कहाँ गए सारे धन कुबेर जो कभी किसी दुर्घटना या मौत पर दुःख भरे दो बूँद घडियाली आँसू ही सही बहाने के बजाय हर मौत की कीमते तय करते फिरते हैं ,दो लफ्ज शांत्वाना के बोलने के बजाय मौत के मुआवजे बाँटते फिरते हैं । क्या अनगिनत मौतें उनके खजाने पर भारी पड़ने लगी हैं ,या प्रकृति को नाश कर मिथ्या विकास की अपनी विचित्र अवधारणा पर मंथन कर रहे हैं । एक और भी गिरोह है जो हर आपदा में सबसे पहले अपने हाथ सहयोग के रूप में प्रस्तुत करने का ढोंग रचता है और उसके मुखियों का शख्त आदेश होता है कि बिना वर्दी के दिखना नहीं है ,,,,,,,,,,सब के सब कहाँ हैं ?
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