गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

धार्मिक ग्रंथों पर प्रहार : विघटनकारी

हिन्दुओं की आस्था श्रीमदभागवत गीता पर रूस के एक कोर्ट ने रोक लागादिया कि मनो पुरे भारतीय राजनीती में बवाल मच गया ,बढ़ते खतरों को भाप रूस के कोर्ट ने कुछ समय के लिए इस प्रतिबन्ध को टाल दिया । इससे कई बाते उभर कर आती हैं,जो सोचने पर मजबूर कर सकती हैं ;
पहला ये कि क्या हिन्दू परिवारों में ऐसी भ्रान्ति नहीं है ,अगर हम गाँधी और मालवीय के हाथ में गीता देखते है तो इसका कारन उनके शिक्षित परिवार से होना है ,बाद में वे लोग अपनी समझ से गीता को अपनी जीवन पद्धति बनाये,लेकिन गाँव का किसान आज भी अपने घरों में गीता नहीं रखना चाहता कारन कि उसके मन में शुरू से ये चीजे भरी गयी हैं कि इसकी केंन्द्रीय कहानी में लड़ाई है ,वो बात दीगर है कि इसे कौरव और पांडव कि लड़ी नहीं बल्कि अच्छाई और बुराई की लडाई के तौर पर देखा जाना चाहिए।
दूसरी बात की क्या अपने धर्म हिन्दू के लोग गीता पर टिप्पणियां नहीं करते ,खूब टीका लिखा जाता है किताब की शक्ल दी जाती है लेखक को महिमा मंडित किया जाता है,स्वीकार जाता है तब ये मुह नोचौवल क्यों।
तीसरा की सलाम हिन्दू धर्म के उदार जज्बे को सबको अपने में समेट के चलता है,अन्यथा एक तसलीमा निकलती है हजारों मुस्लिम तलवारे निकल जाती है,गर्दन कलम करने को,एक लिनार्दो डा विंसी निकलते है पूरी ईसाईयत हरकत में आ जाती है,यहाँ आये दिन हमारे धर्म ग्रंथों के साथ हम ही छेड़खानी करते हाते है,तो दूसरों पर चिल्लाने का कैसा मजाक।
तीसरा और अंतिम की गीता को किसी धर्म विशेष से जोड़ने की जरूरत ही नहीं है,कोई हो हल्ला मचाने की जरूरत ही नहीं है,कारन की यह हर व्यक्ति के मन मस्तिस्क में गीत बन बजती रहती है,वो नादाँ है जो समझते नहीं।
धरम वैसे भी जोड़ने के लिए है तोड़ने के लिए नहीं,और धर्म ग्रन्थ जोडू उपकरण वो भी बेतार। ये ब्रह्माण्ड की पुस्तक है इसे राष्ट्रीय घोषित कर इसका कद छोटा करने राजनीतिक हरकत से बाज आने की जरूरत है,और सारे धर्म को एक मंच पर आकर इस पहल की जरूरत है की कही भी ऐसे विघटन कारी कदम न उठें। आज गीता रोकी जा रही है कल कुरान रोका जायऔर परसों बाइबिल ,इसका रुकना जरूरी है।

रविवार, 27 नवंबर 2011

किशनजी की मौत के घडियाली आँसू

तथाकथित नक्सलवादी नेता किशनजी का मारा जाना ,और भारतीय राजनीती का बाजार गरम हो जाना ,ये बात कुछ हाजमा ख़राब कर रही है,ये कैसी विचाधारा जो खून की प्यासी हो। परदे के पीछे लचर बुद्धजीवी और नेता सरे लोग घडियाली आँसू बहाने में लगे है,खासकर वो लोग जो कभी सीमा पर लड़कर मरने वाले किसी सैनिक की मौत पर कभी आख भी नम नहीं कर पाते वो सबसे ज्यादा चिल्ला रहे हैं। एक बात समझ से परे है की ये श्रृष्टि का नियम बन चूका है की गोली तो उसी को मारी जाती है जो गोली मारता है,जिसने किसी को एक कप चाय न पिलाई हो भला उस बिचारे पर कोई अपने सौ रूपये की गोली क्यों बर्बाद करने जायेगा।

ईस्ट इंडिया कंपनी की याद दिला रहा वालमार्ट

आज देश के करता धर्ता फिर गुलामी का रोब धारण करने को आतुर हुए हैं। सरकार वालमार्ट नामक संस्था की पहल कर रही है,वैसे उसका पुरजोर विरोध भी जारी है । शायद देश को आजाद हुए साथ साल से ऊपर हो चले है इसलिए फिर गुलामी की चादर हमें लिभा रही है,ऐसे बाजार धीरे -धीरे भारतीय बाजार को नष्ट कर डालेंगे ,वैसे भे देश में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की भरमार है,देशी व्यवसाय औधे मुह पड़े है,अब फिर से सबको अपना दिल विदेशियों पर लुटाने को सरकारी तौर पर प्रेरित किया जा रहा है जो की हर तरह से नाजायज है। विरोध हो रहे है लेकिन दर है विरोध तो निश्चय रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी का भी हुआ रहा होगा लेकिन नामचीनों ने उसे अपना बन कर ही दम लिया। किसी को रायबहादुर बनना था तो किसी को जनरल। वैसी ही नासदी तलब फिर दिख रही है ,भोले बाबा सबको सद्बुध्ही दे ।

ईस्ट इंडिया कंपनी की यद् दिला रहा वालमार्ट

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सिमटते बचपन - बिखरती नौजवानी

भारत गाँव में बसता है ये सभी कहते और जानते हैं लेकिन क्या गाँव में रहने से अभिप्राय यह लगाया जाय कि पिछड़ापन और भूखमरी ,तन्हाई और बेईज्जती इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अभी कुछ विकसित कहे जाने वाले क्षेत्रों के ग्रामीण भारत की टकराहट कुछ समय पहले मुझसे हुई,जहा मुझे एक शादी में शरीक होना था। बारात विदा हुई उसके बाद एक दम सबेरे ही आस-पास के कुछ मलिन बस्तियों के बच्चे बूढ़े महिलाये हाथ में कटोरे लिए दरवाजे पर हाजिर। घर के मुखिया ने बड़े धिक्कारते हुए अंदाज में उन सबको कहा अभी आ गए तुम लोग दूर हटो,वो सब गिरगिराए डांट खाए जा रहे थे क्योकि उन्हें भोजन खाने की ललक थी। यह वाकया अपने बचपन यानि लगभग तीसो साल से देखता चला आ रहा हूँ,लेकिन अबकी बार काफी अंतराल के बाद पहुंचा था तो सोंचा कि निश्चय ही कुछ बदलाव देखने को मिलेंगे,या तो वो भिखारी सरीखे लोग नहीं होंगे या उन्हें डांट नहीं बल्कि प्रेम से खिलाया जायेगा,लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं बदला ,सब अपने जगह पर वैसे ही डटे थे। मेरे जेहन में एक बात उभरी कि क्या यही नए भारत की तस्बीर है,यही मनरेगा का विकास है। तब तक पास बैठे मेरे एक मित्र ने कहा की क्या सोचने लगे , मैं समझ रहा हूँ कि आपको ये चीजे पच नहीं रही होंगी लेकिन इनके साथ ऐसा ही जरूरी है,आखिर इनको हम अपना रिश्तेदार तो नहीं बना सकते न। उनकी भी बात दमदार थी। अब मुझे महाश्वेता देवी की एक घटना याद आयी कि एक बार वो जंगलों में आदिवासियों के लिए काम करते हुए रात को रुकी ,जहाँ उनको सिर्फ भात खाने को पत्तल पर मिला ,बड़ा देर तक इंतजार के बाद वो पूछ पडी की इसे खाना किसके साथ है,अन्दर से जवाब आया कि इसे भूख से खाईये बहन जी,शायद आज भी इनके पास सिर्फ भात है भूख से खाने के लिए। जहाँ बचपन सिमटा है और नौजवानी बिखरी।

बुधवार, 16 नवंबर 2011

आज प्रदेश बाटने वाले कल देश बाटेंगे

बाटनेवाले गजब मिटटी के बने होते हैं ये बाटने के लिए ही अवतार लेते है,अरे कही किसी को जोड़ने का भी काम करो भी नेता खाली तोड़ता ही नहीं है। अब यूपी को चार भागों में बाटने का राग अलापने वाली माननीया मायावती जी काभी जोड़ने की भी पहल करने की गलती कर लिया कीजिये,इश्वर आपका भला करेगा। एक घर को चार भागो में बाट घर फोड़वा मंथरा बाजी से बाज आइये।
वैसे भी जनता को इस सबसे गफलत में एकदम आने की जरूरत नहीं है क्योंकि ये बाटने वाले लोग किसी के नहीं होते आज प्रदेश बाट रहे है कल देश बाटेंगे औए घिघियाएँगे की हम सही हैं। बिहार बटा ,यूपी पहले से बटा है मध्यप्रदेश बटा क्या इन जगहों पर लोग भूखों मरना छोड़ दिए तो शायद नहीं हा मधु कोड़ा जैसे लोगों की नई फसले आयी। इसलिए बटवारे का पुरजोर विरोध राष्ट्रहित में जरूरी।

रविवार, 13 नवंबर 2011

गाँधी का भारत बनाम नेहरू का भारत

देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु का एक सौ बाईसवां जन्मदिन देश मनाने को आतुर है। आधुनिक विकास के जनक के रूप में अगर नेहरु जी को परिभाषित किया जाय तो कत्तई गलत नही होगा। देश में जीवन जीने के दो तरीके के रूप में गाँधी और नेहरु की दो धाराएँ लोगों के सामने थी। जाहिर सी बात है की नेहरु नहीं होते आज विज्ञान की दौड़ में हम आगे की तो छोड़ पीछे भी नहीं होते। लेकिन इसी के साथ इसका भी जिक्र गलत नहीं होगा कि विज्ञान के अति कि परिणति विनाश के रूप में होती है। आज गाड़ी,घोडा,कल कारखाना ,फोन ,इंटरनेट इत्यादि,या खेती में रासायनिक उपयोग के तहत अकूत फसलों का आगम,यह सब के पीछे नेहरु जी का सपना काम कर रहा है। तो वही टूटते गाव ,बिखरते पारिवारिक और सामाजिक रिश्ते गाँधी के न पूरे हो पाने वाले सपनों की आह बनकर पल्लवित पुष्पों को बिखेरने के समान है।
गाँधी की नीतियों को भुलाना निश्चय रूप से खलता हुआ नजर आरहा है,कारन हर विकास को आज हम सरकारी चश्मे से देखना शुरू कर दिए है,एक अरब पच्चीस करोड़ की आबादी को मुठी भर सरकारी लोग उनकी सारी आवश्यकताओं पर भला कैसे खरा उतर सकती हैं। पहले सवा निर्भर समाज था,आज गाँधी गाँव तक मनरेगा के तहत पहुचाये तो जा रहे है लेकिन अपने विचारों के खिलाफ ,परिणाम स्वरुप गाव दिन -प्रतिदिन पिछड़ते जा रहे हैं। हम चाहे जितना विकास का डंका पीट लें। पहले सड़क ख़राब है तो हर घर से निकल लोग श्रम दान कर दो चार दिन में सही कर देते थे। कोई अमीर या गरीब नहीं था किसी के पास घर नहीं है तो पूरे गाव के लोग एक साल उसके नाम थोड़ी मेहनत करते थे और उसके पास घर बन जाता था,वो काम आज हम सोच रहे है की मनरेगा कर लेगा,या किसी योजना के तहत सबको घर मुहैया करा दिया जायेगा तो असंभव है.उदाहरण के लिए आये दिन कांशीराम आवास योजना में धांधली को खुले आम पढ़ा जा सकता है।
अतः नेहरु के सपने गाँधी के रास्ते अगर हम पाने का पहल करे तो सामाजिक खतरे में कमीं आ सकती है और गाँधी का सम्मान और इस रास्ते से विकास नेहरु जी को सच्ची श्रध्हांजलि होगी ।

शनिवार, 12 नवंबर 2011

वाह नेता जी

नाचो गाओ जश्न मनाओ नेता जी
तुम पानी में आग लगाओ नेता जी।
बहुए जलती हैं तो तेरा जले प्रशासन क्यों,
तुम देते हो दहेज़ विरोधी लम्बे भाषण क्यों,
अरे चार है लड़के चुप हो जाओ नेता जी
तुम पानी में आग लगाओ नेता जी।

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

ये कैसी ख़ुशी

अचानक दो दिन पहले सड़कों पर पगुरी करते सैकड़ों भैसे नजर आते ही एक बात स्पस्ट हो गयी की इनकी जिंदगी का अंत होने वाला है। यूं तो किसी धर्म के ऊपर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता.क्योंकि धर्म विश्वास पर चलता है और विश्वास से श्वास चलता है। लेकिन ये ख़ुशी मानाने का कैसा तरीका है की सैकड़ों किलो वजन वाले विधाता के एक बड़ी संरचना को इस कदर चंद खुशियों के लिए मरघट पर पंहुचा दिया जाय। कही ऊँट कट रहे है,किसी धर्म में कुछ त्रुटियाँ भी हो सकती है.इसे समझने की जरूरत है,जब तक इसके विरोध में नहीं बल्कि इन अबोध जानवरों के बचाव में मुस्लिम सम्प्रदाय के लोग ही आगे नहीं आयेंगे तब तक ये ख़त्म नहीं होने वाला है। अगर उनको इतना ही मरने से प्रेम है सिर्फ सीधे साधे जानवरों की ही बलि चढ़ाएंगे ,बाघ क्यों नहीं मारते तो इस कृत्य को बहादुरी से भी जोड़ा जा सकता है ,लेकिन ऊँट सरीखे को मरना शायद ठीक नहीं। इसमें मेरा कोई धार्मिक विरोध नहीं है ऐसा किसी धर्म में है तो गलत है,हिन्दुओं में भी पहले नरबली तक की विधान का जिक्र सुनाई पड़ता है जो अब थमता नजर आ रहा है।
ऐसे वाकयों की शुरुआत निश्चय ही अभाव से प्रारंभ हुई। अशिक्षा से शुरू हुई लेकिन सभी समाज होने के बाद भी इसका इस बड़े पैमाने पर जारी रखना शायद गलत है। इसलिए ये दुहाई है इस सम्प्रदाय विशेष के लोगों से की इस पशु बलि को रोकने में आगे आये, दर है की कही मुझे साम्प्रदायिक करार दे चुप न करा दिया जाय .........

शुक्रवार, 4 नवंबर 2011

निरंकुश भ्रष्टाचार की पोषक मायावती सरकार

यूं तो भ्रष्टाचार के सवाल पर बोलना महापाप हो गया है क्योंकि इस सवाल पर बोलने वाले मुह तो अनेकानेक है पर कान शायद बंद हो चुके हैं। पूरे देश में इस महातत्व का बोलबाला है। लेकिन उत्तरप्रदेश में तो स्थितियां कुछ अलग ही हैं। मुख्यमंत्री मोहतरमा मायावती मानो कुशल रक्षिका की भूमिका निभा रही हों।
गजब हाल है एक पुलिस का आला अधिकारी चिल्ला -चिल्ला कर कह रहा है की सरकार सरेआम भ्रष्टाचार कर रही है ,इतना ही नहीं वो इस कदर रुष्ट हुआ की अपनी बलि तक चढ़वाने को तैयार है,और सरकार कहे नहीं अघा रही है किवो पगला गए हैं। एक आला अधिकारी डिप्रेसन में चल रहा था तो क्यों,क्या कारण था क्या इसका जवाब सरकार ने बटोरे है,नहीं भी बटोरे होंगे तो कल तक बटोर लेंगे। अब देखना है की अब तक जो भी इस सरकार के खिलाफ मुह खोलने की हिम्मत जुटी है किसी न किसी बहाने जान गवाई है,अब देखने है क्या हश्र होता है डी डी मिश्र जी का। कही उनको भी रास्ते से हटा कर अपना तिलिस्म साफ न करे साहिबा। यूं तो अपराध पर उनकी पकड़ को नाकारा नहीं जा सकता लेकिन अगर यह कहा जाय की उसका कारण यह है की या तो माफिया लोग उनके बन कर रहेंगे या नहीं रहेंगे के रिश्तों पर ही प्रदेश चल रहा है तो बहुत गलत नहीं होगा। वैसे सब कुछ भविष्य के हाथ में है भला हो बिचारे डी डी मिश्र जी का..............

मंगलवार, 25 अक्तूबर 2011

आर टी आई भी संविधान के एक नियम मात्र के अलावा कुछ भी नहीं

सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ पारित हुआ तो मानो साफगोई की अमृत वर्षा होने वाली है ऐसे लोग फूले नहीं समां रहे थे,हर कोई सोच रहा था की किसके सर पर इसका सेहरा बाध उसे भागीरथ क़रार दे दिया जाये लेकिन यह भी महज एक नियम बनकर रह गया बल्कि यूं कहा जाय की सबसे कमजोर नियम तो शायद गलत नहीं होगा। वैसे भी देखा जाय तो हर वो नियम-अधिनियम जो प्रत्यक्ष रूप से जनता के हाथों में होता है उसकी परिणति यही होती है। लेकिन क्षोभ इस अधिनियम को अगर किसी ने निरीह बनाया है तो खुद इसका आयोग यानि सूचना आयोग। इनके अलावा जिस किसी सरकारी गैर सरकारी दफ्तर में इस अधिनियम के तहत सवाल दागे जाते है वहां से गलत ही सही लेकिन तो आते हैं लेकिन । आयोग के निकम्मेपन और निठल्ली हरकत इसको रशातल पंहुचा कर ही दम लेगी
शर्म आती है सुन कर जब आयोग के मुखिया अपने भाषण में ललकार के सरे महकमों को आदेश स्वरुप कहते है की आर टी आई के सवालों का जवाब निश्चित रूप से दिया जाय ,जब की जब उन्हें इसपर अक्षां लेने की नौबत आती है तो दरवाजा बंद कर सो जाते हैं। ये सिर्फ कहानी नहीं बल्कि अब तक मैं खुद सैकड़ो जवाब सैकड़ो कार्यालयों से प्राप्त किया हूँगा लेकिन एक मुद्दे पर आयोग को कई बार निवेदन के बाद भी मुझे राष्ट्रपति तक को इसके खिलाफ लिखना पड़ा लेकिन आयोग हरकत में नहीं आया। तो कहना है इस आयोग के दिल्ली में बैठे मसीहों से कि वे काम करना शुरू करे बाकि सब कर रहे हैं,और नौटंकी से बाज आये,अन्यथा उस आर टी आई के अन्दर आप भी आते हैं।

रविवार, 23 अक्तूबर 2011

दीपावली.....

घुरहू की बिटिया घिघियाती,बोतल दूध से खाली है ,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
दरवाजे पर बूढ़े बाबा आसूं पीकर सोते हैं,
आँगन में बेटवा पतोह दारू पीकर के लोटे हैं।
पेंशन पाने वालों के आगे डायबिटीज की थाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
पाँव परूँ मैं तेरी गरीबी ममता से खिलवाड़ न कर
नित लुभावन दिखावे में रिश्तों पर प्रहार न कर,
लोक लुटेरे होश में आओ दीया तेल से खाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दिवाली है।

दीपशिखा की ढेरों कान्तियाँ हर देशवासी के चरण चूमें ..हे माँ ....

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मुकम्मल छात्र संघ बनाम तवायफ छात्र संघ

छात्र संघ को लोकतंत्र की नर्सरी के रूप में शुरू से परिभाषित किया जाता रहा है। इस सीढ़ी से देश को अगुवाई तक मिली है सरीखे कई लुभावनी बातें राजनेताओं या कतिपय बुध्ह्जीवियों द्वारा अक्सर सुनने को मिलती हैं। छात्र संघ की जब भी बात होती है तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अग्रणी भूमिका वाले इतिहास में होता है। फिर छात्रों के एक चुनावी मंच की चर्चा इस समय बीएचयू से जुड़े लोगों की जुबान पर सुलभ है। अतीत को बतियाते लोग नहीं अघा रहे हैं ,लेकिन जो वर्तमान में छात्र परिषद् नाम देकर चुनाव कराये जाने का डंका पीटा जा रहा है,ये निश्चय ही छात्र संघ के नाम पर एक मिथ्या मजाक और घटिया छलावा है। विश्वविद्यालय के करता-धर्ता चाहते है कि उनके काली करतूतों पर पर्दा पड़ा रहे और छात्रों को एक तावायफी मंच देकर भुलवाये रहा जाये जिससे साप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। जाहिर सी बात है ये मुकम्मल छात्र संघ नहीं हो सकता और जब तक मुकम्मल छात्र संघ के अलावा और किसी भी छलावे और प्रलोभन में छात्र फसते रहेंगें उन्हें उनका पूर्ण अधिकार नहीं मिल सकता।
छात्र परिषद् के इस चुनाव में एक महा सचिव और आठ सचिवों के चुने जाने की व्यवस्था का जिक्र है।उसमें पढ़ाकू छात्र ही चुनाव लडेगा इससे भी कोई गिला शिकवा नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय निश्चय ही पढने कि जगह है लेकिन इससे भी नाकारा नहीं जा सकता कि विश्वविद्यालय का छात्र अगर राजनीती और देश सेवा के लिए आगे आता था तो अपने कैरियर को बनाने के लिए नहीं बल्कि देश को बनाने के लिए ,वो बात दीगर है कि तरुनाई के अंगनाई में किये गए निःस्वार्थ संघर्ष ही उन्हें मुकाम दिलाते रहे और कालांतर में उसमें से बहुतेरे लूट और स्वार्थ के दलदल में फस गएँ। लेकिन इसका प्रतिशत काभी भी सौ नहीं हो सकता उसी में से विचारवान भी आये जो किसी दशा पर दिशा देने की समझ भी रखते हैं।
कहना गलत नहीं होगा की १९५६ से आज तक संसद और विधानसभाए छात्र संघ के लोगों से भरी रही हैं,आज भी देश के गृह मंत्री से लेकर तमाम बड़े राजनेता इस सीढ़ी से संसद तक ,पहुचे है ,लेकिन आज बीएचयू छात्र संघ चुनाव के नाम पर नौटंकी पर सबकी चुप्पी संदेहास्पद है। यह छात्र परिषद् छात्रसंघ का विकल्प नहीं हो सकता। चालीस साल पहले यहाँ कौन छात्र संघ का अध्यक्ष था वह कहा तक पंहुचा इसको बताने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे लेकिन पिछले चार बार से छार परिषद् के मनोनीत छात्रों को कौन जानता है ,कारण ये उनकी कमी या गलती
नहीं है बल्कि उनको कोई न जाने या वो आगे न जा सके या देश और दुनिया की सक्रिय राजनीति में उनका किसी प्रकार का हस्तक्षेप और समझ न होसके इसीलिए विश्वविद्यालय के लोगों ने ये व्यवस्था बनाई।
अपना मुकम्मल छात्र संघ पाने से कम किसी भी कीमत पर छात्रों को समझौता नहीं करना चाहिए और उन्हें इस परिषद् के तवायफ छात्र संघ का बहिष्कार कर देना चाहिए। जिससे उनको उनका पूरा अधिकार मिल सके ,और ये नौटंकी बंद हो सके। छात्र परिषद् के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सटीक न होने के वजह से लोकतंत्र को धोखा देने के जुर्म में विश्वविद्यालय के नीति-नियंताओं को कितना हूँ कोसा जाये कम है ।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2011

