बुधवार, 23 नवंबर 2011

सिमटते बचपन - बिखरती नौजवानी

भारत गाँव में बसता है ये सभी कहते और जानते हैं लेकिन क्या गाँव में रहने से अभिप्राय यह लगाया जाय कि पिछड़ापन और भूखमरी ,तन्हाई और बेईज्जती इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। अभी कुछ विकसित कहे जाने वाले क्षेत्रों के ग्रामीण भारत की टकराहट कुछ समय पहले मुझसे हुई,जहा मुझे एक शादी में शरीक होना था। बारात विदा हुई उसके बाद एक दम सबेरे ही आस-पास के कुछ मलिन बस्तियों के बच्चे बूढ़े महिलाये हाथ में कटोरे लिए दरवाजे पर हाजिर। घर के मुखिया ने बड़े धिक्कारते हुए अंदाज में उन सबको कहा अभी आ गए तुम लोग दूर हटो,वो सब गिरगिराए डांट खाए जा रहे थे क्योकि उन्हें भोजन खाने की ललक थी। यह वाकया अपने बचपन यानि लगभग तीसो साल से देखता चला आ रहा हूँ,लेकिन अबकी बार काफी अंतराल के बाद पहुंचा था तो सोंचा कि निश्चय ही कुछ बदलाव देखने को मिलेंगे,या तो वो भिखारी सरीखे लोग नहीं होंगे या उन्हें डांट नहीं बल्कि प्रेम से खिलाया जायेगा,लेकिन यहाँ तो कुछ भी नहीं बदला ,सब अपने जगह पर वैसे ही डटे थे। मेरे जेहन में एक बात उभरी कि क्या यही नए भारत की तस्बीर है,यही मनरेगा का विकास है। तब तक पास बैठे मेरे एक मित्र ने कहा की क्या सोचने लगे , मैं समझ रहा हूँ कि आपको ये चीजे पच नहीं रही होंगी लेकिन इनके साथ ऐसा ही जरूरी है,आखिर इनको हम अपना रिश्तेदार तो नहीं बना सकते न। उनकी भी बात दमदार थी। अब मुझे महाश्वेता देवी की एक घटना याद आयी कि एक बार वो जंगलों में आदिवासियों के लिए काम करते हुए रात को रुकी ,जहाँ उनको सिर्फ भात खाने को पत्तल पर मिला ,बड़ा देर तक इंतजार के बाद वो पूछ पडी की इसे खाना किसके साथ है,अन्दर से जवाब आया कि इसे भूख से खाईये बहन जी,शायद आज भी इनके पास सिर्फ भात है भूख से खाने के लिए। जहाँ बचपन सिमटा है और नौजवानी बिखरी।

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