कहा जाता है की अगर विरोधी मजबूत हो तो सक्रियता सफलता बन जाती है.आज देश में विरोधियों की तो कमी नहीं लेकिन विरोध में कोई तीक्ष्णता नहीं है कारण कि आज नेता पक्ष हो या प्रतिपक्ष किसी केपास कोई देश का आदर्श मॉडल नहीं है.वो बहस तो करता है ,विरोध तो करता है लेकिन देश को ले कहाँ जाना चाहता है ये कत्तई स्पष्ट नहीं है .लोगों के पास राजनैतिक मॉडल तो हैं कि चुनाव किस मुद्दे पर लड़ना है और चुनाव का राजनैतिक एजेंडा क्या होगा ,किसको कौन सा मंत्रालय सौपना है ,ये सारी चीजें तो तयं है लेकिन देश के विकास के रास्ते और हदें तय करने की जरूरत तक नहीं समझी जाती।
पहले के नेताओं के पास अपना एक मॉडल था जिसको स्थापित करने के लिए वो लड़ते थे ,नेहरु के पास अगर पंचवर्षीय योजना थी,तो शास्त्री जी के पास त्याग ,लोहिया के पास समाजवाद था तो श्यामा प्रसाद मुकर्जी के पास ओज ,इंदिरा के पास अड़ियल पण और लौह विचार था तो फिरोज गाँधी और अटल बिहारी के पास भाषा ,संजय गाँधी के पास मारुती तो राजीव के पास मोबाइल ,जिस मॉडल को जिसने अपनाया उसके कार्य किया तो वो दिखा लेकिन आज के नेताओं के पास ऐसे किसी मॉडल का कदाचित अभाव है ,मॉडल की ही देन है किवर्षों से अपनी खानदानी राजनीती करने वाले लोगों को भी देश के सत्ता कि बागडोर से हटना तक पड़ा।
न आज पर्यावरण के लिए कोई सोंच है न ही जनता के लिए .डेनमार्क के कोपेनहेगेन में सम्मलेन होता है और उस में तय की जाने वाली साडी चीजें बाहर निकलते ही भुला दी जातीं हैं . मॉडल है तो कपड़ों का राहुल गाँधी के कुरते और पैंट का एक मॉडल है .अभी एक दिन पहले अख़बार के किसी कालम में पढने को मिला कि इस समय कांग्रेसी नेताओं में राहुल के कुरते का बड़ा क्रेज है ब्रांडेड जूते कि पूछ है ,अरे काम तो करो जूते की कमी नहीं पड़ेगी।
तो हकीकत में अगर जरूरत है तो विकास के मॉडल ,अन्यथा एक पक्ष हथियार से देश चलाना चाहता है और अपने को मार्क्सवादी कहता है तो दूसरा करोड़ों कि संपत्तियों का मालिक बन अपने को समाजवादी कहता है तो तीसरा धर्म से अलग हो खुद को धार्मिक कहता है और चौथे के पास तो लगता है कहने के लिए कुछ है ही नहीं ,तो क्या अब बंदूकों कि नोक पर राष्ट्र चलेगा और हम अपनी पहचान बनायेंगे तो कत्तई नहीं फिर जरूरत है नए भूगोल कि जो कि कल का इतिहास होने वाला है .
हक़ीकत है ये ....धन्यवाद
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