एक सौ बयालीस साल के गाँधी

इस दो अक्टूबर को फिर गाँधी जयंती गाँधी के तथाकथित मानस पुत्रों द्वारा मनाया गया ,खूब हरे-राम के धुन बजाये गए,जो जितने पैसे वाला वो उतना देर तक बजाया ,जो जितने ताकतवाला वो उतने शोर से बजाया,और जो जितना बड़ा चोर था वो उतना दिल खोल कर बजाया। डर लग रहा था की कही कब्र से बाहर निकल कर गाँधी बाबा भी नाचने न लगें नहीं तो ये बड़े सामाजिक कारीगर पकड़ लिए जायेंगे,वैसे तो देश में इनके लिए न तो कोई जेल है न ही कोई कानून,लेकिन ये तर्क जो अच्छा दे लेते है की गाँधी भी तो कानून तोड़ते थे ,नमक कानून तोड़ डाला,अंग्रेजों के हर नियम का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया ,और हम उन्ही रास्तों पर चल रहे हैं ,तो बुरे क्यों,बात में तो जान है । जब ठेले पर हिमालय हो और चुल्लू में हो गंगा ,मुट्ठी में संविधान हो ,तो गाँधी क्यों न हो नंगा।
चलिए अब हम भी रंग जाये इसी रंग में और थोड़ी गाँधी के मन वाला नखरा कर के उन्हें सलाम कर दें...........
जय गाँधी ,जय भारत ।

शनिवार, 3 सितंबर 2011

लोकपाल बनाम भ्रष्टाचार

देश परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है अगर ऐसा कहा जाय तो शायद बहुत गलत नहीं होगा वो परिवर्तन कितना सार्थक हो पायेगा कितना राष्ट्र हित में चल पायेगा यह भविष्य की कोख में है। क्या भ्रष्टाचार ही बस देश को पीछे किये हुए है ,अगर हाँ तो क्या एक अन्ना की हैसियत है की देश डेढ़ अरब की भेड़-भीड़ को रामलीला मैदान में दहाड़ कर सुधार देंगे। निश्चय ही अन्ना साहब की सामाजिक सरोकारों की रूचि को सलाम किया जा सकता है ,उनके मेहनत,लगन और कारनामे अनुकरणीय रहे हैं । अपने गृह जनपद में सामान्य जनता से जुड़े बहुत सारे कार्य उन्होंने किया जोकि काफी सराहनीय है। लेकिन अन्ना के इस आन्दोलन से राष्ट्र को बड़ी क्षति हुई है,ठीक उसी तर्ज पर जैसे डॉ.अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति बना कर देश को वैज्ञानिक दुर्भिक्ष में डाल दिया गया था। वैसे ही अन्ना अगर हर जिले में घूम के हकीकत के पायदान पर चलते हुए वह की विपत्तियों से लोगों को बचाहते और सारे गाँव को अपने गांव सरीखे बनाने का प्रयास करते ,जो उनके रूचि की विषयवस्तु है,तो शायद ज्यादे बेहतर होता। किताबी चापलूस फोटोकारों ने गाँधी से तुलना अन्ना की करके बेमानी की है,गाँधी जिस चम्पारन के विषय में जनता तक नहीं था वह एक गए बर्षों रह गया मगर वहां के हालत सुधार कर ही दम लिया। आज पूरे देश की स्थिति चम्पारन सरीखी हुई है ,लेकिन क्षोभ की गाँधी के नाम पर शोहरत हाशिल करने वाले लोग गाँधी के पद चिन्हों पर चलने में खुद को असहज पा रहे हैं।
दूसरी बड़ी चीज की अन्ना की लडाई भ्रष्टाचार है या लोकपाल। अगर लोकपाल की गोजी से ये भ्रष्टाचार की चुरईन को मरना चाहते है तो शायद बड़ी भूल कर रहे हैं। जो आदमी इतना तय नहीं कर पा रहा है की देश बड़ा है या कौम विशेष,उससे कितनी सार्थक उम्मीद की जाय। बात स्पस्ट करना चाहूँगा कि भारत माता की जय,और बन्दे मातरम का नारा जब उनके आन्दोलन कारियों द्वारा दिया जारहा था तो इमाम बुखारी ने कहा की अन्ना का आन्दोलन इस्लाम के खिलाफ है उर मुस्लिम वहां जाने से परहेज करें,यद्यपि किसी मुस्लिम पर बुखारी का असर नहीं पड़ा लेकिन अन्ना पर इतना असर पड़ा की वे रातोरात मंच से भारत मान की तस्वीर हटवा दिए,इतना ही नहीं अगले दिन अपने दो दूत अरविन्द केजरीवाल साब को और मोहतरमा किरण बेदी को उनको मनाने उनके घर भेज दिए। मुझे एक बात समझ में नहीं आयी की जब सारे मुस्लमान अपने धर्म से ऊपर उठ कर राष्ट्र धर्म के भाव से अन्ना के साथ जुड़े थे तो उन्हें अकेले बुखारी के बयां पर इतना लचीला होने की क्या जरूरत। बुखारी इस्लामिक नेता हो सकते हैं इस्लाम नहीं।
धन्यवाद.............

बुधवार, 17 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार के सवाल पर अंधानुगाम से बचने की अपील

निश्चय ही किसी भी लोकतान्त्रिक राष्ट्र का संविधान उस देश की दशा और दिशा तय करता है साथ ही यह कहना भी गलत नहीं होगा कि इसका निर्माण जनता के लिए होता है न कि सरकार के लिए। एक लोकतान्त्रिक देश में जनता सर्वोपरी होती है चाहे वो कोई राजनेता हो या कोई राजनयिक सभी को पद और प्रतिष्ठा कि शपथ दिलाते समय औपचारिक तौर पर इस तथ्य को याद दिलाया ही जाता है कि उसके कार्यों का एक मात्र उद्देश्य जनसेवा है । यह बात दीगर है कि हमारे थेथर दिमाग कि यह आदत बन चुका है,हम कशमों पर ध्यान देने कि जरूरत नहीं समझते हैं।
आज देश में भ्रष्टाचार एक अहम् सवाल बना हुआ है। इस सवाल ने महाराष्ट्र के एक छोटे से गाँव से उठाकर अन्ना हजारे को अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व बना दिया। लेकिन कभी भी किसी सवाल पर अंधानुगाम होना देश को गर्त में पहुचाने सरीखे है। अन्ना के साथ आज लाखों कि भीड़ है,लेकिन क्षोभ कि वे एक ऐसे ईमानदार कहे जा सकते हैं जो बेईमानों से घिरे हैं। उनके साथ जितने भी लोग हैं क्या अन्ना साहब कभी उनसे हाथ उठवा कर कश्में खिलवाये आप लोग न एक रूपये किसी को रिश्वत दोगे न एक रूपये किसी से रिश्वत स्वरुप लोगे,तो शायद नहीं। दूसरी चीज अन्ना का और वैचारिक समर्थन किया जा सकता है लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि क्या इस देश में अन्ना वाला लोकपाल आने से भ्रष्टाचार रुक जायेगा तो शायद नहीं,। ऐसा कहने के पीछे अन्ना कि साफगोई पर शक नहीं बल्कि अपनी मिटटी और खून पर अविश्वास है। जिन पच्घ-छः सदस्यी लोकपाल के सदस्यों कि बात इलेक्सन या सेलेक्शन से करने की हो रही है क्या सदैव इसकी सुचिता की गारंटी अन्ना ले पाएंगे तो शायद कत्तई नहीं। और फिर आगे चलकर यह लोकपाल भी संविधान के एनी अनुच्छेदों की तरह धरासायी पाया जायेगा। तरस तो आता है प्रधानमंत्री या देश की सरकार की मूर्खता पर उन्हें तो छूटते इस पर राजी हो जाना चाहिए ये लोग पता नहीं क्यों अन्ना को जिन्ना बनाने पर तुले हैं।
इस लिए अन्ना का मुहीम अगर घर-घर जाकर अखबारी फोटो के लोभ से ऊपर उठ कर लोगों को नैतिक तौर पर तैयार करता की वो न कही किसी को घूस देंगे न लेंगे तो शायद मैं भी पूरी तरह से उनके साथ होता क्योंकि इसमें जितना दिन बीतेगा उतनी सफाई होती जाएगी,लेकिन लोकपाल जितना पुराना होगा उतनी गन्दगी की पूरी-पूरी संभावना है।
अतएव हर उस राष्ट्रप्रेमी से कर बध्ह अनुरोध है कि अंधानुगाम से बचें और खुद को और अपने लोगों को उनके सबसे प्रिय और मूल्यवान कि कश्में दिलाये कि वो कही से भी भ्रष्टाचार की गंध नहीं बर्दाश्त करेंगे,कही धरना और कहीं प्रदर्शन कि कोई जरूरत नहीं है,और हर आदमी अन्ना होगा ,किसी अन्ना के साथ पिछलग्गू बनने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
जय हिंद..............

बुधवार, 3 अगस्त 2011

स्लाट वाक की नौटंकी भारतीय महिलाओं के लिए नहीं

भारत का एक दर नकलची इतिहास रहा है। अगर कोई बीच सड़क खड़ा होकर अपनी गर्दन असमान की तरफ कर देखना शुरू कर दे तो दस मिनट बाद एक लम्बी कतार बिना ये जाने या पूछे की असमान में है क्या ऊपर गर्दन किये नजर आएगी। महिलाओं का आन्दोलन स्लाट वाक अगर अमेरिका या ब्रिटेन में होता है तो ये बात समझ में आती है लेकिन भारत जैसे सांस्कृतिक देश में यह आवाज बेमानी लगती है। खास कर तब और क्षोभ होता है जब काफी पढ़ी लिखी और सुलझी मानसिकता की छवि रखने वाली महिलाएं सिर्फ महिला से जुड़े सवाल के वजह से इस बात की पक्षधर दिखती हैं वस्त्रों का विचारों पर असर नहीं पड़ता । इसका ये मतलब कत्तई नहीं है की मैं उनका विरोध और महिलाभक्षियों का पक्षधर हूँ । आज भी जो लोग चाहे वो पुरुष समाज के हों या महिला दुसरे घर की लड़की को कम वस्त्र में देखना तो पसंद करते हैं पर अपने घर की लड़की को कौन कम वस्त्र पहना नुमाईस का निमंत्रण देगा। इसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ गलत ही नहीं लगाया जाना चाहिए महिला किसी भी सभी समाज की गहना होती है और गहनों को सहेज कर और सलीके से रखा ही जाता है ,अगर विदेशी ऐसा करते है तो वो सिर्फ महिला को महिला ही समझते हैं या उनके यहाँ गहने सजोने का चलन नहीं रहा है,या हमारे यहाँ गहनों की पूजा भी होती जो उनके यहाँ नहीं होती है इसलिए ये लड़ाई उनके परिवेश में भले उचित हो पर हमारे देश में तो कत्तई उचित नहीं हो सकती।
वहीँ दूसरी तरफ कुछ लोग इसका समर्थन इस तर्क के साथ कर रहे हैं कि हमारा इतिहास नंगा रहा है,ये तर्क तर्क सांगत बस इसलिए नहीं लगता क्योंकि दुनिया का समाज एक साथ चला था ,शुरूआती दौर में कपडे के अभाव का नंगापन रिश्ते नहीं पनपने देता था जो असभ्य होने कि सबसे सटीक परिभाषा कही जा सकती है। इस लिए कम कपड़ों का पहना जाना असभ्यता को निमंत्रण भी हो सकता है। एक तर्क से सहमत तो होता हूँ कि कपडा नहीं सोच बदलने कि जरूरत है ये शत-प्रतिशत सही है पर ये बात पुरुष ही नहीं स्त्री सोच पर भी लागू होती है,वो अपना सोच कपड़ों के प्रति क्यों नहीं बदलती,और अगर हमें दूध ही पीने है तो क्या जरूरत है कि मधुशाला में बैठ कर पीयें।
जिस तरह कि घटनाये महिलाओं के सन्दर्भ में हो रही है वो चिंता का विषय तो है लेकिन इसको मशाला बनाने के बजाय सार्थक मनन कि जरूरत है न कि अख़बारों में टैटू लगा कर फोटो छपवाने की।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार आतंकवाद से बड़ा खतरा

