बेशक आज हम इक्कसवीं सदी का आनंद ले रहे हैं। देश अपनी आजादी का चौसठवां सालगिरह मनाने को व्यग्र है। हर तरफ युवाओं को आगे लाने की बात चर्चा आम है,खासकर के देश की राजनीति में। हालाँकि देश की राजनीति में अब भी बुजुर्गों का बोलबाला है। राष्ट्रीय नेताओं में चंद लोगों के नाम पर युवाओं का ढिढोरा पीटा जा रहा है,समझ में नहीं आता की जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया ,सचिन पायलट ,उमर अब्दुल्लाह , अखिलेश यादव,इत्यादि जो नेता पुत्र हैं के नाम पर ही क्या ये ऐलान किया जाना जायज है ,या इन चंद नामों के अलावा देश में युवा नहीं हैं जो सक्रीय राजनीति में सहभागिता कर सकें।
लेकिन ये सवाल यही से शुरू होता है और यहीं पर ख़त्म भी हो जाता है, कारण कि देश का हर युवा रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है। ये तथाकथित नाम जो मैंने ऊपर दिया है,ये भी इनसे अछूते नहीं हैं। राहुल गाँधी का जूता लोट्टो का ही होता है जिसकी कीमत हजरोंमे है,अब ऐसे पैरों से दांडी मार्च की कितनी उम्मीद की जा सकती है। कहने को अखिलेश यादव चिल्लाते रहें की मैं किसान का बेटा हूँ लेकिन खेत की माटी पैर में लगने से इन्फेक्सन हो जाते हैं। कारण कहीं न कहीं रील लाइफ जीवन पध्हती है।
आज देश का हर युवा आगे तो जाना चाहता है लेकिन ,उसके पथ प्रदर्शक या आदर्श कभी शाहरुख़ खान तो कभी रितेश देशमुख हैं। तो वहीं लड़कियां भी बिद्या बालान या कैटरीना कैफ की होड़ में हैं। मैं ये तो नहीं कहता की ये गलत है लेकिन इन मासूम विचारों वाले कन्धों पर हम देश की बागडोर भी तो नहीं सौंप सकते । हेयर स्टाइल से लेकर मोबाइल और ड्रेसिंग सेन्स की तो हुबहू नक़ल है लेकिन क्या उतनी गंभीरता कापी ,कलम और किताब के प्रति भी है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। समसामयिक विकास होना कभी भी गलत नहीं होता लेकिन इस उन्माद में लक्ष्यों को भूल जाना क्या विकास को गति देना है। अब लक्ष्य भी क्या नौकरी ,तो क्यों ? क्योंकि कार ,बंगला घोडा .गाडी चाहिए ,परिवार तक के जिम्मेदारियों की अनदेखी खुलेआम हो रही है तो ऐसे में समाज के मददकितनी उम्मीद की जाय। और कब तक झूठे कोसते रहें की कुछ हाथ नहीं रहा युवाओं के ...............
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