदन बहुगुदा के संपर्क में आये और लोग कयास लगाने लगे की अब मार्कंडेय दादा भी कांग्रेसी हो गए,लेकिन हर कुछ के बावजूद वो विचारों से कहाँ समझौता करने वाले थे शायद यही कारण रहा कि कांग्रेस का कभी झंडा नहीं ढोए. हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र राजनीती के दो धुर हुआ करते थे एक देवब्रत मजूमदार तो दुसरे मार्कंडेय सिंह.ये दोनों लोग वैसे तो एक होने से रहे लेकिन अगर किसी मुद्दे पर ये एक हो गए तो फिर किसी कि दाल नहीं गलनी थी .बहुगुदा जी के संपर्क में आने और फिर उनके निधन के बाद ये राजनीतिक सन्यास कि स्थिति में चले गए थे.लगभग चार साल पहले लंका स्थित टंडन टी स्टाल के गार्जियन कि स्मारिका छपवाने और उनका जन्म दिन मनाने के लिए उनका संघर्ष देखने लायक था.पैर में भारी घाव उसे पालीथिन से बांधे दौड़ते रहे और संपादित करा के ही दम लिए ।
कुछ दिन पहले यानि फरवरी २०१० में मैं और चौधरी राजेन्द्र उनके घर गए तो पता चला कि नेता जी कुम्भ स्नान करने गए हैं ,वापस आये तो बोले कि अब मैं फिर से चार्ज हो कर आ गया हूँ ,और लगे दौरा करने ,तपती दुपहरी में।
वैसे तो मूल रूप से रहनेवाले बनारस के गंगापुर के ही थे लेकिन ज्यादातर समय अपना बनारस शहर में ही गुजारे लेकिन इस बार आये तो उनका आशियाना नारिया स्थित जैन धर्मशाला का .बीएचयू के पूर्व छात्रनेता चौधरी राजेन्द्र का कमरा .बतौर चौधरी जी वो इधर काफी चिंतित से रहते थे देश कि स्थितियों को लेकर.और निरंतर दो महीने भाग दौड़ किये।
उसके बाद आया काल का वो दिन जब उन्हें अपने एक मित्र प्रहलाद तिवारी की बेटी कि शादी मेंकानपुर जाना पड़ा यानि २७ जुलाई .रस्ते में ही हृदयाघात हुआ और दम तोड़ दिया,ये ढलता सूरज जिसे अपनी लालिमा खोने का मलाल भी नहीं था.देश के कई नेताओं के वो गुरु थे जैसे नितीश रामबिलाश शरद यादव वगैरह के,लेकिन किसी से कोई मानसिक समझौता नहीं।अभी राहुल गाँधी के अहरौरा के सम्मलेन के बाद हुई मुलाक़ात में बताने लगे कि एक समय था कि मैं और जार्ज फर्नांडीस कभी उसी अह्रारा स्थल पर मुख्य वक्ता हुआ करते थे और आज मई बैरिकेटिंग के पास खड़ा हूँ .ये थी उनकी राजनैतिक साफगोई ,संच भी है याद किये भाषण देने वाले के कंधे पर रास्त्र कब तक और कहाँ तक चलेगा .
उस काशी कि माटी के अमर सपूत को शब्दों का आखिरी सलाम.किसी ने सच ही कहा है "न ही कोई गिरज और गुरजे गुबार है मस्तों कि जिन्दगी में हमेशा बहार है "
जय हो .

सोमवार, 21 जून 2010

राजनीती करने वाले अब चुने जायेंगे कैम्पस सेलेक्शन के माध्यम से

आज कल कांग्रेस के तथाकथित युवराज आई आई टी और मैनेजमेंट कोलेजों में युवा चेहरे ढूंढ रहे हैं जो उनके बताये गए रास्ते पर चल कर राजनीती कर सकें .देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत छात्र सब्घों के माध्यम से तेज -तर्रार लोग अपने विचारों के साथ जब देश की विकास को गति देते थे तो बात समझ में आती थी लेकिन ऐसे छात्र सिर्फ और सिर्फ छात्र होते थे वो किसी विभाग विशेष के नहीं होते थे,और अब फिर अगर उनकी जरूरत समझ में आ गयी है तो छात्र संघों पे लटका टला क्यों नहीं खुलवा देते जनाब .मैं छात्र संघों की कत्तई तरफदारी नहीं कर रहा लेकिन आप ये तनी जानिये की बेंगलूर और डेल्ही के इन रईस जादों से देश नहीं सँभालने वाला। एक छात्र राजनीती से वाकई जुदा हुआ छात्र कैरियर बनाना छोड़ राष्ट्र बनाने का कम करता है अगर उसके सिर्फ गलत चेहरे पर ही ध्यान न दिया जाय तो।
तो अब राष्ट्र को इस स्थिति में पंहुचा दिया इस महान युवराज ने की इनको राजनीतिज्ञों का कैम्पस प्लेसमेंट शुरू कर दिया.अब ये बचपना सोंच छोडिये राहुल बाबू आप चालीस के हुए और लोग भी पता नहीं कैसी -कैसी उमीदें
आपसे पालने लगे हैं ,कम से कम इसका तो ख्याल रखा कीजिये।
राजनेता एक विचार होता है,एक संस्कार होता है ,एक प्रवाह होता है,एक धारा होता है ,पर्सनालिटी डेवलपमेंट का कोर्स पढ़ा के आप किसी को नेता नहीं बना सकते ,हाँ बहुत आपकी दया दृष्टि रही तो ,विधायक,सांसद भले ही बनवा सकते हैं.अतः ,अनुरोध है की राजनीती जैसे शब्द को और शर्मशार न कराइए और स्कूल-कोलेजों में जा-जा कर नेता ढूढने का नाटक बंद कर दीजिये ,अरे अभी तो सब कुछ होते हुए भी आपके हाथ में बहुत कुछ नहीं है ,और अभी ही आप जो -जो वायदा कर-कर के गरीब झोपड़ियों का सामाजिक मजाक उड़वा रहे हैं ,उनको वडा कर के तत्काल की सहानुभूति और प्रेम का पापड़ खा रहे हैं जाने के बाद उसमे से एक भी वायदा पूरा कर पाए क्या आप ,या आपको याद भी है क्या तो शायद नहीं तो आप तो खुद ही आश्वासन वाले नेता होते जा रहे हैं ,क्या वैसे ही लोगो की तलाश में लगे हैं क्या ?

शुक्रवार, 18 जून 2010

सब कुछ निजी क्षेत्रों को अर्पण कर खुद को असफलता के कटघरे में खड़ी कर रही है सरकार

आज देश के चाहे जिस विभाग को उसके अपने कामचोरी और निकम्मेपन से घाटा लगता है ,उस विभाग को निजी क्षेत्रों को सुपुर्द करने का राग अलापा जाने लगता है.आखिर क्या निजी क्षेत्रों में छः टांगों और बारह हाथों वाले होते हैं। तो नहीं। फिर या तो सरकारी व्यवस्था के तहत नौकरियों का तजुर्बा दिमाग से निकाल दें और सब कुछ प्राइवेट व्यवस्था के अंतर्गत चलने दें अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब प्राइवेट लोग सड़कों पर सरकारी व्यवस्था के हर एक कदम के विरोध में चिल्लाते नजर आयेंगे।

गुरुवार, 17 जून 2010

पुलिस अगर पूर्ण लिप्सा रहित सहयोगी तो फिर डर काहे का

पुलिस को कुछ लोग पूर्ण लिप्सा रहित सहयोगी के रूप में भी परिभाषित करते हैं ,लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि हमारे रामू काका पुलिस के नाम से इतना कांपते क्यों हैं?बेचारे, कोई कह दे कि पुलिस आ रही है तो उनकी पतलून गीली हो जाती है,कभी-कभी गाओं में माँ भी बच्चे को सोने के लिए डराती है ,सो जाओ नहीं तो पुलिस आजायेगी,इसका मतलब पुलिस पुलिस नहीं अब शोले का गब्बर सिंह हो गयी है,आखिर ऐसा क्यों?क्या वाकई पुलिस के किरदार ऐसे हैं ,जो लोगों कि सुरक्षा के लिए रखे गए हैं जिनके आने पर हमें ठंढी आहें भरनी चाहिए कि चलो अब पुलिस आगई अब राहत हो जाएगी ,उसके आते या आने के नाम मात्र से क्यों लोग भय ग्रस्त हो जाते हैं।
पुलिस को सूचित करने का काम गाँव में चौकीदार कि होती है जिसको भी लोग बड़े अछे निगाह से नहीं देखते हैं,हालाँकि चौकीदार बिचारा सिर्फ कहने मात्र को ही सरकारी कर्मचारी होता है पर उसकी तनख्वाह सब्जी खरीदने के लिए भी पर्याप्त नहीं हो पाती ,वर्दी के नाम पर उसीक लाल पगड़ी दी जाती है जो उसकी पहचान होती है बस इतने के लिए अब चौकीदार भी गावों कि बात क्यों उन तक पहुचकर लोगों का दुश्मन बने.इसके बाद अगर आप थाने पहुच जाइए किसी भी तरह कि प्राथमिकी दर्ज कराने तो देखिये पहले तो आपको ही गुनाहगार साबित कर कहीं उठा के दरोगा साहब बंद न कर दें ,अगर उससे बचे तो रिपोर्ट लिखने के लिए इतना दौड़ लगवा देंगे कि आप उनका रास्ता तक भूल जायेंगे .वैसे तो वर्दी पहनने के बाद ये किसी को भी न पहचानने कि कषम खा लेते हैं लेकिन अगर पहचानेंगे भी तो वो सिर्फ और सिर्फ गांधीजी की तस्बीर लगी हरे लाल कागज के दो चार टुकड़ों का उपहार लेने के बाद.ये तो रही पुलिस स्टेशन तककी बाट .अब इनको कही भी आप पेड़ कि सुनसान छाया में गाड़ियों कि चेकिंग करते हुए पा जायेंगे जहाँ ये शरीफ नागरिकों को परेशां करना ही अपना दाइत्व समझते हैं .अगर इनको पता चलता है कि इसी रस्ते से कोई बड़ा अपराधी जा रहा है तो वो पान कि गुमटियों में घुस जाते हैं .इस समय संयोग से बनारस के डी आई जी खुद घटनाओं के पीछे दौरा करते हुए पाए जा रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं .अभी चार दिन पहले ही बड़ा ह्रदय विदारक घटना सारनाथ में हुआ एक ७५ साल के बुजुर्ग को चोरों ने मार डाला और लाखों कि लूट भी कि ,लूट का पर्दाफास भी हो गया और पुलिस चोरों को पकड़ लेने का दावा भी कर रही है ,शायद संयोग से भुक्तभोगी डी जीपी यशपाल जी के रिश्तेदार थे अगर ऐसा नहीं होता तो क्या पुलिस इतना तेजी दिखाती तो संशय है।
अक्सर सुना जाता है कानोकान कि पुलिस वालों को ऊपर पैसा भेजना होता बड़े अधिकारीयों को इसलिए वो घूस लेते हैं ,समझ में नहीं आता अगर ये सच सबको पता है तो लोग इसके खिलाफ लड़ते क्यों नहीं या फिर ये बड़ा अधिकारी है कौन जिसके बहाने पैसे वसूले जाते हैं और इनकी परिभाषा दूषित हो जाती है.इस पर भी संस्कारिक विमर्श होना चाहिए ।

बुधवार, 16 जून 2010

वर्तमान भारतीय नेताओं के पास देश का कोई मॉडल नहीं

कहा जाता है की अगर विरोधी मजबूत हो तो सक्रियता सफलता बन जाती है.आज देश में विरोधियों की तो कमी नहीं लेकिन विरोध में कोई तीक्ष्णता नहीं है कारण कि आज नेता पक्ष हो या प्रतिपक्ष किसी केपास कोई देश का आदर्श मॉडल नहीं है.वो बहस तो करता है ,विरोध तो करता है लेकिन देश को ले कहाँ जाना चाहता है ये कत्तई स्पष्ट नहीं है .लोगों के पास राजनैतिक मॉडल तो हैं कि चुनाव किस मुद्दे पर लड़ना है और चुनाव का राजनैतिक एजेंडा क्या होगा ,किसको कौन सा मंत्रालय सौपना है ,ये सारी चीजें तो तयं है लेकिन देश के विकास के रास्ते और हदें तय करने की जरूरत तक नहीं समझी जाती।
पहले के नेताओं के पास अपना एक मॉडल था जिसको स्थापित करने के लिए वो लड़ते थे ,नेहरु के पास अगर पंचवर्षीय योजना थी,तो शास्त्री जी के पास त्याग ,लोहिया के पास समाजवाद था तो श्यामा प्रसाद मुकर्जी के पास ओज ,इंदिरा के पास अड़ियल पण और लौह विचार था तो फिरोज गाँधी और अटल बिहारी के पास भाषा ,संजय गाँधी के पास मारुती तो राजीव के पास मोबाइल ,जिस मॉडल को जिसने अपनाया उसके कार्य किया तो वो दिखा लेकिन आज के नेताओं के पास ऐसे किसी मॉडल का कदाचित अभाव है ,मॉडल की ही देन है किवर्षों से अपनी खानदानी राजनीती करने वाले लोगों को भी देश के सत्ता कि बागडोर से हटना तक पड़ा।
न आज पर्यावरण के लिए कोई सोंच है न ही जनता के लिए .डेनमार्क के कोपेनहेगेन में सम्मलेन होता है और उस में तय की जाने वाली साडी चीजें बाहर निकलते ही भुला दी जातीं हैं . मॉडल है तो कपड़ों का राहुल गाँधी के कुरते और पैंट का एक मॉडल है .अभी एक दिन पहले अख़बार के किसी कालम में पढने को मिला कि इस समय कांग्रेसी नेताओं में राहुल के कुरते का बड़ा क्रेज है ब्रांडेड जूते कि पूछ है ,अरे काम तो करो जूते की कमी नहीं पड़ेगी।
तो हकीकत में अगर जरूरत है तो विकास के मॉडल ,अन्यथा एक पक्ष हथियार से देश चलाना चाहता है और अपने को मार्क्सवादी कहता है तो दूसरा करोड़ों कि संपत्तियों का मालिक बन अपने को समाजवादी कहता है तो तीसरा धर्म से अलग हो खुद को धार्मिक कहता है और चौथे के पास तो लगता है कहने के लिए कुछ है ही नहीं ,तो क्या अब बंदूकों कि नोक पर राष्ट्र चलेगा और हम अपनी पहचान बनायेंगे तो कत्तई नहीं फिर जरूरत है नए भूगोल कि जो कि कल का इतिहास होने वाला है .

मंगलवार, 15 जून 2010

गंगा के बहाने सरकार से मोटी रकम वसूल करने में लगे तथाकथित बुद्धजीवी

"पानी लेने के बहाने आ जा "इस पंक्ति को ,इस गीत को आज के सामाजिक परिवेश में काशीवासियों ने एक नया आयाम दे दिया है ,सुनते ही आनंद आ जायेगा .जी हाँ ,आज सबसे आसन काम है दो शब्द गंगा पर बोलिए ,कही एकाक धरना प्रदर्शन कीजिये और उदारवादी महान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री करोड़ों रूपये का प्रोजेक्ट दे देंगे,लीजिये अब आप ही गंगा की हालत सुधारिए.अब कोई पगलाया तो है नहीं की गंगा को सुधरने का प्रयास करे उसकी ईमारत भी तो बननी है।
बात थोड़ी कड़वी जरूर है लेकिन गंगा के हरिद्वार वाली धारा की तरह निर्मल और स्पष्टहै. अब तक जब भी गंगा के लिए सरकारी खजाने से रकम निकाली गयी ,वो कभी २०० करोड़ से काम नहीं रही ,फिर किसी दुसरे को ५०० करोड़ ,इस तरह से इतना अधिक पैसा सिर्फ गंगा के नाम पर अब तक सरकार द्वारा पास किया जा चूका है उतने में तो गोमुख से लेकर बंगाल की खाड़ी तक एक नयी गंगा खोद दी जाती और ये तथाकथित बुद्धजीवी ,महंत लोग गंगा के नालों तक को भी नहीं साफ कर पाए .अगर हम बनारस की बात करें तो पाएंगे कि यहाँ गंगा के नाम पर सरकार को सबसे अधिक छाला गया है,कभी वैज्ञानिकों द्वारा तो कभी बुद्धजीवियों द्वारा ,तो कभी महंतों द्वारा तो कभी संत-महात्माओं द्वारा और इतना पैसा मिलाने के बावजूद ये धर्म के पुरोधा लोग बनारस के रविदास पार्क के बगल से गुजरने वाले एक नाले तक का उपचार नहीं कर सके जो कि मिटटी तो दूर इतना पैसा मिला है इस नाम पर कि उन पैसे कि रेज्कारियों से ये खाइयाँ भरी जा सकती हैं.और सबसे बड़ा मजाक यह कि यह नाला कशी के सबसे बड़े धर्मगुरु और ,विश्व विख्यात पर्यावरण विद के लगभग घर से होकर ही गुजरता है.तो इस बार का पांच सौ करोड़ कहाँ जाने वाला है ये भी सोचने का विषय है,लग रहा है मुर्दे जलाने के शहर कि जनता भी मुर्दा हो चली है .इन बातों पर सोचने का ,और बनारसी जिन्दादिली मरना शुरू कर दी है।
अब सवाल उठता है कि क्या गंगा कि स्थिति पैसे से सुधर सकती है तो कभी भी नहीं फिर ये पैसा गोल मटोल लोगों के पेट में चला जायेगा .अगर जरूरत है तो मानसिक स्वच्छता कि,गंगा अपने आप साफ होजाएगी,निर्मल होजाएगी,पहले ये गंदे त्रिकुंड धरी जो कुण्डली मार कर गंगा को सुखाने पर लगे हैं ,पहले इनसे भी हिसाब चुकता करना होगा.जनता जिस दिन कषम खा लेगी गंगा को साफ़ रखने का उस दिन बिना पैसे के गंगा गंगा हो जायेगी।
अतः इस लेखनी के माध्यम से देश के मदांध नीति-नियंताओं से आग्रह है कि गंगा मरने के बाद मोक्ष देती है ,गंगा के नाम पर जीतेजी ही जनता को मोक्ष दिलाने का प्रयास इतनी मोटी रकम इन फिसड्डी हाथों पर कत्तई न दिया जाय अन्यथा गंगा के नाम पर ही महगाई इतनी परोक्ष रूप से बढ़ जाएगी कि गरीब जनता के पास कफ़न खरीदने के लिए पैसे नहीं होंगे और जब निर्वस्त्र लाशें पहुचेंगी तो मान गंगा दहाड़ें मार के रोने लगेंगी और फिर उसके आसूओं के बढ़ को रोक पाना सरकार के लिए मुश्किल होगा ।

सोमवार, 14 जून 2010

बेचने वालों ने क्या-क्या नहीं बेच डाला

बम-बम बोल रहा है काशी और हर-हर महादेव का नारा कोई गरीब लगाएगा तो उसे जेल हो जाएगी जी हैं ,मजाक नहीं धनपशुओं ने बाबा विश्वनाथ को पेटेंट जो करा लिया .धन्य हो इस देश का यहाँ जितने भी बड़े मंदिर हैं,चाहे तिरुपति बालाजी ,या वैष्णव देवी ,चाहे मैहर देवी या विन्ध्याचल धाम ,चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर ,वहां चढ़ने वाले चढ़ावे में आई रकम को ही अगर ईमानदारी से खर्च करदिया जाय तो ..... इन मंदिरों में इतने पैसे रोज आते हैं की बोरे में भर के रखे जाने की नौबत होती है लेकिन इसके वावजूद बाबा भोले के धर्षण के लिए मंदिर-प्रशासन और प्रशासन की मिली भगत से अलग -अलग समय पर या अलग-अलग कतारों में दर्शन करने के अलग-अलग धन भी टिकट के माध्यम से वसूले जायेंगे जसे मंगला आरती के लिए पाच सौ इत्यादि.यानि यहाँ भी सम रूपता नहीं रहने दिए ये महामानव लोग।
एक स्कूल के बच्चे को युनिफोर्म इस लिए पहनाया जाता है कि लोगों में वैचारिक विभिन्नता नहीं हो पाए और यहाँ खुलेआम गरीबी-अमीरी की खाईं को बाबा के माध्यम से चौड़ा किया जा रहा है ,बहुत सारे रास्ते थे कम से कम भगवान को तो ये लांचन न लगे .समझ में नहीं आता की ऐसी बाते लोगों के दिमाग में आती कैसे हैं और अगर आ ही गयी तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक अपने त्रिकुंड की छटन भिखेर रहे बनारसी पंडितों क्या खनक छान रहे हो आप लोग या इसमें आप का भी हिस्सा तनी हो गया है ,रामदेव बोलते हैं तो इनके विरोध होते हैं लेकिन इतना बड़ा ह्रदय विदारक कदम उठा किसी की आत्मा नहीं दहली।
इस पर पुनर्विचार होना चाहिए अन्यथा लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ होगा और बनारस जैसे मस्तों के शहर के माथे पर लगे इस कलंक को धो पाना मुश्किल होगा।

