सोमवार, 28 जून 2010

वास्तविक समाजवादी विचारधारा के एक युग प्रवर्तक का अंत

बनारस के गंगा जमुनी तहजीब के अजीबो-गरीब फक्कडपन और तजुर्बे का नाम था मार्कंडेय सिंह .काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम् एस सी की डिग्री क्या हाशिल की ,मानों यही का होके रह गए.उन दिनों जब छात्र राजनीती का शहर में बोलबाला होता था ,तब अपनी अलग सोंच रखने के वजह से ही सन १९७१ में विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे,वहीं से शुरू हुआ राजनैतिक सफ़र फिर रुकना कहाँ था .राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित श्री मार्कंडेय अंगरेजी हटाओ आन्दोलनमें काफी बढ़ चढ़ के हिस्सा लिए ,बनारस में प्रखर समाजवादी नेता श्री राजनारायण के सबसे करीबियों में थे .बाद में जब जनता पार्टी का गठन हुआ और इंदिरा गाँधी कीसरकार भयंकर रूप से पराजित हुई तो उन्हें जनता पार्टी युवा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया ,बताया जाता है की ये वो समय था जब इनके पास हवाई जहाज से नीचे उतरने का फुर्सत नहीं था.बाद में जनता पार्टी के टूटने पर थोड़े सकते में तो जरूर आये लेकिन हेमवतीनंदन बहुगुदा के संपर्क में आये और लोग कयास लगाने लगे की अब मार्कंडेय दादा भी कांग्रेसी हो गए,लेकिन हर कुछ के बावजूद वो विचारों से कहाँ समझौता करने वाले थे शायद यही कारण रहा कि कांग्रेस का कभी झंडा नहीं ढोए. हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र राजनीती के दो धुर हुआ करते थे एक देवब्रत मजूमदार तो दुसरे मार्कंडेय सिंह.ये दोनों लोग वैसे तो एक होने से रहे लेकिन अगर किसी मुद्दे पर ये एक हो गए तो फिर किसी कि दाल नहीं गलनी थी .बहुगुदा जी के संपर्क में आने और फिर उनके निधन के बाद ये राजनीतिक सन्यास कि स्थिति में चले गए थे.लगभग चार साल पहले लंका स्थित टंडन टी स्टाल के गार्जियन कि स्मारिका छपवाने और उनका जन्म दिन मनाने के लिए उनका संघर्ष देखने लायक था.पैर में भारी घाव उसे पालीथिन से बांधे दौड़ते रहे और संपादित करा के ही दम लिए ।
कुछ दिन पहले यानि फरवरी २०१० में मैं और चौधरी राजेन्द्र उनके घर गए तो पता चला कि नेता जी कुम्भ स्नान करने गए हैं ,वापस आये तो बोले कि अब मैं फिर से चार्ज हो कर आ गया हूँ ,और लगे दौरा करने ,तपती दुपहरी में।
वैसे तो मूल रूप से रहनेवाले बनारस के गंगापुर के ही थे लेकिन ज्यादातर समय अपना बनारस शहर में ही गुजारे लेकिन इस बार आये तो उनका आशियाना नारिया स्थित जैन धर्मशाला का .बीएचयू के पूर्व छात्रनेता चौधरी राजेन्द्र का कमरा .बतौर चौधरी जी वो इधर काफी चिंतित से रहते थे देश कि स्थितियों को लेकर.और निरंतर दो महीने भाग दौड़ किये।
उसके बाद आया काल का वो दिन जब उन्हें अपने एक मित्र प्रहलाद तिवारी की बेटी कि शादी मेंकानपुर जाना पड़ा यानि २७ जुलाई .रस्ते में ही हृदयाघात हुआ और दम तोड़ दिया,ये ढलता सूरज जिसे अपनी लालिमा खोने का मलाल भी नहीं था.देश के कई नेताओं के वो गुरु थे जैसे नितीश रामबिलाश शरद यादव वगैरह के,लेकिन किसी से कोई मानसिक समझौता नहीं।अभी राहुल गाँधी के अहरौरा के सम्मलेन के बाद हुई मुलाक़ात में बताने लगे कि एक समय था कि मैं और जार्ज फर्नांडीस कभी उसी अह्रारा स्थल पर मुख्य वक्ता हुआ करते थे और आज मई बैरिकेटिंग के पास खड़ा हूँ .ये थी उनकी राजनैतिक साफगोई ,संच भी है याद किये भाषण देने वाले के कंधे पर रास्त्र कब तक और कहाँ तक चलेगा .
उस काशी कि माटी के अमर सपूत को शब्दों का आखिरी सलाम.किसी ने सच ही कहा है "न ही कोई गिरज और गुरजे गुबार है मस्तों कि जिन्दगी में हमेशा बहार है "
जय हो .

