सोमवार, 4 अप्रैल 2011

काश! ये जन सैलाब जन सवालों पर भी उमड़ता

अभी भारत वर्ल्ड कप जीतने खुमारियों से नहीं उबर पाया है ऐसी राष्ट्रीयता यहाँ विरले ही काभी दिखती है ,ऐसा लग रहा था मानों हर घर में ग्यारह किलो सोना आ गया हो। कई जगह पुलिस को लाठियां भी भाजनी पड़ी इस ख़ुशी के इज्हार्कर्ताओं पर। यहाँ तक की गैर क्रिकेट प्रेमियों के भी कान चौके-छक्के की आवाज और परिणाम कान में ठुस्वाने को मजबूर थे। सच भी यही है की यह खेल कहीं मुर्दों में दम भरता दिखा तो कहीं घाव पर मरहम।
लेकिन एक चीज मेरे उलटे खोपड़ी में हजम नहीं होती कि मिस्र और लीबिया में जब जनता सड़क पर उतर इतनी बड़ी सत्तात्मक बदलाव करने में सक्षम बन पायी तब भी इससे अधिक भीड़ वहां के सड़कों पर नहीं रहा होगा। तो भीद्जा सवालों पर क्यों नहीं सामने आती,ऐसा नहीं कि बदलाव नहीं हो रहजे है ,आये दिन विरोध हो रहे हैं परिवर्तन के विगुल फूकने वालों की कमी नहीं है लेकिन इसे सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक स्वार्थ के चश्में से कत्तई नहीं देखा जाना चाहिए। अन्ना हजारे जैसे बड़े सामाजिक कार्यकर्ता भी लोकपाल जैसे सव्लों पर जी-मर रहे है और उन्हें जनता का बड़ा समर्थन भी मिल रहा है और मैं ये भी नहीं कहता की सारे लोग अन्ना के वैचारिक छांव में सर छुपायें लेकिन एक बात तो तय है की काश! ये जन सैलाब जन सवालों पर भी उतरना शुरू कर देता तो भ्रष्ट तंत्रों के कुम्भ्करनी बाँहों को रातो-रात तोड़ ,हर दिन को विश्व कप जीतने जैसा खुशहाल बनाया जा सकता ...........

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