भोपाल गैस त्रासदी का आधुनिक मंचन

दुर्घटनाओं का देश भारत जहाँ किसी भी बड़ी से बड़ी त्रासदी में सरकारे संवेदना कम आर्थिक संवेदना पर ही मुह बंद कराने में विश्वास रखती हैं वहां पच्चीस साल पहले हुए दुर्घटना का आधुनिक ढंग से मंचन करने से भला क्या हाशिल होना है .ये कोई पहला वाकया नहीं है जब ऐसा हुआ और अगर उस समय अमेरिकी एडरसन को तत्कालीन सुख -सुविधा मुहैया कराई जा रही थी तो आज विरोध करने वाले संगठनों का जन्म नहीं हुआ था क्या.यदि हुआ था तो आजीवन विरोध की राजनीती करने वाली तथाकथित धर्मावलम्बी सरकारें जो आज बड़ी-बड़ी बातें कर रहे है क्या नीद सो रहे थे.कहा चली गयी थी उनकी आज की ये संवेदना जो पुतला दहन के रूप में दिख रही है या कब्र से रईस मुर्दे उखाड़ने का कम कर रही है.भोपाल गैस तो बहुत पुराना हो चला भुलाऊ मुद्दा हो चला था,लेकिन यहाँ तो अपनी राजनीती चमकाने के चक्कर में खली पुतले फूंके जाते हैं.किसी राजनेता ने किसी एक अनाथ हुए बच्चे की परवरिश का जिम्मा लिया क्या ,तो नहीं किसी एक परिवार की आहों को समझने में दिलचश्पी दिखाई क्या तोनहीं . बातें करना आसान है लेकिन पता उसको चलता है जिसके परिवार का एक सदस्य हमेशा-हमेशा के लिए उसकी आखों से ओझल हो जाता है।
सैकड़ो परिवारों को खुले आम तवाह कर देने वाले कसाब को सरकार मेहमान की तरह पल रही है उसकी परवरिश कर रही है ,मान लिया कसाब मुकदमों से बरी हो ही जय तो क्या ये मान लिया जाये की वो आतंकवादी नहीं है.कल उसे भी एडरसन की तरह रास्ता दिखा दिया जायेगा और पचास साल बाद जब रोपोर्ट आएगी तो काठ के विरोधियों तैयार रहना पुतला जलाने के लिए.आज तो घिघ्घी बड़ी है बोलने की मजाल नहीं है।
जाकब तक गरीबों के खून से खेले जाने वाले इस लहूलुहान मजाक का पटाक्षेप नहीं होगा ,कल कोई और एडरसन पैदा होगा और परसों कोई कसाब मशाल जलाये रखिये,हो सके दो शहरों में कफ़न की दुकान पहले से खुलवा लीजिये और अपना कुरता -पायजामा टाईट रखिये शंत्वाना देने भी तो जाना होगा .

सोमवार, 7 जून 2010

असहज होतीं भोले की नगरी की पार्किंग व्यवस्था

बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी वाकई देवी-देवताओं के ही भरोसे चल रही है.पुरे शहर में जाम का बोलबाला,धूल की चादर में लपटी अकुलाई भीड़,सम्हालना देवों के ही वश की बात है.इस लाचारगी के मुख्य कारणों का यदि जिक्र किया जाय तो उनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण कारण समुचित पार्किंग व्यवस्था का न होना ,समझ में आता है ।
वाराणसी नगर-निगम का अधिकृत तथाकथित वर्षों पुराने स्थान जहाँ पार्किंग सुनिश्चित थी आज वहां चमकती इमारतें बन गयी है जिसको गिराने या हटाने का या तो वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में माद्दा नहीं है या फिर अपने किसी स्वार्थ में इनसे पंगा नहीं लेना चाहते.हाँ एक विकास जरूर हुआ इन पार्किंग प्लेसेस को तो नहीं हटाया गया नए पार्किंग को जन्म दे दिया गया ,वर्तमान नगर आयुक्त द्वारा,शायद यही उनके लिए सबसे सहज रास्ता था।
अब तो हद तब पर हो गयी जब इन प्राइवेट पार्किंग का नगर निगम ने अधिकृत ठेका शुरू कर इसको अपने सरकारी झोले में जबरन डाल लिया ठेकेदार भी मस्त और उनका भी काम बनता.जालान का दुर्गाकुंड वाला ब्रांच हो या शाकुम्भरी काम्प्लेक्स गुरुधाम ऐसे कई जगहों पर ये गैर सरकारी स्टैंड ठेके के रूप में फल-फूल रहे है "जब सैंया भये कोतवाल तब डर काहे का"के तर्ज पर और जनता अपना असली जगह पैसेवालों या अपराधियों को अनजाने में दान कर या रखवालों की अकर्मण्यता का फल भुगत रही है।
मुख्यमंत्री का जब फरमान जारी होता है तो ये सारे बड़े अधिकारी न जाने किस स्वार्थ में सरकारी तंत्रों का दुरुपयोग कर रहे अपने साढ़ू भाईयों को नहीं छूना चाहते और जनता को खुली चक्की में किसी दुसरे पूजीपति के सहारे पिसने-पिसाने का ठेका दे देते है.इस पर भी एक कलम की जरूरत है.

शुक्रवार, 4 जून 2010

नचनिहों का राजनैतिक जलवा

इस समय देश की युवा राजनीति का ठेका प्रजातान्त्रिक कांग्रेस के राजकुमार राहुल गाँधी ने ले रखा है,जिसकी सबसे बड़ी डिग्री है कि वे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के सुपुत्र हैं.वही पुराना चापलूसी भरा तर्क कि राहुल देश का प्रधानमंत्री होगा दांत दिखाते लोग पान कि दुकानों पर बकने लगे हैं. आनन-फानन में देश की मूढ़ जनता जिन्हें इन राजनीतिज्ञों ने "जनता सर्वोपरी है "कहकर खूब लूटा,जब चाहा तब और जैसे चाहा वैसे लूटा लेकिन ये तो लुटने के लिए ही बने हैं इनकी बुध्ही को दीमक जो लग गया है.आज देश का एक नौजवान नहीं बोलता की कांग्रेस क्या किसी के बाप दादे की विरासत हो गयी है क्या कि उसके युवराज होने लगे.हर बुजुर्ग घर में तो पंचायत कर -कर के जीना हरम कर देता है लेकिन उसने एक बार ये पूछने कि जरूरत समझी क्या कि आप २०१२ मिशन हाशिल कर ही लोगे तो देश को कौन सा लालीपाप फिर पकड़ोगे चूसने के लिए ,तो नहीं इसके लिए कभी आगे कोई नहीं आएगा,सिर्फ लम्बी-लम्बी बातें "वसुधैव कुटुम्बकम " का छालाऊ नारा खुद के देश के लिए तो बोलेंगे नहीं और सारी दुनिया इन्हीं कि है,रहने को घर नहीं सारा जहाँ हमारा।

एक आंधी चली कि अपने-अपने राजनीतिक पार्टी में जो जितने बड़े नचनिहें को जूता लेगा वो उतना बड़ा सत्ताधारी बनेगा,ये ऐसी होड़ मचाये कि भोजपुरी के निरहू भी चुनावों में स्टार प्रचारक हो गए तो राजनैतिक अभिलाषा पूरी करनी है राहुल भाई तो किसी हीरो पकड़ो न वैसे भी आपके पारिवारिक रिश्ते वाले हीरो-हीरोइन दुसरे खेमे में झांकी लगा रहें है ,उनको भी लेकर घूमना शुरू कर दीजिये क्योंकि जनता को नचनिहें बहुत पसंद हैं कल देश कि बागडोर रैम्प पर कैटवाक करती फिरेगी.

गुरुवार, 3 जून 2010

तसलीमा की हदें

बंग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन को बड़ी सम्मान भरी निगाहों से भी देखने वालों की कमी नहीं है ,मैं भी उनमें से एक हूँ ये बताने मुझे कोई गुरेज नहीं है,लेकिन आज उसने सम्मान पर धब्बा लगा दिया गाँधी की नीतियों को गलत और असरहीन ठहरा के नक्सलवाद के मामले में.उनकी लिखी पुस्तक "लज्जा "पढ़ा तो हकीकत में ऐसा लगा की लेखक किसी जाति का नहीं होता ,किसी धर्म का नहीं होता,किसी सम्प्रदाय का नहीं होता,वह सिर्फ और सिर्फ लेखक होता है.और सच मायने में उससे बड़ा कोई समाज-सुधारक भी नहीं होता.शायद यही कारण है कि उन्हें आज कोई बंग्लादेशी नाम से नहीं बल्कि उनकी लेखनी के नाम से जानता है.लेखनी में ओज तो है ही साथ ही अकेले विरोध कि क्षमता भी.और जाने अनजाने में खुद भी गाँधी को ही आत्मसात करती हैं.तो कम से कम उनसे ये उम्मीदें नहीं थी कि वे नक्सलवाद के मामले में गाँधी को ही लपेट डालेंगी.अहिंसा से बड़ा कोई अस्त्र न रहा है और न ही हो सकता बस उसमे अंतर इतना है कि आज उतने धैर्यवान लोग नहीं जो खुद को अहिंसा के रास्ते पर चलने के काबिल बना सकें.अशोक को कोई मार-काट मचने के वजह से नहीं जानता बल्कि उनकी अहिंसा से पायी गयी जीत के वजह से जानता है,आजादी के दौर में भी इस महामंत्र ने उन अंग्रेजों को भागने पर विवश कर दिया जिनके राज्य में कभी सूरज ही अस्त नहीं होता था।
अतः अपनी विद्वता और एकल सोंच पर धब्बा लगाने के बजाय अगर लोगों से गांधी कि नीतियों पर चलने और उसको आत्मसात करने कि अपील करें तो शायद उनको जम्में कि कमी नहीं पड़ेगी.

