मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

आधुनिकता के अंधेपन में सांस्कृतिक विघटन

शिक्षा समाज की रीढ़ होती है और रीढ़ शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग,यदि किसी कारण वश यह रीढ़ टूट जाती है तो आज तक धरती पर कोई ऐसा सर्जन पैदा नहीं हुआ जो इस टूटी रीढ़ को जोड़ सके/शायद हमारे समाज की भी स्थिति
कुछ
इसी तरफ अग्रसर है/आजादी के बाद हम दिनोदिन चतुर्दिक विकास की चादर फ़ैलाने में खुद को समर्थ पाए है/
जिसमे आधुनिक शिक्षा के योगदान को नाकारा नहीं जा सकता /लेकिन इसकी भ्रामक स्थिति भी स्वीकार्य नहीं है/आज हर शहर,गली मोहल्ले में कुकुरमुत्ते की तरह इंग्लिश मीडियम स्कूल फल-फूल रहे हैं/जिसमे बच्चो का सांस्कृतिक बदलाव किया जा रहा है वो भी पारिवारिक स्टार पर/
आज बच्चो को रोटिया नहीं सैंडविच दी जाती है टिफिन के लिए ,जो जाने अनजाने में शुरुआत है शारीरिक विघटन का /अब क्या मानो लीसेंसे मिल गया अनाचार का /फिर ये बच्चे इन कुल्गुरुओं के हाथ में सुपुर्द कर दिए जाते है,जहा हसबंड डे और वेलेंतैन डे तो केक कट कर खूब चाव से मनाया जाता है पर स्वतंत्रता दिवस और गरतंत्र दिवस जैसे राष्ट्रिय पर्व पर इन मासूमो के हाथ पर एक चाकलेट भी नसीब नहीं करायी जाती है /
यही बच्चे बड़े होकर जब अपने रिवाजों को भूल जाते है तो कौन सा पाप कर रहे है/
आज समाज बचपन और बुढौती की दुश्वरिओं को झेल रहा है ,कारण संयुक्त परिवारों का विघटन /जाहिर सी बात है की जो बच्चे किसी नर्स की हाथ में पाले होते है,जो अपनों किलकारिया माँ बाप को सुना भी नहीं पते वो बड़े होकर क्या खाक बूढ़े बाप की सेवा कर पाएंगे /
अतः जरूरत हमको बदलने की,वश /

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