सोमवार, 2 जनवरी 2012

देखो कही कुछ सस्ता तो नहीं रह गया

आज सरकारी नीतियां आये दिन बदल रही हैं। कमजोर और गरीब किसी के पैमाने में नहीं है। अगर कोई गलती से छूट भी गया गरीबी की मर झेलने के लिए तो,उसकी समझ बदल जाती है वो भी कही न कही से लूट खसोट का अंग बनने को आतुर है। सरकारे अब चश्में नहीं लेंस लगाकर जनता को देख रही हैं;एलानियाँ आवाज दे रही है की कही कुछ सस्ता तो नहीं रह गया ,कही अब भी कुछ गरीबों के पहुच में तो नहीं,कही किसी गरीब का बच्चा स्कूलों में दाखिला तो नहीं पा गया,कुछ ऐसी ही अल्लाप लगायी जा रही है हमारे देश के भाग्य विधाताओं द्वारा। तो गरीब अगर अपनी सोंच बदलने को मजबूर हो गया तो कौन सा पाप हो गया।
एक बड़े पुराने साथी दो दिन पहले मिले कहे यार 'ये बार बतावा केकर करी,विधानसभा चुनाव में,तोहरे साथे त रहले घटा हाउ ,अब न रहब ,न खईब्या न खाए देब्या"। बरबस मेरी बदतमीज जुबान बोल पडी कितने वोट हैं आपके पास ,वो बोले पूरे दो हजार जेब में है,अब क्या था बहस सुरु । अभी भी वो या तो खुद को धोखे में रखने के आदी हैं या झूठ में जीने की आदत। कैर अभी भी हिम्मत जुटाए अगर कोई सामाजिक आदमी की उसके कहने पर कोई वोट कर देगा तो उसकी पीठ थपथपानी होगी।
अच्छा लगा मिथ्या विश्वास ही सही की कम से कम ,किसीका विश्वास तो अभी सस्ता है ही...........

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