बुधवार, 4 अगस्त 2010

भारतीय संसद में अमेरीकी राष्ट्रपति का भाषण -ये कैसा गौरव

विश्व पटल पर अपने भाषा और भाषण से हलचल मचा देने स्वामी विवेकानंद की धरती पर ,उसकी लोकतांत्रिक रसोईं में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के भाषण की तैयारिया ऐसे हों जैसे कोई महापर्व आ गया हो,तो बरबस कहना पड़ता है की भारत गुलाम मानसिकता का एक आजाद देश है,और चापलूसी तो मानो इसकी कुर्सियों के एक-एक सोखते मेंलगी हुई है। रविन्द्रनाथ टैगोर को राष्ट्र गुरुदेव की उपाधि दिया ,बड़ा ही सम्मान रहा और आज भी है,उनकी विद्वता पर कोई नुक्ताचीनी भी नहीं है,फिर भी जब-जब उनके द्वारा लिखित राष्ट्रगान की बात आती है,पहली जुबान में लोग ये कहने से बाज नहीं आते की इतना विद्वान आदमी और ऐसी रचना को किसी अंग्रेज की चापलूसी में क्यों लगा दिया,और उनके चरित्र पर लगा ये दाग आज तक नहीं धुल सका । ख़ास कर ऐसे समय में जब देश के नौजवान जान हथेली पर ले देश को मुक्त कराने में लगे हों वैसे समय किसी मुखिया विद्वान द्वारा इस तरह के पहल जेहन में नहीं उतारते। आज का बुध्ह्जीवी वर्ग उसे चाहे जैसे सही साबित करती फिरे लेकिन ये बात गले नहीं उतरती।
ठीक उसी तरह हमारे देश के महापुरुष चाहे वो गाँधी रहे हों,या सुभाष,विवेकानंद रहे हों या अरविंदो,सब ने अपनी भाषा से विदेशियों को इस कदर आशक्त किया की वो हमारे मुरीद हो गए। लेकिन आज विश्वगुरू कहलाने वाला देश दूसरों के नुस्खों पर चलेगा,दूसरों की कार्यशैली को अपना आदर्श बनाएगा तो फिर भारतीय विद्वता की पहचानखतरे में है। और ये कभी भी देशहित में न्याय सांगत नहीं होगा। अतः बराक ओबामा को बुलाये ,उसका विरोध नहीं है,उनका भाषण भी कराये उसका भी विरोध नहीं है,होसके और ज्यादे चापलूसी का शौक चर्राया हो तो उनका कसेट रख भजन की तरह सुने ,इसका भी विरोध नहीं है,लेकिन इसको इतना महिमा मंडित न करे की संस्कृति धूमिल हो अन्यथा विवेकानंद की खडाऊं और मदनमोहन मालवीय की छडी अभी भी सुरक्षित है।

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