सोमवार, 12 अप्रैल 2010

शिक्षा का अधिकार एक राजनैतिक छलावा

समान शिक्षा का अधिकार इस सरकार का सबसे अहम् प्रयास दिख रहा है.जिसकी उपयोगिता महज सरकार को लूटने लुटाने के अलावा और कुछ होती नहीं नजर आ रही है.निश्चय ही ग्रामीणांचल में तेजी से स्कूल खोले जा रहे हैं,शिक्षा मित्रों इत्यादि की सीधी भर्तियाँ भी की जा रही हैं,लेकिन क्या वाकई इससे शैक्षणिक विकास हो पायेगा तो कह पाना कठिन है.समान शिक्षा का महज़ इतना ही अर्थ नहीं है।
आखिर क्यों गिर रहा है सरकारी संस्थाओं का शिक्षा स्तर और व्यक्तिगत संस्थान फल फूल रहे हैं.कारन कि शिक्षा में आज भी भयंकर भेदभाव है,एक भी सरकारी प्राइमरी स्कूल का अध्यापक अपने बच्चे को उस स्कूल में दाखिला नहीं दिलाना चाहता जहाँ कि रोटी वो खा रहा है कारन कि वो वहां क्या पढाता है यह उसे पता है.तो क्या यही शिक्षा सुधार है और इसी के बल बूते हम शैक्षणिक भारत कि नीव रख रहे हैं.
सच तो यह है कि जब तक जिलाधिकारी और चपरासी के लड़के एक साथ एक स्कूल में नहीं पढेंगे तब तक ये संभव नहीं है.इससे दोनों ही चीजे सुधरेंगी .जब जिलाधिकारी का लड़का स्कूल में पढ़ रहा होगा तो अध्यापक कि क्या मजाल कि पढाये न और दूसरा कि परस्पर संस्कृतियों के मेल से ये लाभ संभव हो पायेगा कि बड़े बाप का बेटा भी जमीनी चीजों को जान सकेगा और छोटे घर वाले बड़े लोगों के बीच रहना.तन जब कृष्ण और सुदामा एक साथ पढेंगे तो वो समान शिक्षा का अधिकार होगा अन्यथा ये महज एक राजनैतिक छलावा और सरकारी दोहन के अलावा कुछ भी नहीं है.

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