बुधवार, 23 मई 2012
अगर यही प्रेम है तो तोबा इस प्रेम से
प्रेम उवाच सुनकर थका मन एक दिन प्रेम के विषय में सोचा तो घृणा सी हो गयी,,सड़क पर एक माँ अपने बच्चे को एक बड़े पुरवे मलाई खिला रही थी उसके प्रेम को देख उसे भिखारन खाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा हु ,और ये भी कहने में कोई संकोच नहीं की मेरे माँ-बाप ने उतनी मलाई मुझे कभी नहीं खिलाई ,माँ के प्रेम को प्रणाम कह चला आया,रस्ते में एक महिला मुझे लगता है अपने पति से झगड़ रही थी शायद वो अपनी मान को कुछ पैसे देने जा रहा था,महिला की डाट उसकी घिघी बढे थी और वाह वापस रुक जाता है,,मुझे लगा अब रुकना गौतम बुध्ह बनना है,,,
सरकार ,नदियाँ और नदियो के उद्धार हेतु चल रहे आंदोलनों पर एक नजर
नदी ,नारे ,कुण्ड,जलाशय ,जीवन के अंग हैं, इनके बिना जीवन की संभावना को एक दम से नाकारा जा सकता है। आज देश में नदियों की हालत बेहद चिंताजनक है,इस बावत देश में कई छोटे बड़े आन्दोलन भी चलाये जा रहे हैं। बनारस का कार्यकारी बाशिंदा होने के नाते अब बनारस पर आते हैं। इस शहर को गलियों का शहर कहा जाता है,मठ मंदिरों का शहर कहा जाता है,देव देवालयों का शहर कहा जाता है,मस्त मस्तानों का शहर कहा जाता है । इसकी पहचान में चार चाँद लगाने का काम करती थी मान गंगा ,माना जाता है की यह शहर दिगंबर शिव के त्रिशूल पर टिका है। एक सबेरे से गंगा किनारे गमछा लपेटे,गुल घिसते गंगा स्नान करने वालो का ताँता लगा रहता था अभी भी कमो बेश है ।
इस शहर को वाराणसी नाम देने में जिन दो नदिओं ने अपने नाम की आहुति दी है वो हैं:वरुणा और असी ,,आज पुरे बनारस शहर में नदियों के नाम पर आन्दोलन चलाये जा रहे हैं,कोई गंगा की लड़ाई लड़ रहा है तो कोई असी की तो कोई वरुणा के नाम धरना रत हो चला है। गंगा आन्दोलन लगभग देशव्यापी आन्दोलन बन चला है,नेता दलीय सीमाओं से परे गंगा के नाम पर आगे आ संतों की मुहीम को सहारा देने का काम कर रहे हैं,शिक्षक से लेकर वकील से लेकर समाज का हर एक तबका इस अभियान से जुड़ता नजर आ रहा है।
इस आन्दोलन गंगा अभियान के लोगो द्वारा गंगा की अविरलता की मांग की जा रही है। अविरलता जहाँ तक मेरी समझ है कोई स्पष्ट विषय नहीं है,अब सवाल उठता है की गंगा अविरल हो कैसे। टेहरी में बाँध बना है क्योकि हमें बिजली चाहिए ,क्या हम बिजली से इंकार कर सकते हैं तो शायद नहीं। अब समझिये की जब जब सुविधाओं को केंद्रीयकृत करने की बात होती है तो ऐसी समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। तथ्य बताते है,बनारस के पुरनिये कह कर थक जाते हैं की बनारस में बनारस के काम भर की बिजली का उत्पादन खुद कमच्छा के पावर प्लांट पर कर लिया जाता था ,जरुरत पड़ने पर आस पास के छोटे शहरो के लिए भी बिजली की व्यवस्था कुछ समय के लिए बनारस कर देता था ,बी एच यूं अपने काम भर के बिजली का उत्पादन खुद करता था ,अब जब केन्द्रीय नीति बनेगी तो बड़े पैमाने पर चीजो को करने के लिए बाँध की आवश्यकता होगी ही। मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जब पं मदन मोहन मालवीय सरीखे व्यक्तित्व ने उस समय इस व्यवस्था का विरोध किया था तब भी ऐसा किया ही क्यों गया। अब रास्ता है बिजली या पानी। हम लाख उछल कूद मचा ले।
