सोमवार, 14 मार्च 2011

महगाई के अरदब में फीके पड़ते त्यौहार और बिखरते रिश्ते

महगाई का असर बाजार पर तो दिखता है यह अर्थशास्त्र की भाषा है लेकिन लोगों के विचार और मानसिकता पर भी पड़ता है इसको देखा जा सकता है त्योहारों को आते ही। हमारे एक मित्र संयुक्त परिवार के स्वामी हैं ,एक दिन बात-बात में कहने लगे की अरे यार ये त्यौहार भी न पता न कहाँ से आ जाते हैं,शांति चल रही थी परिवार में लम्बे समय से ,अब निश्चय ही कोई न कोई विवाद होगा। मेरा बोलता स्वभाव तुरंत उछल पड़ा अरे भाई त्यौहार अब कैसे आपके सुख चैन में विघ्न डालने लगे। निः संकोच जो बात भी साब बता रहे थे ,वो विचारणीय सी दिखने लगी। कहे भाई साब पहले हजार दो हजार लेके जाता था पूरे परिवार के लिए तीज-त्योहारों पर कपडा खरीद लाता था । अब बच्चे भी बड़े हो गए उनकी भी अपनी पसंद होगई समस्याए २०११ की और समाधान १९७० के ही हैं ,ऊपर से भाईयों के लड़के हैं ,दरवाजे पर माताजी-पिताजी भी है,कोई एक छूट गया तो बवाल और सबको खरीद दिया तो बवाल। मैंने कहा यार ये कैसे । अब क्या था शुरू हुई उनकी कार्ल मार्क्स की थेओरी कहे पत्नी नहीं चाहती कि पुरे परिवार को मैं ही कपडा खरीदू,और भाई के बच्चों के दिमाग में होता है कि ताऊ जी तो कपडा लायेंगे ही,बच्चों का चेहरा देख तरस आती है ,उधर पत्नी के कलह से आत्मा काप जाते है। मैं तपाक से बोला कि अरे भाई तो आपके भाई भी तो साब कम रहे हैं और वो सब भी आप बताते हैं कि आपको ही अपनी कमाई देते है तो उनके बच्चों को कपडे खरीद कर आप कौन सा एहसान कर रहे है ये बात भाभीजी को समझाते नहीं। बोले अरे यार वो कहती है कि अगर वो लोग अपनी कमाई दे रहे है तो कोई बड़ा काम थोड़े ही कर रहे है,आपने भी तो उनको पढाया-लिखाया सारा खर्च उठाया,अब कौन समझाए ,मैं सारी दुनिया को तो समझा सकता हूँ पर अपनी महारानी को देखते ही पसीना छूटने लगता है।
भाईसाब लगभग रो रहे थे कहने लगे जान रहे हैं चतु ................जी महगाई अब रिश्तों में खटास लाने लगी है,पहले तीन भाई कमाते थे तो एक निकम्मे भाई को और उसके परिवार को कमाने वाले के बराबर का ही सुख और सम्मान मिल जाता था,और हर एक घर में निकम्मे थे लेकिन आज सब कोई कमा रहा है फिर भी महगाई डायन वाला गाना सुने है न खा वही डायन रही है भोजन में रिश्ते नाते और चंद खुशियाँ सब । फिर अपना मनहूस शक्ल ले हम दोनों चाय एक -एक और लड़ाते हैं और बेहया कि तरह मुश्काराते हुए निकल आते है लेकिन उनकी बात मेरी उस दिन कि नीद ख़राब कर दी।
तो बहुत हुआ रोना धोना थोडा हस भी लिया जाय जो मुश्किलों में भी हसे वही असली जाबाज होता है। तो आने वाली होली में मत हो रंग ,न हो कपडे ,बिना गोझिया और पापड़ के ही सही वायदा करो हसकर होली मनाने की,इन्ही शब्दों के साथ ढेरों शुभ कामनाओं सहित समाप्ति की अनुमति चाहता हूँ। प्यार से बोले तो सर ...............र ................र ......होली है।

2 टिप्‍पणियां: