गुरुवार, 3 जून 2010

तसलीमा की हदें

बंग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन को बड़ी सम्मान भरी निगाहों से भी देखने वालों की कमी नहीं है ,मैं भी उनमें से एक हूँ ये बताने मुझे कोई गुरेज नहीं है,लेकिन आज उसने सम्मान पर धब्बा लगा दिया गाँधी की नीतियों को गलत और असरहीन ठहरा के नक्सलवाद के मामले में.उनकी लिखी पुस्तक "लज्जा "पढ़ा तो हकीकत में ऐसा लगा की लेखक किसी जाति का नहीं होता ,किसी धर्म का नहीं होता,किसी सम्प्रदाय का नहीं होता,वह सिर्फ और सिर्फ लेखक होता है.और सच मायने में उससे बड़ा कोई समाज-सुधारक भी नहीं होता.शायद यही कारण है कि उन्हें आज कोई बंग्लादेशी नाम से नहीं बल्कि उनकी लेखनी के नाम से जानता है.लेखनी में ओज तो है ही साथ ही अकेले विरोध कि क्षमता भी.और जाने अनजाने में खुद भी गाँधी को ही आत्मसात करती हैं.तो कम से कम उनसे ये उम्मीदें नहीं थी कि वे नक्सलवाद के मामले में गाँधी को ही लपेट डालेंगी.अहिंसा से बड़ा कोई अस्त्र न रहा है और न ही हो सकता बस उसमे अंतर इतना है कि आज उतने धैर्यवान लोग नहीं जो खुद को अहिंसा के रास्ते पर चलने के काबिल बना सकें.अशोक को कोई मार-काट मचने के वजह से नहीं जानता बल्कि उनकी अहिंसा से पायी गयी जीत के वजह से जानता है,आजादी के दौर में भी इस महामंत्र ने उन अंग्रेजों को भागने पर विवश कर दिया जिनके राज्य में कभी सूरज ही अस्त नहीं होता था।
अतः अपनी विद्वता और एकल सोंच पर धब्बा लगाने के बजाय अगर लोगों से गांधी कि नीतियों पर चलने और उसको आत्मसात करने कि अपील करें तो शायद उनको जम्में कि कमी नहीं पड़ेगी.

2 टिप्‍पणियां:

  1. Ganesh ji badhai ho aapko aapke is sandar lekh ke liye,taslima kuchh b likhe hamare liye to ATITHI DEO BHAVH.
    Mai khud ballia ka rahne wala hu khushi hui lekh padkar.
    Etips-blog.blogspot.com

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  2. कृपया अपने ब्लाग से वर्ड वेरिफीकेशन हटा दे,पाठकोँ को टिप्पणी देने मे असुविधा हो रही है
    सेटिँग मे जाऐँ>टिप्पणी>और वर्ड वेरिफिकेशन डिसेबल कर के सेटिँग सहेज देँ

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