सोमवार, 21 जून 2010

राजनीती करने वाले अब चुने जायेंगे कैम्पस सेलेक्शन के माध्यम से

आज कल कांग्रेस के तथाकथित युवराज आई आई टी और मैनेजमेंट कोलेजों में युवा चेहरे ढूंढ रहे हैं जो उनके बताये गए रास्ते पर चल कर राजनीती कर सकें .देश में लोकतान्त्रिक व्यवस्था के तहत छात्र सब्घों के माध्यम से तेज -तर्रार लोग अपने विचारों के साथ जब देश की विकास को गति देते थे तो बात समझ में आती थी लेकिन ऐसे छात्र सिर्फ और सिर्फ छात्र होते थे वो किसी विभाग विशेष के नहीं होते थे,और अब फिर अगर उनकी जरूरत समझ में आ गयी है तो छात्र संघों पे लटका टला क्यों नहीं खुलवा देते जनाब .मैं छात्र संघों की कत्तई तरफदारी नहीं कर रहा लेकिन आप ये तनी जानिये की बेंगलूर और डेल्ही के इन रईस जादों से देश नहीं सँभालने वाला। एक छात्र राजनीती से वाकई जुदा हुआ छात्र कैरियर बनाना छोड़ राष्ट्र बनाने का कम करता है अगर उसके सिर्फ गलत चेहरे पर ही ध्यान न दिया जाय तो।
तो अब राष्ट्र को इस स्थिति में पंहुचा दिया इस महान युवराज ने की इनको राजनीतिज्ञों का कैम्पस प्लेसमेंट शुरू कर दिया.अब ये बचपना सोंच छोडिये राहुल बाबू आप चालीस के हुए और लोग भी पता नहीं कैसी -कैसी उमीदें
आपसे पालने लगे हैं ,कम से कम इसका तो ख्याल रखा कीजिये।
राजनेता एक विचार होता है,एक संस्कार होता है ,एक प्रवाह होता है,एक धारा होता है ,पर्सनालिटी डेवलपमेंट का कोर्स पढ़ा के आप किसी को नेता नहीं बना सकते ,हाँ बहुत आपकी दया दृष्टि रही तो ,विधायक,सांसद भले ही बनवा सकते हैं.अतः ,अनुरोध है की राजनीती जैसे शब्द को और शर्मशार न कराइए और स्कूल-कोलेजों में जा-जा कर नेता ढूढने का नाटक बंद कर दीजिये ,अरे अभी तो सब कुछ होते हुए भी आपके हाथ में बहुत कुछ नहीं है ,और अभी ही आप जो -जो वायदा कर-कर के गरीब झोपड़ियों का सामाजिक मजाक उड़वा रहे हैं ,उनको वडा कर के तत्काल की सहानुभूति और प्रेम का पापड़ खा रहे हैं जाने के बाद उसमे से एक भी वायदा पूरा कर पाए क्या आप ,या आपको याद भी है क्या तो शायद नहीं तो आप तो खुद ही आश्वासन वाले नेता होते जा रहे हैं ,क्या वैसे ही लोगो की तलाश में लगे हैं क्या ?

