मंगलवार, 30 मार्च 2010

पुरुषों के हाथ से छिनती समाज की प्रधानता

भारतवर्ष गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है जिसकी विचित्रता की कहानी सुनते ही बनती है.आजादी के बाद पंडित नेहरु के कार्यकाल में विलियम सी डगलस एक अंग्रेजी साहित्यकार भारत भ्रमण पर आये थे ,जिन्होंने अपनी किताब में लिखा की वे भारत के लोगों पर गर्व करते हैं.इसका कारण जब वे बरेली से रानीखेत ट्रेन से जा रहे थे तो रस्ते में एक स्टेशन पर रुके जहाँ कुछ बच्चे टोकरियाँ बेच रहे थे ,एक नौ साल की लड़की आखों में बेबसी और लाचारगी के आँसू लिए उसको विदेशी उपयुक्त ग्राहक समझ के गिडगिडा रही थी टोकरी खरीदने को.पर लेखक के हाथ भी खाली नहीं थे की वह उसकी टोकरी खरीद सके ,हाँ उसकी स्थिति को देख वह यूं ही कुछ पैसे जेब से निकल कर उसकी टोकरी में दल देता है अब क्या था लड़की का परा गरम वह उसके पैसे उसके मुह पर फेक दी और इस घटना से प्रभावित लेखक उसकी साडी टोकरियाँ खरीएदने को मजबूर हो गया।
यह था कारण जो वह भारतीयों के प्रेम में उलझ गया और कहा ऐसा आत्मसम्मान मैंने कही नहीं देखा.ऐसे भारत को आज आजादी के पैसठ सालों बाद क्या होगया,मर गयी वो लड़की या नैतिकता.बात तोदिकदावी जरूर है लेकिन सोचने योग्य है .हमारे देश का विकास एक आरक्षण तो रोके ही हुए था अब महिलाओं को भी इसी रस्ते में घसीट दिया गया.ताज्जुब है की इसे महिलाये हसते हुए अपनी उपलब्धि समझ स्वीकार भी की नाचीं भी क्यों।
आरक्षण माने दया तो क्या महिलाये दया की पात्र हैं.एक तरफ देश किरण बेदी और कल्पना चावला का प्रचार कर रहा है दूसरी तरफ उसे दया की वस्तु समझी जा रही है.तैतीस प्रतिशत आरक्षण हर महिला को संसद तो नहीं बना सकता लेकिन हर महिला को कमजोर कर उसका नारीत्व छीन सकता है।
घटिया राजनीतिक सोंच रखने वाले लोग और संगठन इस बात को उपलब्धि बता रहे हैं,वो भी उस समय जब देश के तीन शीर्ष पदों.राष्ट्रपति,लोकसभा अध्यक्ष और सत्ता दल की मुखिया ही नहीं अपितु कई प्रदेशों की मुखिया भी महिलाएं है.हाँ इतना जरूर है की इससे घुरहू को पतोहू तो कभी संसद नहीं जाएगी लेकिन ये नेता अपने पतोहू को संसद बनाने के चक्कर में पुरुषों को समाज से झंडी दिखने का कम कर रहे हैं.स्वागत है हर उस महिला का आज के परिपेक्ष्य में जो महिला विधेयक को ठुकराने की बात करे।
जयहिंद

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