भारत एक कृषि प्रधान देश है ,जहाँ की सत्तर प्रतिशत जनसँख्या आज भी गावों में निवास करती है .अतः अगर ये कहा जाय कि जब तक गावों का विकास नहीं होगा देश के विकास कि कल्पना भी अधूरी रहेगी.शायद यही कारन रहा कि देश के जितने भी बड़े विचारक रहे ,समाज सुधारक रहे उन्होंने अपनी कार्यस्थली गावों को ही बनाया और जिस-जिस ने गावों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया उनको निरंतर प्रसिध्ही मिली. आज देश में कार्यालयी राज्नीति घर बनाती जा रही है जहाँ नेताओं को समाज कि नीव गाँव से कुछ लेना है तो बस वोट।
आज देश राजनीतिक शून्यता के दौर से गुजर रहा है.जहाँ सिर्फ स्वार्थ का बोलबाला है.महगाई एक बड़ा मुद्दा है ,बड़ी समस्या है जहाँ राजनैतिक भठियों में सर वोट कि मोटी रोटियां सेकी जाती है।
अगर बिना किसी भुलावे के महगाई के प्रबल कारणों का जिक्र किया जाय तो बढ़ती महगाई में सरकारी नौकरियों का बड़ा योगदान है.यद्यपि इस मुद्दे पर मौन समर्थन मिलना तो आसान है पर खुल के विरोध भी झेलनी पद सकती है.लेकिन ये कटु सत्य है कि देश कि कुल जनसँख्या के ढाई प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी में हाँ जिन्हें मोती तनख्वाह मिलती है और उनके पैमाने पर देश कि महगाई को गरीब जनता पर थोपा जा रहा है.ढाई प्रतिशत लोगों को लाभान्वित करने के लिए साढ़े अठान्बे प्रतिशत जनसँख्या को हाशिये पर ला दिया जाना कहा का न्याय हैकहाँ कि नीति है ।
देश के विद्वान अर्थशास्त्रियों का एक समूह इस बात का तर्क देता है कि सबकी आय बढ़ने का प्रयास किया जाना चाहिए न कि बढे हुए लोगों का विरोध.तो बाकी कि जनता अपने समस्याओं से ही नहीं उबार पा रही है तो आय कहाँ से बढ़ पायेगी .इस पर एक स्वस्थ बौधिक बहस कि जरूरत है न कि गलत तर्कों से ताल-मटोल की .
बस्तर के जंगलों में नक्सलियों द्वारा निर्दोष पुलिस के जवानों के नरसंहार पर कवि की संवेदना व पीड़ा उभरकर सामने आई है |
जवाब देंहटाएंबस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अपने कोयल होने पर, अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
सनसनाते पेड़
झुरझुराती टहनियां
सरसराते पत्ते
घने, कुंआरे जंगल,
पेड़, वृक्ष, पत्तियां
टहनियां सब जड़ हैं,
सब शांत हैं, बेहद शर्मसार है |
बारूद की गंध से, नक्सली आतंक से
पेड़ों की आपस में बातचीत बंद है,
पत्तियां की फुस-फुसाहट भी शायद,
तड़तड़ाहट से बंदूकों की
चिड़ियों की चहचहाट
कौओं की कांव कांव,
मुर्गों की बांग,
शेर की पदचाप,
बंदरों की उछलकूद
हिरणों की कुलांचे,
कोयल की कूह-कूह
मौन-मौन और सब मौन है
निर्मम, अनजान, अजनबी आहट,
और अनचाहे सन्नाटे से !
आदि बालाओ का प्रेम नृत्य,
महुए से पकती, मस्त जिंदगी
लांदा पकाती, आदिवासी औरतें,
पवित्र मासूम प्रेम का घोटुल,
जंगल का भोलापन
मुस्कान, चेहरे की हरितिमा,
कहां है सब
केवल बारूद की गंध,
पेड़ पत्ती टहनियाँ
सब बारूद के,
बारूद से, बारूद के लिए
भारी मशीनों की घड़घड़ाहट,
भारी, वजनी कदमों की चरमराहट।
फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
बस एक बेहद खामोश धमाका,
पेड़ों पर फलो की तरह
लटके मानव मांस के लोथड़े
पत्तियों की जगह पुलिस की वर्दियाँ
टहनियों पर चमकते तमगे और मेडल
सस्ती जिंदगी, अनजानों पर न्यौछावर
मानवीय संवेदनाएं, बारूदी घुएं पर
वर्दी, टोपी, राईफल सब पेड़ों पर फंसी
ड्राईंग रूम में लगे शौर्य चिन्हों की तरह
निःसंग, निःशब्द बेहद संजीदा
दर्द से लिपटी मौत,
ना दोस्त ना दुश्मन
बस देश-सेवा की लगन।
विदा प्यारे बस्तर के खामोश जंगल, अलिवदा
आज फिर बस्तर की कोयल रोई,
अपने अजीज मासूमों की शहादत पर,
बस्तर के जंगल के शर्मसार होने पर
अपने कोयल होने पर,
अपनी कूह-कूह पर
बस्तर की कोयल होने पर
आज फिर बस्तर की कोयल रोई क्यों ?
अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त साहित्यकार, कवि संजीव ठाकुर की कलम से