मंगलवार, 25 मई 2010

फिर संजने लगीं सडकों पर शिक्षा की दुकानें

हमारे देश में शिक्षा भी सब्जिओं की तरह मौसमी अंदाज में बिका करती हैं.जैसे मार्च,अप्रैल परीक्षा का मौसम ,मई ,जून प्रवेश-परीक्षाओं का मौसम ,जुलाई और अगस्त थक हार के कहीं कहीं प्रवेश ले लेना।लेकिन अब भारत में ये मौसम भी बेमौसम होते जा रहे हैं.जैसे ही माध्यमिक शिक्षा-परिषदों का परिणाम घोषित होता है सडकों पर तरह-तरह के लोक लुभावने अंदाज में अलग -अलग छूट,और सुख सुविधाओं का व्योरा हाथ में लिए विभिन्न संस्थाओं के नुमाइंदे डोर टू डोर सेवा उपलब्ध करने के होड़ में शामिल हो जाते हैं.यदि किसी तरह से आप इनके चपेट में आ ही गए तो इतनी जमकर कौन्सिलिंग कर देंगे की आपको अपने विश्वास पर अविस्वाश हो जायेगा और तीर -धनुष रख देंगे।
ये तो रहा इनका पहला अंदाज.अब किसी तरह से अगर आप इनके तथाकथित कालेज या इंस्टिट्यूट में पहुँच गए तो फिर क्या उनको मुह मागी मुराद मिल गयी .झकाझक वातानूकूलित व्यवस्था में रिसेप्सन काउंटर पर बैठी कौन्सेलर बालाएं जिस मोहक अंदाज में आपको सारे डिटेल्स बतायेंगी कि विश्वामित्र का झक टूट गया तो आप में क्या खाक रखा है.और कुछ भी हो अब पढेंगे यहीं के वायदे के साथ अगले दिन हारे सिपाही को तरह आप उस संस्था से अनुबंधित हो जाते हैं ।
अब क्या जनाब ,अब आपका प्रवेश हो गया आपके भाग्य की इतिश्री हो गयी ,अब तक आप बोले वो सुने और अब वो बोलेंगे आप सुनेंगे .वो एसी जो देख के आप लालायित हुए थे वो तो सीजन भर के लिए भाड़े पर आया था आपको अब लगातार मौसम के हिसाब से ही रहना होगा ,क्यों कि ये मौसमी शिक्षा पद्ध्हती है ,अतः बच के रहना रे बाबा

बुधवार, 19 मई 2010

देश,सन्देश और दंतेवाडा

फिर नक्सलियों ने छत्तीस लोगों के खून से तिलक लगाया और सरकारें तमाशा देखती रहीं.आखिर कब तक होता रहेगा ये खूनी खेल देश की निर्दोष जनता के साथ .अभी कुछ दिन पहले एक अपराधी को पेशी में ले जाते समय उसके लोगों ने दो सिपाहियों की सरेआम हत्या कर दी.और सारे अपराधी भाग निकले .अब क्या था पुलिस महकमे में मचा हडकंप और पंद्रह दिन के अन्दर उन सारे अपराधियों को मार गिराया गया.ये वाकया यूंपी पुलिस का है जिसे सबसे निकम्मा माना जाता है.तो फिर जाहिर है कि राजनैतिक अनदेखी से ये फोड़ा नासूर बन रहा है ,और देश के कुर्ताधारी सन्देश यात्रा कर रहे हैं.इतनी बड़ी सभा हुई इतने सारे लोग जुटे लेकिन सबके जुबान पे स्वार्थ का कोढ़ी टला लटका हुआ था और किसी एक ने इस घटना का जिक्र करना भी जरूरी नहीं समझा.अरे अगर डरते भी हैं ये लोग खुद की जिन्दगी से तो चक्रव्यूह से कम तो इन लोगों की सुरक्षा व्यवस्था है नहीं ,वो कर क्या लेंगे ,या फिर अगर इतना ही डर है तो सिर्फ फर्जी डींगे हाक कर कैसे युवराज स्वीकार होंगे भाई।
दंतेवाडा ही नहीं कई ऐसे अकह्य दंतेवाडा फल फूल रहे हैं जिस पर सरकारों की हिम्मत नहीं की चर्चा कर सकें.देश पानी ,बिजली की तो छोड़े रोजमर्रा की रोटी को जूझ रहा है और सन्देश यात्राओं में दुशाला पहनाया जा रहा है.बरेली में सोनिया जी के आवास में वातानुकूलित व्यवस्था नहीं हो पाई तो पूरा देश जान गया और कितनी झोपड़ियाँ जो कभी रोशन ही नहीं हुई उनका क्या कहा जाय.बनारस में प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्री सुभास पाण्डेय के कमरे में विजली क्या चली गयी अधिकारियों की ऐसी की तैसी हो गयी ,जब की आम आदमी तो इन्हें अपना भाग्य बना लिया है ।
ऐसे में क्या किसी गरीब की झोपड़ी में भोजन का लेने से गरीबी का अंदाजा लग जायेगा ,तो कत्तई नहीं ,अरे ये तो हमारे संस्कार में है की मेहमानों को हम अच्छा खिलाते हैं ,अन्यथा बासी रोटी और बासी साग मिलने पर गरीब झोपड़ियों का नाटकीय दौरा भी बंद हो जायेगा.

सोमवार, 17 मई 2010

बेतरतीब महगाई में सरकारी नौकरियों का योगदान

भारत एक कृषि प्रधान देश है ,जहाँ की सत्तर प्रतिशत जनसँख्या आज भी गावों में निवास करती है .अतः अगर ये कहा जाय कि जब तक गावों का विकास नहीं होगा देश के विकास कि कल्पना भी अधूरी रहेगी.शायद यही कारन रहा कि देश के जितने भी बड़े विचारक रहे ,समाज सुधारक रहे उन्होंने अपनी कार्यस्थली गावों को ही बनाया और जिस-जिस ने गावों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया उनको निरंतर प्रसिध्ही मिली. आज देश में कार्यालयी राज्नीति घर बनाती जा रही है जहाँ नेताओं को समाज कि नीव गाँव से कुछ लेना है तो बस वोट।
आज देश राजनीतिक शून्यता के दौर से गुजर रहा है.जहाँ सिर्फ स्वार्थ का बोलबाला है.महगाई एक बड़ा मुद्दा है ,बड़ी समस्या है जहाँ राजनैतिक भठियों में सर वोट कि मोटी रोटियां सेकी जाती है।
अगर बिना किसी भुलावे के महगाई के प्रबल कारणों का जिक्र किया जाय तो बढ़ती महगाई में सरकारी नौकरियों का बड़ा योगदान है.यद्यपि इस मुद्दे पर मौन समर्थन मिलना तो आसान है पर खुल के विरोध भी झेलनी पद सकती है.लेकिन ये कटु सत्य है कि देश कि कुल जनसँख्या के ढाई प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी में हाँ जिन्हें मोती तनख्वाह मिलती है और उनके पैमाने पर देश कि महगाई को गरीब जनता पर थोपा जा रहा है.ढाई प्रतिशत लोगों को लाभान्वित करने के लिए साढ़े अठान्बे प्रतिशत जनसँख्या को हाशिये पर ला दिया जाना कहा का न्याय हैकहाँ कि नीति है ।
देश के विद्वान अर्थशास्त्रियों का एक समूह इस बात का तर्क देता है कि सबकी आय बढ़ने का प्रयास किया जाना चाहिए न कि बढे हुए लोगों का विरोध.तो बाकी कि जनता अपने समस्याओं से ही नहीं उबार पा रही है तो आय कहाँ से बढ़ पायेगी .इस पर एक स्वस्थ बौधिक बहस कि जरूरत है न कि गलत तर्कों से ताल-मटोल की .

गुरुवार, 13 मई 2010

जल,जंगल,जमीन की हिफाजत ही मानवता की रक्षा

मनुष्य विधाता की उत्कृष्ट कृति है,अगर हम हिन्दू धर्म साहित्यों की मानें तो आत्मा चौरासी लाख योनियों में बस इसलिए भटकती रहती है उसे किसी तरह से मानव जन्म मिल जाये.लेकिन मनुष्य धरती पर अवतरित होते ही अपने ऐसा स्वार्थ के मकडजाल में फसने की आतुर होता है की इन चीजों का उसे उपदेश देना पड़ता है ,वो अपने मूल को ही नष्ट करने पर तुल जाता है ।
जीवन के तत्वों की बात करें तो "क्षिति जल पावक गगन समीर "ये ही पञ्च तत्व मिलकर शरीर की संरचना होती है.तो क्या इन तत्वों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य नहीं बनता तो क्यों हम अपने जीवन दायिनी चीजों को नष्ट करने पर आमादा हो गए हैं.विज्ञान बाधा विकास हुआ ,जीवन स्तर ऊचा हुआ और लोग तालाब और झरनों की जगह बोतल का पानी पीने लगे .मौल और काम्प्लेक्स,डुप्लेक्स बनाने के चक्कर में हम पेड़ों को अपना दुश्मन बना लिए उनका गला इस कदर रेतना शुरू किये की पृथ्वी लगभग निर्वस्त्र सी हो गयी है गर्मी के मारे उसका हाल बेहाल होता जा रहा है लेकिन अब इतना देर हो चूका है की धरती की प्यास तो बिसलेरी की बोतल से बुझनी नहीं है।
इतिहास गवाह है की प्राकृतिक आपदाओं में अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान होता हो तो गरीबों का ,जिन्हें पानी ताल-तलैया का पीना है,हवा बाग़ -बगीचों की खानी है और छत की चाहत खुला आसमान पूरा करता है.बड़े होटलों के या बहुमंजिली इमारतों के वातानुकूलित बंद कमरों को ही धरती का स्वर्ग समझने वाले वो लोग जिन्होंने खुले आसमान की चादर में कही सर न छुपाया हो उसे भला प्रकृति और उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार से क्या लेना देना.जाने -अनजाने में ये विपत्तियाँ जो आज हर गरीब के लिए असहज सी बन रही हैं ,उसकी नींव तो इन चंद धनपशुओं की आराम तलबी पर ही बनी है ।
अतः जल ,जंगल और जमीन तीनो हमसे नश्तावास्था में दूर हो रही हैं और जिनकी रक्षा एक गरीब तो आगे आकर कर सकता है पर बड़ों के बस की ये बात कत्तई नहीं है .

बुधवार, 12 मई 2010

राजनेताओं का गिरता चरित्र , कसाब से भी बड़ा खतरा

अगर हम देश के अतीत की राजनीति पर एक पैनी निगाह डालें तो पाएंगे की आचरण के मामले में कम से कम हमारे राजनेताओं का आचरण तो सराहनीय रहा ही है.लेकिन आज देश की राजनीति इस स्तर तक पहुँच चुकी है किअगर कोई राजनेता कितना भी अच्छा कार्य क्यों का करे उसे विरोधियों का भला बुरा सुनना ही है।
चाहे लोहिया रहें हों या नेहरु लाख विरोध के बावजूद ,आचरण कि प्रतिबधता इतनी थी कि दोनों एक दुसरे का सम्मान करते थे.अटल विहारी बाजपेयी आजीवन कांग्रेस के विरोध कि राजनीति किये लेकिन अच्छाई को सराहने के लिए उन्होंने भी इंदिरा गाँधी को दुर्गा का अवतार कहा।
लेकिन आज देश की राजनीति बड़े वैचारिक संक्रमण से गुजर रही है.आचरण तो पंद्रह साल पहले से ही ख़त्म हो गया था ,संसद,और विधान सभाओं तक में जूते -चप्पल की घटनाएँ आम होगयीं थी पर इससे पेट नहीं भरा तो इन लोगों को चरित्र तक को भी दाव पर लगाना पड़ा ,.तो मिलाजुला के इस संक्रमण का क्या उपाय है.एक तरफ तो आप एक आतंकवादी को फांसी पर चढ़ा के देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने का नाटक कर रहे हैं और दूसरी ओर ये देशी आतंकवादी क्या कसाब से कम खतरनाक हैं जो आस्तीन के सांप की तरह हमारा ही दूध हमको डसने के लिए पीते रहते हैं.हम कसाब को बचाने की वकालत कत्तई नहीं कर रहे हैं लेकिन क्या कसाब को लटका देने मात्र से ये समस्या ख़त्म हो जाएगी,तो मुझे लगता है कत्तई नहीं.इसमे क्या अकेले कसाब की ही गलती है अगर हम अपनी सुरक्षा कर पाने में अपने को अक्षम पा रहे हैं तो क्या हमारे अधिकारी कटघरे के पात्र नहीं है.आखिर जल ,थल और वायु सेनाओं पर राष्ट्र का पैसा बर्बाद करना यानिआतंकवाद को बढ़ावा देना है।
अतः देशी कसाबों की भी तलाशी जरूरी है ये अगर छुट्टे सांड की तरह घुमते रहे तो बड़ा खतरा है बाकी बाहरी कसाब से तो हम देर सबेर निपट ही लेंगे.

मंगलवार, 11 मई 2010

आखिर सन्देश-यात्राओं से कब तक भरेगा पेट

आजादी के सातवें दशक में देश आज भी विकास के नाम पर सन्देश यात्राओं के दौर से गुजर रहा है.किसी भी देश का भविष्य कहे जाने वाला आज भारत का हर युवा या तो कहीं साइकिल चला रहा है या कहीं किसी झाडे का एक कोना पकडे अपनी राजनीतिक पृष्ठभूमि मजबूत करने का इसी को सबसे आसान सीढ़ी समझ रहा है।
विडंबना है देश की यह पहली सन्देश यात्रा है जिसका कोई सन्देश ही नहीं है.न ही इस यात्रा में जनता है ,यह तो सिर्फ नेताओं का या राजनैतिक लिप्सा रखने वाले लोगों को जमात है जो भी संगठित नहीं है.कांग्रेस के युवराज कहेजाने वाले राहुल गाँधी का २०१२ मिशन उनकी सांगठनिक प्रतिबध्हता को दर्शाता है ,निजता को दर्शाता है,राष्ट्र के खाते में तो कोई नीति है ही नहीं।
गजब हाल है हम कहते हैं लोकतंत्र है और अजब गजब शब्दों का इस्तेमाल आसानी से हम स्वीकार करते जा रहे हैं.और देश के युवाओं का मन सिर्फ और सिर्फ अनुशरण में लगा हुआ है.ऐसे कई जुमले जो किवास्तविकता को मजाक में तफ्दील कर देते हैं आखिर किस स्वार्थ में नहीं किया जाता इनका विरोध.कांग्रेस एक राजतन्त्र नहीं जिसका कि राजकुमार होगा,इसी तरह से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवानी को पीएम् इन वेटिंग और पीछे जाएँ तो महात्मा गाँधी जैसे देव सरीखे पुरुष को मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी जैसे जुमलों से नवाजा जाता हैऔर देश का युवा किसी न किसी का पिछलग्गू बना हुआ है।
आखिर स्वार्थ कि इस सन्देश यात्रा से कब तक छला जायेगा देश का युवा.अतीत कि नीव पर देश का भविष्य बनाने का नारा दिया जा रहा है और दूसरी तरफ नई ईटें तपती दुपहरी में नोना पकड़ वाने को आतुर हैं.एक मकान भी बनाया जाता है तो सबसे ज्यादा उसके नीव का ख्याल रखा जाता है यहाँ तो नीव ही पुरानी बनाई जा रही हैअब आगे देखिये ये ताजमहल कितना मुस्तकिल होता है.कहने को युवा शक्ति राष्ट्र शक्ति होती है लेकिन जब जब बूढ़े कमजोर होते है जैसे ही इन्हें राजनीतिक मजबूती हाशिल होती ये युवाओं को कोई न कोई लाली पाप पकड़ा ही दिया करते हैं और फिर हम धरासायी होते है,
अतः चलाओ साइकिल जब तक चला सको ,दादा चलाये ,बाप चलाये अब आप चलिए दूसरे को सांसद विधायक बनाने को और खुद पसीना पोछते रहिये.कल्याण हो ही जायेगा.

गुरुवार, 6 मई 2010

मीडिया का लोकतान्त्रिक चरित्र

किसी भी देश के मीडिया की पारदर्शिता उस देश की पहचान होती है.लेकिन जब हम भारतीय मीडिया की बात करते हैं तो चीजें कुछ अजीब सी उलझी हुई नजर आती हैं .आजादी की लडाई का अगर हम जिक्र करें तो वहाँ मीडिया का सकारात्मक पहलू समझ में आता है.मीडिया ही है जो इतिहास को प्रतिनिधित्व प्रदान करती है।
लेकिन आज मीडिया ने समाज के सकारात्मक पक्ष को तवज्जो देना कुछ कम सा कर दिया है ये एक बड़ा खतरा है.या इसे हम दूसरे शब्दों में ये भी कह सकते है की आज समाज में विघटनकारी कार्य या कारक इतने अधिक से हो गए हैं की अच्छे कार्यों को अखबारी कलम जगह ही नहीं दे पाते।
अब ऐसी दशा में जो भी चर्चित होने की अभिलाषा रखते हैं वो कुख्यात होने की तरफ ज्यादा अग्रसारित होना चाहता है क्योंकि वहां कम से कम छपने की स्वतंत्रता तो है.इससे भले लोग अपने भलाई पे तरस खा दूसरों की बुराइयों के बड़प्पन को मजबूरी बना लेते है जो समाज के लिए एक बड़ा खतरा है .अतः अपराधियों का इस कदर महिमा मंडन कत्तई उचित नहीं है अच्छे कार्यों की भी बड़ाई और सहकार जरूरी है जिससे बुराई का स्वतः प्रतिकार संभव हो सके.

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

बरबादियों का जश्न मानते चलो चलें

हमको भी मालूम है जन्नत की हकीकत ग़ालिब ,
दिल को बहलाने का ये ख्याल अच्छा है।
आज के राजनैतिक जामें में जहाँ हर व्यक्ति अपने को छला सा महसूस कर रहा है वहां नेताओं के अविश्वसनीयता भरे कदम उनके शक को हकीकत में बदल देते हैं.आज देश की माली हालत किसी से छिपी नहीं है,दुर्दशा और बेकरियां किलकारियां मार रही हैं लेकिन देश की राष्ट्रीय नीति से जुड़े हुए लोग अपनी राजनैतिक एकजुटता का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं.कहीं कोई जम्मू में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिल रहा है तो कोई मिशन २०१२ में परेशां प्रदेश भ्रमण करा रहा है.और सारे नेता उनके पीछे-पीछे भीड़ बढ़ने का काम कर रहे हैं. सबकी नैतिकता चुनाओं में ही समाहित है क्योंकि सबका एक मात्र उद्देश्य विधायक और सांसद बनाना है,कोई भी ऐसा नहीं है जो नेता बनना चाहता हो ,पहले उद्देश्य स्पस्ट होना जरूरी है सांसद और विधायक तो आप विशेष कर आज के परिस्थिति में बिना नेतागिरी के भी बन सकते है.तो पहले यह तय होना चाहिए,
नेता होना ज्यादे बड़ा काम है बनस्पत की विधायक बनना.देश में जितने भी बड़े चेहरेहुए चाहे वो गाँधी रहे हो चाहे वो जयप्रकाश रहे हों चाहे वो लोहिया रहे हों वो नेता बने कभी मंत्री विधायक बनाने को तवज्जो नहीं दिया,और जब जब कोई बदलाव आया तो इन्ही लोगों के द्वारा।
आज इन्ही लोगों का नाम भजने का काम करने वाले प्रधानमंत्री तक कुर्सी पर सत्तासीन हुए.पर आज देश में न तो कोई आन्दोलन है न ही कोई नीति है शिवाय स्वार्थ के.हँसी आती है पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की दुखद हत्या के
बाद बीबीसी ने एक बड़ा बढियां कमेन्ट दिया था की चंद्रशेखर एक नेता हैं जिसके पास कोई पार्टी नहीं है और कांग्रेस एक पार्टी है जिसके पास कोई नेता नहीं है.शायद चंद्रशेखर का भी अब अभाव हो गया .और देश में सब मंत्री और विधायक,सांसद बनाने वाले लोग है,जिनसे राष्ट्र नहीं चला करते ,ये एक सबसे अहम् सवाल है.