निश्चय ही ये कहना गलत नहीं होगा की हमारे देश में भ्रष्टाचार और आतंकवाद दोनों ही सुरसा की तरह मुंह बाये देश को निगलने के लिए खड़े हैं। लेकिन एक बात तो तय है की आतंकवाद से बड़ा खतरा देश के लिए भ्रष्टाचार है कारण कि आतंकवादी तो सौ-पचास जानें मारता है जबकि ये देशी भ्रष्टाचारी समूची जनता को मारते हैं। अगर कसाब कि फांसी टलती है तो कोई बात नहीं लेकिन इन देशी लुटेरों को कई बार फासियाँ चढाने कि जरूरत है क्योंकि यदि उनका एक कतरा भी बचा रहा तो वो राष्ट्र का यूं ही खून चूसता रहेगा।
लेकिन दुर्भाग्य कि हम ऐसे संविधान में जीते हयाई जहाँ दोषी को बचने के लिए डेढ़ सौ नियम -क़ानून हैं जबकि ये कानून किसी निर्दोष को कितना बचा पते है ये बहस का विषय बन जाता है। अगर हम वास्तव में देश कि गरीबी दूर करना चाहते हैं या देश को भ्रष्टाचारियों से मुक्त कराना चाहते हैं तो एक रूपये कि काला बाजारी करने वाले को मौत की सजा से कम पर सोचना भी नहीं है यदि ऐसा संभव हो पाया तो भ्रष्टाचार निश्चित दूर होगा।
दूसरा सबसे बड़ा अहम् पहलू की जनता भी नेताओं के साथ कषम खाए साथ ही उस पर अमल करे यहाँ तो हम अपने बहन -बेटियों को शादी तक करते है तो एक ऐसे सरकारी क्लर्क को वर स्वरुप ढूढना ज्यादा पसंद करते है जो हजार-दो हजार ऊपरी कमाई करता हो,तो अपने भी गिरेबान में देखना होगा की जब हम अपने बहन -बेटी तक को एक राष्ट्रीय चोर के साथ बाँध देने में ज्यादे गर्व महसूस करते हैंतो ,हम क्या हैं और कहाँ हैं? सच तो यह है की इन सब की जड़ में हम सभी हैं ,अगर कोई बच्चा किसी की जेब से पचास रूपये चुरा ले तो हर बाप हरिश्चंद्र बन जाता है की कौन सी कमी पड़ी जो तुमने चोरी की,इतना कदा हो जाता है मानों बच्चे की जान लेलेगा,लेकिन अगर वही बच्चा कही से पचास लाख चुरा के ले जाय तो दिन दुपहरिया में लालटेन लेकर एक ऐसा हरिश्चंद्र बाप खोज पाना मुश्किल होगा जो बच्चे से ये भी पूछ ले की कहाँ से लाये,सब छुपाने में लग जायेंगे।
अतः यह कहना तो गलत होगा की सब गलत ही हैं लेकिन सुरेश कलामानियों की कमी भी नहीं हैं। इस लिए एक पहल ही सही इन घोटालेबाजों पर बिना किसी इंतजार के फासी मढ़ द्देनी चाहिए फिर जाके ये मंगल ग्रह पर नया राष्ट्रमंडल रचाएं ।

शनिवार, 18 जून 2011

सत्ता की लोलुपता जनसेवा को निगलने के कगार पर

खेतिहरों के देश भारत में सबसे ज्यादा लूटा जाता है खेतिहर ,विचारवानों के देश में सबसे ज्यादा मारा जाता है विचारवान इसी तर्ज पर कुछ चल रही है भारत की पहचान। आज देश में आन्दिलनों की बाढ़ आ गयी है,जिसको देखो वही अनशन पर बैठने को तैयार है यदि इसी तरह गैर राजनैतिक लोगों का बर्चस्व बढ़ता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब नेता से उठा विश्वास उसके अंतिम स्वास तक चलेगा,बाबा रामदेव ने तो सोने पर सुहागा का काम किया ,पेट फुलाने पचकाने का पेशेवर इस्तेमाल करने वाले लोग जब अनशन पर मंचासीन होंगे तो उनसे विरोध का दंश झेलने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती,नतीजा पेटीकोट पहन कर महिलाओं के बीच शरण लेंगे। ताज्जुब है आज तक के इतिहास में जब-जब सरकार का दमन यंत्र भरी पड़ा है तब - तब पहले यानि अनशन का मुखिया मारा जाता रहा है यह इतिहास का पहला अनशन होगा जब मुखिया भाग खड़ा हुआ और सखिया लात खाए, तथाकथित रूप से पुलिस की मर पड़ी एक महिला आज भी कोमा में है लेकिन बाबा रामदेव के लोगों के पास फुर्सत नहीं की उसकी पूछ भी करें। अपना व्यवसाय भी तो देखना है,कहीं समय पर आंवला का बागन नहीं खरीदा पाया तो बाबा जी करोड़ों के घाटे में चले जायेंगे।
मेरी बाबा से कोई दोस्ती का तो सवाल नहीं उठता लेकिन दुश्मनी भी नहीं है ,बस इतना ही है कहना की हर व्यक्ति को हर क्षेत्र में जबरन टांग अदा स्वयंभू नहीं बनना चाहिए,न ही मैं कांग्रेस का सिपाही हूँ न ही किसी क्गेरुआ का समर्थक,अच्छा होता बाबा कोई अनाथालय खोल कुछ अनाथ बच्चों की परवरिश में लग जाते उनको एक नेक सलाह है,अब तो पैसे की भी कोई कमी नहीं है संयोग से उनके पास। देश चलता रहेगा इसकी चिंता कम से कम उन्हें नहीं करनी चाहिए जब गेरुआ के लिए परिवार छोड़ दिए तो अब बड़े परिवार रुपी देश के पचड़े में पद अपनी शोर क्यों धो रहे हैं ।

शुक्रवार, 10 जून 2011

महान कलाकार का अंत

जीव नाशवान है और कला अमर । मकबूल फ़िदा हुसैन कलाकारी का एक जाबाज पहलवान चिर निद्रा में सो गया। लेकिन उनकी कलाकृतियाँ और बेबाकी निश्चय ही युगों तक याद करना लोगों की मजबूरी होगी। हुसैन साहब की यूं तो ढलती उम्र के बाद हम लोगों का जन्म हुआ लेकिन उनकी वैचारिक नौजवानी और अक्खडपन का कायल होना लाजिमी है। वो बात अलग है की सदैव विवादों में रहने वाले इस कलाकार को बहादुर शाह जफ़र की तरह अपने मुल्क में दो गज जमीन भी न मिल सकी। लेकिन उसकी कला अमर रहेगी उसको लोगों के दिल से अलग कर पाना सरकारों के की बात नहीं। इस हर पल जवान कलाकार को आखिरी सलाम ...........

शनिवार, 21 मई 2011

अधिवेशन में नेता और रैली में जनता

अभी दो दिन पहले बनारस में पैर रखना असिर्धा हो गया था कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन और रैली। अधिवेशन स्थल दूसरा और रैली का स्थल दूसरा। कारण कि अधिवेशन में सिर्फ नेता थे और रैली में नेता को भी जनता कि औकात में आना पड़ता। वैसे भी अब पहले जैसे रैलियों में नेता को लोग सुनने तो जाते नहीं देखने जाते हैं,उसमें भी बिकाऊ भीड़ नाश्ते और भोजन के साथ कुछ फिक्स रकम पर धूप-छांव झेलने को तैयार हो जाती है। अगर कोई भी राजनैतिक पार्टी अपने साफगोई का इतना ही डंका पीटना चाहती है तो अधिवेशन भी जनता के बीच क्यों नहीं कराती सब दूध का दूध और पानी का पानी हो जायेगा ,लेकिन बात यह है कि तब भाई भतीजावाद नहीं चल पायेगा ,नेता का भोजन kar waha tak pahuchne वाली जनता ही uska wirodh karne lagegi,वैसे भी kaangres कि nautanki se देश हमेशा दो चार hota रहा है यह कोई नया वाक्य नहीं है। ये सब राजनैतिक लुटेरों कि जमात बन कररह gayee है अन्यथा kendr अगर pradesh कि neetiyon se asahmat है

शुक्रवार, 6 मई 2011

आधुनिक भारत में रिश्तों का अस्तित्व

निश्चय ही जब आधुनिक भारत की कल्पना पंडित नेहरु जैसे तथाकथित भ्रष्ट योगी के दिमाग में आई होगी तो उनके सपने में परिवार सजाने का उद्देश्य रहा होगा लेकिन इसका इतना बुरा असर परिवार और पारिवारिक रिश्तों पर ही पड़ेगा शायद वो सपने में भी नहीं सोचे होंगे। आधुनिकता के अंधेपन और स्वार्थ के चरमोत्कर्ष ने परिवार की शक्ल ही बदल डाली है। बिखरते परिवार में खुशियों की जगह अवसाद लेता जा रह है। चाहे वो नोएडा के दो बहनों की कहानी हो या फिर बनारस की सुनंदा की ,ये सर्फ पारिवारिक विघटन की परिणति है अन्यथा अगर संयुक्त परिवार रहता तो आज ये स्थिति कत्तई नहीं आती। इस समस्या की जड़ अगर तलाशा जाय तो मिलेगा कि हर आदमी इसके जड़ में सरे आम पानी दे रहा है। हर बाप ये तो चाह रहा है कि उसके बच्चे एक साथ रहे लेकिन बेटी की शादी के लिए उसे अकेले रह रहे लड़के की तलाश होती है जिससे उसके बिटिया की कम मेहनत करना पड़े साथ ही उसे कोई बंधन न झेलना पड़े और इस तरह से पूरा समाज जाने -अनजाने में सुनंदा और नोएडा की कहानी की पृष्ठभूमि तैयार करने में अपनी शानदार भूमिका दर्ज करा रहा है। जब तक रिश्तों के अस्तित्व पर संकट के छाये बादल काटने का सफल प्रयास नहीं किया जायेगा यही हश्र होगा।

चिन्हित लादेन तो मारा गया लेकिन गैर चिन्हित लादेनों का क्या होगा

अलकायदा सरगना ओसामा बिन लादेन मारा क्या गया अमेरिका अपने कारनामों की गाथा गाते नहीं थक रहा है। वहीँ भारत के भी सेना के अधिकारी अपनी हेकड़ी दिखाना शुरू कर दिए हैं। आतंकवाद के प्रति साहसी होना और उसके खात्मे भरे विचार का निश्चय ही स्वागत होना चाहिए,लेकिन ओसामा के साथ एक चीज तो स्पस्ट था वो उसका चरित्र और कार्य,जो उसकी जानलेवा परिणति में साबित हुआ लेकिन साद की तरह छुट्टा घूम रहे और लूट-खसोट सरेआम मचा रहे उन ओसामाओं के लिए हम क्या कर रहे है जो बड़ी-बड़ी गाड़ियों के काफिले में वातानुकूलित व्यवस्था का न सिर्फ आनंद ले रहे हैं बल्कि जनता में बहरूपिया भूमिका में लूट पाट मचा रहे होते हैं। इस पर विचार होना चाहिए क्योंकि ओसामा से तो हम हमेशा सावधान रहते रहे हैं लेकिन इन ओसामाओं को जिनको हम ओबामा समझते हैं या समझने की भूल करते हैं ,और रोज खुद के एक नई त्रासदी की कहानी गढ़े जाने का आमंत्रण देते हैं ,इन पर जब तक लगाम नहीं लगेगा दुनियां से आतंकवाद ख़त्म होने उम्मीद भी एक बड़ी भूल होगी। न मैं ओसामा की तारीफ कर रहा हूँ न ही किसी जाति विशेष पर आक्षेप पर ये बात विचारणीय तो है ही ।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

राजनैतिक कार्यक्रम और रैलियां अब विचार नहीं महासंग्राम का सन्देश देते हैं

पहले भी राजनैतिक रेलयान होती थी कार्यक्रम होते थे लेकिन उसे महासंग्राम के आगाज के रूप में नहीं प्रस्तुत किया जाता था .एक तरफ अन्ना इत्यादि सामाजिक कार्यकर्ताओं की सराहना और दूसरी तरफ लड़ाई का महा आमंत्रण ये कैसा राजनीती है भाई। क्या अभी तक देश कम टूटा है जो और लड़ने-लड़ाने का जश्न जारी है,इतने पैसे लगा कर ये रैलियां हो रही है जब की कोई भी इन रैलियों में किसी राजा-महराजा या जमीदार का बेटा नहीं है तो गाहे-बगाहे देश को ही न खोखला बना रहे हो भाई। ऊपर से ईमानदारी का घटिया ढोंग। अगर जोड़ नहीं सकते तो तोड़ने का ठेकेदार तो मत बनो। देश कभी भी किसी के कंधे पर नहीं चला है जो अब चलेगा। जनता को अब तो मंदिर मुद्दा भी आपके हाथ से चला गया अब कौन सा मंदिर बनवा के इन लोगों के भावनाओं के साथ खिलवाड़ की नई शुरुआत करना चाह रहे हैं।

शनिवार, 9 अप्रैल 2011

अन्ना के आन्दोलन को आख़िरकार बाजारू लोगों ने बाजार दे ही दिया

निश्चय ही लोकपाल विधेयक भ्रष्टाचारियों के गले की फांस तो साबित होगा जिसका श्रेय पूरी तरह से अकेले तिहत्तर बरस के नौजवान अन्ना हजारे को जायेगा। आजादी के बाद देश में यूतो कोई आन्दोलन हुए नहीं ,लेकिन अगर बहुत कड़ी से आकलन न किया जाय तो जेपी आन्दोलन ही एक आजादी केबाद का ऐसा आन्दोलन रहा है जिसे आन्दोलन कहा जा सकता है। बाकि आन्दोलन की स्थितियां तो हमेशा इस देश में रही हैं लेकिन जनता हर स्थिति से ताल-मेल बैठा लेती है लेकिन सड़क पर उतरने को तैयार नहीं होती। जेपी आन्दोलन एक जनांदोलन था जिसमे जनता आगे आई फलतः इंदिरा गाँधी जैसी शासिका को भी बनारस के राजनारायण जैसे फक्कड़ नेता के सामने एक न चली थी और मुह की खानी पड़ी थी। राजनारायण न तो पूजीपति थे न ही अपराधी थे हाँ एक फक्कड़ थे जिसका आज के परिवेश में जीवित होना जरूरी था। अगर राजनारायण जीवित होते तो पूरे देश की तो नहीं कह सकता लेकिन कम से कम बनारस जैसे बुध्ह्जीविओं के शहर में जेल से दहाड़े मारने वाले लोगों की मंशा शायद यहाँ से चुनाव लड़ने कभी न पूरी हो पाती। राजनारायण वो निडर व्यक्तित्व था जो एक छड़ी लेकर जेल के अन्दर ही ऐसे लोगों का शपथ ग्रहण भी करा देता।
इसके बाद अगर छोटे ही सही लेकिन थोड़े स्वस्थ्य आन्दोलन की हम बात करे तो शायद अन्ना का लोकपाल आन्दोलन ही कतार में होगा। लेकिन क्षोभ की अन्ना के आन्दोलन को भी जनता का नहीं बल्कि चंद बाजरुओं का समर्थन मिला । चाहे वो नाचने वालों का महकमा हो या फिर तथाकथित स्वास्थ्य गुरू रामदेव का सभी कही न कही से अपने आप में एक बाजार हैं। शिक्षा क्षेत्र से जुड़े कुछ लोग जो कभी बनारस को सुलाते-जगाते हैं तो कभी आधुनिकता का नंगा नाच विद्यालय परिसर में छात्र-छात्रों से करा महंगा और घटिया बाजार शिक्षा को देने वाले लोग जो सिर्फ और सिर्फ शिक्षा को दिखावे-भुलावे और लूट -खसोट की विषयवस्तु बना डाले हैं उन्होंने भ्रष्टाचार भागने की मुहीम में भी ढोल बजन शुरू कर दिया जिससे पता चले की ये लोग भी बड़े समाज सुधारकों की श्रेणी में आते हैं। भ्रष्टाचार की शुरुआत इन्ही से होती है अगर इन लोगों के जीवन कृति को ईमानदारी से खंगाला जाय तो जो कहानी सामने आएगी उससे भ्रष्टाचार खुद-बखुद शरमा कर भारत हमेशा -हमेशा के लिए छोड़ने की कषम खा लेगी। और अन्ना का असली सहयोग होगा उन्हें भूखे मारने की कषम नहीं खानी होगी।

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

काश! ये जन सैलाब जन सवालों पर भी उमड़ता

अभी भारत वर्ल्ड कप जीतने खुमारियों से नहीं उबर पाया है ऐसी राष्ट्रीयता यहाँ विरले ही काभी दिखती है ,ऐसा लग रहा था मानों हर घर में ग्यारह किलो सोना आ गया हो। कई जगह पुलिस को लाठियां भी भाजनी पड़ी इस ख़ुशी के इज्हार्कर्ताओं पर। यहाँ तक की गैर क्रिकेट प्रेमियों के भी कान चौके-छक्के की आवाज और परिणाम कान में ठुस्वाने को मजबूर थे। सच भी यही है की यह खेल कहीं मुर्दों में दम भरता दिखा तो कहीं घाव पर मरहम।
लेकिन एक चीज मेरे उलटे खोपड़ी में हजम नहीं होती कि मिस्र और लीबिया में जब जनता सड़क पर उतर इतनी बड़ी सत्तात्मक बदलाव करने में सक्षम बन पायी तब भी इससे अधिक भीड़ वहां के सड़कों पर नहीं रहा होगा। तो भीद्जा सवालों पर क्यों नहीं सामने आती,ऐसा नहीं कि बदलाव नहीं हो रहजे है ,आये दिन विरोध हो रहे हैं परिवर्तन के विगुल फूकने वालों की कमी नहीं है लेकिन इसे सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक स्वार्थ के चश्में से कत्तई नहीं देखा जाना चाहिए। अन्ना हजारे जैसे बड़े सामाजिक कार्यकर्ता भी लोकपाल जैसे सव्लों पर जी-मर रहे है और उन्हें जनता का बड़ा समर्थन भी मिल रहा है और मैं ये भी नहीं कहता की सारे लोग अन्ना के वैचारिक छांव में सर छुपायें लेकिन एक बात तो तय है की काश! ये जन सैलाब जन सवालों पर भी उतरना शुरू कर देता तो भ्रष्ट तंत्रों के कुम्भ्करनी बाँहों को रातो-रात तोड़ ,हर दिन को विश्व कप जीतने जैसा खुशहाल बनाया जा सकता ...........

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

गाँधी कोई झुनझुना नहीं जिसे जो चाहे बजाता रहे

अमेरिकी लेखिका जोसफ लेलिवेल्ड द्वारा गाँधी पर लिखी पुस्तक में अभद्र टिप्पड़ी खास कर ऐसे में और विचारणीय हो जाती है जब अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा साहब अपने को गांधीवादी कहने में गौरवान्वित महसूस करते हैं। इसके वावजूद उक्त लेखिका का क्षमा मांगनेके बजाय खुद को सही ठहराने और भारत में जिन प्रदेशों में इसके पाबन्दी की चर्चा चल रही है उस पर इस महान लेखिका को भारत को एक लोकतंत्र के रूप में देखने में दिक्कत हो रही है,तो क्या ये मन लिया जाय की ऐसे महात्मा के ऊपर की गयी इस घटिया टिपण्णी से ओबामा भी खुश हैं अन्यथा उनके देश में भी अब तक इस किताब पर रोक लग गयी होती।
वैसे एक बात तो साफ है कि इस लेखिका ने नाम और काम दोनों ही बड़ा अच्छा चुना है। गाँधी का इतना बड़ा वैश्विक कद है कि जो भी उनके नाम से जुदा उसे अमरत्व हाशिल हुआ,चाहे वो नाथूराम गोडसे ही क्यों न हों आज जितने लोग गाँधी को जानते है उतने लोग नाथू को,अंतर इतना ही है कि नाथूराम ने जीवित गाँधी कि हत्या कि थी और लेलिवेल्ड नामक इस महिला ने शहीद गाँधी कि हत्या कर अपना दुकान चलने को सोच शुरू की। किताब तो अब निश्चय ही खूब बिकेगी यह मानव स्वभाव है किरोक लगी चीजों के प्रति हम ज्यादा ही आकर्षित होते हैं। लेकिन इसकी अधिक बिक्री को देख किताब की सफलता के तर और इस तथ्य को सही धर नहीं दिया जा सकता क्योंकि गाँधी को जानने वालों में गाँधी का चरित्र स्थिर है सचल नहीं। एक चीज और की साहित्य जब-जब बदनाम हुआ है साहित्यकार सरनाम हुआ है लेकिन फिर गुमनाम हुआ तो काभी सरेआम न हो सका ।
अतः ऐसे घटिया सोंच और हरकत से बाज आ इस पुस्तक के हर रोक का चौतरफा स्वागत होना चाहिए,वैसे भी गाँधी कोई झुनझुना नहीं जो जब चाहे जैसे चाहे जहाँ चाहे बजाते फिरे और रोज नई धुन निकालते चले।

सोमवार, 28 मार्च 2011

जातिगत राह पर साहित्य को धकेलने का मिथ्या प्रयास

हमारा देश भारत ही नहीं अपितु पूरा विश्व जाति-धर्म के विवादों में उलझता जा रहा है । ये सिर्फ किताबी बातें बनकर ही रह गयी हैं की मानव धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। लेकिन साहित्य अभी तक इन जातिगत मूल्यों से नही आंके और देखे जाते थे। लेकिन अब इस पर भी जाती का ग्रहण छा जाने का अंदेशा है। दलित साहित्य और दलित साहित्यकारों की एक सभा धर्म और संस्कृति की नगरी काशी में हुई जिसमे दलित साहित्यकारों को बढ़ावा देने की बात कही गयी। अभी तक साहित्य को जाती-धर्म से दूर देखा जाता था। कभी कोई रविदास का इस लिए सम्मान नहीं करता की ओ दलित थे या तुलसीदास इसलिए नहीं पढ़े जाते की वो गोसाईं थे ,मालिक मोहम्मद जायसी को पढने वालों की ज्यादातर संख्या गैर मुस्लिम है। फिर ऐसे समज्तोद प्रयासों को हवा देने से बड़ा कोई राष्ट्रद्रोह नहीं है। बुध्ह्जीवी किसी समय किसी जाति-पति और समाज में बिना स्कूली शिक्षा हाशिल किये हो सकता है । इसको जाति में बाँध कर राजनैतिक कलेवर में पिरोना महापाप है।

गुरुवार, 17 मार्च 2011

युवा बस राजनैतिक उपयोग की विषयवस्तु

आजादी के बाद देश में यूं तो कोई आन्दोलन हुआ नहीं ,जो छोटे -बड़े आन्दोलन हुए वो देर-सबेर मिथ्या स्वार्थों के कालजयी कहानियां बन कर रह गए। लेकिन जेपी आन्दोलन की अगर हम बात करे तो उसे सबसे सफल आन्दोलन कहा जा सकता है क्योंकि यह उस आन्दोलन की ही देन थी कि ,अंग्रजों के बाद सबसे लम्बे गैर अंग्रेजी सरकार को उखाड़ फेकने का काम किया था। उसमें भी युवाओं का सबसे बड़ा योगदान है । उसके बाद जब-जब कोई राजनीतिक पार्टी अपने अस्तित्व के खतरे से जूझ रही होती है तब-तब उसे युवा ही दीखता है । जबकि सच यह है कि उस तथाकथित युवाओं के सरकार बमें भी अगर कोई छला गया तो युवा। आज कांग्रेस उसी तर्ज पर युवा का झंडा ऊचा करने का नाटक किये हुए है। छोटे नेता इस पार्टी के तो चिल्लाते है कि युवाओं को सबसे बड़ी जिम्मेदारियां दी जाएँगी लेकिन मुखिया को अभी भी बुद्धे किरदारों पर भरोसा है जो पार्टी को बीसों सालो तक गर्त से बहार नहीं आने दिए। अतः ऐसे खतरनाक मोड़ पर युवाओं को खुद अपनी औकात का अंदाजा होना चाहिए वो जो चाँद पैसे और अखबारी तस्बीर कि खातिर किसी का झंडा बुलंद करते फिरते है ,इसके भविष्य पर भी विचार होना चाहिए अन्यथा युवा सिर्फ और सिर्फ कुर्ताधारियों के उपयोग कि विषयवस्तु बनकर ही रह जायेगा।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

बटवारे की नीति पर फिर चले देश के राजनेता

आजादी के बाद भारत जैसे गरिमा माय देश की धज्जियाँ कितनी उखड़ी इसका जिक्र करने में शर्म आता है। आजादी के पहले देश में जो भी विकास हुए उसका कारण उस समय तक देश की राजनीती संघर्ष की नीव पर खड़ी थी जबकी आजादी के बाद राजनीती आय के प्रबल श्रोत के रूप में उपयोग की विषयवस्तु बन गया। देश के बटवारे के नाम पर युवा पीढ़ी गाँधी को बदनाम करती है सिर्फ और सिर्फ सुने -सुनाये लतीफों के कारण,क्योंकि पढने-लिखने से भी विश्वास उठा है। निश्चय ही गाँधी मोहम्मद अली जिन्ना के सबसे करीबीयों में थे। लेकिन जब बटवारे की बात आई तो जिन्ना कहे की मैं मुस्लिम सम्प्रदाय का इकलौता नेता हूँ और अंतिम प्रवक्ता भी,आप यानि गाँधी कोसंबोधित कर जिन्ना कहे की आप हिन्दुओं के नेता बन जाइए क्योंकि आपके यहाँ भीड़ है आपको अंतिम प्रवक्ता हिन्दू खेमे का नहीं कहा जा सकता है। इसपर झल्लाए गाँधी ने कहा की हिन्दुस्तानी से छोटी किसी भी पहचान पर मैं बात करने के लिए तैयार नहीं हूँ । और शायद गाँधी की उस जिन्ना से ये अंतिम मुलाकात थी जिसके बुलावे पर वो नंगे पाँव दौड़े चले जाते थे। फिर भी हम गाँधी को दोषी ठहराते है बटवारे के लिए।
लेकिन आज देश में तमाम राजनेता बटवारे को ही अपना मुद्दा बना सर ऊचा किये चल रहे हैं। पीए संगमा जैसा कुशल राजनेता भी सरेआम कहता है की यूपी जैसे राज्य में विकास के लिए चार प्रदेश बनाने चाहिए। मुझे समझ में नहीं अत की क्यों लोग पुनः गुलामी की तरफ बढ़ना चाहते हैं। विदेशी अंग्रेजों से तो हम जीत गए लेकिन जब तक ये देशी अंग्रेज अपनी भाषा नहीं सुधारेंगे तब तक कुछ भी नहीं होने वाला हैं। ऐसे लोगों पर राष्ट्रद्रोह लगना चाहिए। ये राष्ट्र और राष्ट्रीय भावना दोनों पर सीधा और घटिया प्रहार है।

सोमवार, 14 मार्च 2011

महगाई के अरदब में फीके पड़ते त्यौहार और बिखरते रिश्ते

महगाई का असर बाजार पर तो दिखता है यह अर्थशास्त्र की भाषा है लेकिन लोगों के विचार और मानसिकता पर भी पड़ता है इसको देखा जा सकता है त्योहारों को आते ही। हमारे एक मित्र संयुक्त परिवार के स्वामी हैं ,एक दिन बात-बात में कहने लगे की अरे यार ये त्यौहार भी न पता न कहाँ से आ जाते हैं,शांति चल रही थी परिवार में लम्बे समय से ,अब निश्चय ही कोई न कोई विवाद होगा। मेरा बोलता स्वभाव तुरंत उछल पड़ा अरे भाई त्यौहार अब कैसे आपके सुख चैन में विघ्न डालने लगे। निः संकोच जो बात भी साब बता रहे थे ,वो विचारणीय सी दिखने लगी। कहे भाई साब पहले हजार दो हजार लेके जाता था पूरे परिवार के लिए तीज-त्योहारों पर कपडा खरीद लाता था । अब बच्चे भी बड़े हो गए उनकी भी अपनी पसंद होगई समस्याए २०११ की और समाधान १९७० के ही हैं ,ऊपर से भाईयों के लड़के हैं ,दरवाजे पर माताजी-पिताजी भी है,कोई एक छूट गया तो बवाल और सबको खरीद दिया तो बवाल। मैंने कहा यार ये कैसे । अब क्या था शुरू हुई उनकी कार्ल मार्क्स की थेओरी कहे पत्नी नहीं चाहती कि पुरे परिवार को मैं ही कपडा खरीदू,और भाई के बच्चों के दिमाग में होता है कि ताऊ जी तो कपडा लायेंगे ही,बच्चों का चेहरा देख तरस आती है ,उधर पत्नी के कलह से आत्मा काप जाते है। मैं तपाक से बोला कि अरे भाई तो आपके भाई भी तो साब कम रहे हैं और वो सब भी आप बताते हैं कि आपको ही अपनी कमाई देते है तो उनके बच्चों को कपडे खरीद कर आप कौन सा एहसान कर रहे है ये बात भाभीजी को समझाते नहीं। बोले अरे यार वो कहती है कि अगर वो लोग अपनी कमाई दे रहे है तो कोई बड़ा काम थोड़े ही कर रहे है,आपने भी तो उनको पढाया-लिखाया सारा खर्च उठाया,अब कौन समझाए ,मैं सारी दुनिया को तो समझा सकता हूँ पर अपनी महारानी को देखते ही पसीना छूटने लगता है।
भाईसाब लगभग रो रहे थे कहने लगे जान रहे हैं चतु ................जी महगाई अब रिश्तों में खटास लाने लगी है,पहले तीन भाई कमाते थे तो एक निकम्मे भाई को और उसके परिवार को कमाने वाले के बराबर का ही सुख और सम्मान मिल जाता था,और हर एक घर में निकम्मे थे लेकिन आज सब कोई कमा रहा है फिर भी महगाई डायन वाला गाना सुने है न खा वही डायन रही है भोजन में रिश्ते नाते और चंद खुशियाँ सब । फिर अपना मनहूस शक्ल ले हम दोनों चाय एक -एक और लड़ाते हैं और बेहया कि तरह मुश्काराते हुए निकल आते है लेकिन उनकी बात मेरी उस दिन कि नीद ख़राब कर दी।
तो बहुत हुआ रोना धोना थोडा हस भी लिया जाय जो मुश्किलों में भी हसे वही असली जाबाज होता है। तो आने वाली होली में मत हो रंग ,न हो कपडे ,बिना गोझिया और पापड़ के ही सही वायदा करो हसकर होली मनाने की,इन्ही शब्दों के साथ ढेरों शुभ कामनाओं सहित समाप्ति की अनुमति चाहता हूँ। प्यार से बोले तो सर ...............र ................र ......होली है।

गुरुवार, 3 मार्च 2011

अब नहीं बनते बजट सामान्य जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर

अब नहीं बनते बजट सामान्य जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर ऐसा ही प्रतीत होता है इस नए बजट को देख कर । एक दिन बनारस के गोदोलिया नामक स्थान पर एक भिखारन जो अपने बच्चे को भर पुरवे में मलाई खिला रही थी,उस की ख़ुशी का मानो ठिकाना नहीं था। मलाई से भरे पुरवे को देख कर कोई भी कह सकता था की निश्चय ही इतनी मलाई भीख में दुकानदार नहीं दे सकता। संयोग इतना ही था की लबे सड़क मलाई की दुकान के सामने ही बैठ कर वो अपने बच्चे को मलाई खिला रही थी। संयोग कि ठीक उसी दिन वित्त मंत्री महोदय अपना बजट पेश किये थे। सहसा मुझे एक झटका लगा और मैं सोचने लगा कि क्या आज के इस बजट में इस भिखारन कि जैसी लाचार जिन्दगी काट रही कितनी बेबसों के लिए क्या कोई जगह थी तो शायद नहीं,सरकार का पूरा -पूरा प्रयास यही कि मां के प्रेम पर भी टैक्स लगा दिया जाय लेकिन धन्य हो भगवन कि प्रेम के लिए किसी महगाई और टैक्स से नहीं गुजरना पड़ता अन्यथा ये मां जो पैसे से नहीं,माली हालात से नहीं बल्कि प्रेम से अपने बच्चे को मलाई खिला रही थी वो भी उसे मयस्सर नहीं हो पता। इस कांग्रेसी चश्में से हर गरीब को लख तकिये निगाह से देखने वाले वातानूकूलित गद्देदार कुर्सियों पर बैठे लोगों से इससे बेहतर कि उम्मीद करना पाप है।

मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011

दूरस्थ शिक्षा के छात्रों के साथ ही भेद -भाव क्यों

काशी हिन्दू विश्व विद्यालय निश्चय ही एक अग्रणी शिक्षण संस्थान जोकि देश ही नहीं विदेशों में भी ख्यातिलब्ध है का दूरस्थ शिक्षा के बच्चों को कानून की पढाई में अपने यहाँ न प्रवेश देने का निर्णय एक दम हजम नहीं होता। एक तरफ चिल्ला-चिल्ला कर कहा जाता है की यूजीसी के हर मानक के अनुरूप दूरस्थ शिक्षा पद्धति है तो फिर बीएचयू असी मन मानी क्यों कर रहा है और इस पर अब तक देश के शैक्षणिक नीति-नियंताओं का विश्लेषण क्यों नही आ रहा है। या ये मान लिया जाय की लोग इससे सहमत हैं और छात्रों को मूर्ख बनाने के लिए सिर्फ उन्हें बरगलाया जाता है और सभी लोग उनके प्रति भेद-भाव रखते ही हैं। एक तरफ पूरी दुनियां चिल्ला कर ये कहने में अपने को गौरवान्वित महसूस कर रहा है कि दूरस्थ शिक्षा सबसे बड़ी शिक्षा प्रणाली के रूप में विकसित हो चुकी है तो दूसरी तरफ ऐसा क्यों । अतः छात्र भावना और देश कि एकता और अखंडता को दिमाग में रखते हुए तत्काल इस नियम को वापस लिया जाना चाहिए।

