जहाँ तक मैं जानता हूँ गुलाम भारत को एक अंग्रेज शख्सियत ए ओ ह्युम द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के रूप में एक मंच देने का प्रयास किया गया था। अगर इमानदारी से विचार किया जाये तो मिलेगा कि कितनी शुध्हात्मा से वह यह काम किया रहा होगा जब ज्यादातर अंग्रेज भारतीयों को देखना भी पसंद नहीं करते थे। उसके बाद बाल गंगाधर तिलक और मोतीलाल नेहरु के हाथो कांग्रेस थमी,एक दौर ख़त्म हुआ और इस दल से आम भारत को जोड़ने का प्रयास किया गया,महामना मालवीय फिर महात्मा गाँधी जैसे संत सरीखे आत्माओं ने इस संगठन कि कमान संभाली । लगभग देश आजाद हुआ ,आजादी में जानता के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता लेकिन अगर एक कडवे सच को बयां किया जाये तो गलत नहीं होगा कि द्वितीय विश्व युध्ह में ब्रिटेन कि पराजय कही अंग्रेजों को अधिक कमजोर करने का काम कि और आनन् फानन में देश कि चाभी गाँधी को पकड़ा के अंग्रेज रवाना हो लिए। मुस्लिम नेता के रूप में जिन्ना ,और धर्म निरपेक्ष के तौर पर गाँधी कि समाज में स्वीकारोक्ति थी। अपने अति निकट होने के कारन गाँधी ने आँख बंद निर्णय नेहरु को प्रधान मंत्री बनाने के लिए ले लिया। अब आजादी के बाद के दौर में संविधान कि जरुरत महसूस कि गयी,जब गाँधी ने ही संविधान सभा का अध्यक्ष गैर कांग्रेसी आंबेडकर को बना दिया ,यहाँ तक कि ये बात नेहरु को नहीं पची और वे गाँधी से पूछ बैठे कि बापू इसका अध्यक्ष कांग्रेस का कोई आदमी नहीं हो सकता तजा इस पर गाँधी नें नेहरु को डाटते हुए कहा कि संविधान देश का बन रहा है न कि कांग्रेस का .... ।
ये तो रहा आजादी के बाद का कांग्रेस जहाँ अदब था ,संस्कार था ,संस्कृति थी ,,,,,,,,,,,,,,आगे आइये राहुल के कांग्रेस में जहाँ काले झंडे देखने कि क्षमता नहीं है,दुसरे संगठन कि इज्जत नहीं है,,,राहुल को पुँनिये कांग्रेसी ये क्यों नहीं बताते कि कांग्रेस एक जानता का संगठन है परिवार कि बंधी जागीर नहीं,,या सब ठान लिए हैं ए ओ ह्युम कि आत्मा को बुलाने कि और फिर से गाँधी का आमरण कराने की.
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