सोमवार, 20 दिसंबर 2010

राष्ट्र राज्य और अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता

काकोरी के शहीदों की याद में राष्ट्र राज्य और अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता पर एक गोष्ठी तो हुई वैचारिक बहसे भी हुई,लेकिन शीर्षक केंद्र में नहीं रहा। कारन की जब-जब विद्वानों को जोड़ने का प्रयास किया जाता है तब तब यही होता है। सच तो यह है की अभिब्यक्ति ही है जी कभी परतंत्र नहीं होती और इतना ही नहीं उसको जितना परतंत्र करने को कोशिश की जाती है वो उतना ही स्वतंत्र होती जाती है। बहुतेरे क्रांतिकारी नेता जो फासी पर तो चढ़ा दिए गए लेकिन उनकी अभिब्यक्ति अंग्रेजो के लिए ताबूत का कील साबित हुई। उनके विचार आज भी मरे हुए में जोश पैदा कर देती हैं। बहस चल ही रही थी की बीच में अपने भाषण के दौरान एक प्रोफ़ेसर साहब राम की तुलना लादेन से कर बैठे ,मैंने कहा अब कितनी अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिए आप लोगों को भाई। जब जान पर बाण आती है तो अभिब्यक्ति सबसे मजबूत स्थिति में होती है ,उन प्रोफ़ेसर साहब लोगों की मिलने वाली एक लाख तनख्वाह में से नब्बे हजार उनको दे दिया जाय और दस हजार गरीबो में बाट दिया जाय तो शायद किसी एक की ऐसी पहल न रह जायेगी और फिर जो इनकी अभिब्यक्ति होगी देखने योग्य होगी। अतः अभिब्यक्ति के छलावे मत गरीबों को घसीतिये अरुंधती रॉय कभी गरीब नहीं रही है,जिनके लिए आप लोग चिल्ला रहे है ।

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