दूसरा गंगा उत्तर भारत की अधिकांशतः नदियों को बंगाल की खाड़ी तक ले जा उनको मुक्ति दिलाती है,मुझे लगता है गलत नहीं होगा यदि हम कहे कि हिन्दू विधान में अंतिम समय में गंगाजल मुह में डालने कि व्यवस्था के पीछे भी तार्किक दर्शन यही रहा है कि जैसे गंगा सारी नदिओं को मुक्ति दिला देती है उसी तरह से उस व्यक्ति को भी पार लगा देगी। यानि गंगा का अस्तित्व छोटी नदियों से भी है अगर ये नदिया लुप्त होती है तो गंगा लुप्त होकर रहेगी,इसको समझना पड़ेगा। इसलिए मेरी समझ से गंगा आन्दोलन के लोगो को असी और वरुणा सरीखे छोटी नदियों कि लड़ाई लड़ने वालों का साथ उन्हें खोजकर देना चाहिए,अगर वे सही मायने में गंगा के प्रति संवेदनशील हैं तो।
नदिओं के खनन कि व्यवस्था कि मांग होनी चाहिए ,तथा पता नहीं क्या हो गया हैइन विद्वानों, को सिर्फ राग अलाप रहे हैं,किसी को सुला रहे हैं किसी को जगा रहे हैं,हम ने खुद सरकार से कछुआ सेंचुरी के नाम पर रोकी गयी बालू खनन प्रक्रिया पर विरोध जताया है तथा सरकार से तत्काल रोक हटाने कि मांग कि हैं। स्थिति ये है कि गंगा शहर तोड़ने कि स्थिति में है घाट तोड़ रही है,बरसात में उससे बचाना मुश्किल हो जायेगा अगर बालू का खनन नहीं किया गया तो।
यह कड़वा सत्य है कि अब तक सरकार ने गंगा के नाम पर अब तक जितना राशि दिया है अगर उसका ईमानदारी से खर्च गंगा पर हुआ होता तो गंगा के हालत कि बात छोड़े नयी गंगा गोमुख से बंगाल तक खोद दी जाती अगर आस्था कि बात न हो तो। अब समझना यह है कि क्या गंगा के सवाल पर राशियाँ किसी और को न मिलकर हमें मिलने लगे अगर सिर्फ इसकी लड़ाई बनकर यह अभियान यह रह जाय तो दुःख होगा ,,अन्यथा आप सभी साथ दे आगे आये छोटी नदियों को बचाएं ,कछुआ सेंचुरी का विरोध करें,नदी खनन कि बात करे जिससे गंगा बचे और हमारी भाषा समझने में सरकार को आसानी हो सके ।
इस शहर को वाराणसी नाम देने में जिन दो नदिओं ने अपने नाम की आहुति दी है वो हैं:वरुणा और असी ,,आज पुरे बनारस शहर में नदियों के नाम पर आन्दोलन चलाये जा रहे हैं,कोई गंगा की लड़ाई लड़ रहा है तो कोई असी की तो कोई वरुणा के नाम धरना रत हो चला है। गंगा आन्दोलन लगभग देशव्यापी आन्दोलन बन चला है,नेता दलीय सीमाओं से परे गंगा के नाम पर आगे आ संतों की मुहीम को सहारा देने का काम कर रहे हैं,शिक्षक से लेकर वकील से लेकर समाज का हर एक तबका इस अभियान से जुड़ता नजर आ रहा है।
इस आन्दोलन गंगा अभियान के लोगो द्वारा गंगा की अविरलता की मांग की जा रही है। अविरलता जहाँ तक मेरी समझ है कोई स्पष्ट विषय नहीं है,अब सवाल उठता है की गंगा अविरल हो कैसे। टेहरी में बाँध बना है क्योकि हमें बिजली चाहिए ,क्या हम बिजली से इंकार कर सकते हैं तो शायद नहीं। अब समझिये की जब जब सुविधाओं को केंद्रीयकृत करने की बात होती है तो ऐसी समस्याओं का सामना करना ही पड़ता है। तथ्य बताते है,बनारस के पुरनिये कह कर थक जाते हैं की बनारस में बनारस के काम भर की बिजली का उत्पादन खुद कमच्छा के पावर प्लांट पर कर लिया जाता था ,जरुरत पड़ने पर आस पास के छोटे शहरो के लिए भी बिजली की व्यवस्था कुछ समय के लिए बनारस कर देता था ,बी एच यूं अपने काम भर के बिजली का उत्पादन खुद करता था ,अब जब केन्द्रीय नीति बनेगी तो बड़े पैमाने पर चीजो को करने के लिए बाँध की आवश्यकता होगी ही। मुझे एक बात समझ में नहीं आती की जब पं मदन मोहन मालवीय सरीखे व्यक्तित्व ने उस समय इस व्यवस्था का विरोध किया था तब भी ऐसा किया ही क्यों गया। अब रास्ता है बिजली या पानी। हम लाख उछल कूद मचा ले।
