सोमवार, 28 मार्च 2011
जातिगत राह पर साहित्य को धकेलने का मिथ्या प्रयास
हमारा देश भारत ही नहीं अपितु पूरा विश्व जाति-धर्म के विवादों में उलझता जा रहा है । ये सिर्फ किताबी बातें बनकर ही रह गयी हैं की मानव धर्म से बड़ा कोई धर्म नहीं होता। लेकिन साहित्य अभी तक इन जातिगत मूल्यों से नही आंके और देखे जाते थे। लेकिन अब इस पर भी जाती का ग्रहण छा जाने का अंदेशा है। दलित साहित्य और दलित साहित्यकारों की एक सभा धर्म और संस्कृति की नगरी काशी में हुई जिसमे दलित साहित्यकारों को बढ़ावा देने की बात कही गयी। अभी तक साहित्य को जाती-धर्म से दूर देखा जाता था। कभी कोई रविदास का इस लिए सम्मान नहीं करता की ओ दलित थे या तुलसीदास इसलिए नहीं पढ़े जाते की वो गोसाईं थे ,मालिक मोहम्मद जायसी को पढने वालों की ज्यादातर संख्या गैर मुस्लिम है। फिर ऐसे समज्तोद प्रयासों को हवा देने से बड़ा कोई राष्ट्रद्रोह नहीं है। बुध्ह्जीवी किसी समय किसी जाति-पति और समाज में बिना स्कूली शिक्षा हाशिल किये हो सकता है । इसको जाति में बाँध कर राजनैतिक कलेवर में पिरोना महापाप है।
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