हम कितने जाहिल हो गए,,,
भीड़ की कोई आत्मा नहीं होती न ही बुद्धि,सद्बुद्धि तो कहना भी पाप है। वो दो थे तुम हजार थे पकड़ के बाध लिया होता ,जांच परख लिया होता,इतना बहसीयत और मवेशिपन होने के बाद भी मनुष्य कहलाने का जज्ब भरते हो।
तहखाने की बहसें भी जाहिलियत भरी ही हैं ,जानें गयीं नृशंस ,राक्षसी ढंग से पीट पीट कर मारा गया,जिसको देख के खुद को मनुष्य कहने पर दम घुटता है। और बहस जो जानें गयीं उन पर नहीं मारने वाले पर कि भीड़ हिन्दू थी या मुसलमान थी।
थू घिन्न आती है,,,
भीड़ की कोई आत्मा नहीं होती न ही बुद्धि,सद्बुद्धि तो कहना भी पाप है। वो दो थे तुम हजार थे पकड़ के बाध लिया होता ,जांच परख लिया होता,इतना बहसीयत और मवेशिपन होने के बाद भी मनुष्य कहलाने का जज्ब भरते हो।
तहखाने की बहसें भी जाहिलियत भरी ही हैं ,जानें गयीं नृशंस ,राक्षसी ढंग से पीट पीट कर मारा गया,जिसको देख के खुद को मनुष्य कहने पर दम घुटता है। और बहस जो जानें गयीं उन पर नहीं मारने वाले पर कि भीड़ हिन्दू थी या मुसलमान थी।
थू घिन्न आती है,,,
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