दूसरा गंगा उत्तर भारत की अधिकांशतः नदियों को बंगाल की खाड़ी तक ले जा उनको मुक्ति दिलाती है,मुझे लगता है गलत नहीं होगा यदि हम कहे कि हिन्दू विधान में अंतिम समय में गंगाजल मुह में डालने कि व्यवस्था के पीछे भी तार्किक दर्शन यही रहा है कि जैसे गंगा सारी नदिओं को मुक्ति दिला देती है उसी तरह से उस व्यक्ति को भी पार लगा देगी। यानि गंगा का अस्तित्व छोटी नदियों से भी है अगर ये नदिया लुप्त होती है तो गंगा लुप्त होकर रहेगी,इसको समझना पड़ेगा। इसलिए मेरी समझ से गंगा आन्दोलन के लोगो को असी और वरुणा सरीखे छोटी नदियों कि लड़ाई लड़ने वालों का साथ उन्हें खोजकर देना चाहिए,अगर वे सही मायने में गंगा के प्रति संवेदनशील हैं तो।
नदिओं के खनन कि व्यवस्था कि मांग होनी चाहिए ,तथा पता नहीं क्या हो गया हैइन विद्वानों, को सिर्फ राग अलाप रहे हैं,किसी को सुला रहे हैं किसी को जगा रहे हैं,हम ने खुद सरकार से कछुआ सेंचुरी के नाम पर रोकी गयी बालू खनन प्रक्रिया पर विरोध जताया है तथा सरकार से तत्काल रोक हटाने कि मांग कि हैं। स्थिति ये है कि गंगा शहर तोड़ने कि स्थिति में है घाट तोड़ रही है,बरसात में उससे बचाना मुश्किल हो जायेगा अगर बालू का खनन नहीं किया गया तो।
यह कड़वा सत्य है कि अब तक सरकार ने गंगा के नाम पर अब तक जितना राशि दिया है अगर उसका ईमानदारी से खर्च गंगा पर हुआ होता तो गंगा के हालत कि बात छोड़े नयी गंगा गोमुख से बंगाल तक खोद दी जाती अगर आस्था कि बात न हो तो। अब समझना यह है कि क्या गंगा के सवाल पर राशियाँ किसी और को न मिलकर हमें मिलने लगे अगर सिर्फ इसकी लड़ाई बनकर यह अभियान यह रह जाय तो दुःख होगा ,,अन्यथा आप सभी साथ दे आगे आये छोटी नदियों को बचाएं ,कछुआ सेंचुरी का विरोध करें,नदी खनन कि बात करे जिससे गंगा बचे और हमारी भाषा समझने में सरकार को आसानी हो सके ।
रविवार, 20 मई 2012
जनसँख्या बढ़ने वाले तकनीकी विकास का परिणाम
आज निश्चय ही देश में मेडिकल साइंस ने अपना दायरा बढाया है,इससे मृत्यु दर कम हुई है,या यदि बिना आकड़ो के बात की जाय तो कम होनी चाहिए ,लेकिन दूसरी तरफ जनसँख्या की बेबाकी पर पुनः कोई रोक लगाने के लिए गंभीर नहीं दिख रहा है,जो की नसरी समस्याओं के जड़ में हैं। अब तक तो रोग से इलाज कर मरती जाने बचायी जाती थी जिसका प्रतिफल जैसा भी हो जो भी हो लेकिन बुरा कहने में हर आदमी संकोच करेगा। लेकिन आज सेरोगेसी ,टेस्ट ट्यूब बेबी ,स्पर्म सेलिंग ,जैसे प्रकृति के विपरीत विकास जनसँख्या को कहा पहुचाएंगे इश्वर जाने। इन कृत्रिमता से उत्पन्न संतानों से अभी तक तो मेरी भेट नहीं है,अगर काभी ऐसा पता चले तो वो अध्ययन के विषय होंगे।
पहले परिवार में चार भाई हो तो एक दो की शादी यु ही नहीं होती थी जो जाने अनजाने में जनसँख्या नियंत्रण का कार्य करती थी,लेकी अब सबकी शादी होगी और तो और अगर बच्चे पैदा नहीं होते तो प्रकृति को भी ललकारने की साडी विधा हम जूता लिए है,,,,इश्वर देश को सदबुधही दे ,आज बड़े शहरो में सेरोगेसी इत्यादि सुन रहा हु की कमाने का जरिया बनता जा रहा है,ऐसी आधुनिकता और ऐसे विकास को शत शत नमन।
पहले परिवार में चार भाई हो तो एक दो की शादी यु ही नहीं होती थी जो जाने अनजाने में जनसँख्या नियंत्रण का कार्य करती थी,लेकी अब सबकी शादी होगी और तो और अगर बच्चे पैदा नहीं होते तो प्रकृति को भी ललकारने की साडी विधा हम जूता लिए है,,,,इश्वर देश को सदबुधही दे ,आज बड़े शहरो में सेरोगेसी इत्यादि सुन रहा हु की कमाने का जरिया बनता जा रहा है,ऐसी आधुनिकता और ऐसे विकास को शत शत नमन।
