गुरुवार, 19 अगस्त 2010
क्या राष्ट्रीय पर्व महज भ्रामक जिम्मेदारियां बनकर रह गयी हैं
इतना ही नहीं देश के प्रधानमंत्री का भी उदबोधन भी देश के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठ कम और अपने संगठन और संगठन के मुखिया के प्रति ज्यादा दिखी।क्या -क्या देश पर एहसान उन लोगों ने किया अपने कार्यकाल में उसका ढिढोरा ज्यादा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का उदबोधन सुना तो वहां नॉएडा से बालियाँ तक बन्ने वाले गंगा एक्सप्रेस जैसे अपने महान कारनामों और अपराधियों को जेल में डालने की खुशी के अलावा शायद कुछ भी बताने को नहीं था।हाँ एक चीज जरूर था की वो जयकार करते समय जय हिंद,जय भारत के साथ जय भीम और जय कांशीराम का उद्घोष करना नहीं भूली। कम से कम एक दिन तो ईमानदारी से हम राष्ट्र के नीव में दबे पुराने ईटों को याद कर लेते जिनके कपार पे एक से एक ईमारते हम तानते जा रहे हैं। लगता है अगर यही दशा बरकरार रही तो आने वाली पीढ़ी भगत सिंह और गाँधी को विदेशी किताबों के माध्यम से जानेगी। कितनी शर्म भरी खुशियाँ होती हैं जब हम सुनते हैं की गाँधी को साउथ अफ्रीका में भगवान् की तरह पूजा जाता है.उनका जन्मदिन २ अक्टूबर वहां का सबसे बड़ा जलसा होता है। और हमारे यहाँ अनी पीढ़ी गांधी को विचित्र-विचित्र शब्दों से गाली भरे अंदाज में सम्मान देती है। अगर हम सच्चाई पर पर्दा न डालें तो।
तो क्या सिर्फ और सिर्फ आने वाली पीढ़ी ही जिम्मेदार होगी इसके लिए तो कत्तई नहीं। क्योंकि सुने-सुनाये कुछ घटिया जुमले मानसिक रूप से महापुरुषों के प्रति विकृति लाने का काम करते है,जिनके पीछे कोई सत्य का बाँध नहीं खड़ा होता। अतः गुजारिश है देश के नीति नियंताओं से की कम से कम अपने नीव की ईट को भी कायदे से सलाम करने का मौका और संस्कार फिर से उसी तरह से जगाये जैसे १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने दिखया था ,एक बध्याँ सन्देश हो सकता है।
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
आजकल राजनीतिज्ञों को बड़े आर्थिक घोटालों का अवसर नहीं मिल रहा है क्या भाई?
बुधवार, 11 अगस्त 2010
डीएनए ,नार्को और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक जाँच विधियों पर रोक का स्वागत
लेकिन समयांतर में आज की स्थितियां भी करीब -करीब वैसी ही है। न जाने कितने शिशुपाल सड़कों पर ससम्मान सांड की तरह घुमते हैं,और बड़ी मजे की बात की चिन्हित भी नहीं हैं। जो पकड़ में आ गया वो चोर अन्यथा चोर सबसे बड़ा सिपाही। समाज में अपराधियों को दंड देने की विधा भी समय-समय पर बदलती रहती है.इतिहास गवाह है,सूली पर लटकाया जाना तो सबसे बाद का नियम है। इसके पहले हाथी से कुचलवा देना,सरेआम भुनवा देना ,विष का प्याला देना ,ये सब तो था लेकिन बात उगलवाने के लिए नारको और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक टेस्ट्स को निश्चय ही हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर पेबंद लगाना कहा जा सकता है। आप सारे विद्वान और समाजशास्त्री मिलकर किसी का अपराध नहीं ढूढ़ पा रहे हैं तो फिर आप भी तो अपने काम के प्रति बहुत लोयल नहीं कहे जा सकते,एकबात।
दूसरी बात की क्या इस तरह के घटिया टेस्ट की कोई सही आदमी के ऊपर कर के कभी टेस्ट किया गया है,यदि हाँ तो किस पर और यदि नहीं तो क्या गारंटी है की ये सहे ही होता है। और अगर इतना ही सही और न्याय प्रिय हैं हम तो तमाम आतंकवादी जो पकडे जाते हैं सबसे पहले छूटते ही उनका नार्को और ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं कराया जाता है। यहाँ गवाह को कटघरे में खड़ा करा कर पचहत्तर बार कसमें दिलाई जाती है की मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा,ऐसी कसम न्यायाधीश तो एक बार भी नहीं खता की वो जो निर्णय देगा सच ही देगा। तो पञ्च परमेश्वर को हम कब तक आत्म सात करते रहेंगे। खासकर ऐसे हालात में जब पूरी की पूरी बेंच बेची और खरेदी जाती हो।
ऐसे में यह निर्णय मानव मूल्यों की रक्षा करेगा बाकी अपराध सजा से कभी भी नहीं रुकता ,जरूरत है तो मानव सुधार और वैचारिक शिष्टता के छोटे से पहल की।
रविवार, 8 अगस्त 2010
फिर शुरू हो गयीं विदेशी गुलामी के खात्में और देशी गुलामी के जश्न की तैयारियां
कड़वा जरूर है पर बड़ा ही सच कि विदेशी गुलामी तो ख़त्म हुई आज के दिन यानि १५ अगस्त १९४७ को लेकिन देशी गुलामी कि नीव भी तो आज के ही दिन पड़ी। आप कह सकते हैं कि वो क्या जाने गुलामी का मतलब जिसने इसको ...............................
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
देश की जनता क्या आकड़ों से अपना पेट भरेगी
देश में आजादी के बाद से आज तक सबसे ज्यादा कांग्रेसी सरकार शासन की है। जैसे किसी दुखांत नाटक के बीच में चुटकुले आजाये ,उसी माफिक गैर कांग्रेसी सरकारें बीच-बीच में आती जाती रहीं । देश की आर्थिक नीति काफी तंगहाल हो चली थी .विश्वनाथ प्रताप के आरक्षण के सामाजिक लालीपॉप के आस-पास। उसके बाद जब सरकार नरसिम्हा राव के हाथ में आई और यही मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुए तो अर्थव्यवस्था को इस कदर सुसंगठित और संचालित किया की आज तक हम घिस रहे है ,अन्यथा जाने कहाँ होते?
आज देश में पी चिदंबरम से लेकर स्वयं प्रधानमंत्री और प्रणव मुकर्जी इत्यादि सारे विद्वान भरे पड़े हुए हैं फिर भी हम देश की खस्ताहाल गरीबी और महगाईं को आकडे देकर दबाना चाहते हैं । देश की गरीब जनता जिसका इन आकड़ों से कोई लेना देना नहीं होता क्या आकडे खायेगी। आप लाख चिल्ला लें ,अपनी सफलता का डंका पीट लें लेकिन गवईं गरीब को आपके सब्सिडी से क्या लेना देना ,वो बस इतना जानती है की चीनी और दाल जैसे खाद्य पदार्थ भी उनके पहुच से बाहर हो रही है। देश का तो मई कत्तई नहीं कह सकता लेकिन तथाकथित कांग्रेस के राजकुमार बारात निकाल कर सन्देश यात्रायें कर रहे हैं। उनकी एक सन्देश यात्रा जो उत्तर प्रदेश के अहरौरा में आयोजित थी,में कई करोड़ रूपये खर्च हो गए ,जैसा की मेरे एक मित्र जो कांग्रेसी नेता हैं बताये। कास उस पैसे को ये राजकुमार उसी अहरौरा के विकास में खड़े होकर खर्च करा देते तो पूरे देश का भले नहीं लेकिन वहां के तो राजकुमार हो ही जाते। सांगठनिक विकास के लिए इतना कुछ कर रही है कांग्रेस सरकार वो सब सिर्ग जनता के विकास में ईमानदारी से खर्च करा दिया जाय तो अपने आप उनके संगठन का विकास हो जाएगा और इस पार्टी को देश की राजनीती में छोटे दलों को फेक पुनः स्थापित होने का मौका मिल जाएगा। आखिर छोटे दल कम से कम जनता के संपर्क में तो हैं यही कारन है उनके विकास का जो ईन राष्ट्रीय पार्टियों लिए खतरा बने हुए है। अभी समय है चेत जाओ
बुधवार, 4 अगस्त 2010
भारतीय संसद में अमेरीकी राष्ट्रपति का भाषण -ये कैसा गौरव
ठीक उसी तरह हमारे देश के महापुरुष चाहे वो गाँधी रहे हों,या सुभाष,विवेकानंद रहे हों या अरविंदो,सब ने अपनी भाषा से विदेशियों को इस कदर आशक्त किया की वो हमारे मुरीद हो गए। लेकिन आज विश्वगुरू कहलाने वाला देश दूसरों के नुस्खों पर चलेगा,दूसरों की कार्यशैली को अपना आदर्श बनाएगा तो फिर भारतीय विद्वता की पहचानखतरे में है। और ये कभी भी देशहित में न्याय सांगत नहीं होगा। अतः बराक ओबामा को बुलाये ,उसका विरोध नहीं है,उनका भाषण भी कराये उसका भी विरोध नहीं है,होसके और ज्यादे चापलूसी का शौक चर्राया हो तो उनका कसेट रख भजन की तरह सुने ,इसका भी विरोध नहीं है,लेकिन इसको इतना महिमा मंडित न करे की संस्कृति धूमिल हो अन्यथा विवेकानंद की खडाऊं और मदनमोहन मालवीय की छडी अभी भी सुरक्षित है।
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
अब एक नया ढिढोरा -न्यायिक सुधार का
आजादी के तिरसठ सालों बाद भी इन मदांध ,घटिया और स्वार्थी राजनेताओं को सन्देश यात्राओं में,साइकिल यात्राओं में तो रूचि है जिससे वे भारत ही नहीं अमेरिका के भी राष्ट्रपति हो जाय लेकिन देश के गरीबों के कटोरे में रोटी भी नसीब है या नहीं ,उसकी जहमत ये क्यों लें। अभी चार-पांच साल पहले बनारस के पांडेपुर स्थित पागलखाने में सरला नाम की एक बुजुर्ग महिला का प्रकरण प्रकाश में आया था जिसे न्यायलय ने पागल करार दे पागलखाने पंहुचा तो दिया पर उसकी सुधि उतार दी,अब बेचारी सरला को जबरदस्ती पागल बन अपना जीवन कुर्बान करना पड़ा। उसके घर वाले भी उसे पहचानने से इनकार करतेरहेबाद में एक प्रतिष्ठित वकील रमेश उपाध्याय की निगाह पता नहीं कैसे उसकी बेबसी पर पडी उसे पागलखाने से तो छुटकारा मिल गया ,न्यायलय तो उसे भला ही चूका था ,उसके नाम से कुछ जमीन-जायदाद थी जिसके लालच में बुधिया के तथाकथित देवर उसको अपने साथ ले तो गए। लेकिन न्यायलय क्या सरला के बीते चालीस सालों को वापस कर पायेगा,उसकी नौजवानी जो काल कोठारी में बीतने को मजबूर थी उसको किसी भी तरह से भरपाई किया ज सकता है तो कत्तई नहीं।
दर इतना ही नहींहै की सरला के साथ ऐसा हुआ ,सरला तो देर-सबेर मुक्ति पा गयी,जाने कितनी सरला ऐसे ही सही न्याय के ललक में अंधे क़ानून के सामने दम तोड़ देती होंगी। उनका क्या होगा,क्या व्यवस्था की गयी सरकार द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए। सबसे बड़ा कोढ़ समाज की पुलिस व्यवस्था है,जिस पर कोई रोकटोक नहीं। पहले तो महिलाए कम से कम मारी नहीं जाती थी अब दिन जैसे kal सुलतानपुर में एक अध्यापिका की गयी गयी तो में मौत
नई पीढ़ी रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है
लेकिन ये सवाल यही से शुरू होता है और यहीं पर ख़त्म भी हो जाता है, कारण कि देश का हर युवा रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है। ये तथाकथित नाम जो मैंने ऊपर दिया है,ये भी इनसे अछूते नहीं हैं। राहुल गाँधी का जूता लोट्टो का ही होता है जिसकी कीमत हजरोंमे है,अब ऐसे पैरों से दांडी मार्च की कितनी उम्मीद की जा सकती है। कहने को अखिलेश यादव चिल्लाते रहें की मैं किसान का बेटा हूँ लेकिन खेत की माटी पैर में लगने से इन्फेक्सन हो जाते हैं। कारण कहीं न कहीं रील लाइफ जीवन पध्हती है।
आज देश का हर युवा आगे तो जाना चाहता है लेकिन ,उसके पथ प्रदर्शक या आदर्श कभी शाहरुख़ खान तो कभी रितेश देशमुख हैं। तो वहीं लड़कियां भी बिद्या बालान या कैटरीना कैफ की होड़ में हैं। मैं ये तो नहीं कहता की ये गलत है लेकिन इन मासूम विचारों वाले कन्धों पर हम देश की बागडोर भी तो नहीं सौंप सकते । हेयर स्टाइल से लेकर मोबाइल और ड्रेसिंग सेन्स की तो हुबहू नक़ल है लेकिन क्या उतनी गंभीरता कापी ,कलम और किताब के प्रति भी है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। समसामयिक विकास होना कभी भी गलत नहीं होता लेकिन इस उन्माद में लक्ष्यों को भूल जाना क्या विकास को गति देना है। अब लक्ष्य भी क्या नौकरी ,तो क्यों ? क्योंकि कार ,बंगला घोडा .गाडी चाहिए ,परिवार तक के जिम्मेदारियों की अनदेखी खुलेआम हो रही है तो ऐसे में समाज के मददकितनी उम्मीद की जाय। और कब तक झूठे कोसते रहें की कुछ हाथ नहीं रहा युवाओं के ...............