सोमवार, 12 अप्रैल 2010

शिक्षा का अधिकार एक राजनैतिक छलावा

समान शिक्षा का अधिकार इस सरकार का सबसे अहम् प्रयास दिख रहा है.जिसकी उपयोगिता महज सरकार को लूटने लुटाने के अलावा और कुछ होती नहीं नजर आ रही है.निश्चय ही ग्रामीणांचल में तेजी से स्कूल खोले जा रहे हैं,शिक्षा मित्रों इत्यादि की सीधी भर्तियाँ भी की जा रही हैं,लेकिन क्या वाकई इससे शैक्षणिक विकास हो पायेगा तो कह पाना कठिन है.समान शिक्षा का महज़ इतना ही अर्थ नहीं है।
आखिर क्यों गिर रहा है सरकारी संस्थाओं का शिक्षा स्तर और व्यक्तिगत संस्थान फल फूल रहे हैं.कारन कि शिक्षा में आज भी भयंकर भेदभाव है,एक भी सरकारी प्राइमरी स्कूल का अध्यापक अपने बच्चे को उस स्कूल में दाखिला नहीं दिलाना चाहता जहाँ कि रोटी वो खा रहा है कारन कि वो वहां क्या पढाता है यह उसे पता है.तो क्या यही शिक्षा सुधार है और इसी के बल बूते हम शैक्षणिक भारत कि नीव रख रहे हैं.
सच तो यह है कि जब तक जिलाधिकारी और चपरासी के लड़के एक साथ एक स्कूल में नहीं पढेंगे तब तक ये संभव नहीं है.इससे दोनों ही चीजे सुधरेंगी .जब जिलाधिकारी का लड़का स्कूल में पढ़ रहा होगा तो अध्यापक कि क्या मजाल कि पढाये न और दूसरा कि परस्पर संस्कृतियों के मेल से ये लाभ संभव हो पायेगा कि बड़े बाप का बेटा भी जमीनी चीजों को जान सकेगा और छोटे घर वाले बड़े लोगों के बीच रहना.तन जब कृष्ण और सुदामा एक साथ पढेंगे तो वो समान शिक्षा का अधिकार होगा अन्यथा ये महज एक राजनैतिक छलावा और सरकारी दोहन के अलावा कुछ भी नहीं है.

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

नक्सलवाद एक समस्या नहीं अपितु समाधान

आज सुबह की चाय की पहली चुश्की ही अखबार की हेड लाइन पढ़ते कड़वा हो गयी /कारण छत्तीसगढ़ में मीडिया के अनुसार छिहत्तर सैनिकों की शहादत/बड़े -बड़े भाषण देने वाले किसी एक नेता का बेटा सीमा पर तो लड़ने जैसी मुर्खता कर नहीं सकता/शायद यही कारण है की कोई भी नेता अपनी सहानुभूति सिर्फ और सिर्फ आर्थिक मदद की मांग के रूप में दिखता है /सत्तधारी पक्ष का नेता रकम बताता है और सत्ता विरोधी दल का सीधे दो गुनी रकम की मांग करता है/जो जितनी राजनीति कर ले लाश पे वो उतना बड़ा नेता है/
क्या इससे ये समस्याएं ख़त्म हो जाएँगी तो कभी नहीं /जरूरत है तो चीजों को देखने के अंदाज बदलने का.इतनी भारी संख्या के नौजवान नकारात्मक उर्जा संचारित कर रहे हैं ,उन्हें मौका नहीं है,अवसर नहीं है,जिसका परिणाम हम लाश के ढेरों के रूप में देख रहे हैं.मैं उन नक्सलवादियों के घटिया कृत्य की कत्तई तरफदारी नहीं कर रहा हु बल्कि ये कहना चाहता हूँ की विचार कितने ही ऊंचे भले क्यों न हो लेकिन यदि उसके रस्ते हत्या और अपराधो से जुड़े हो तो उसे कदापि जायज नही कहा जा सकता । हा जरुरत है तो इनके सकारात्मक दिशा निर्देशन की जिसका लाभ पुरे रास्त्र को मिल सकता है । आज देश की संसद और बिधान सभाएं अपराधियों से भरी पड़ी है और हम विकास की तरफ अग्रसर होते हुए कहे जा रहे है तो अगर इन नक्सलवादी सिपाहियों को सीमा पर लगा दिया जाय तो क्या पाकिस्तान और चीन जैसी समस्याए हमें परेशां कर पाएंगी ।
अतः नक्सलवाद एक समस्या नहीं अपितु समाधान है जरुरत है तो अच्छे पहल की ....

मंगलवार, 30 मार्च 2010

पुरुषों के हाथ से छिनती समाज की प्रधानता

भारतवर्ष गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है जिसकी विचित्रता की कहानी सुनते ही बनती है.आजादी के बाद पंडित नेहरु के कार्यकाल में विलियम सी डगलस एक अंग्रेजी साहित्यकार भारत भ्रमण पर आये थे ,जिन्होंने अपनी किताब में लिखा की वे भारत के लोगों पर गर्व करते हैं.इसका कारण जब वे बरेली से रानीखेत ट्रेन से जा रहे थे तो रस्ते में एक स्टेशन पर रुके जहाँ कुछ बच्चे टोकरियाँ बेच रहे थे ,एक नौ साल की लड़की आखों में बेबसी और लाचारगी के आँसू लिए उसको विदेशी उपयुक्त ग्राहक समझ के गिडगिडा रही थी टोकरी खरीदने को.पर लेखक के हाथ भी खाली नहीं थे की वह उसकी टोकरी खरीद सके ,हाँ उसकी स्थिति को देख वह यूं ही कुछ पैसे जेब से निकल कर उसकी टोकरी में दल देता है अब क्या था लड़की का परा गरम वह उसके पैसे उसके मुह पर फेक दी और इस घटना से प्रभावित लेखक उसकी साडी टोकरियाँ खरीएदने को मजबूर हो गया।
यह था कारण जो वह भारतीयों के प्रेम में उलझ गया और कहा ऐसा आत्मसम्मान मैंने कही नहीं देखा.ऐसे भारत को आज आजादी के पैसठ सालों बाद क्या होगया,मर गयी वो लड़की या नैतिकता.बात तोदिकदावी जरूर है लेकिन सोचने योग्य है .हमारे देश का विकास एक आरक्षण तो रोके ही हुए था अब महिलाओं को भी इसी रस्ते में घसीट दिया गया.ताज्जुब है की इसे महिलाये हसते हुए अपनी उपलब्धि समझ स्वीकार भी की नाचीं भी क्यों।
आरक्षण माने दया तो क्या महिलाये दया की पात्र हैं.एक तरफ देश किरण बेदी और कल्पना चावला का प्रचार कर रहा है दूसरी तरफ उसे दया की वस्तु समझी जा रही है.तैतीस प्रतिशत आरक्षण हर महिला को संसद तो नहीं बना सकता लेकिन हर महिला को कमजोर कर उसका नारीत्व छीन सकता है।
घटिया राजनीतिक सोंच रखने वाले लोग और संगठन इस बात को उपलब्धि बता रहे हैं,वो भी उस समय जब देश के तीन शीर्ष पदों.राष्ट्रपति,लोकसभा अध्यक्ष और सत्ता दल की मुखिया ही नहीं अपितु कई प्रदेशों की मुखिया भी महिलाएं है.हाँ इतना जरूर है की इससे घुरहू को पतोहू तो कभी संसद नहीं जाएगी लेकिन ये नेता अपने पतोहू को संसद बनाने के चक्कर में पुरुषों को समाज से झंडी दिखने का कम कर रहे हैं.स्वागत है हर उस महिला का आज के परिपेक्ष्य में जो महिला विधेयक को ठुकराने की बात करे।
जयहिंद

अभाव में बदलता स्वभाव

गांव का रहने वाला हूँ पूर्णतया देहाती पृष्ठभूमि का ,अतः देहात आज भी सोंच का पीछा नहीं छोड़ता है.बचपन में गांव में एक कुतिया की कहानी आज भी उसकी शक्ल तक याद है कारन लोगों का सामूहिक रूप से उसका दुत्कारा जाना जबकि बाकि के कुत्तों को बुला के रोटियां दी जाती थी.उसके इस अपमान का कारन था की वह अपने ही बच्चे को खा गयी थी .लोगों की इस कदर उससे दुश्मनी हो गयी थी ।
अब भी शहरी तो नहीं हो पाया हूँ लेकिन सोंच थोड़ी जरूर बदली है फिर भी देहाती परछाई पीछा नहीं छोड़ती.अंतर इतना ही है की यहाँ कुतिया की कहानी से थोडा ऊपर उठा और एक बच्चे के ऊपर सामायिक और बैचारिक बदलाव का सामना यह सुनते हुए करना पड़ा जोकि अपने बाबा दादी को आम न देने की बात चिल्ला-चिल्ला कर किये जा रहा था.परिवार के गिरते हुए ढांचे को अगर नहीं वक्त रहते सम्हाला गया तो यह खँडहर बनकर ही दम लेगा .बचा लो यारों.

शनिवार, 27 मार्च 2010

पेड़ों की कटाई का जश्न जरी फिर भी पर्यावरण सुधार सुरजोरों पर

सैकड़ों हजारों बुध्ह्जीवियों के बीच बनारस में रोज पेड़ों की कटाई जारी है पर हर व्यक्ति इंतजार में है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बाधे/बी एच यू जैसी जगह पर भी बिल्डिंग बनाने के चक्कर में रोज पेड़ कटे जा रहे हैं और विभाग हरियाली कि गाथा गाने में मशगूल है.इस परिसर कि पहचान यहाँ कि हरियाली थी जिसे गाहे-बगाहे कटाने का अवसर ढूढ़ा जाता रहा है. वो दिन दूर नहीं जब विश्वविद्यालय कंक्रीट सेल में तफ्दील हो जायेगा.हॉस्टल जरूरत है इसे नहीं नाकारा जा सकता लेकिन इसको पुराणी बिल्डिंग कि मंजिलों को ऊंचा करके भी तो किया जा सकता है फिर ये पढ़ी लिखी गलती क्यों?
दूसरा हर जगह रोड बन रहे हैं शहर में भी और शहर के बाहर भी.कहीं भी रस्ते में पेड़ आया तो बे झिझक सरकारी कम का हवाला देते हुए लोग इसे काटते फिर रहे है.अभी रथयात्रा चौराहे पर पेड़ कटा,गोल्गाद्दा में बस स्टैंड से थोड़े पहले का नीम का पेड़ कटा,ऐसे सैकड़ों पेड़ रोज कट रहे हैं और सरकार तमाशगीर बनी हुई है।
अतः होश में आओ भाई नहीं तो ऐसे ही एयर कंडीसन ने गरीबों कि गर्मी बढ़ा दी है शायद सरकार नहीं चेती तो उनसे आक्सीजन भी छीन जायेगा,बड़े लोगों का क्या है उनके सेहत पर तो असर पड़ना नहीं है लेकिन अस्सी प्रतिशत देश के लोग गरीब ही है जो कि गावों में ही शहर तलाशते है/तो देर किस बात कि हाथ बढ़ाये इस पुण्य काम की ओर बचा लें देश को जलने से /

