गुरुवार, 30 दिसंबर 2010
गत की विदाई आगत का स्वागत
नव वर्ष के नव प्रभात का नव भावाभिनंदन
मंगलवार, 28 दिसंबर 2010
नव प्रभात के सुरमयी आगाज का स्वागत
लेकिन क्या हुआ,फिर नया साल अपने समय पर पहुच गया है,जरूरत है तो अपने गलतियों को स्वीकार करने की,यद्यपि ये हमारे देश के राजनेताओं के शब्दकोष में नहीं। फिर भी शायद देर सबेर होश आ ही जाय। बाकी घोटालेबाजों को घोटाले मुबारक,गरीबों को उनकी गरीबी मुबारक तो शरद पवार को प्याज औरन्य खाद्यों की महगाई मुबारक। प्रधानमंत्री को जेपीसी मुबारक तो सोनियां जी को अध्यक्षी मुबारक। सब अपनी मुफलिसी और अस्तित्व के संकट में ही सही एक बार ही सही बोल,दे सुस्वागतम,क्योको फिर भी थर्टी फर्स्ट मानेगा और लोग थिरकेंगे। नक्सली घटनाओं में हताहत और आये दिन अपने सरकारी विकास के खाते में ब्लास्ट की घटनाओं को सजोये सरकार की हर पहल मुबारक। तो आइये कराहों के बीच ही सही फिर से बोल ही दिया जाय.............नूतन वर्षाभिनंदन । जय हिंद।
सोमवार, 27 दिसंबर 2010
सचिन और भारत रत्न
मैं सचिन का या उनको भारत रत्न देने का विरोधी नहीं,लेकिन भारत रत्न कि अपनी एक गरिमा है,मै ये भी नहीं कहता कि सचिन उस गरिमा के उपयुक्त है या नहीं लेकिन इतना तो जरूर है कि ऐसे बहुत नाम है जो अपने क्षेत्र में बहुत अच्छा किये है ,अगर सबको हम भारत रत्न दिलाने कि मांग करने लगे तो शायद संभव नहीं होगा। वैसे भी सचिन किसी पहचान कि मोहताज नहीं है और न ही भारत रत्न के रूप में मिलनेवाले धन का उनके सामने कोई हैसियत है,ऐसे में सचिन कि चुप्पी या तो ये मान ली जाय कि वो भी इस तमगे कि आस में बैठे है अन्यथा उन्हें खुद कह देना चाहिए कि मुझे भारत रत्न नहीं चाहिए जिससे उनका कद और भी बड़ा हो जाता। भारत रत्न मुफलिसी में जी रहे छोटो को बड़ा बनाने के लिए उपयोग में लाना ही न्याय संगत है।
रविवार, 26 दिसंबर 2010
शरद पवार को आखिर कांग्रेस क्यों ढोने की कशम खा रखी है
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
राष्ट्र राज्य और अभिब्यक्ति की स्वतंत्रता
गुरुवार, 16 दिसंबर 2010
देश को कंगाल बना रही कांग्रेस की नीतियां
आये दिन जन्जरूरत के चीजों का दम बढ़ानेवाले कांग्रेसियों का परिवार तो अधिकतर विदेशी आबोहवा में रहता है,उसे पेट्रोल और दाल की कीमत से क्या लेना देना । शरद पवार चिल्ला-चिल्ला के कह ही दिए की अनाज सदा देंगे लेकिन गरीबों को नहीं देंगे न ही सस्ता करेंगे,फिर भी कांग्रेस उन्हें सर आखों पर बैठाये हुई है,क्योंकि ये उसके टेस्ट के नेता हैं। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री जी निश्चय ही इमानदार छबि के है लेकिन क्या कहा जाय अगर गरीबों के लिए नहीं खड़े हो सकने की ताकत है तो अब उनको खाने की कमी कभी थोड़े ही रहेगी ,न ही उनको और प्रसिध्ही ही अब मिल सकती,वो इतने ऊचे पड़ाव पर पहुच चुके है,तो कुर्सी की लालच क्यों लगाये हुए है ,जाए राम -राम करे। या फिर मान लें की हर गड़बड़ी उनकी जानकारी में हो रहे है। देश के आईने में अपना प्रतिबिम्ब एक ईमानदार और उनके सरीखे विद्वान आदमी को नहीं खरब करना चाहिए ।
मंगलवार, 14 दिसंबर 2010
Check out Pitney Bowes India Launches 'DocWell'
Link: http://gotaf.socialtwist.com/redirect?l=3uz1
जाने -अनजाने में आतंकवादियों के हौसले बढ़ा रहीं सरकार की ध्वस्त नीतियां
