रविवार, 26 अप्रैल 2020

क्या ये वापसी का दौर है,,,,
हम बहुत चले हैं और शायद बहुत आगे खतरनाक रास्तों तक पहुच गए हैं।ये तो नहीं कह सकता कि आगे रास्ता बंद है,क्योंकि जो बन्द हो जाये वो रास्ता कैसा,लेकिन ये रास्ते क्या और खतरनाक मुकाम की तरफ हमें पहुचायेंगे।
हम अमानुष से मानुष बनने के लिए पत्थरों से टकराये, जंगलों से निकल कर कबीले के रास्ते गावों के खुशनुमा सफर के सफल हस्ताक्षर के रुप में हमारी सभ्यता है। भले ही बदलते वक्त ने असभ्यता को ही सभ्यता का पर्याय बना दिया हो।
गांव से चलकर हमने शहर बसा लिया ,जहाँ हम बेच सकें और बिक सकें। क्योंकि देहात में बस प्यार पलता है व्यापार नहीं।
अब अचानक एक झोंका आया और हम फिर शहर में ही देहाती हो गए। गाँव प्राकृतिक हैं शहर कृत्रिम,यह समझ में आगया।
गांव आज भी अपने में मस्त है,न महामारी है न लॉकडाउन।हां वहाँ अगर दिक्कत हुई तो ये शहर जब अपने मूल में जायेगा तब ही होगा।लेकिन फिर भी यकीन है,गाँव का हृदय विराट है ,संभालेगा।
गांव माने आत्मनिर्भर,और वो हम होते जा रहे,बाल खुद काट रहे,साफ सफाई खुद कर रहे, मानिए जनाब शहर की विशिष्टता गांव का रोजमर्रा है।
     तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिए
  छोटी छोटी मछलियां चारा बनाकर फेंक दी।।
जाने दीजिए ज्यादा लिखूंगा तो लोग कम पढ़ेंगे। बस इतना ही पूछ रहा कि क्या ये वापसी का दौर है।।

सोमवार, 20 अप्रैल 2020

दादा मिला था गोरों से ,पोता मिल गया चोरों से।।
इस तरह की पंक्तियां भी देखी और सुनी जा रही।अगर सच भी है तो बेहूदा है।
भारतीय राजनीति में आज विचारधारा शायद तकिये के नीचे दब के स्वार्थ के गुदगुदे गलीचे से कहीं भी समझौता करने को आतुर है। थोड़ा कड़वा होगा लेकिन सच है कि जिसके पास न पद है न सत्ता है,उसी के पास विचारधारा है। विचारधारा खुद के टूटी झोपड़ी में सरपत की घिसी झाड़ू लगा, पता नहीं खुद को साफ कर रही या समाज को।
इसलिए ज्योतिरादित्य का एक दल से दूसरे दल में जाना ,कहीं कोई अनहोनी तरह की घटना नहीं है।
जेहन के सवाल तो दूसरे हैं। कौन हैं ज्योतिरादित्य अगर उनके नाम से राजपरिवार का सिंधिया हटा दिया जाए, तो क्या है अब तक के उनकी देश के नाम उपलब्धि। तो शायद राजसी खिलौनों के अलावा कुछ भी नहीं।
कहते हैं लोकतंत्र,सोचना ही है तो जरा सोचें,अभी ये रजवाड़े वही पा रहे और वही ढो रहे। एक लोकतंत्र नहीं जनाब साम्राज्य चाहते हैं।मध्यप्रदेश और राजस्थान तो ऐसे राजाओं से भरा पटा है।ऐसे में प्रणाम करता हूँ ,काशी राज को जिन्होंने तख्त छिन्नने के बाद मां भारती पर शासन और सत्ता की लोलुपता नहीं दिखाई।
       डॉ लोहिया का एक वाकया कही पढ़ा या सुना था कि सोनभद्र के किसी छोटे राजा के यहां वो आ रहे थे उसके अति बुलावे पर ,मिर्जापुर स्टेशन पर रुके,राजा की सवारी उनको लेने के लिए स्टेशन से बाहर इंतजार कर रही थी,और वे एक मोची के यहां अपना जूता सिलवाने में दोस्ती कर लिए ,और उसके घर भोजन करने का उससे न्योता भी ले लिये, फिर क्या था राजा के गण उनको खोजते हुए उन तक पहुच गए ,चलने को कहा,तो लोहिया जी ने कहा कि जाकर अपने राजा साहब को बता दो कि लोहिया उनसे बड़ा राजा खोज लिया है ,और आज वही जाएगा और वहीं खायेगा।
ललकार के कहा कि नेहरू से तो कहीं भी निपट लूंगा संसद काफी नहीं है,काम करना है तो जाओ ग्वालियर और बात बता दो कि लोकतंत्र है,,अब रानी नहीं मेहतरानी चलेगी।।
ये जनखों के विषय नहीं जनाब, स्वागत करिए जो जहाँ और जैसे है।
           देश की माटी बड़ी सशक्त है जी उठेगी न मुर्दा चलता है न नसेड़ी।।
दादा मिला था गोरों से ,पोता मिल गया चोरों से।।
इस तरह की पंक्तियां भी देखी और सुनी जा रही।अगर सच भी है तो बेहूदा है।
भारतीय राजनीति में आज विचारधारा शायद तकिये के नीचे दब के स्वार्थ के गुदगुदे गलीचे से कहीं भी समझौता करने को आतुर है। थोड़ा कड़वा होगा लेकिन सच है कि जिसके पास न पद है न सत्ता है,उसी के पास विचारधारा है। विचारधारा खुद के टूटी झोपड़ी में सरपत की घिसी झाड़ू लगा, पता नहीं खुद को साफ कर रही या समाज को।
इसलिए ज्योतिरादित्य का एक दल से दूसरे दल में जाना ,कहीं कोई अनहोनी तरह की घटना नहीं है।
जेहन के सवाल तो दूसरे हैं। कौन हैं ज्योतिरादित्य अगर उनके नाम से राजपरिवार का सिंधिया हटा दिया जाए, तो क्या है अब तक के उनकी देश के नाम उपलब्धि। तो शायद राजसी खिलौनों के अलावा कुछ भी नहीं।
कहते हैं लोकतंत्र,सोचना ही है तो जरा सोचें,अभी ये रजवाड़े वही पा रहे और वही ढो रहे। एक लोकतंत्र नहीं जनाब साम्राज्य चाहते हैं।मध्यप्रदेश और राजस्थान तो ऐसे राजाओं से भरा पटा है।ऐसे में प्रणाम करता हूँ ,काशी राज को जिन्होंने तख्त छिन्नने के बाद मां भारती पर शासन और सत्ता की लोलुपता नहीं दिखाई।
       डॉ लोहिया का एक वाकया कही पढ़ा या सुना था कि सोनभद्र के किसी छोटे राजा के यहां वो आ रहे थे उसके अति बुलावे पर ,मिर्जापुर स्टेशन पर रुके,राजा की सवारी उनको लेने के लिए स्टेशन से बाहर इंतजार कर रही थी,और वे एक मोची के यहां अपना जूता सिलवाने में दोस्ती कर लिए ,और उसके घर भोजन करने का उससे न्योता भी ले लिये, फिर क्या था राजा के गण उनको खोजते हुए उन तक पहुच गए ,चलने को कहा,तो लोहिया जी ने कहा कि जाकर अपने राजा साहब को बता दो कि लोहिया उनसे बड़ा राजा खोज लिया है ,और आज वही जाएगा और वहीं खायेगा।
ललकार के कहा कि नेहरू से तो कहीं भी निपट लूंगा संसद काफी नहीं है,काम करना है तो जाओ ग्वालियर और बात बता दो कि लोकतंत्र है,,अब रानी नहीं मेहतरानी चलेगी।।
ये जनखों के विषय नहीं जनाब, स्वागत करिए जो जहाँ और जैसे है।
           देश की माटी बड़ी सशक्त है जी उठेगी न मुर्दा चलता है न नसेड़ी।।
रामनाम गुरु सबेरवे ललकारे जा रहे थे,,,
महीनन से गोबर बिलबिलात हौ,,आज कबड़िया बो के बोल के आयल हई,, अत्त्वार के कुल पथवाईब।
तब ले सुदमवा चिल्लाया अरे अतवार के करफू ह हो रामनाम,,इतने में गुरु क पारा गरम।
सुन सुन तै चियवां के चेला हउवे न,,कह दे आपन परधानी अपने पल्ले रक्खे,,वहरे नकियाय औ वोहर चिचियाय,, आन के आटा आन क घी,भोग लगावे बाबा जी।। कहि दिहे जाइके रामनाम कहत रहले,, बजारी में सड़क साफ करावे इहवाँ त रामनाम क गोबर पथाई के रही।
तब ले सुदमवा गुरु के ऊपर छिक के भाग गया। रामनाम डंडा लेके दौड़ाए,,धत्त तेरे करफू के।।

अजीब समय है

यूं तो दुख में रिश्ते निखर और सुधर जाया करते हैं,,,,
हम गांव है।भारत गांव है,भारत बस इसलिए भारत है कि आज भी यहां गांव बसते हैं,यूं तो समूची कायनात का अस्तित्व देहाती है। रिश्तों की तासीर हमारे गांव की वो अमिट थाती है,जिसे देख कर आज भी कोई शहरी बाबू या विदेशी बाबू अपने छोटे पन पर लजा जाता है। गांव में लाख गिरावट आएगी शहर से वो हमेशा ऊंचा रहेगा ।
गांव सबकी छांव है। वहां सब जाति सब धर्म के लोग रिश्तों में बात करते हैं,इसीलिए यह धरती का सबसे प्रिय जनधन है। कई बार ऐसा देखने को मिला है कि दो परिवार अलग थलग हैं मार काट तक पर उतारू हैं,लेकिन अगर बीच में कोई दुख किसी को पड़ गया तो दूसरा इस कदर उसके लिए तन कर खड़ा होता था कि वो फफक पड़ता था ,रूह से मोहब्बत उमड़ पड़ती थी और कालांतर में ये इतनी मजबूत जोड़ साबित होती थी कि असल जोड़ भी पीछे छूट जाए।
लेकिन इस मानव रचित महामारी में ,जी हां,मानव रचित कहने में मुझे कोई गुरेज नहीं, ये रिश्ते जुड़ने के बजाय बिखरते नजर आ रहे हैं। कहीं रहमान मंगरू काका को कंधा देकर राम नाम सत्य है के साथ घाट पहुचा रहा,तो कहीं गोविंद रसूलन चाची को दवाई पहुचा रहे, फिर भी वो मोहब्बत के तार आखिर क्यों बेतार बेधुन और बेसुर होते जा रहे।कोरोना वाकई जाहिल वायरस है,रिश्तों को भी नहीं थमने दे रहा।
हम बड़े संत फकीर मौलाना इत्यादि की सरजमीं के उत्तराधिकारी हैं। जिनमें से कोई इंसान नहीं था,या तो हिन्दू था या मुसलमान था। सबके पेट अपने तरीके की पीठ से सटे हुए थे।इस मामले में बस एक कबीर नजर आता है,जिसको हर कौम को एक जुबान से बोलता पाता हूँ।कबीर बदजुबां  हो सकता है दोजुबां नहीं।
शायद इसी सच की ताकत थी जिससे कबीर ललकार लगाया कि काशी में मरा तो स्वर्ग मिला तो क्या एहसान ,यहां तो नत्थू खैरा सबको मिलता है,कहा मग्गह में मरूँगा किसकी हैसियत जो स्वर्ग न दे। यह सच की ताकत थी,आज और प्रासंगिक हो जाता है जब बीमार पड़ते संत महंत मौलवी मौलाना एसी कमरे में बड़े खर्चीले चिकित्सकों और अस्पताल में इलाज कराते सुने जाते हैं।
बस इतना ही कहूंगा कि मानव ने जहर ही बोया है, आगे कोई ऊपर से मोहब्बत का वायरस ऐसे ही सारी दुनिया में तू फैलाना मेरे बीर कबीर,,ये नफरत अब झेली नहीं जाती।

हम कितने जाहिल हो गए हैं

हम कितने जाहिल हो गए,,,
भीड़ की कोई आत्मा नहीं होती न ही बुद्धि,सद्बुद्धि तो कहना भी पाप है। वो दो थे तुम हजार थे पकड़ के बाध लिया होता ,जांच परख लिया होता,इतना बहसीयत और मवेशिपन होने के बाद भी मनुष्य कहलाने का जज्ब भरते हो।

तहखाने की बहसें भी जाहिलियत भरी ही हैं ,जानें गयीं नृशंस ,राक्षसी ढंग से पीट पीट कर मारा गया,जिसको देख के खुद को मनुष्य कहने पर दम घुटता है। और बहस जो जानें गयीं उन पर नहीं मारने वाले पर कि भीड़ हिन्दू थी या मुसलमान थी।
थू घिन्न आती है,,,

शनिवार, 9 अप्रैल 2016

सुना है कि काशी का पक्का महाल क्षेत्र  भी नवीनीकरण का शिकार होने जा रहा है । उसके प्राचीनता की तलाश करके क्या करेंगे पता नहीं । हाँ धुल धुंए का प्रकोप अभी भी वहाँ  नहीं पहुंचा हुआ है शायद चैन में देखकर संतोष नहीं हो रहा है । पक्का महाल काशी की पहचान है ,,ये बहुमंजिली इमारतों का जखीरा इसकी पहचान  नहीं है ,,दुनिया के कोने कोने से लोग इसी गलियों को देखने समझने आते हैं । गलियां  काशी की असल राजधानी हैं । इसके प्रति जनास्था भी है । और आस्थाओं के लिए किसी प्राचीनता या नवीनता के प्रमाण पत्र की जरुरत नहीं है । नहीं तो कल दुर्गामंदिर की माता  की प्रतिमा की भी जाँच करने की  हिमाकत की जाने लगेगी ।
वैसे भी नक्कारे नगर निगम और घटिया प्राधिकरण से कत्तई किसी उम्मीद का खतरा मोल नहीं लिया जा सकता । पंद्रह बरस से पूरा शहर खुदा पड़ा है ,सारे अंतरी मंतरी संतरी हो हैसियत तो चले जनता की तरह एकाक हफ्ते मोटरसाइकिल से और पैदल ,उनके लिए तो एम्स और पीजीआई भी मुफ्त है ,,फिर जांच कराये,शायद फेफड़ा काम करना बंद कर चूका होगा ,,या अगले दिन से विकल्प नजर आएंगे । अतः इसके विरोध के लिए सबको आगे आना चाहिए ।