मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

आर टी आई भी संविधान के एक नियम मात्र के अलावा कुछ भी नहीं

सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ पारित हुआ तो मानो साफगोई की अमृत वर्षा होने वाली है ऐसे लोग फूले नहीं समां रहे थे,हर कोई सोच रहा था की किसके सर पर इसका सेहरा बाध उसे भागीरथ क़रार दे दिया जाये लेकिन यह भी महज एक नियम बनकर रह गया बल्कि यूं कहा जाय की सबसे कमजोर नियम तो शायद गलत नहीं होगा। वैसे भी देखा जाय तो हर वो नियम-अधिनियम जो प्रत्यक्ष रूप से जनता के हाथों में होता है उसकी परिणति यही होती है। लेकिन क्षोभ इस अधिनियम को अगर किसी ने निरीह बनाया है तो खुद इसका आयोग यानि सूचना आयोग। इनके अलावा जिस किसी सरकारी गैर सरकारी दफ्तर में इस अधिनियम के तहत सवाल दागे जाते है वहां से गलत ही सही लेकिन तो आते हैं लेकिन । आयोग के निकम्मेपन और निठल्ली हरकत इसको रशातल पंहुचा कर ही दम लेगी
शर्म आती है सुन कर जब आयोग के मुखिया अपने भाषण में ललकार के सरे महकमों को आदेश स्वरुप कहते है की आर टी आई के सवालों का जवाब निश्चित रूप से दिया जाय ,जब की जब उन्हें इसपर अक्षां लेने की नौबत आती है तो दरवाजा बंद कर सो जाते हैं। ये सिर्फ कहानी नहीं बल्कि अब तक मैं खुद सैकड़ो जवाब सैकड़ो कार्यालयों से प्राप्त किया हूँगा लेकिन एक मुद्दे पर आयोग को कई बार निवेदन के बाद भी मुझे राष्ट्रपति तक को इसके खिलाफ लिखना पड़ा लेकिन आयोग हरकत में नहीं आया। तो कहना है इस आयोग के दिल्ली में बैठे मसीहों से कि वे काम करना शुरू करे बाकि सब कर रहे हैं,और नौटंकी से बाज आये,अन्यथा उस आर टी आई के अन्दर आप भी आते हैं।

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

दीपावली.....

घुरहू की बिटिया घिघियाती,बोतल दूध से खाली है ,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
दरवाजे पर बूढ़े बाबा आसूं पीकर सोते हैं,
आँगन में बेटवा पतोह दारू पीकर के लोटे हैं।
पेंशन पाने वालों के आगे डायबिटीज की थाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दीवाली है।
पाँव परूँ मैं तेरी गरीबी ममता से खिलवाड़ न कर
नित लुभावन दिखावे में रिश्तों पर प्रहार न कर,
लोक लुटेरे होश में आओ दीया तेल से खाली है,
मेरा निकला दिवाला है उनके घर में दिवाली है।

दीपशिखा की ढेरों कान्तियाँ हर देशवासी के चरण चूमें ..हे माँ ....

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

मुकम्मल छात्र संघ बनाम तवायफ छात्र संघ

छात्र संघ को लोकतंत्र की नर्सरी के रूप में शुरू से परिभाषित किया जाता रहा है। इस सीढ़ी से देश को अगुवाई तक मिली है सरीखे कई लुभावनी बातें राजनेताओं या कतिपय बुध्ह्जीवियों द्वारा अक्सर सुनने को मिलती हैं। छात्र संघ की जब भी बात होती है तो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय अग्रणी भूमिका वाले इतिहास में होता है। फिर छात्रों के एक चुनावी मंच की चर्चा इस समय बीएचयू से जुड़े लोगों की जुबान पर सुलभ है। अतीत को बतियाते लोग नहीं अघा रहे हैं ,लेकिन जो वर्तमान में छात्र परिषद् नाम देकर चुनाव कराये जाने का डंका पीटा जा रहा है,ये निश्चय ही छात्र संघ के नाम पर एक मिथ्या मजाक और घटिया छलावा है। विश्वविद्यालय के करता-धर्ता चाहते है कि उनके काली करतूतों पर पर्दा पड़ा रहे और छात्रों को एक तावायफी मंच देकर भुलवाये रहा जाये जिससे साप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। जाहिर सी बात है ये मुकम्मल छात्र संघ नहीं हो सकता और जब तक मुकम्मल छात्र संघ के अलावा और किसी भी छलावे और प्रलोभन में छात्र फसते रहेंगें उन्हें उनका पूर्ण अधिकार नहीं मिल सकता।
छात्र परिषद् के इस चुनाव में एक महा सचिव और आठ सचिवों के चुने जाने की व्यवस्था का जिक्र है।उसमें पढ़ाकू छात्र ही चुनाव लडेगा इससे भी कोई गिला शिकवा नहीं है क्योंकि विश्वविद्यालय निश्चय ही पढने कि जगह है लेकिन इससे भी नाकारा नहीं जा सकता कि विश्वविद्यालय का छात्र अगर राजनीती और देश सेवा के लिए आगे आता था तो अपने कैरियर को बनाने के लिए नहीं बल्कि देश को बनाने के लिए ,वो बात दीगर है कि तरुनाई के अंगनाई में किये गए निःस्वार्थ संघर्ष ही उन्हें मुकाम दिलाते रहे और कालांतर में उसमें से बहुतेरे लूट और स्वार्थ के दलदल में फस गएँ। लेकिन इसका प्रतिशत काभी भी सौ नहीं हो सकता उसी में से विचारवान भी आये जो किसी दशा पर दिशा देने की समझ भी रखते हैं।
कहना गलत नहीं होगा की १९५६ से आज तक संसद और विधानसभाए छात्र संघ के लोगों से भरी रही हैं,आज भी देश के गृह मंत्री से लेकर तमाम बड़े राजनेता इस सीढ़ी से संसद तक ,पहुचे है ,लेकिन आज बीएचयू छात्र संघ चुनाव के नाम पर नौटंकी पर सबकी चुप्पी संदेहास्पद है। यह छात्र परिषद् छात्रसंघ का विकल्प नहीं हो सकता। चालीस साल पहले यहाँ कौन छात्र संघ का अध्यक्ष था वह कहा तक पंहुचा इसको बताने वाले बहुतेरे मिल जायेंगे लेकिन पिछले चार बार से छार परिषद् के मनोनीत छात्रों को कौन जानता है ,कारण ये उनकी कमी या गलती
नहीं है बल्कि उनको कोई न जाने या वो आगे न जा सके या देश और दुनिया की सक्रिय राजनीति में उनका किसी प्रकार का हस्तक्षेप और समझ न होसके इसीलिए विश्वविद्यालय के लोगों ने ये व्यवस्था बनाई।
अपना मुकम्मल छात्र संघ पाने से कम किसी भी कीमत पर छात्रों को समझौता नहीं करना चाहिए और उन्हें इस परिषद् के तवायफ छात्र संघ का बहिष्कार कर देना चाहिए। जिससे उनको उनका पूरा अधिकार मिल सके ,और ये नौटंकी बंद हो सके। छात्र परिषद् के लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सटीक न होने के वजह से लोकतंत्र को धोखा देने के जुर्म में विश्वविद्यालय के नीति-नियंताओं को कितना हूँ कोसा जाये कम है ।

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

एक सौ बयालीस साल के गाँधी

इस दो अक्टूबर को फिर गाँधी जयंती गाँधी के तथाकथित मानस पुत्रों द्वारा मनाया गया ,खूब हरे-राम के धुन बजाये गए,जो जितने पैसे वाला वो उतना देर तक बजाया ,जो जितने ताकतवाला वो उतने शोर से बजाया,और जो जितना बड़ा चोर था वो उतना दिल खोल कर बजाया। डर लग रहा था की कही कब्र से बाहर निकल कर गाँधी बाबा भी नाचने न लगें नहीं तो ये बड़े सामाजिक कारीगर पकड़ लिए जायेंगे,वैसे तो देश में इनके लिए न तो कोई जेल है न ही कोई कानून,लेकिन ये तर्क जो अच्छा दे लेते है की गाँधी भी तो कानून तोड़ते थे ,नमक कानून तोड़ डाला,अंग्रेजों के हर नियम का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया ,और हम उन्ही रास्तों पर चल रहे हैं ,तो बुरे क्यों,बात में तो जान है । जब ठेले पर हिमालय हो और चुल्लू में हो गंगा ,मुट्ठी में संविधान हो ,तो गाँधी क्यों न हो नंगा।
चलिए अब हम भी रंग जाये इसी रंग में और थोड़ी गाँधी के मन वाला नखरा कर के उन्हें सलाम कर दें...........
जय गाँधी ,जय भारत ।