शुक्रवार, 18 जून 2010

सब कुछ निजी क्षेत्रों को अर्पण कर खुद को असफलता के कटघरे में खड़ी कर रही है सरकार

आज देश के चाहे जिस विभाग को उसके अपने कामचोरी और निकम्मेपन से घाटा लगता है ,उस विभाग को निजी क्षेत्रों को सुपुर्द करने का राग अलापा जाने लगता है.आखिर क्या निजी क्षेत्रों में छः टांगों और बारह हाथों वाले होते हैं। तो नहीं। फिर या तो सरकारी व्यवस्था के तहत नौकरियों का तजुर्बा दिमाग से निकाल दें और सब कुछ प्राइवेट व्यवस्था के अंतर्गत चलने दें अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब प्राइवेट लोग सड़कों पर सरकारी व्यवस्था के हर एक कदम के विरोध में चिल्लाते नजर आयेंगे।

गुरुवार, 17 जून 2010

पुलिस अगर पूर्ण लिप्सा रहित सहयोगी तो फिर डर काहे का

पुलिस को कुछ लोग पूर्ण लिप्सा रहित सहयोगी के रूप में भी परिभाषित करते हैं ,लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि हमारे रामू काका पुलिस के नाम से इतना कांपते क्यों हैं?बेचारे, कोई कह दे कि पुलिस आ रही है तो उनकी पतलून गीली हो जाती है,कभी-कभी गाओं में माँ भी बच्चे को सोने के लिए डराती है ,सो जाओ नहीं तो पुलिस आजायेगी,इसका मतलब पुलिस पुलिस नहीं अब शोले का गब्बर सिंह हो गयी है,आखिर ऐसा क्यों?क्या वाकई पुलिस के किरदार ऐसे हैं ,जो लोगों कि सुरक्षा के लिए रखे गए हैं जिनके आने पर हमें ठंढी आहें भरनी चाहिए कि चलो अब पुलिस आगई अब राहत हो जाएगी ,उसके आते या आने के नाम मात्र से क्यों लोग भय ग्रस्त हो जाते हैं।
पुलिस को सूचित करने का काम गाँव में चौकीदार कि होती है जिसको भी लोग बड़े अछे निगाह से नहीं देखते हैं,हालाँकि चौकीदार बिचारा सिर्फ कहने मात्र को ही सरकारी कर्मचारी होता है पर उसकी तनख्वाह सब्जी खरीदने के लिए भी पर्याप्त नहीं हो पाती ,वर्दी के नाम पर उसीक लाल पगड़ी दी जाती है जो उसकी पहचान होती है बस इतने के लिए अब चौकीदार भी गावों कि बात क्यों उन तक पहुचकर लोगों का दुश्मन बने.इसके बाद अगर आप थाने पहुच जाइए किसी भी तरह कि प्राथमिकी दर्ज कराने तो देखिये पहले तो आपको ही गुनाहगार साबित कर कहीं उठा के दरोगा साहब बंद न कर दें ,अगर उससे बचे तो रिपोर्ट लिखने के लिए इतना दौड़ लगवा देंगे कि आप उनका रास्ता तक भूल जायेंगे .वैसे तो वर्दी पहनने के बाद ये किसी को भी न पहचानने कि कषम खा लेते हैं लेकिन अगर पहचानेंगे भी तो वो सिर्फ और सिर्फ गांधीजी की तस्बीर लगी हरे लाल कागज के दो चार टुकड़ों का उपहार लेने के बाद.ये तो रही पुलिस स्टेशन तककी बाट .अब इनको कही भी आप पेड़ कि सुनसान छाया में गाड़ियों कि चेकिंग करते हुए पा जायेंगे जहाँ ये शरीफ नागरिकों को परेशां करना ही अपना दाइत्व समझते हैं .अगर इनको पता चलता है कि इसी रस्ते से कोई बड़ा अपराधी जा रहा है तो वो पान कि गुमटियों में घुस जाते हैं .इस समय संयोग से बनारस के डी आई जी खुद घटनाओं के पीछे दौरा करते हुए पाए जा रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं .अभी चार दिन पहले ही बड़ा ह्रदय विदारक घटना सारनाथ में हुआ एक ७५ साल के बुजुर्ग को चोरों ने मार डाला और लाखों कि लूट भी कि ,लूट का पर्दाफास भी हो गया और पुलिस चोरों को पकड़ लेने का दावा भी कर रही है ,शायद संयोग से भुक्तभोगी डी जीपी यशपाल जी के रिश्तेदार थे अगर ऐसा नहीं होता तो क्या पुलिस इतना तेजी दिखाती तो संशय है।
अक्सर सुना जाता है कानोकान कि पुलिस वालों को ऊपर पैसा भेजना होता बड़े अधिकारीयों को इसलिए वो घूस लेते हैं ,समझ में नहीं आता अगर ये सच सबको पता है तो लोग इसके खिलाफ लड़ते क्यों नहीं या फिर ये बड़ा अधिकारी है कौन जिसके बहाने पैसे वसूले जाते हैं और इनकी परिभाषा दूषित हो जाती है.इस पर भी संस्कारिक विमर्श होना चाहिए ।

बुधवार, 16 जून 2010

वर्तमान भारतीय नेताओं के पास देश का कोई मॉडल नहीं

कहा जाता है की अगर विरोधी मजबूत हो तो सक्रियता सफलता बन जाती है.आज देश में विरोधियों की तो कमी नहीं लेकिन विरोध में कोई तीक्ष्णता नहीं है कारण कि आज नेता पक्ष हो या प्रतिपक्ष किसी केपास कोई देश का आदर्श मॉडल नहीं है.वो बहस तो करता है ,विरोध तो करता है लेकिन देश को ले कहाँ जाना चाहता है ये कत्तई स्पष्ट नहीं है .लोगों के पास राजनैतिक मॉडल तो हैं कि चुनाव किस मुद्दे पर लड़ना है और चुनाव का राजनैतिक एजेंडा क्या होगा ,किसको कौन सा मंत्रालय सौपना है ,ये सारी चीजें तो तयं है लेकिन देश के विकास के रास्ते और हदें तय करने की जरूरत तक नहीं समझी जाती।
पहले के नेताओं के पास अपना एक मॉडल था जिसको स्थापित करने के लिए वो लड़ते थे ,नेहरु के पास अगर पंचवर्षीय योजना थी,तो शास्त्री जी के पास त्याग ,लोहिया के पास समाजवाद था तो श्यामा प्रसाद मुकर्जी के पास ओज ,इंदिरा के पास अड़ियल पण और लौह विचार था तो फिरोज गाँधी और अटल बिहारी के पास भाषा ,संजय गाँधी के पास मारुती तो राजीव के पास मोबाइल ,जिस मॉडल को जिसने अपनाया उसके कार्य किया तो वो दिखा लेकिन आज के नेताओं के पास ऐसे किसी मॉडल का कदाचित अभाव है ,मॉडल की ही देन है किवर्षों से अपनी खानदानी राजनीती करने वाले लोगों को भी देश के सत्ता कि बागडोर से हटना तक पड़ा।
न आज पर्यावरण के लिए कोई सोंच है न ही जनता के लिए .डेनमार्क के कोपेनहेगेन में सम्मलेन होता है और उस में तय की जाने वाली साडी चीजें बाहर निकलते ही भुला दी जातीं हैं . मॉडल है तो कपड़ों का राहुल गाँधी के कुरते और पैंट का एक मॉडल है .अभी एक दिन पहले अख़बार के किसी कालम में पढने को मिला कि इस समय कांग्रेसी नेताओं में राहुल के कुरते का बड़ा क्रेज है ब्रांडेड जूते कि पूछ है ,अरे काम तो करो जूते की कमी नहीं पड़ेगी।
तो हकीकत में अगर जरूरत है तो विकास के मॉडल ,अन्यथा एक पक्ष हथियार से देश चलाना चाहता है और अपने को मार्क्सवादी कहता है तो दूसरा करोड़ों कि संपत्तियों का मालिक बन अपने को समाजवादी कहता है तो तीसरा धर्म से अलग हो खुद को धार्मिक कहता है और चौथे के पास तो लगता है कहने के लिए कुछ है ही नहीं ,तो क्या अब बंदूकों कि नोक पर राष्ट्र चलेगा और हम अपनी पहचान बनायेंगे तो कत्तई नहीं फिर जरूरत है नए भूगोल कि जो कि कल का इतिहास होने वाला है .

