सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ पारित हुआ तो मानो साफगोई की अमृत वर्षा होने वाली है ऐसे लोग फूले नहीं समां रहे थे,हर कोई सोच रहा था की किसके सर पर इसका सेहरा बाध उसे भागीरथ क़रार दे दिया जाये लेकिन यह भी महज एक नियम बनकर रह गया बल्कि यूं कहा जाय की सबसे कमजोर नियम तो शायद गलत नहीं होगा। वैसे भी देखा जाय तो हर वो नियम-अधिनियम जो प्रत्यक्ष रूप से जनता के हाथों में होता है उसकी परिणति यही होती है। लेकिन क्षोभ इस अधिनियम को अगर किसी ने निरीह बनाया है तो खुद इसका आयोग यानि सूचना आयोग। इनके अलावा जिस किसी सरकारी गैर सरकारी दफ्तर में इस अधिनियम के तहत सवाल दागे जाते है वहां से गलत ही सही लेकिन तो आते हैं लेकिन । आयोग के निकम्मेपन और निठल्ली हरकत इसको रशातल पंहुचा कर ही दम लेगी ।
शर्म आती है सुन कर जब आयोग के मुखिया अपने भाषण में ललकार के सरे महकमों को आदेश स्वरुप कहते है की आर टी आई के सवालों का जवाब निश्चित रूप से दिया जाय ,जब की जब उन्हें इसपर अक्षां लेने की नौबत आती है तो दरवाजा बंद कर सो जाते हैं। ये सिर्फ कहानी नहीं बल्कि अब तक मैं खुद सैकड़ो जवाब सैकड़ो कार्यालयों से प्राप्त किया हूँगा लेकिन एक मुद्दे पर आयोग को कई बार निवेदन के बाद भी मुझे राष्ट्रपति तक को इसके खिलाफ लिखना पड़ा लेकिन आयोग हरकत में नहीं आया। तो कहना है इस आयोग के दिल्ली में बैठे मसीहों से कि वे काम करना शुरू करे बाकि सब कर रहे हैं,और नौटंकी से बाज आये,अन्यथा उस आर टी आई के अन्दर आप भी आते हैं।
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