सोमवार, 20 अप्रैल 2020

दादा मिला था गोरों से ,पोता मिल गया चोरों से।।
इस तरह की पंक्तियां भी देखी और सुनी जा रही।अगर सच भी है तो बेहूदा है।
भारतीय राजनीति में आज विचारधारा शायद तकिये के नीचे दब के स्वार्थ के गुदगुदे गलीचे से कहीं भी समझौता करने को आतुर है। थोड़ा कड़वा होगा लेकिन सच है कि जिसके पास न पद है न सत्ता है,उसी के पास विचारधारा है। विचारधारा खुद के टूटी झोपड़ी में सरपत की घिसी झाड़ू लगा, पता नहीं खुद को साफ कर रही या समाज को।
इसलिए ज्योतिरादित्य का एक दल से दूसरे दल में जाना ,कहीं कोई अनहोनी तरह की घटना नहीं है।
जेहन के सवाल तो दूसरे हैं। कौन हैं ज्योतिरादित्य अगर उनके नाम से राजपरिवार का सिंधिया हटा दिया जाए, तो क्या है अब तक के उनकी देश के नाम उपलब्धि। तो शायद राजसी खिलौनों के अलावा कुछ भी नहीं।
कहते हैं लोकतंत्र,सोचना ही है तो जरा सोचें,अभी ये रजवाड़े वही पा रहे और वही ढो रहे। एक लोकतंत्र नहीं जनाब साम्राज्य चाहते हैं।मध्यप्रदेश और राजस्थान तो ऐसे राजाओं से भरा पटा है।ऐसे में प्रणाम करता हूँ ,काशी राज को जिन्होंने तख्त छिन्नने के बाद मां भारती पर शासन और सत्ता की लोलुपता नहीं दिखाई।
       डॉ लोहिया का एक वाकया कही पढ़ा या सुना था कि सोनभद्र के किसी छोटे राजा के यहां वो आ रहे थे उसके अति बुलावे पर ,मिर्जापुर स्टेशन पर रुके,राजा की सवारी उनको लेने के लिए स्टेशन से बाहर इंतजार कर रही थी,और वे एक मोची के यहां अपना जूता सिलवाने में दोस्ती कर लिए ,और उसके घर भोजन करने का उससे न्योता भी ले लिये, फिर क्या था राजा के गण उनको खोजते हुए उन तक पहुच गए ,चलने को कहा,तो लोहिया जी ने कहा कि जाकर अपने राजा साहब को बता दो कि लोहिया उनसे बड़ा राजा खोज लिया है ,और आज वही जाएगा और वहीं खायेगा।
ललकार के कहा कि नेहरू से तो कहीं भी निपट लूंगा संसद काफी नहीं है,काम करना है तो जाओ ग्वालियर और बात बता दो कि लोकतंत्र है,,अब रानी नहीं मेहतरानी चलेगी।।
ये जनखों के विषय नहीं जनाब, स्वागत करिए जो जहाँ और जैसे है।
           देश की माटी बड़ी सशक्त है जी उठेगी न मुर्दा चलता है न नसेड़ी।।

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