मंगलवार, 30 मार्च 2010

अभाव में बदलता स्वभाव

गांव का रहने वाला हूँ पूर्णतया देहाती पृष्ठभूमि का ,अतः देहात आज भी सोंच का पीछा नहीं छोड़ता है.बचपन में गांव में एक कुतिया की कहानी आज भी उसकी शक्ल तक याद है कारन लोगों का सामूहिक रूप से उसका दुत्कारा जाना जबकि बाकि के कुत्तों को बुला के रोटियां दी जाती थी.उसके इस अपमान का कारन था की वह अपने ही बच्चे को खा गयी थी .लोगों की इस कदर उससे दुश्मनी हो गयी थी ।
अब भी शहरी तो नहीं हो पाया हूँ लेकिन सोंच थोड़ी जरूर बदली है फिर भी देहाती परछाई पीछा नहीं छोड़ती.अंतर इतना ही है की यहाँ कुतिया की कहानी से थोडा ऊपर उठा और एक बच्चे के ऊपर सामायिक और बैचारिक बदलाव का सामना यह सुनते हुए करना पड़ा जोकि अपने बाबा दादी को आम न देने की बात चिल्ला-चिल्ला कर किये जा रहा था.परिवार के गिरते हुए ढांचे को अगर नहीं वक्त रहते सम्हाला गया तो यह खँडहर बनकर ही दम लेगा .बचा लो यारों.

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