पुलिस को कुछ लोग पूर्ण लिप्सा रहित सहयोगी के रूप में भी परिभाषित करते हैं ,लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि हमारे रामू काका पुलिस के नाम से इतना कांपते क्यों हैं?बेचारे, कोई कह दे कि पुलिस आ रही है तो उनकी पतलून गीली हो जाती है,कभी-कभी गाओं में माँ भी बच्चे को सोने के लिए डराती है ,सो जाओ नहीं तो पुलिस आजायेगी,इसका मतलब पुलिस पुलिस नहीं अब शोले का गब्बर सिंह हो गयी है,आखिर ऐसा क्यों?क्या वाकई पुलिस के किरदार ऐसे हैं ,जो लोगों कि सुरक्षा के लिए रखे गए हैं जिनके आने पर हमें ठंढी आहें भरनी चाहिए कि चलो अब पुलिस आगई अब राहत हो जाएगी ,उसके आते या आने के नाम मात्र से क्यों लोग भय ग्रस्त हो जाते हैं।
पुलिस को सूचित करने का काम गाँव में चौकीदार कि होती है जिसको भी लोग बड़े अछे निगाह से नहीं देखते हैं,हालाँकि चौकीदार बिचारा सिर्फ कहने मात्र को ही सरकारी कर्मचारी होता है पर उसकी तनख्वाह सब्जी खरीदने के लिए भी पर्याप्त नहीं हो पाती ,वर्दी के नाम पर उसीक लाल पगड़ी दी जाती है जो उसकी पहचान होती है बस इतने के लिए अब चौकीदार भी गावों कि बात क्यों उन तक पहुचकर लोगों का दुश्मन बने.इसके बाद अगर आप थाने पहुच जाइए किसी भी तरह कि प्राथमिकी दर्ज कराने तो देखिये पहले तो आपको ही गुनाहगार साबित कर कहीं उठा के दरोगा साहब बंद न कर दें ,अगर उससे बचे तो रिपोर्ट लिखने के लिए इतना दौड़ लगवा देंगे कि आप उनका रास्ता तक भूल जायेंगे .वैसे तो वर्दी पहनने के बाद ये किसी को भी न पहचानने कि कषम खा लेते हैं लेकिन अगर पहचानेंगे भी तो वो सिर्फ और सिर्फ गांधीजी की तस्बीर लगी हरे लाल कागज के दो चार टुकड़ों का उपहार लेने के बाद.ये तो रही पुलिस स्टेशन तककी बाट .अब इनको कही भी आप पेड़ कि सुनसान छाया में गाड़ियों कि चेकिंग करते हुए पा जायेंगे जहाँ ये शरीफ नागरिकों को परेशां करना ही अपना दाइत्व समझते हैं .अगर इनको पता चलता है कि इसी रस्ते से कोई बड़ा अपराधी जा रहा है तो वो पान कि गुमटियों में घुस जाते हैं .इस समय संयोग से बनारस के डी आई जी खुद घटनाओं के पीछे दौरा करते हुए पाए जा रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं .अभी चार दिन पहले ही बड़ा ह्रदय विदारक घटना सारनाथ में हुआ एक ७५ साल के बुजुर्ग को चोरों ने मार डाला और लाखों कि लूट भी कि ,लूट का पर्दाफास भी हो गया और पुलिस चोरों को पकड़ लेने का दावा भी कर रही है ,शायद संयोग से भुक्तभोगी डी जीपी यशपाल जी के रिश्तेदार थे अगर ऐसा नहीं होता तो क्या पुलिस इतना तेजी दिखाती तो संशय है।
अक्सर सुना जाता है कानोकान कि पुलिस वालों को ऊपर पैसा भेजना होता बड़े अधिकारीयों को इसलिए वो घूस लेते हैं ,समझ में नहीं आता अगर ये सच सबको पता है तो लोग इसके खिलाफ लड़ते क्यों नहीं या फिर ये बड़ा अधिकारी है कौन जिसके बहाने पैसे वसूले जाते हैं और इनकी परिभाषा दूषित हो जाती है.इस पर भी संस्कारिक विमर्श होना चाहिए ।
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