मंगलवार, 15 जून 2010

गंगा के बहाने सरकार से मोटी रकम वसूल करने में लगे तथाकथित बुद्धजीवी

"पानी लेने के बहाने आ जा "इस पंक्ति को ,इस गीत को आज के सामाजिक परिवेश में काशीवासियों ने एक नया आयाम दे दिया है ,सुनते ही आनंद आ जायेगा .जी हाँ ,आज सबसे आसन काम है दो शब्द गंगा पर बोलिए ,कही एकाक धरना प्रदर्शन कीजिये और उदारवादी महान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री करोड़ों रूपये का प्रोजेक्ट दे देंगे,लीजिये अब आप ही गंगा की हालत सुधारिए.अब कोई पगलाया तो है नहीं की गंगा को सुधरने का प्रयास करे उसकी ईमारत भी तो बननी है।
बात थोड़ी कड़वी जरूर है लेकिन गंगा के हरिद्वार वाली धारा की तरह निर्मल और स्पष्टहै. अब तक जब भी गंगा के लिए सरकारी खजाने से रकम निकाली गयी ,वो कभी २०० करोड़ से काम नहीं रही ,फिर किसी दुसरे को ५०० करोड़ ,इस तरह से इतना अधिक पैसा सिर्फ गंगा के नाम पर अब तक सरकार द्वारा पास किया जा चूका है उतने में तो गोमुख से लेकर बंगाल की खाड़ी तक एक नयी गंगा खोद दी जाती और ये तथाकथित बुद्धजीवी ,महंत लोग गंगा के नालों तक को भी नहीं साफ कर पाए .अगर हम बनारस की बात करें तो पाएंगे कि यहाँ गंगा के नाम पर सरकार को सबसे अधिक छाला गया है,कभी वैज्ञानिकों द्वारा तो कभी बुद्धजीवियों द्वारा ,तो कभी महंतों द्वारा तो कभी संत-महात्माओं द्वारा और इतना पैसा मिलाने के बावजूद ये धर्म के पुरोधा लोग बनारस के रविदास पार्क के बगल से गुजरने वाले एक नाले तक का उपचार नहीं कर सके जो कि मिटटी तो दूर इतना पैसा मिला है इस नाम पर कि उन पैसे कि रेज्कारियों से ये खाइयाँ भरी जा सकती हैं.और सबसे बड़ा मजाक यह कि यह नाला कशी के सबसे बड़े धर्मगुरु और ,विश्व विख्यात पर्यावरण विद के लगभग घर से होकर ही गुजरता है.तो इस बार का पांच सौ करोड़ कहाँ जाने वाला है ये भी सोचने का विषय है,लग रहा है मुर्दे जलाने के शहर कि जनता भी मुर्दा हो चली है .इन बातों पर सोचने का ,और बनारसी जिन्दादिली मरना शुरू कर दी है।
अब सवाल उठता है कि क्या गंगा कि स्थिति पैसे से सुधर सकती है तो कभी भी नहीं फिर ये पैसा गोल मटोल लोगों के पेट में चला जायेगा .अगर जरूरत है तो मानसिक स्वच्छता कि,गंगा अपने आप साफ होजाएगी,निर्मल होजाएगी,पहले ये गंदे त्रिकुंड धरी जो कुण्डली मार कर गंगा को सुखाने पर लगे हैं ,पहले इनसे भी हिसाब चुकता करना होगा.जनता जिस दिन कषम खा लेगी गंगा को साफ़ रखने का उस दिन बिना पैसे के गंगा गंगा हो जायेगी।
अतः इस लेखनी के माध्यम से देश के मदांध नीति-नियंताओं से आग्रह है कि गंगा मरने के बाद मोक्ष देती है ,गंगा के नाम पर जीतेजी ही जनता को मोक्ष दिलाने का प्रयास इतनी मोटी रकम इन फिसड्डी हाथों पर कत्तई न दिया जाय अन्यथा गंगा के नाम पर ही महगाई इतनी परोक्ष रूप से बढ़ जाएगी कि गरीब जनता के पास कफ़न खरीदने के लिए पैसे नहीं होंगे और जब निर्वस्त्र लाशें पहुचेंगी तो मान गंगा दहाड़ें मार के रोने लगेंगी और फिर उसके आसूओं के बढ़ को रोक पाना सरकार के लिए मुश्किल होगा ।

सोमवार, 14 जून 2010

बेचने वालों ने क्या-क्या नहीं बेच डाला

बम-बम बोल रहा है काशी और हर-हर महादेव का नारा कोई गरीब लगाएगा तो उसे जेल हो जाएगी जी हैं ,मजाक नहीं धनपशुओं ने बाबा विश्वनाथ को पेटेंट जो करा लिया .धन्य हो इस देश का यहाँ जितने भी बड़े मंदिर हैं,चाहे तिरुपति बालाजी ,या वैष्णव देवी ,चाहे मैहर देवी या विन्ध्याचल धाम ,चाहे काशी विश्वनाथ मंदिर ,वहां चढ़ने वाले चढ़ावे में आई रकम को ही अगर ईमानदारी से खर्च करदिया जाय तो ..... इन मंदिरों में इतने पैसे रोज आते हैं की बोरे में भर के रखे जाने की नौबत होती है लेकिन इसके वावजूद बाबा भोले के धर्षण के लिए मंदिर-प्रशासन और प्रशासन की मिली भगत से अलग -अलग समय पर या अलग-अलग कतारों में दर्शन करने के अलग-अलग धन भी टिकट के माध्यम से वसूले जायेंगे जसे मंगला आरती के लिए पाच सौ इत्यादि.यानि यहाँ भी सम रूपता नहीं रहने दिए ये महामानव लोग।
एक स्कूल के बच्चे को युनिफोर्म इस लिए पहनाया जाता है कि लोगों में वैचारिक विभिन्नता नहीं हो पाए और यहाँ खुलेआम गरीबी-अमीरी की खाईं को बाबा के माध्यम से चौड़ा किया जा रहा है ,बहुत सारे रास्ते थे कम से कम भगवान को तो ये लांचन न लगे .समझ में नहीं आता की ऐसी बाते लोगों के दिमाग में आती कैसे हैं और अगर आ ही गयी तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक अपने त्रिकुंड की छटन भिखेर रहे बनारसी पंडितों क्या खनक छान रहे हो आप लोग या इसमें आप का भी हिस्सा तनी हो गया है ,रामदेव बोलते हैं तो इनके विरोध होते हैं लेकिन इतना बड़ा ह्रदय विदारक कदम उठा किसी की आत्मा नहीं दहली।
इस पर पुनर्विचार होना चाहिए अन्यथा लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ होगा और बनारस जैसे मस्तों के शहर के माथे पर लगे इस कलंक को धो पाना मुश्किल होगा।

भोपाल गैस त्रासदी का आधुनिक मंचन

दुर्घटनाओं का देश भारत जहाँ किसी भी बड़ी से बड़ी त्रासदी में सरकारे संवेदना कम आर्थिक संवेदना पर ही मुह बंद कराने में विश्वास रखती हैं वहां पच्चीस साल पहले हुए दुर्घटना का आधुनिक ढंग से मंचन करने से भला क्या हाशिल होना है .ये कोई पहला वाकया नहीं है जब ऐसा हुआ और अगर उस समय अमेरिकी एडरसन को तत्कालीन सुख -सुविधा मुहैया कराई जा रही थी तो आज विरोध करने वाले संगठनों का जन्म नहीं हुआ था क्या.यदि हुआ था तो आजीवन विरोध की राजनीती करने वाली तथाकथित धर्मावलम्बी सरकारें जो आज बड़ी-बड़ी बातें कर रहे है क्या नीद सो रहे थे.कहा चली गयी थी उनकी आज की ये संवेदना जो पुतला दहन के रूप में दिख रही है या कब्र से रईस मुर्दे उखाड़ने का कम कर रही है.भोपाल गैस तो बहुत पुराना हो चला भुलाऊ मुद्दा हो चला था,लेकिन यहाँ तो अपनी राजनीती चमकाने के चक्कर में खली पुतले फूंके जाते हैं.किसी राजनेता ने किसी एक अनाथ हुए बच्चे की परवरिश का जिम्मा लिया क्या ,तो नहीं किसी एक परिवार की आहों को समझने में दिलचश्पी दिखाई क्या तोनहीं . बातें करना आसान है लेकिन पता उसको चलता है जिसके परिवार का एक सदस्य हमेशा-हमेशा के लिए उसकी आखों से ओझल हो जाता है।
सैकड़ो परिवारों को खुले आम तवाह कर देने वाले कसाब को सरकार मेहमान की तरह पल रही है उसकी परवरिश कर रही है ,मान लिया कसाब मुकदमों से बरी हो ही जय तो क्या ये मान लिया जाये की वो आतंकवादी नहीं है.कल उसे भी एडरसन की तरह रास्ता दिखा दिया जायेगा और पचास साल बाद जब रोपोर्ट आएगी तो काठ के विरोधियों तैयार रहना पुतला जलाने के लिए.आज तो घिघ्घी बड़ी है बोलने की मजाल नहीं है।
जाकब तक गरीबों के खून से खेले जाने वाले इस लहूलुहान मजाक का पटाक्षेप नहीं होगा ,कल कोई और एडरसन पैदा होगा और परसों कोई कसाब मशाल जलाये रखिये,हो सके दो शहरों में कफ़न की दुकान पहले से खुलवा लीजिये और अपना कुरता -पायजामा टाईट रखिये शंत्वाना देने भी तो जाना होगा .

सोमवार, 7 जून 2010

असहज होतीं भोले की नगरी की पार्किंग व्यवस्था

बाबा भोलेनाथ की नगरी काशी वाकई देवी-देवताओं के ही भरोसे चल रही है.पुरे शहर में जाम का बोलबाला,धूल की चादर में लपटी अकुलाई भीड़,सम्हालना देवों के ही वश की बात है.इस लाचारगी के मुख्य कारणों का यदि जिक्र किया जाय तो उनमें से एक सबसे महत्वपूर्ण कारण समुचित पार्किंग व्यवस्था का न होना ,समझ में आता है ।
वाराणसी नगर-निगम का अधिकृत तथाकथित वर्षों पुराने स्थान जहाँ पार्किंग सुनिश्चित थी आज वहां चमकती इमारतें बन गयी है जिसको गिराने या हटाने का या तो वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में माद्दा नहीं है या फिर अपने किसी स्वार्थ में इनसे पंगा नहीं लेना चाहते.हाँ एक विकास जरूर हुआ इन पार्किंग प्लेसेस को तो नहीं हटाया गया नए पार्किंग को जन्म दे दिया गया ,वर्तमान नगर आयुक्त द्वारा,शायद यही उनके लिए सबसे सहज रास्ता था।
अब तो हद तब पर हो गयी जब इन प्राइवेट पार्किंग का नगर निगम ने अधिकृत ठेका शुरू कर इसको अपने सरकारी झोले में जबरन डाल लिया ठेकेदार भी मस्त और उनका भी काम बनता.जालान का दुर्गाकुंड वाला ब्रांच हो या शाकुम्भरी काम्प्लेक्स गुरुधाम ऐसे कई जगहों पर ये गैर सरकारी स्टैंड ठेके के रूप में फल-फूल रहे है "जब सैंया भये कोतवाल तब डर काहे का"के तर्ज पर और जनता अपना असली जगह पैसेवालों या अपराधियों को अनजाने में दान कर या रखवालों की अकर्मण्यता का फल भुगत रही है।
मुख्यमंत्री का जब फरमान जारी होता है तो ये सारे बड़े अधिकारी न जाने किस स्वार्थ में सरकारी तंत्रों का दुरुपयोग कर रहे अपने साढ़ू भाईयों को नहीं छूना चाहते और जनता को खुली चक्की में किसी दुसरे पूजीपति के सहारे पिसने-पिसाने का ठेका दे देते है.इस पर भी एक कलम की जरूरत है.

