समाज कभी भी अपराध मुक्त नहीं रहा है। पुरुषोत्तम भगवान् राम के समय में जब कहा जाता था कि"नहिं कोई अबुध न लच्छन्हीना"तब भी रावण और बालि जैसे खूंखार समाज में विद्यमान थे। कृष्ण के समय में अगर धर्मराज युधिस्ठिर थे तो शिशुपाल और दुह्शासन भी थे। ऐसे कितने ऋषि-महर्षियों कि तपस्या भंग कर देते थे ये तथाकथित दानव। लेकिन उनको सजा देने कि इतनी क्रूर विधा कभी भी नहीं थी। ईश्वर कि परिभाषा बताई जाती है कि "पग बिनु चलै सुने बिनु काना"। अतः परमसत्ता अगर कोई निर्णय लेती है तो उसी को विश्वासी समाज न्याय मान लेता है.अन्यथा जिस देश का धर्मराज जूया खेलता हो और इतना ही नहीं इतना बड़ा जुआड़ी हो कि अपने पत्नी तक को दाव पर लगा दे वहां अगर दुशासन पनप रहे हैं तो कोई अविश्वास कि बात नहीं है।
लेकिन समयांतर में आज की स्थितियां भी करीब -करीब वैसी ही है। न जाने कितने शिशुपाल सड़कों पर ससम्मान सांड की तरह घुमते हैं,और बड़ी मजे की बात की चिन्हित भी नहीं हैं। जो पकड़ में आ गया वो चोर अन्यथा चोर सबसे बड़ा सिपाही। समाज में अपराधियों को दंड देने की विधा भी समय-समय पर बदलती रहती है.इतिहास गवाह है,सूली पर लटकाया जाना तो सबसे बाद का नियम है। इसके पहले हाथी से कुचलवा देना,सरेआम भुनवा देना ,विष का प्याला देना ,ये सब तो था लेकिन बात उगलवाने के लिए नारको और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक टेस्ट्स को निश्चय ही हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर पेबंद लगाना कहा जा सकता है। आप सारे विद्वान और समाजशास्त्री मिलकर किसी का अपराध नहीं ढूढ़ पा रहे हैं तो फिर आप भी तो अपने काम के प्रति बहुत लोयल नहीं कहे जा सकते,एकबात।
दूसरी बात की क्या इस तरह के घटिया टेस्ट की कोई सही आदमी के ऊपर कर के कभी टेस्ट किया गया है,यदि हाँ तो किस पर और यदि नहीं तो क्या गारंटी है की ये सहे ही होता है। और अगर इतना ही सही और न्याय प्रिय हैं हम तो तमाम आतंकवादी जो पकडे जाते हैं सबसे पहले छूटते ही उनका नार्को और ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं कराया जाता है। यहाँ गवाह को कटघरे में खड़ा करा कर पचहत्तर बार कसमें दिलाई जाती है की मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा,ऐसी कसम न्यायाधीश तो एक बार भी नहीं खता की वो जो निर्णय देगा सच ही देगा। तो पञ्च परमेश्वर को हम कब तक आत्म सात करते रहेंगे। खासकर ऐसे हालात में जब पूरी की पूरी बेंच बेची और खरेदी जाती हो।
ऐसे में यह निर्णय मानव मूल्यों की रक्षा करेगा बाकी अपराध सजा से कभी भी नहीं रुकता ,जरूरत है तो मानव सुधार और वैचारिक शिष्टता के छोटे से पहल की।
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