मिस्र और लीबिया जैसी शुरुआत की जरूरत है भारत में

मिस्र में तीस बरस से तानाशाही का जलवा बिखेरे सरकार का अठारह दिन के जनांदोलन के बाद नस्त-नाबूद हो जाना लीबिया को भी आत्म बल दिया और उसी तर्ज पर लीबिया के लोगों को भी तानाशाही से मुक्ति मिली। लेकिन भारत गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है जहाँ नाम बड़े और दर्शन छोटे का जुमला शत -प्रतिशत चरितार्थ होता है। यहाँ हर कोई ट्रस्ट है लेकिन सड़क पर उतरने की स्थिति में जनता नहीं दिख रही है। निश्चय ही मिस्र और लीबिया की कहानी आन्दोलनों के इतिहास में सबसे ऊपर की कतार में राखी जाएगी,भारतीय मीडिया उसको चाहे जितना दबा ले। इससे कम अत्याचार पर १९७७ में इस देश के युवाओं ने ऐसे ही अत्याचार के खिलाफ सड़कों पर उतर नया इतिहास रचा था जब कांग्रेस अपने घरों में पराजित हुई थी। अब कितने महगाई और कितने लूट-खसोट और भ्रष्टाचार का इंतजार कर रहे हो देश वासियों भारत मान की आत्मा रो रही है ऐसे गैर जिम्मेदाराना राजनीतक रवैये पर जहा नौनिहाल कार्यालयी आकड़ो से तो मलाई खा रहा है लेकिन दूधमुहे बच्चों का मरना जारी है। अतः उठो ,मिस्र और लीबिया की नक़ल नहीं बल्कि अपने अधिकारों के प्रति एक दिन की मेहनत देश की तस्बीर बदल सकती है जोकि बरसों के लूट -पाट पर भारी पड़ेगा।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

आखिर कहाँ जायेंगे झोलाछाप चिकित्सक और चिकित्सार्थी

आज कल जिसको सुनो वही झोलाछाप चिकित्सकों के खिलाफ खड़ा दिख रहा है। भारत गावों का देश है,दूर दराज के बहुत ऐसे गाँव है जहाँ दूर-दूर तक कोई डिग्रीधारी डाक्टर नहीं है । अगर गलती से स्वास्थ्य सामुदायिक केंद्र स्थापित भी है तो वहां के डाक्टर्स अधिकतर शहरों में रहते है, और शहरके सरकारी अस्पतालों को देख कर ये आसानी से आका जा सकता है की वो कितनी अच्छी सेवा देते होंगे गाँव वालों को। बीमार होने का कोई समय तो होता नहीं लेकिन ये डिग्री धारी डाक्टर लोग इतनी मोटी रकम सरकार से पाते है की इनमे सेवा भाव तो है नहीं, हमेशा इनका झोला उठा रहता है ऐसे में झोलाछाप कह बदनाम किये जाने वाले चिकित्सक ही उनके दुःख के असली सहभागी हो पाते हैं। ये भी सच है की कही-कही इनके ज्य्दाती की कहानियां सुनने को मिलती है।लेकिन अपनी आजीविका के साथ -साथ वे गाव वालों के स्वास्थ्य का भी देख भाल कर लेते है। सरकार हर छह महीने पर अपनी धपोरसंखी आवाज में इनके खिलाफ बिगुल तो फूक देती है,लेकिन क्या कोई ऐसा चिकित्सा का माडल है जिससे आम आदमी को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराया जा सके। तो शायद नहीं। ऐसे में जरूरत है तो इन तथाकथित झोलाछापों को कोई प्राथमिक प्रशिक्षण देकर उपयोग में लाने का अन्यथा घर-घर तक स्वास्थ्य पहुचाने का अभी तक तो कोई माडल नहीं दिखा सरकार के पास,तो क्या गरीब जनता मरेगी,एक बात दूसरी बात की येबड़े डाक्टर सर्दी-बुखार जैसे सामान्य रोगों के लिए भी बिना जांच इत्यादि के इलाज शुरू नहीं करते खर्च के नाम से ही इन गरीबों का बुखार उतर जाता है।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

जातिगत सभाएं राष्ट्रहित में कितनी न्यायोचित

देश पता नहीं विकास कर रहा है कि पीछे जा रहा है ये कह पाना कठिन है। जिस देश में देश की नीतियाँ जातिगत आधार पर बनाई जाती हैं,उसके उद्धार के लिए देर सबेर गाँधी और अब्राहम लिकन जैसे महामानवों का को जन्म लेना ही पड़ता है। गाँधी के देश में इस तरह की विसंगतियां शुरू से ही थी लेकिन बहुत प्रयास और संघर्षों के बाद स्थितियां कुछ सुधरी थीं। लेकिन आजादी के बाद फिर उसी रह पर देश की नीतियां तय की जाने लगी। जोकि किसी भी लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा है। मुलायम सिंह यादव के समाजवादी पार्टी के निष्कासित नेता अमर सिंह और कांग्रेस के दिग्विजय सिंह दो धुर विरोधी लोग एक मंच पर अगर दिखे तो सिर्फ जातीय बोलबाले के लिए। अगर ऐसी जातिगत सभाओं पर संवैधानिक अंकुश नहीं लगे तो वो दिन दूर नहीं जब लोकतंत्र की परिभाषा के परिधि में हमारा देश नहीं होगा। इसका सबको विरोध करना चाहिए खास कर जब कोई नेता जाती के नाम पर लोगो को मुर्ख बनाये तो,उसकी पार्टी तक के भी अस्तित्व को ख़त्म कर देना ही सच्ची लोकतान्त्रिक प्रडाली है।

रविवार, 30 जनवरी 2011

गाँधी दुनियां के अतीत ही नहीं भविष्य भी

मोहनदास नाम के एक बालक का पोरबंदर में २ अक्टूबर १८६९ को जन्म लेना किसी अवतार से कम नहीं था। मोहनदास से महात्मा गाँधी तक की उनकी जीवन यात्रा महज एक यात्रा ही नहीं बल्कि एक जीवन पद्धति है,एक सन्देश है त्याग और तपस्या के नाम ,एक विचार है आधियों में दीपक जलाने का ,एक जिद है आसमान को जमीन पर लाने का ,एक अनुशासन है उन्नति का । स्वतंत्रता संग्राम की भी अगर नीतियों को खगाले तो मिलेगा कि एक तरफ गोली थी तो दूसरी तरफ बोली। गोली कितना प्रभाव जमा पायी कहना कठिन है लेकिन बोली ने उन अंग्रेजों को झुकने और भागने पर मजबूर कर दिया जिनके राज्य में कभी सूरज अस्त नहीं होता था जैसी अतिशयोक्तियाँ बकी जाती हैं। वर्तमान में गाँधी कि नीतियां अपने देश में ही धरासायी पड़ती जा रही हैं,खास कर के वो राजनैतिक पार्टी जो गाँधी का ही नाम ढ़ो आज भी जीवित है,सत्ता में काबिज है ,उन्हें भी गाँधी से परहेज होने लगा है।
आज गाँधी की पूजा दुनियां के हर कोने में एक अवतारी पुरुष के रूप में हो रही है लेकिन गाँधी के देश में आये दिन गाँधी कि प्रतिमाओं पर कालिख पोती जा रही है और देश मौन रहता । हर युवा गाँधी को दीन -हीन भाव से देखता नजर आ रहा है । बिना गाँधी के नाम काम और दर्शन को लिपटाए बिना आज भी एक पग हम चलने की हिम्मत नहीं रखते । अतः देर -सबेर गाँधी के विचारों से दुनियां चल सकती है ,कट्टा और बन्दूक से दुनियां नहीं चलने वाली है।
गाँधी अतीत ही नहीं भविष्य भी है ,इसका ख्याल जरूरी है यही इस महामानव को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

बुधवार, 26 जनवरी 2011

लोकप्रियता का लोभ कही उत्सव को कातिल तो नहीं बना रहा

बनारस का उत्सव शर्मा एक सुलझे और संस्कारिक परिवार और छठां वेतन लग जाने के वजह से पैसेवाले घर की सन्तान कहा जा सकता है। उसके मानसिक विक्षिप्तता की कहानी की बात अगर की जाय तो उसकी मां इंदिरा शर्मा जी खुद ही सर सुन्दरलाल अस्पताल में मनोचिकित्सक हैं। पिताजी इंजीनियरिंग कालेज में है। सामान्यतया ऐसी घटनाएँ जब होती हैं तो कानूनी तौर पर बचने के लिए ही लोग सबसे नायाब तरीका डिप्रेसन या मनोरोग का प्रमाण पत्र दिखा देना होता है। उत्सव की तो उसमें भी बल्ले-बल्ले क्योंकि उसकी मां ही सारी व्यवस्था कर देंगी।
एक बात गौर करने योग्य है कि उत्सव सिर्फ बड़ी घटनाओं से जुड़े लोगों को ही निशाना बना रहा है कारण रातोरात वह लोकप्रियता के शिखर पर पहुच जाता है,। हिन्दू विश्वविद्यालय के बहुत सरे प्रोफ़ेसर उसे बचने के लिए अपना व्याख्यान देना शुरू ही कर दिए कि यह व्यवस्था के प्रति क्षोभ है। यहाँ दो और बातें जिक्र में लाई जा सकती हैं कि इन घटनाओं से पहले तो काभी उत्सव के मां-बाप ने अख़बार में इश्तिहार नहीं दिया कि उनका बेटा मनोरोग से ग्रसित है,और मनोरोगी को घर में न रखने केबजाय अहमदाबाद या दिल्ली पढने भेजने कि उनकी हिम्मत को दाद देनी होगी। दूसरी चीज उत्सव जिस बीएचयू में पला बढ़ा वो खुद ही दुर्व्यवस्थाओं कि खान है,वहां तो कभी उत्सव व्यवस्था परिवर्तन को सामने नहीं आया। वह फाईन आर्ट्स का स्टुडेंट रहा है ,और कितने छात्र व्यवस्था आदि के विरोध में जेल गए उनकी पढ़ी गयी उसमें तो कभू उत्सव नहीं दिखा।
तो मिलाजुला के ये व्यवस्था के प्रति विरोध वगैरह नहीं है सिर्फ और सिर्फ नाम कमाने का जरिया और उसकी मां बढई है अगर मां-बाप ऊचे जगह से जुड़े नहीं होते तो शायद ऐसा नहीं होता। यद्यपि मैं उत्सव का विरोधी नहीं लेकिन अगर उसके मां-बाप इतने ही चिंतित है तो अपने सांड को बाध कर रखे ।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

अब वेश्यावृत्ति को सही ठहराने की मुहिम

जाने क्या हो गया भारतवर्ष की जनता को,यहाँ के तथाकथित बौध्हिक लोगों को ,जो ऐसे-ऐसे मांग सामने रखते हैं,जिसे शायद अगर उनको अपनी कीमत पर बनाने को कहा जाय तो सहमती नहीं होगी,ऐसा लगता है। फिल्मस्टार सुनील दत्त की बिटिया और सांसद प्रिय दत्त अब चाहती है की वेश्यावृत्ति को देश में पूरा अधिकार मिले । ये सच है की दुनियां में कितने ऐसे देश है जिनकी अर्थ व्यवस्था इस शारीरिक व्यवसाय पर आधारित है लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि हम उसी रास्ते को अपना लें। एक ऐसा तपका जो शरीर व्यवसाय से अपनी आजीविका तलाशता है निश्चय ही उसे समाज बहुत अच्छी निगाह से नहीं देखता । इस लिए उनके प्रति संवेदना ठीक है ,उनके लिए वैसे भी नियम तो बने ही हुए है लेकिन इसको महिमा मंडित करने कि जरूरत शायद नहीं है क्योंकि ये एक मानसिक खतरा है,उस युवा समाज के लिए जो बेरोजगारी कि मार झेलते त्रस्त हो कही इसी को सबसे आसान रास्ता न समझ बैठे अन्यथा विश्वगुरु कहे जाने वाला भारत कही सबसे बड़ा वेश्यालय न बन जाय,ये कड़वा सच एक बड़ा खतरा है। जो लोग इनकी तरफ दारी कर रहे है ,अगर उनसे पूछा जाय कि अगर ऐसी स्थिति आपके अपने परिवार के किसी सदस्य के साथ आती है तो उसे आप क्या कहेंगे,क्योकि रील लाईफ और रीयल लाईफ में अंतर होता है। अपने परिवार को भी उदाहरन के तौर पर वो देख सकती हैं।

