गुरुवार, 13 जनवरी 2011

बदलते परिवेश में यथार्थ से कन्नी काटता जीवन

वक्त की सबसे सकारात्मक परिभाषा बदलाव के रूप में दी जा सकती है। बदलाव यूं तो श्रृष्टि की सृजनता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है लेकिन कही-कहीं ये बदलाव जगह और व्यवस्था की पहचान को समाप्त करने के कगार पर पंहुचा देते हैं। इस बदलाव के बृहद चरण में अगर कोई मारा जा रहा है ,अगर किसी की अस्मिता और रोजमर्रा के परिवेश में मूल-चूल परिवर्तन होते हैं तो वो है गरीब,जिनकी गरीबी भी अब उनका साथ नहीं दे रही है। वर्तमान सरकारों की मिथ्या नीतियाँ इन्हें दाल-रोटी में पेट भरने के जुमले से भी दूर करते जा रही हैं।
स्कूल-कालेजों को मॉल में ताफ्दील कर उन शोपिंग कोम्लेक्सेस के दुकानों में कालेज और विश्वविद्यालय खोलने की व्यवस्था मजबूती से अपना जगह लेती जा रही है। ठेले-खोमचे की संस्कृति को भरी धक्का लगा है,जिसमे ठगा तो जा रहा है क्रेता चाहे वो किसी भी वर्ग का हो ,और चाँद पूजीपतियों की जेबें मोटी हो रही हैं। अब टमाटर भी अनिल अम्बानी के रिलाइंस ग्रुप में बेच जाने लगा है,। समाज में एक ऐसा तपका विकसित हो रहा जो वातानुकूलित व्यवस्था में रखे चमकदार टमाटर को ही टमाटर मानता है,इससे परेशां ठेले खोमचे वाले गरीब अब उनके मॉल में झाड़ू-पोछा करेंगे और रोटी का जुगाड़ करेंगे। इस व्यवस्था के विकास ने प्याज की रकम को कहाँ पंहुचा दिया वाकया सामने है।
अतः गरीबों का भारत तो मंजूर है लेकिन उनकी बदहाली का मॉल नहीं इस पर भी विचार होना चाहिए नहीं तो एक दिन ऐसा होगा जब सिर्फ विक्रेता होंगे क्रेता नहीं....

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