गुरुवार, 3 मार्च 2011
अब नहीं बनते बजट सामान्य जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर
अब नहीं बनते बजट सामान्य जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर ऐसा ही प्रतीत होता है इस नए बजट को देख कर । एक दिन बनारस के गोदोलिया नामक स्थान पर एक भिखारन जो अपने बच्चे को भर पुरवे में मलाई खिला रही थी,उस की ख़ुशी का मानो ठिकाना नहीं था। मलाई से भरे पुरवे को देख कर कोई भी कह सकता था की निश्चय ही इतनी मलाई भीख में दुकानदार नहीं दे सकता। संयोग इतना ही था की लबे सड़क मलाई की दुकान के सामने ही बैठ कर वो अपने बच्चे को मलाई खिला रही थी। संयोग कि ठीक उसी दिन वित्त मंत्री महोदय अपना बजट पेश किये थे। सहसा मुझे एक झटका लगा और मैं सोचने लगा कि क्या आज के इस बजट में इस भिखारन कि जैसी लाचार जिन्दगी काट रही कितनी बेबसों के लिए क्या कोई जगह थी तो शायद नहीं,सरकार का पूरा -पूरा प्रयास यही कि मां के प्रेम पर भी टैक्स लगा दिया जाय लेकिन धन्य हो भगवन कि प्रेम के लिए किसी महगाई और टैक्स से नहीं गुजरना पड़ता अन्यथा ये मां जो पैसे से नहीं,माली हालात से नहीं बल्कि प्रेम से अपने बच्चे को मलाई खिला रही थी वो भी उसे मयस्सर नहीं हो पता। इस कांग्रेसी चश्में से हर गरीब को लख तकिये निगाह से देखने वाले वातानूकूलित गद्देदार कुर्सियों पर बैठे लोगों से इससे बेहतर कि उम्मीद करना पाप है।
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