अगर हम देश के अतीत की राजनीति पर एक पैनी निगाह डालें तो पाएंगे की आचरण के मामले में कम से कम हमारे राजनेताओं का आचरण तो सराहनीय रहा ही है.लेकिन आज देश की राजनीति इस स्तर तक पहुँच चुकी है किअगर कोई राजनेता कितना भी अच्छा कार्य क्यों का करे उसे विरोधियों का भला बुरा सुनना ही है।
चाहे लोहिया रहें हों या नेहरु लाख विरोध के बावजूद ,आचरण कि प्रतिबधता इतनी थी कि दोनों एक दुसरे का सम्मान करते थे.अटल विहारी बाजपेयी आजीवन कांग्रेस के विरोध कि राजनीति किये लेकिन अच्छाई को सराहने के लिए उन्होंने भी इंदिरा गाँधी को दुर्गा का अवतार कहा।
लेकिन आज देश की राजनीति बड़े वैचारिक संक्रमण से गुजर रही है.आचरण तो पंद्रह साल पहले से ही ख़त्म हो गया था ,संसद,और विधान सभाओं तक में जूते -चप्पल की घटनाएँ आम होगयीं थी पर इससे पेट नहीं भरा तो इन लोगों को चरित्र तक को भी दाव पर लगाना पड़ा ,.तो मिलाजुला के इस संक्रमण का क्या उपाय है.एक तरफ तो आप एक आतंकवादी को फांसी पर चढ़ा के देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने का नाटक कर रहे हैं और दूसरी ओर ये देशी आतंकवादी क्या कसाब से कम खतरनाक हैं जो आस्तीन के सांप की तरह हमारा ही दूध हमको डसने के लिए पीते रहते हैं.हम कसाब को बचाने की वकालत कत्तई नहीं कर रहे हैं लेकिन क्या कसाब को लटका देने मात्र से ये समस्या ख़त्म हो जाएगी,तो मुझे लगता है कत्तई नहीं.इसमे क्या अकेले कसाब की ही गलती है अगर हम अपनी सुरक्षा कर पाने में अपने को अक्षम पा रहे हैं तो क्या हमारे अधिकारी कटघरे के पात्र नहीं है.आखिर जल ,थल और वायु सेनाओं पर राष्ट्र का पैसा बर्बाद करना यानिआतंकवाद को बढ़ावा देना है।
अतः देशी कसाबों की भी तलाशी जरूरी है ये अगर छुट्टे सांड की तरह घुमते रहे तो बड़ा खतरा है बाकी बाहरी कसाब से तो हम देर सबेर निपट ही लेंगे.
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