काशी हिन्दू विश्व्विद्यालय को महज एक शिक्षण संस्थान नहीं अपितु एक चिंतन स्थल के रूप में देखा जाता है ,चिंतनशीलता एवं लोकतान्त्रिक तथा राजनैतिक भारत को सुसंगठित एवं मजबूत करने कि दृष्टि से ही यहाँ राधाकृष्णन से लेकर आचार्य नरेंद्रदेव ,जैसे लोग स्वयं महामना के उसूलों के नजदीक थे ,,कारण राष्ट्र निर्माण सबके केंद्रीय भूमिका में था । लेकिन आज का विश्व्विद्यालय लगता है लोकतान्त्रिक ढांचे को अपना दुश्मन मानता है ,चिंतनशीलता एवं समजवादिता का अपने को अंग नहीं समझता है ,,कितना हास्यास्पद है कि एक खुद में बड़ा समाज समाज से या समाजशीलता से ही मुह मोड़ने में अपनी तटस्थता का मिथ्या सबूत देने को आतुर है । कुछ दिन पहले अखबारो के माध्यम से जान पड़ा कि प्रो आनंद कुमार जो खुद एक जाने माने समाजशास्त्री हैं ,चिंतक हैं ,प्रोफेसर शब्द से तो विश्व्विद्यालय के नीतिको को खासा प्रेम है वो इस तमगे से भी जड़ित हैं उन्हें भाषण के लिए प्रवेश नहीं दिया गया ,,उन्हें आम आदमी पार्टी से बनारस लोकसभा लड़ने की सम्भावना के तहत । मैं नहीं जानता आनन्द कुमार जी यहाँ से चुनाव लड़ेंगे या नहीं पर यह जरूर जानता हूँ कि कितने लोग यहाँ से भाषण करने के बाद विभिन्न जगहों से चुनाव लड़े हैं या लड़ते हैं ,,,आजादी के संग्राम में भी यहाँ एक तरफ गांधीवादियों की तो दुसरे तरफ क्रांतिकारियों के ठिकानो और वैचारिक विभिन्नताओं के बाद भी एकता की अनेकानेक कहानियां मिलती हैं । फिर किस संविधान को आड़े आते देख किसी विद्वान ,किसी राजनेता को या किसी समाजशास्त्री को विश्व्विद्यालय प्रशासन बेईज्जत करता है । और फिर किस मुह से पुनः आमंत्रण देता है और खातिरदारी करता है जब वो कही सत्तासीन हो जाता है । क्या यहाँ लोकतान्त्रिक चर्चा ,,राजनैतिक चर्चा अपराध घोषित किया जा चूका है ।
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