मनुष्य विधाता की उत्कृष्ट कृति है,अगर हम हिन्दू धर्म साहित्यों की मानें तो आत्मा चौरासी लाख योनियों में बस इसलिए भटकती रहती है उसे किसी तरह से मानव जन्म मिल जाये.लेकिन मनुष्य धरती पर अवतरित होते ही अपने ऐसा स्वार्थ के मकडजाल में फसने की आतुर होता है की इन चीजों का उसे उपदेश देना पड़ता है ,वो अपने मूल को ही नष्ट करने पर तुल जाता है ।
जीवन के तत्वों की बात करें तो "क्षिति जल पावक गगन समीर "ये ही पञ्च तत्व मिलकर शरीर की संरचना होती है.तो क्या इन तत्वों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य नहीं बनता तो क्यों हम अपने जीवन दायिनी चीजों को नष्ट करने पर आमादा हो गए हैं.विज्ञान बाधा विकास हुआ ,जीवन स्तर ऊचा हुआ और लोग तालाब और झरनों की जगह बोतल का पानी पीने लगे .मौल और काम्प्लेक्स,डुप्लेक्स बनाने के चक्कर में हम पेड़ों को अपना दुश्मन बना लिए उनका गला इस कदर रेतना शुरू किये की पृथ्वी लगभग निर्वस्त्र सी हो गयी है गर्मी के मारे उसका हाल बेहाल होता जा रहा है लेकिन अब इतना देर हो चूका है की धरती की प्यास तो बिसलेरी की बोतल से बुझनी नहीं है।
इतिहास गवाह है की प्राकृतिक आपदाओं में अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान होता हो तो गरीबों का ,जिन्हें पानी ताल-तलैया का पीना है,हवा बाग़ -बगीचों की खानी है और छत की चाहत खुला आसमान पूरा करता है.बड़े होटलों के या बहुमंजिली इमारतों के वातानुकूलित बंद कमरों को ही धरती का स्वर्ग समझने वाले वो लोग जिन्होंने खुले आसमान की चादर में कही सर न छुपाया हो उसे भला प्रकृति और उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार से क्या लेना देना.जाने -अनजाने में ये विपत्तियाँ जो आज हर गरीब के लिए असहज सी बन रही हैं ,उसकी नींव तो इन चंद धनपशुओं की आराम तलबी पर ही बनी है ।
अतः जल ,जंगल और जमीन तीनो हमसे नश्तावास्था में दूर हो रही हैं और जिनकी रक्षा एक गरीब तो आगे आकर कर सकता है पर बड़ों के बस की ये बात कत्तई नहीं है .
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