शुक्रवार, 4 जून 2010

नचनिहों का राजनैतिक जलवा

इस समय देश की युवा राजनीति का ठेका प्रजातान्त्रिक कांग्रेस के राजकुमार राहुल गाँधी ने ले रखा है,जिसकी सबसे बड़ी डिग्री है कि वे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के सुपुत्र हैं.वही पुराना चापलूसी भरा तर्क कि राहुल देश का प्रधानमंत्री होगा दांत दिखाते लोग पान कि दुकानों पर बकने लगे हैं. आनन-फानन में देश की मूढ़ जनता जिन्हें इन राजनीतिज्ञों ने "जनता सर्वोपरी है "कहकर खूब लूटा,जब चाहा तब और जैसे चाहा वैसे लूटा लेकिन ये तो लुटने के लिए ही बने हैं इनकी बुध्ही को दीमक जो लग गया है.आज देश का एक नौजवान नहीं बोलता की कांग्रेस क्या किसी के बाप दादे की विरासत हो गयी है क्या कि उसके युवराज होने लगे.हर बुजुर्ग घर में तो पंचायत कर -कर के जीना हरम कर देता है लेकिन उसने एक बार ये पूछने कि जरूरत समझी क्या कि आप २०१२ मिशन हाशिल कर ही लोगे तो देश को कौन सा लालीपाप फिर पकड़ोगे चूसने के लिए ,तो नहीं इसके लिए कभी आगे कोई नहीं आएगा,सिर्फ लम्बी-लम्बी बातें "वसुधैव कुटुम्बकम " का छालाऊ नारा खुद के देश के लिए तो बोलेंगे नहीं और सारी दुनिया इन्हीं कि है,रहने को घर नहीं सारा जहाँ हमारा।

एक आंधी चली कि अपने-अपने राजनीतिक पार्टी में जो जितने बड़े नचनिहें को जूता लेगा वो उतना बड़ा सत्ताधारी बनेगा,ये ऐसी होड़ मचाये कि भोजपुरी के निरहू भी चुनावों में स्टार प्रचारक हो गए तो राजनैतिक अभिलाषा पूरी करनी है राहुल भाई तो किसी हीरो पकड़ो न वैसे भी आपके पारिवारिक रिश्ते वाले हीरो-हीरोइन दुसरे खेमे में झांकी लगा रहें है ,उनको भी लेकर घूमना शुरू कर दीजिये क्योंकि जनता को नचनिहें बहुत पसंद हैं कल देश कि बागडोर रैम्प पर कैटवाक करती फिरेगी.

गुरुवार, 3 जून 2010

तसलीमा की हदें

बंग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन को बड़ी सम्मान भरी निगाहों से भी देखने वालों की कमी नहीं है ,मैं भी उनमें से एक हूँ ये बताने मुझे कोई गुरेज नहीं है,लेकिन आज उसने सम्मान पर धब्बा लगा दिया गाँधी की नीतियों को गलत और असरहीन ठहरा के नक्सलवाद के मामले में.उनकी लिखी पुस्तक "लज्जा "पढ़ा तो हकीकत में ऐसा लगा की लेखक किसी जाति का नहीं होता ,किसी धर्म का नहीं होता,किसी सम्प्रदाय का नहीं होता,वह सिर्फ और सिर्फ लेखक होता है.और सच मायने में उससे बड़ा कोई समाज-सुधारक भी नहीं होता.शायद यही कारण है कि उन्हें आज कोई बंग्लादेशी नाम से नहीं बल्कि उनकी लेखनी के नाम से जानता है.लेखनी में ओज तो है ही साथ ही अकेले विरोध कि क्षमता भी.और जाने अनजाने में खुद भी गाँधी को ही आत्मसात करती हैं.तो कम से कम उनसे ये उम्मीदें नहीं थी कि वे नक्सलवाद के मामले में गाँधी को ही लपेट डालेंगी.अहिंसा से बड़ा कोई अस्त्र न रहा है और न ही हो सकता बस उसमे अंतर इतना है कि आज उतने धैर्यवान लोग नहीं जो खुद को अहिंसा के रास्ते पर चलने के काबिल बना सकें.अशोक को कोई मार-काट मचने के वजह से नहीं जानता बल्कि उनकी अहिंसा से पायी गयी जीत के वजह से जानता है,आजादी के दौर में भी इस महामंत्र ने उन अंग्रेजों को भागने पर विवश कर दिया जिनके राज्य में कभी सूरज ही अस्त नहीं होता था।
अतः अपनी विद्वता और एकल सोंच पर धब्बा लगाने के बजाय अगर लोगों से गांधी कि नीतियों पर चलने और उसको आत्मसात करने कि अपील करें तो शायद उनको जम्में कि कमी नहीं पड़ेगी.