मंगलवार, 8 मई 2012
चाय नहीं मट्ठा हो राष्ट्रीय पेय
भारत सरकार के योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया ने कहा कि शीघ्र ही चाय को राष्ट्रीय पेय घोषित किया जायेगा। मेरे समझ में नहीं आता कि क्या किसी को राष्ट्रीय पहचान दे देना अकेले सरकार का विषय है। निश्चय ही चाय की लोकप्रियता सेनाकारा नहीं जा सकता लेकिन सिर्फ लोकप्रियता के आधार पर अगर बनाने की शुरुआत हम करेंगे तो शराब की लोकप्रियता इस कदर पिछले कुछ वर्षो से बढ़ी है की प्रदेश सरकार के पूर्व में रहे एक आबकारी मंत्री ने अपने बयां में साफ कहा की बीयर गंगा जल से पवित्र और दूध से अधिक ताकतवर है,उनके बयां को ध्यान में रखते हुए माननीय अहलुवालिया साहब को बीयर और शराब को ही राष्ट्रीय पेय घोषित कर देना चाहिए।
मट्ठा हमारे देश की विरासत है,अगर हम उसकी उपयोगिता पर बात करे तो छे भूख मारने का कम करती है सेहत कही से उससे बेहतर नहीं हो सकता,उसकी चुस्की भर ही ली जा सकती है जबकि मट्ठा गाँव का किसान अपने लिए बोरन के रूप में प्रयोग करता था,रोटी से खाता था ,भात से खाता था,भर पेट उसे पी सकता था ,कोई सुगर और रक्तचाप नहीं बढ़ता,,,,,फिर भी मट्ठा नहीं होगा राष्ट्रीय पेय चाय होगा ,,,,ये बात भी सच है की जो चीजे अब तक राष्ट्रीय हुई है उनका बंटाधार ही हुआ है लेकिन मट्ठा किसी के बंटाधार करने के वश की बात नहीं है कारण टूटते गाँव ने शहरी बनने के चक्कर में पहले ही मट्ठे को बिसरा दिया है,लेकिन शहर उसको अपनाया ,और गाँव गाव ही है चाह कर भी अपने को मट्ठे से अलग नहीं कर पायेगा ,,और मेरे एक बड़े भाई और समाजवादी नेता अफलातून जी के शब्दों में मट्ठा सरकार के बिगडैल तंत्रों के जड़ में डालने में भी मट्ठे की मजबूत उपयोगिता है,,,,,,,,,,,,,अतः मट्ठा ही राष्ट्रीय पेय हो इसके लिए सबको आवाज उठाने की जरूरत है,इसे राजनीती से प्रेरित न मानकर बल्कि मट्ठा महज एक पेय नहीं एक संस्कृति है एक सभ्यता है एक जीवन पध्हती है इस लिए ,,,,,,,,,,,,,,
मट्ठा हमारे देश की विरासत है,अगर हम उसकी उपयोगिता पर बात करे तो छे भूख मारने का कम करती है सेहत कही से उससे बेहतर नहीं हो सकता,उसकी चुस्की भर ही ली जा सकती है जबकि मट्ठा गाँव का किसान अपने लिए बोरन के रूप में प्रयोग करता था,रोटी से खाता था ,भात से खाता था,भर पेट उसे पी सकता था ,कोई सुगर और रक्तचाप नहीं बढ़ता,,,,,फिर भी मट्ठा नहीं होगा राष्ट्रीय पेय चाय होगा ,,,,ये बात भी सच है की जो चीजे अब तक राष्ट्रीय हुई है उनका बंटाधार ही हुआ है लेकिन मट्ठा किसी के बंटाधार करने के वश की बात नहीं है कारण टूटते गाँव ने शहरी बनने के चक्कर में पहले ही मट्ठे को बिसरा दिया है,लेकिन शहर उसको अपनाया ,और गाँव गाव ही है चाह कर भी अपने को मट्ठे से अलग नहीं कर पायेगा ,,और मेरे एक बड़े भाई और समाजवादी नेता अफलातून जी के शब्दों में मट्ठा सरकार के बिगडैल तंत्रों के जड़ में डालने में भी मट्ठे की मजबूत उपयोगिता है,,,,,,,,,,,,,अतः मट्ठा ही राष्ट्रीय पेय हो इसके लिए सबको आवाज उठाने की जरूरत है,इसे राजनीती से प्रेरित न मानकर बल्कि मट्ठा महज एक पेय नहीं एक संस्कृति है एक सभ्यता है एक जीवन पध्हती है इस लिए ,,,,,,,,,,,,,,
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