बुधवार, 24 मार्च 2010

बीएचयू आईटी को आईआईटी वाराणसी बनाया जाना कत्तई न्यायसंगत नहीं

बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी यानि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय देश तो क्या विदेशों में भी किसी पहचान की मोहताज नहीं है.महामना जैसे कर्मयोगी की यह तपोभूमि अपनेआप में एक सिद्दपीठ है जहाँ से हजारों हजार लोगो की आस्था ,विश्वास और भावनाएं जुडी हुई हैं।
आज विश्वविद्यालय के इंजीनीयरिंग कॉलेज को आईआईटी वाराणसी बनाने की पहल सुरजोरों पे है/मेरा मानना है कि विश्वविद्यालय के मूल चूल ढांचे में परिवर्तन कर और इसको दूसरा नाम दे ,इसके लिए अलग से गवर्निंग बॉडी नियुक्त करना जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ है जिसको जनता कभी नहीं स्विका करेगी.मै इसका विरोधी नहीं हू लेकिन तरीके का धुर विरोधी हूँ जो अपनाया जा रहा है.अलग से आईटी को फंडिंग करे सरकार,शोध कार्यों को महत्व दे लेकिन परिसर में दूसरी संस्था के नाम से इसे संचालित किया जाना एकदम सरासर गलत है/क्या मजाक है जो अच्छा लगा वो आपका बताना चाहूँगा को ये सरकारी फंड से बना विश्वविद्यालय नहीं है ,यहाँ कि जनता मालवीय जी के एक आवाहन पर भक्ति भाव से जमीन ही नहीं दी थी श्रमदान भी किया था क्या इसीलिए कि आज आईटी को आईआईटी वाराणसी बना दीजिये कल आईएम्एस को एम्स वाराणसी बना दीजिये ,परसों ऍफ़एम्एस को आईआईएम् वाराणसी बना दीजिये और फिर महामना कि प्रतिमा उखाड़ कर प्रयाग भेजवा दीजिये/मुझे समझ में नहीं आता कि विश्वविद्यालय प्रशासन इसे अपनी उपलब्धि के रूप में क्यों देख रहा है।
रही बात कैम्पस सेलेक्शन की तो कभी भी बीएचयू आईटी का प्लेसमेंट आईआई टी से कमजोर नहीं रहा है/अतः ये जनता की भावनाओं के साथ राजनैतिक छेड़छाड़ है जो की बर्दाश्त से बाहर है/
अतः गुजारिश है की इसपर पुनः विचार किया जाय अन्यथा बाबरी मस्जिद से भी बड़ा सांप्रदायिक तनाव हो सकता है जिसके लिए सरकार जिम्मेदार होगी और मालवीय जी हाथ में कटोरा लिए थे विश्वविद्यालय बनाने लिए और जनता हाथ में कटोरा ले विश्वविद्यालय बचने के लिए सडकों पर उतर आएगी और हाथ मलने और पश्चाताप के अलावा कुछ भी नहीं हाशिल होगा.

शुक्रवार, 19 मार्च 2010

एक महापुरुष का जीता-जागता सपना काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

धर्म और संस्कृति का नाम लेते ही मन मस्तिस्क पर खुद बखुद भारत की धार्मिक राजधानी काशी का नाम स्फुटित हो जाता है/जहा आज भी पत्थर को भगवान और गाय को माता सम्मान दिया जाता है/काशी के धर्म और संस्कृति के चादुर्दिक विकास में यहाँ के शिक्षा और शिक्षाविदों का अभूतपूर्व योगदान रहा है/
ऐसे ही महा मनीषियों में थे पंडित मदन मोहन मालवीय /प्रयाग से काशी के इस महा संगम को भला कौन नहीं जानताकाशी की तत्कालीन शिक्षा के गिरते स्तरको नहीं पचा पाने वाले इस महा मानव की तपस्या की साक्षात् प्रतिमूर्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आज देश ही नहीं वरण विश्व में अपनी छटा बिखेर रहा है
आखिर क्या थी जो इतनी बड़ी ईमारत खड़ा करने को एक साधारण मनुष्य को सक्षम बना दी /तो वह थी सामान्य जानता को सस्ती शिक्षा ,सस्ता स्वास्थ्य और समुचित रोजगार दिलाने का करुणित ह्रदय और उससे उपजा दृढ विश्वास
लेकिन कष्ट ही नहीं क्षोभ है की आज का वर्तमान विश्वविद्यालय परिदृश्य उनके सपनो से दूर होता नजर आ रहा है/आज नहीं यहाँ सस्ती शिक्षा है न ही सेवा भाव वाला सस्ता स्वास्थ्य /आज से बीस साल पहले के विश्वविद्यालय और आज के विश्वविद्यालय में बहोत अंतर है/अंतर होना भी चाहिए ,लेकिन कष्ट यह की यहाँ भी अब घुरहू के लड़के पढाई नहीं कर सकते /दिनोदिन फीस व्रिध्ही और चिकित्सा में अनाचार यहाँ का पर्याय बन चूका है/कारण लोगों में मदद को भावना का निरंतर लोप /
एक बार मालवीय जी महाराज के समय में छात्रों ने मेस की समस्याओं को लेकर हड़ताल शुरू कर दिया,अब क्या महराज जी पहुचे ,उन्होंने छात्रों से कहा की तुम लोग नहीं भोजन करोगे तो मैं भी यही हड़ताल पर तुम्हारे साथ बैठ रहा हु/अब क्या था छात्रों को अपनी जिद छोडनी पड़ी /पर आज ऐसा नहीं है यहाँ के वर्तमान प्रशाशन से ऐसे प्रेमालाप जैसे रूप की तो उम्मीद नहीं की जा सकती अपितु ये लड़कियों तक पर भी लाठी बरसाने से बाज
नहीं आते/
अतः सब कुछ वही है बदला क्या हमारी सोच/पिछले साल मार्च २००८ में प्रधान मंत्री डा .मनमोहन सिंह का यहाँ दीक्षांत समारोह में आना हुआ ,छात्रनेताओं का एक समूह उनसे मिलाने की अनुमति किसी तरह से लेकर तत्कालीन कुलपी प्रो पंजाब सिंह के रवैये का जिक्र किया गया तो प्रधानमंत्री जी पूछ उठे की अकेडमिक काउन्सिल के लोग क्या कर रहे हैं ,तब तक मेरे धैर्य का बाँध टूट चूका था औरबोल उठा की काउन्सिल में सारे अपराधी भरे हुए हैं आप चाहे तो आई.बी से जाँच करा लीजिये और गलत होने पर मुझे सजा करा दीजियेगा/इसका हश्र ये हुआ की प्रधानमंत्री जी ने कुलपी के साथ भोजन करने तक से मन कर दिया/

अतः जरूरत है तो विश्वविद्यालय को हरा भरा रखने का नहीं की सुखाने का प्रयास करने का और आज के विश्वविद्यालय के लोग इसे ले डूबने पर आमादा है,अच्छा है की मालवीय जी स्वर्ग सिधार गए हैं अन्यथा ये लोग उन्हें दहाड़ेमार कर रोने पर विवश कर देते और मानवता भी शर्मसार हो जाती/

बुधवार, 17 मार्च 2010

लोकतंत्र में छात्रसंघों की भूमिका

देश के तमाम बड़े नेता ,संगठन के पदाधिकारी,मंत्री ,सांसद छात्रसंघों की सीढ़ी लगाकर सत्ता तक पहुचे हैं चाहे वो कपिल सिब्बल हों या पी.चिदंबरम चाहे राजनाथ सिंह हों या लालू यादव ,हर तपके के बड़े लोगों का राजनीतिक प्रवेश छात्रसंघों के माध्यम से हुआ/फिर भी देश के सभी विश्वविद्यालय,महाविद्यालयों के छात्रसंघ भवनों में ताला लगे हुए है आखिर क्यों?
ये सच है की जिंदगी भर छात्र राजनीती नहीं की जा सकती लेकिन छात्रहितों को जब वही लोग नजर अंदाज करेंगे जिन्होंने यहीं से पहचान हासिल की तो यही हश्र होगा/अब बात आती है छात्रसंघ क्या और क्यों?कोई भी संगठन अपने सदस्यों की समस्याओं इत्यादि से लड़ने का एक मंच रुपी माध्यम होता है जिसका होना उतना ही जरूरी है जितना की देश के संसद का होना/आज देश में राजनीतिक अपराध बढ़ रहा है कारण छात्रसंघों का लोप/इसके माध्यम से तेज और ईमानदार युवा की राजनीती में निःस्वार्थ इंट्री होती थी जो राष्ट्र को एक नयी दिशा देता था/आज ये सांसद ,विधायक जब हासिये पर आ जाते हैं तो इन्हें छात्र संघों की यद् आती है और फिर अपनी खोई पहचान जुटाने के फेरे में नए छात्रों को राजनीतिक छलावा देकर गुमराह करते है/छात्र छात्र होता है वह किसी दल का नहीं होता है यही कारण है की जब-जब कोई लड़ाई युवाओं के हाथ में आई उसको जीत मिली क्योंकि वहां कोई लोभ और लालच नहीं होता था/
लोकतंत्र की पौधशाला है छात्रसंघ ये सभी कहते है तो उसको सुखाने पर क्यों अमादा हुए हो/सच तो यह है की छात्रसंघों से आज के नेता डरते हैं इनको अपने अस्तित्व का खतरा है/मैं छात्रसंघों का हिमायती हु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीती से सरोकार रहा है /आज लोग चाहे जो कह ले अगर अपवादों को छोड़ दिया तो यहाँ अपराध और बहुबल का अवसर कम है ये जरूरी है छात्रों को उनकी कक्षा का दरवाजा भी मालूम होना चाहिए /
अतः कब तक सायकिल चलाएंगे अखिलेश यादव के पीछे,कब तक राहुल गाँधी की माला जपेंगे और कब तक मायावती को नोटों की माला पहनाएंगे,अब तो चेतिए /छात्र जब विद्रोह पे उतरा तो इतिहास गवाह है इंदिरा जी जैसी कुशल प्रशाशिका को भी मुह की खानी पड़ी थी/अतः छात्रनेताओं अपने हौशले को बुलद कर आवाज उठाओ हम तुम्हारे साथ हैं/

बुधवार, 10 मार्च 2010

अर्थहीन शिक्षा -प्रणाली को थोप रहे हैं-सिब्बल साहब

शिक्षा किसी भी समाज का सबसे महत्व पूर्ण अंग होता है,और इसके मूल-चूल ढांचे में बिना सोंचे समझे परिवर्तन कभी भी गर्त में दल सकता है /एक रटा -रटाया सूक्ति कि शिक्षा के लिए लोर्ड मैकाले कि शिक्षा नीति जिम्मेदार है,कहकर लोग अपने कर्तव्यों कि इतिश्री कर लेते है/अगर अब भी शिक्षा के लिए वही मैकाले का राग आप अलाप रहे हैं तो आजादी के साथ सालों बाद देश के कर्ता-धर्ता अभी तक क्या खाक अपने को विद्वान कह जनता को भ्रमित करते हैं/कही भी अगर पुल जीवित है तो कब का बना ,पता लगा कि अंगरेजों के हाथों का,स्कूल सबसे अच्छा तो क्वींस कॉलेज कारण अंगरेजों का, अनाथालय अंगरेजों का ,जेल भी उन्ही के हाथों का ,अब शिक्षा नीति भी उन्ही कीअपनी गलतियों को छिपाने का एक नायब तरीका,/
आज भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल साहब शिक्षा के परिवर्तन में लगे हुए हैं/इसी क्रम में उन्होंने सी बी एस सी बोर्ड के स्कूलों में कक्ष नौ की परीक्षा का भी जिम्मा बोर्ड को पकड़ा दिया पेपर तो वह से आये ,सारे स्कूलों को एक व्यक्तिगत कोड दिया गया जिससे पेपर उपलब्ध हो जायेगा/सारे स्कूलों के परीक्षा की डेट एक राखी नहीं गयी ,और परिणामस्वरूप हर स्कूल का पेपर एक दम एक जैसा है बच्चों की चांदी ही चांदी/दस साल पहले यूं पी बोर्ड ने यह उपक्रम चलाया था जो सुपर फ्लाप घोषित हुआ था यद्यपि इससे सफल था,तो ध्यान देने की जरूरत है नहीं टी बच्चे तो तू डाल-डाल- तो मैं पात -पात की राह चलने पे विश्वास रखते है/

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

संजनी हमहूँ राजकुमार

राष्ट्र के संसद में महगाई की गूज एक राजनितिक बहाना हो चला है/महगाई निर्विवाद रूप से बहुत अधिक है लेकिन क्या ये एकाएक रातोंरात बढ़ी तो कत्तई नहीं .तो आखिर क्या अब तक इसी शीर्ष महगाई का विरोध करने का इंतजार कर रहे थे ये नेतागण/विरोध का तो काम नेता प्रतिपक्ष का है ही/वो हर काम का विरोध करना धर्म समझते हैं और जनता भी उनकी बात को उतनी गंभीरता से नहीं लेती है/लेकिन कष्ट इस बात का है कि जो लोग आज विरोध जाता रहे है अगर वो पहले के सरकारों में ही ऐसा विरोध करते तो आज ये असफल विरोध का दिन नहीं देखना पड़ता /
सच तो यह है कि "सुपवा हसे तो हसे चलनियो ,जेकरे बहत्तर छेद",जो लोग खुद कभी जनता को अपना कर्तव्य नहीं समझे वो भी आज संजनी हमहू राजकुमार के तर्ज पर विरोध कर राजनीती चमकाने में लगे हुए है,लेकिन अब क्या हो सकता है अब तो बहुत देर कर चुके है ये लोग क्योंकि प्रणव दा कि पीठ भी अब तो ठोकी जा चुकी है ,बड़ा मुश्किल है लेकिन काम छ है/और नीति और नीयत से किये जाने वाले काम में सफलता खुद चलकर साथ देने उतर आती है /अतः चलते रहिये शायद कहीं शाम हो ही जाय/

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

होली भी आखिर हो ही ली

पंच सितारा होटलों में शाम बिताने वाले के लिए होली क्या और दिवाली क्या?होली -दिवाली जैसे तीज-त्योहारों का मतलब तो उनके लिए होता है जिन्हें इंतज़ार होता है की इस पर्व पर नए कपडे बनेंगे ,नए जोश के साथ एक दिन फुर्सत से घूमेंगे/उस बाप को ख़ुशी होती है जिसका बेटा परदेश से आने को होता है या तो फिर बच्चों को रंग-गुलाल और पिचकारी से होती है/
वक्त बदला वक्त की धारा बदली लोगों के जीने और जिलाने की तहजीब बदली /भंग और ठंढई की जगह चिकेन और अंगूर की बेटी ने ले ली /एक तरफ महगाई ने कमर तोड़ कर रख दी है लेकिन दूसरी तरफ मधुशाले की भीड़ आलिशान अंदाज में बढ़ रही है/सामान्य घरेलू खाद्य रसोई की पहुच से बाहर होते नजर आने लगे हैं,निःसंदेह गुझिया और चिप्स की तरफ से लोगों का आकर्षण कुछ कम हुआ है लेकिन क्या उसमे महगाई का ही सारा योगदान है तो नहीं ,हमारी सोंच भी ठिगनी हुई है/
हम बाज़ार में चावल खरीदने जाते हैं तो उसकी कीमत बढ़ी हुई देख कहते हैं महगाई बहुत हैजोकि एक परिवार में अगर प्रति माह बीस किलो चावल खर्च होता है तो अधिकतम सौ रूपये अधिक देने होंगे अच्छे चावल खरीदने के लिए /अगर हम बारीकी से अध्ययन करे तो पाएंगे अक्सर लोग ऐसी जगह महगाई का जिक्र करते हैं पर अगर उस घर में एक भी आदमी पान मसाला खाने वाला है और दस रूपये का भी मसाला खाता है तो महीने में तीन सौ का मसाला खा जाता है /
एक और फैशन बढ़ा है अगर कोई दुबला -पतला शक्ल का दिखता है तो खुले आम लोग आज उसे बीयर पीने की सलाह देते हैं ताज्जुब लोग मान भी जाते हैं/एक बीयर की कीमत सत्तर रूपये है जितने में लाख महगाई के बावजूद तीन लीटर दूध आ जायेंगे और क्या तीन लीटर दूध से ज्यादा सेहतमंद साबित हो सकता ये जौ का पानी जाने जानेवाला बीयर/
अतः परेशां तो लोग अपनी सोंच से होते हैं सामाजिक परेशानियाँ तो सामूहिक है जो सभी झेलते हैं/इसलिए प्रेम ,उन्माद ,हर्ष ,उल्लास ,रंग ,गुलाल ,भंग ,ठंढाई ,गोझिया ,पापड़,कुरता,पायजामा ,लहगा ,चुंदरी ,इत्यादि गहनों से सजे इस मिलन के पर्व पर महगाई का असर न होने दे ,अपनों सोंच बदलें और जियें जी भर के...............
होली की ढेरों मुबारकबाद ..........

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

अमीरों की सरकार-कांग्रेस

वोमेश चंद बनर्जी और सी .राजगोपालाचारी ने जिस कांग्रेस की नींव रखी थी शायद वो पूजीपतियों के ईंट से बनने वाला महल साबित हो गया है'.निर्विवाद रूप से कांग्रेस को कभी गरीबों की सरकार कहा जा सकता था ,जिसमे लालबहादुर शास्त्री सरीखे लोग भी प्रधानमंत्री तक ही नहीं हुए अपितु राष्ट्र को कई बड़ी चुनौतियों का सामना करने में सक्षम बनाये.परन्तु आज क्षोभ होता है आज के कांग्रेस की नीति और नीयति पर।
कांग्रेस के तथाकथित राजकुंवर राहुल गाँधी जोर शोर से नवयुवकों के राजनीती में आगे आने की बात कर रहे है,लेकिन क्या राजनैतिक विरासत रखने वाले जितिन प्रसाद, सचिन पायलट ,ज्योतिरादित्य सिंधिया और उमर अब्दुल्लाह ही बस देश के नवयुवकों में आते हैं.क्या किसी सामान्य परिवार के ,राजनैतिक सोंच रखने वाले को आगे बढाने या भेजने का प्रयास भी किया महोदय ने/तो जवाब मिलेगा कत्तई नहीं,.
तो क्या इन्ही लोगों के भरोसे २०१२ फतह करने चले हैं राजकुमार,देखिये इस आनन् -फानन में कहीं हाथ में आया २०१४ भी न खिसक जय/इस समय कांग्रेस संगठन में पद बाटने का काम जोरों पर है,जिसका पैमाना ये है कि जो जितने सदस्य बनाएगा उसे उस तरह के अधिकार सौंपे जायेंगे/इसमें होता था क्या कि चंद बड़े नेता जिनके पास पैसे कि कमी नहीं है या जो नेता कम ठेकेदार ज्यादा हैं वे घर बैठ कर फर्जी नाम भर के खूब पैसे भेज देते थे और उन्हें आँख मूद कर आई .सी .सी .मेम्बर ,पी.सी सी मेम्बर या प्रदेश या देश क़ी संगठन क़ी बागडोर सौप दी जाती रही/ लेकिन इस बार उनकी एक न चली क्योंकि सदस्यों क़ी फोटोग्राफी भी हो रही थी/सबके हवा-हवाई सदस्य गायब हो गए,तो होना क्या था ये लोग इतने मुर्ख थोड़े ही हैं/बनारस में कांग्रेस कार्यालय में ही चोरी हो गयी और विशेष रूप से वही रजिस्टर जिसमें उल्लिखित था क़ी कौन कितने मेम्बर बनाया,गायब कर दिया गया/अब फिर इन नेताजी लोगों क़ी चाँदी ही चाँदी है,जो एक समर्थक नहीं खोज सकते अब वो भी हजारो मेम्बर बनने का किला फतह कर रहे है ,लग रहा है अब फिर आँख मूद कर अपने हित नात रिश्तेदारों को पद बाँट दिया जायेगा/मारा जायेगा वो छोटा नेता या कार्यकर्त्ता जो लखनऊ या दिल्ली तक अपनी जड़ें नहीं जमा पाया है/फिर अनाचार होगा/
तो इस बार क्या करोगे राहुल बाबू अब आपकी शराफत का क्या होगा,या ए बात आपको पता ही नहीं है,आपको आपकी लखनऊ क़ी लोकप्रिय नेत्री रीता जी ने कुछ नहीं बताया क्या?
अब बताइए क्या इन्ही नेताजी लोगों के बल पर आप बांह चढ़ाये फिरते हैं अगर यही सच है तो मित्रवत सलाह है इनसे सावधान हो जाइये अभी भी वक्त है ,दोनों काम हो जायेगा २०१२ वाला भी और २०१४ वाला भी ,क्योंकि जनता में तो आपकी पूछ बढ़ी है इससे कत्तई नहीं नकारा जा सकता /उसका फायदा भी उठा लीजिये और ........./