देशी गणतंत्र पर विदेशी बधाई

भारतवर्ष इस छबीस जनवरी को अपना ६२ वां गणतंत्र मनाने की तैयारियां लगभग पूरी कर चुका है। फिर लड्डू बटेंगे ,राष्ट्रगान होंगे ,लम्बे चौड़े भाषण होंगे,कुछ शहीदों को याद किया जायेगा , रश्मों में कुछ कशमें होंगी ,कुछ वायदे होंगे ,किसी त्यागी महानायक का गुडगान होगा और अंततः मन ही जायेगा संविधान पर्व।
लेकिन एक बात आज संचार माध्यमों में ब्यापक क्रांति आई है ,नाग पंचमी से लेकर खिचड़ी तक के त्योहारों पर मेसेज भेजने वालों की एक लम्बी कतार होती है। लेकिन मजा आता है देख कर कि इस राष्ट्रीय महापर्व को हम मनाते तो हैं ,लेकिन उसी विदेशी अंदाज में जिनको भागने कि खुशियाँ हम इजहार करते हैं। लेकिन चलिए हर बात में बाल कि खाल नहीं निकालते ,झूम ही लेते हैं तिरंगे कि खातिर ,हो ही लेते है फिर से बसंती मदमस्त ,बसंत के बयार में ।
शुभ गणतंत्र,शुभ भारतकी ,हर सुबह शुभ हो के ढेरों कामनाओं के साथ -जय हिंद,जय भारत।

शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

फिर टप्पल की तर्ज पर इलाहाबाद के किसान

किसानों के देश भारत में किसानों की बदहाली तो चल ही रही है इस में कोई दो राय नहीं लेकिन एक बात समझ में नहीं आती है कि क्या इस तरह के आन्दोलन एक दिन में हो जाते हैं जिसमें अपने हकों की लडाई में कई जानें तक जाती हैं। क्या सरकारें इस क्षण का इंतजार कर रही होती हैं। जिसमें लहूलुहान किसान रेल की पटरियों पर सोते हुए आराम से रौदा या पीटा जाय। लेकिन पूरे मामले के तह में जाने के बाद समझ में आता है कि किसान भी कही अपने हकों से हटकर कही राजनीतिज्ञों का पासा तो नहीं बन रहा ।
आज के अख़बारों का प्रमुख खबर किसानों के साथ फिर किसी अनहोनी का आहट है ऐसे में एक तरफ जहा सरकार को इन किसानो की जान और भावनाओं का ख्याल रखते हुए निर्णय लिया जाना चाहिए वहीँ किसानो को भी अपने को राजनैतिक विषयवस्तु बनने से बचना चाहिए और ये ध्यान रखना चाहिए को जो भी विकास कार्यक्रम बनाये जा रहे होंगे उससे वो भी लाभान्वित होंगे रही बात जमीन के मुआवजे की तो स्वार्थ के अंधेपन में लूट की भावना नहीं होनी चाहिए अन्यथा आपको अधिक पैसा जरूर मिल जायेगा पर उसका परोक्ष भार महगाई डायन के रूप में आपको ही झेलना है। नेता तो आपको जेल भेजवा कर जमानत के समय पहुच जाय तो बहुत है।

रविवार, 16 जनवरी 2011

आदर्श सोसाइटी की बिल्डिंग गिराने को दूसरी बड़ी गलती कही जा सकती है

भारतवर्ष विभिन्नताओं से भरा अजीब देश है। यहाँ की चोरियों में भी विभिन्नताएं अपना साथ नहीं छोडती हैं। अब आदर्श सोसाइटी को ही ले लीजिये। ये जमीन महाराष्ट्र सरकार से आदर्श सोसाइटी के लोगों ने कारगिल के शहीदों के परिवारवालों को मुफ्त आवास आबंटित करने हेतु हाशिल किया था। महाराष्ट्र सरकार भी जमीन देने के बाद शायद घोटाले का इंतजार कर रही थी । फलतः किसी भी एक शहीद के परिवार को तो ये आवास नहीं मिले अलबत्ता देश के कई आला अधिकारियों और नेताओं को छांव देने का शुभ अवसर इस ईमारत को मिला। संयोग से ये पोल इतना बड़ा हो चुका था कि इसको खुलना ही था ,जिसमें मुख्यमंत्री पद तक की न सिर्फ गरिमा धूमिल हुई अपितु इसको बलि भी चढ़नी पड़ी।ये तो रही एक गलती काश,शुरू से ही निगाह रखी गयी होती तो परिदृश्य कुछ और होता।
दूसरी बड़ी गलती न्याय पालिका के आदेश से होने की उम्मीद है,चर्चा हो सकता हो अखबारी मात्र ही हो,खिलाडी लोग अपना कार्य यहाँ भी कर चुके हों,लेकिन इसे बुलडोजर चढवा कर गिरवा देने का आदेश कितना न्यायसंगत दिख रहा है यह निश्चय ही विचारणीय है। जब सभी जान गए कि इसमें गलत नाम से आबंटन हुआ है तो क्या सरकार के पास कारगिल के शहीदों कि लिस्ट गायब हो गयी है। और क्या आबंटन में नाम नहीं बदले जा सकते ,जब सब कुछ अपने हाथ कि चीज है तो इतनी बड़ी ईमारत को गिरवा के राष्ट्र का अरबों-खरबों रूपया बर्बाद कर देश को गरीबी के कब्र में क्यों खीचा जा रहा है । न्यायपालिका कि बात करे तो क्या भारत में विदेशी न्यायपालिका काम करती है। अतः निश्चय ही इस भवन को गिराने का निर्णय और बड़ी गलती होगी,और न खेलेंगे न ही खेलने देंगे कि मानसिकता वाले कटु स्वार्थी विचारवादियों को और बल मिलेगा जो राष्ट्र हित में कभी भी उचित नहीं होगा।

गुरुवार, 13 जनवरी 2011

बदलते परिवेश में यथार्थ से कन्नी काटता जीवन

वक्त की सबसे सकारात्मक परिभाषा बदलाव के रूप में दी जा सकती है। बदलाव यूं तो श्रृष्टि की सृजनता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है लेकिन कही-कहीं ये बदलाव जगह और व्यवस्था की पहचान को समाप्त करने के कगार पर पंहुचा देते हैं। इस बदलाव के बृहद चरण में अगर कोई मारा जा रहा है ,अगर किसी की अस्मिता और रोजमर्रा के परिवेश में मूल-चूल परिवर्तन होते हैं तो वो है गरीब,जिनकी गरीबी भी अब उनका साथ नहीं दे रही है। वर्तमान सरकारों की मिथ्या नीतियाँ इन्हें दाल-रोटी में पेट भरने के जुमले से भी दूर करते जा रही हैं।
स्कूल-कालेजों को मॉल में ताफ्दील कर उन शोपिंग कोम्लेक्सेस के दुकानों में कालेज और विश्वविद्यालय खोलने की व्यवस्था मजबूती से अपना जगह लेती जा रही है। ठेले-खोमचे की संस्कृति को भरी धक्का लगा है,जिसमे ठगा तो जा रहा है क्रेता चाहे वो किसी भी वर्ग का हो ,और चाँद पूजीपतियों की जेबें मोटी हो रही हैं। अब टमाटर भी अनिल अम्बानी के रिलाइंस ग्रुप में बेच जाने लगा है,। समाज में एक ऐसा तपका विकसित हो रहा जो वातानुकूलित व्यवस्था में रखे चमकदार टमाटर को ही टमाटर मानता है,इससे परेशां ठेले खोमचे वाले गरीब अब उनके मॉल में झाड़ू-पोछा करेंगे और रोटी का जुगाड़ करेंगे। इस व्यवस्था के विकास ने प्याज की रकम को कहाँ पंहुचा दिया वाकया सामने है।
अतः गरीबों का भारत तो मंजूर है लेकिन उनकी बदहाली का मॉल नहीं इस पर भी विचार होना चाहिए नहीं तो एक दिन ऐसा होगा जब सिर्फ विक्रेता होंगे क्रेता नहीं....

सोमवार, 10 जनवरी 2011

अपने अस्तित्व को भूलते आज के नेता

कल यानि १० जनवरी को कांग्रेसी नवसिखुआ राहुल गाँधी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अपने भाषण में बोले कि देश को गाड -फादर की संस्कृति से उबरना है। जरा राहुल जी बताये की वे किस संस्कृति की उपज हैं। गाड-फादर की संस्कृति के असली मुखिया परिवार के संतान के रूप में राष्ट्र को कपार पर ढोने का नाटक करने वाले किस मुंह से कह ऐसी बात निकाल रहे हैं। ऐसी बाते आपकी बचकानी दुकान को और बड़ा करती हैं राहुल बाबू,अतः ऐसा सस्ती लोकप्रियता के चक्कर में वो भी बनारस जैसे शहर में नहीं बोलते ........

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

आधुनिकता के अंधेपन में बचपन से खिलवाड़

आज निश्चय ही हर कोई तिख्हे दौड़ लगाने को तैयार है ,जिससे समय से पहले उसे मुकामी बोरा मिल जाय। इसमें कभी-कभी निरुद्देश्य गतिशीलता भी देखने को मिलती है। आज एक और होड़ लगी है की किसका बच्चा कितने पहले बचपन को पीछे छोड़ दे। जी हा समझ गए तो ठीक-ठीक नहीं तो स्पस्ट करना चाहूँगा की अभी कुछ दिन पहले गिनीज बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में नाम दर्ज कराई एक लड़की सुर्ख़ियों में थी ,कारण की वह बारह वर्ष की ही थी और उसे स्नातक में प्रवेश मिल गया था ,निश्चय ही वह पढने में अच्छी होगी या कहें असाधारण होगी। परिवार वाले बहुत खुश तो होंगे ही जाहिर सी बात है,पर उसके बचपन का क्या होगा क्या उस पर कोई विचार हुआ,एक चीज,दूसरी बात की एक तरफ सरकार दसवी पास तक के लिए भी उम्र सीमा निर्धारित कर रखी है फिर ये लड़की किस आधार पर इतने कम उम्र में ये सब कर ली,शायद ये सरकारी गलती है या फिर कोई विशेष सुविधा और नियम जिसके विषय में सामान्य जन अनभिग्य होते है। या तो ऐसे नियम को बंद किया जाय या फिर इसे सार्वजनिक किया जाय जिससे बहुत ऐसे लोग है जो पालने में ही अपने सपने को रूप देना चाहते हैं,उन्हें भी रास्ता मिल जायेगा।
दूसरी तरफ बाल श्रम अधिनियम को बचपन बचाने का असली बाना समझने वाले सरकारी लोग का ऐसी खबरे नहीं पढ़ते,क्या बारह साल के बच्ची को बीस साल के पाठ्यक्रम पढाना बालश्रम की विषयवस्तु नहीं है। एक बच्चे के बचपन के साथ तो दोनों ही स्थितियों में खिलवाड़ होते है,अंतर ये है एक का शोषण सडक पर चाय-पान की दुकानों और होटल,रेस्टोरेंट्स में होता है तो दुसरे का अपने बहुमंजिली ईमारत में अपने मां-बाप ,और शिक्षक के द्वारा होता है। अतः ,ऐसे ढोंगी विकास कोरोकने की निश्चय ही पहल होनी चाहिए क्योंकि बोनसाई आम के फल देखने के लिए ही हो सकते है ,खाने भर के लिए तो भरा-पूरा पेड़ ही फल उपलब्ध कर सकता है।