शुक्रवार, 21 जनवरी 2011

फिर टप्पल की तर्ज पर इलाहाबाद के किसान

किसानों के देश भारत में किसानों की बदहाली तो चल ही रही है इस में कोई दो राय नहीं लेकिन एक बात समझ में नहीं आती है कि क्या इस तरह के आन्दोलन एक दिन में हो जाते हैं जिसमें अपने हकों की लडाई में कई जानें तक जाती हैं। क्या सरकारें इस क्षण का इंतजार कर रही होती हैं। जिसमें लहूलुहान किसान रेल की पटरियों पर सोते हुए आराम से रौदा या पीटा जाय। लेकिन पूरे मामले के तह में जाने के बाद समझ में आता है कि किसान भी कही अपने हकों से हटकर कही राजनीतिज्ञों का पासा तो नहीं बन रहा ।
आज के अख़बारों का प्रमुख खबर किसानों के साथ फिर किसी अनहोनी का आहट है ऐसे में एक तरफ जहा सरकार को इन किसानो की जान और भावनाओं का ख्याल रखते हुए निर्णय लिया जाना चाहिए वहीँ किसानो को भी अपने को राजनैतिक विषयवस्तु बनने से बचना चाहिए और ये ध्यान रखना चाहिए को जो भी विकास कार्यक्रम बनाये जा रहे होंगे उससे वो भी लाभान्वित होंगे रही बात जमीन के मुआवजे की तो स्वार्थ के अंधेपन में लूट की भावना नहीं होनी चाहिए अन्यथा आपको अधिक पैसा जरूर मिल जायेगा पर उसका परोक्ष भार महगाई डायन के रूप में आपको ही झेलना है। नेता तो आपको जेल भेजवा कर जमानत के समय पहुच जाय तो बहुत है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें