सोमवार, 28 जून 2010

वास्तविक समाजवादी विचारधारा के एक युग प्रवर्तक का अंत

बनारस के गंगा जमुनी तहजीब के अजीबो-गरीब फक्कडपन और तजुर्बे का नाम था मार्कंडेय सिंह .काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम् एस सी की डिग्री क्या हाशिल की ,मानों यही का होके रह गए.उन दिनों जब छात्र राजनीती का शहर में बोलबाला होता था ,तब अपनी अलग सोंच रखने के वजह से ही सन १९७१ में विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे,वहीं से शुरू हुआ राजनैतिक सफ़र फिर रुकना कहाँ था .राम मनोहर लोहिया के विचारों से प्रभावित श्री मार्कंडेय अंगरेजी हटाओ आन्दोलनमें काफी बढ़ चढ़ के हिस्सा लिए ,बनारस में प्रखर समाजवादी नेता श्री राजनारायण के सबसे करीबियों में थे .बाद में जब जनता पार्टी का गठन हुआ और इंदिरा गाँधी कीसरकार भयंकर रूप से पराजित हुई तो उन्हें जनता पार्टी युवा का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया ,बताया जाता है की ये वो समय था जब इनके पास हवाई जहाज से नीचे उतरने का फुर्सत नहीं था.बाद में जनता पार्टी के टूटने पर थोड़े सकते में तो जरूर आये लेकिन हेमवतीनंदन बहुगुदा के संपर्क में आये और लोग कयास लगाने लगे की अब मार्कंडेय दादा भी कांग्रेसी हो गए,लेकिन हर कुछ के बावजूद वो विचारों से कहाँ समझौता करने वाले थे शायद यही कारण रहा कि कांग्रेस का कभी झंडा नहीं ढोए. हिन्दू विश्वविद्यालय के छात्र राजनीती के दो धुर हुआ करते थे एक देवब्रत मजूमदार तो दुसरे मार्कंडेय सिंह.ये दोनों लोग वैसे तो एक होने से रहे लेकिन अगर किसी मुद्दे पर ये एक हो गए तो फिर किसी कि दाल नहीं गलनी थी .बहुगुदा जी के संपर्क में आने और फिर उनके निधन के बाद ये राजनीतिक सन्यास कि स्थिति में चले गए थे.लगभग चार साल पहले लंका स्थित टंडन टी स्टाल के गार्जियन कि स्मारिका छपवाने और उनका जन्म दिन मनाने के लिए उनका संघर्ष देखने लायक था.पैर में भारी घाव उसे पालीथिन से बांधे दौड़ते रहे और संपादित करा के ही दम लिए ।
कुछ दिन पहले यानि फरवरी २०१० में मैं और चौधरी राजेन्द्र उनके घर गए तो पता चला कि नेता जी कुम्भ स्नान करने गए हैं ,वापस आये तो बोले कि अब मैं फिर से चार्ज हो कर आ गया हूँ ,और लगे दौरा करने ,तपती दुपहरी में।
वैसे तो मूल रूप से रहनेवाले बनारस के गंगापुर के ही थे लेकिन ज्यादातर समय अपना बनारस शहर में ही गुजारे लेकिन इस बार आये तो उनका आशियाना नारिया स्थित जैन धर्मशाला का .बीएचयू के पूर्व छात्रनेता चौधरी राजेन्द्र का कमरा .बतौर चौधरी जी वो इधर काफी चिंतित से रहते थे देश कि स्थितियों को लेकर.और निरंतर दो महीने भाग दौड़ किये।
उसके बाद आया काल का वो दिन जब उन्हें अपने एक मित्र प्रहलाद तिवारी की बेटी कि शादी मेंकानपुर जाना पड़ा यानि २७ जुलाई .रस्ते में ही हृदयाघात हुआ और दम तोड़ दिया,ये ढलता सूरज जिसे अपनी लालिमा खोने का मलाल भी नहीं था.देश के कई नेताओं के वो गुरु थे जैसे नितीश रामबिलाश शरद यादव वगैरह के,लेकिन किसी से कोई मानसिक समझौता नहीं।अभी राहुल गाँधी के अहरौरा के सम्मलेन के बाद हुई मुलाक़ात में बताने लगे कि एक समय था कि मैं और जार्ज फर्नांडीस कभी उसी अह्रारा स्थल पर मुख्य वक्ता हुआ करते थे और आज मई बैरिकेटिंग के पास खड़ा हूँ .ये थी उनकी राजनैतिक साफगोई ,संच भी है याद किये भाषण देने वाले के कंधे पर रास्त्र कब तक और कहाँ तक चलेगा .
उस काशी कि माटी के अमर सपूत को शब्दों का आखिरी सलाम.किसी ने सच ही कहा है "न ही कोई गिरज और गुरजे गुबार है मस्तों कि जिन्दगी में हमेशा बहार है "
जय हो .

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें