इस पंद्रह अगस्त को देश अपना चौसठवां स्वतंत्रता दिवस काफी हर्षो-उल्लास भरे उदासीनता से मनाया। क्या यह सच नहीं है। मुझे चिंता इस बार की नहीं हैं ,इसके बाद के आने वाले सौ सालों बाद क्या होगा इसकी चिंता है। शायद आने वाली पीढ़ी के पास इतना समय नहीं होगा की वे ऐसे राष्ट्रीय पर्वों को अपने भाग -दौड़ का भाग बना सके । हर बार तो कम से कम अखबार तवज्जो देते थे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को। वे खूब छापते थे की कहा-कहा क्या-क्या हुआ। लेकिन इस बार अखबारों तक की उदासीनता स्पष्ट समझ में आयी। कही कोई जोश नहीं था। ले देकर थोड़ी राजनीति जरूर हो जाती है प्लास्टिक के झंडे इत्यादि के नाम पर। बच्चों में स्कूलों में होने वाले कार्यक्रम और मिठाइयों के वजह से थोड़ी खुशियाँ दिखी,अन्यथा सब कुछ धूमिल सा था।
इतना ही नहीं देश के प्रधानमंत्री का भी उदबोधन भी देश के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठ कम और अपने संगठन और संगठन के मुखिया के प्रति ज्यादा दिखी।क्या -क्या देश पर एहसान उन लोगों ने किया अपने कार्यकाल में उसका ढिढोरा ज्यादा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का उदबोधन सुना तो वहां नॉएडा से बालियाँ तक बन्ने वाले गंगा एक्सप्रेस जैसे अपने महान कारनामों और अपराधियों को जेल में डालने की खुशी के अलावा शायद कुछ भी बताने को नहीं था।हाँ एक चीज जरूर था की वो जयकार करते समय जय हिंद,जय भारत के साथ जय भीम और जय कांशीराम का उद्घोष करना नहीं भूली। कम से कम एक दिन तो ईमानदारी से हम राष्ट्र के नीव में दबे पुराने ईटों को याद कर लेते जिनके कपार पे एक से एक ईमारते हम तानते जा रहे हैं। लगता है अगर यही दशा बरकरार रही तो आने वाली पीढ़ी भगत सिंह और गाँधी को विदेशी किताबों के माध्यम से जानेगी। कितनी शर्म भरी खुशियाँ होती हैं जब हम सुनते हैं की गाँधी को साउथ अफ्रीका में भगवान् की तरह पूजा जाता है.उनका जन्मदिन २ अक्टूबर वहां का सबसे बड़ा जलसा होता है। और हमारे यहाँ अनी पीढ़ी गांधी को विचित्र-विचित्र शब्दों से गाली भरे अंदाज में सम्मान देती है। अगर हम सच्चाई पर पर्दा न डालें तो।
तो क्या सिर्फ और सिर्फ आने वाली पीढ़ी ही जिम्मेदार होगी इसके लिए तो कत्तई नहीं। क्योंकि सुने-सुनाये कुछ घटिया जुमले मानसिक रूप से महापुरुषों के प्रति विकृति लाने का काम करते है,जिनके पीछे कोई सत्य का बाँध नहीं खड़ा होता। अतः गुजारिश है देश के नीति नियंताओं से की कम से कम अपने नीव की ईट को भी कायदे से सलाम करने का मौका और संस्कार फिर से उसी तरह से जगाये जैसे १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने दिखया था ,एक बध्याँ सन्देश हो सकता है।
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