हमारे देश में ऐसे दुर्घटनाओं में मारे जानेके बाद मुवावजे पर भी बड़ा झगडा होता है। और फिर सरकार दिल खोल कर खर्च करने पर उतारू होती है ,और फिर उसकी देख रेख भी भूल जाती है,जो आदर्श सोसाइटी जैसे घोटालों को जन्म देते हैं और मुफ्त में मिलने वाले फ्लैट्स को करोड़ों में दुसरे को बेच दिया जाता है। फिर मामला खुलता है,उस पर जांच बैठती है,करोड़ों रूपये की आहुति चढ़ती है,तब तक हो हल्ला होता है जब तक कोई दूसरा मामला घोटाले का रूप ले दरवाजा न खटखटा रहा हो,और पहले वाले की इतिश्री ।
सुरक्षा तंत्रों की हर पल की पोल खोलते है वर्दीधारी सिपाही जो सिर्फ वसूली में लगे रहते है,कैसे वो राजा हो जाए। करोड़ों की संपत्ति एक सिपाही के पास है। सरकारी तंत्र के लोग भी दो चार दिन फास्ट रहते है,किसी दुर्घटना के बाद,फिर वही पुराना ढर्रा। कई अखबारों ने बनारस घटना के दुसरे दिन से ही यहाँ की सुरक्षा की पोल खोलनी शुरू कर दी ,तंत्रों को तो मानो ये सब झेलने की आदत हो गयी हो। अभी किसी वी आई पी के आने की खबर होगी तो रातोरात सड़कें बन जायेंगी,नक्के-नक्के पे सिपाही अपने वर्दी की हरयाली से नाक में दम कर देंगे ,लेकिन अभी अपनी रोज की ड्यूटी की बात हो तो इनकी नानी मरती है। जनता के पैसे पर ये पलते है,सिर्फ ये कहना गलत होगा,जोभी बड़े राजनेता या अधिकारी है,लेकिन जनता ही इनके एजेंडे में नहीं होते।
कब तक हम इन्तजार करते रहेंगे इनके सुधरने की,जनता खुद जिस दिन अपने निजी स्वार्थों को थोडा ताज दुसरे की भी सोंचने लगेगी,उस दिन इनको भी सुधारना मजबूरी हो जायेगी,और जिस दिन हम सभी अपनी वास्तविक भूमिका में आ गये उस दिन इस दो तकिये आतंकवादियों की क्या औकात है,हम उन्हें समझा लेंगे। भाग दौड़ वाली जिन्दगी में लोक विचार के लिए लोगों के पास समय नहीं रह गया साथ ही ऐसी बातों में रूचि भी नहीं है। इसलिए जरूरत है तो विचार मंचों की,उनके पहल की क्योंकि विचार काभी अकेला नहीं होता,और कमजोर नहीं होता।
गुरुवार, 9 दिसंबर 2010
ग़मों में मुस्कराती युवा पीढ़ी
इससे चिंतित होने की कत्तई जरूरत नहीं है निश्चय ही आज का युवा मन ज्यादा सामंजस्य स्थापित कर लेता है बनस्पत पुरानों के। इसलिए जरूरत है तो इस जोशीले अंदाज को प्रशंसनीय बनाने का , बाकी काम ये खुद कर लेंगे। वैसे तो दुनिया भर में लाफ्टर चैनल्स काम कर रहे है,गुदगुदाना ही उनका व्यवसाय है जहा लोग मुह में अंगुली डाल-डाल हँसते है,लेकिन किसी के चेहरे पर एक मुस्कान ला देना जो चैन और सुकून देगा उसे सिर्फ और सिर्फ महसूस ही किया जा सकता है। तो आइये युवाओं के आदर्श पर चलते हुए उनकी हँसी और मुस्कान कास्वागत किसी रोते हुए को हँसाने के सुख और सेज पर सोने का एक छोटा सा प्रयास कर ही लिया जाय,क्या आप भी चल रहे हैं।
बुधवार, 8 दिसंबर 2010
आतंकवाद और आतंकवादी कायर और कायरता के सबसे बड़े पर्यायवाची
इस तरह की लुकाछिपी ,करके मार देना ,इनकी कलुषित सोंच के अलावा कुछ भी नहीं है। वैसे भी बनारस जैसे मस्तों के शहर में तो उनके मायूसी फ़ैलाने की एक न चलेगी। भूतभावन की नगरी काभी आतंक के आगोश में नहीं आती । फिर सुबह कचौड़िया छनी ,जलेबियाँ बनी,पान और भांग रमें लोग बरबस हर चौराहे पर इनकी कृत्य को गाली देते सुने जा सकते हैं। किसी पर शक करने की जरूरत नहीं, ये बनारसी अक्खडपन किसी को थमने नहीं देंगे। ईश्वर इसमें घायल लोगों को जल्दी से ठीक करे और हताहतों की आत्मा को शांति दें,। और इन निरीह कायरों को सदबुद्धि दें ,दया के पात्र इस भुक्तभोगी नहीं बल्कि ये कायर हैं जिन्हें हम आतंकवादी कहते हैं।
जय हिंद,जय बनारस।
मंगलवार, 7 दिसंबर 2010
टेलीविजन कायक्रमों की हदें
अतः इसे ही नहीं ऐसे किसी भी कार्यक्रम को तत्काल बंद करना चाहिए।
गुरुवार, 2 दिसंबर 2010
सरकारी लूट और निठल्लेपन के बढ़ते खतरे
अभी एड्स दिवस पर कई बड़े डॉक्टरों की कलई खुली,जो कैसा व्यवहार करते है,वो अपने रोगियों के साथ ,जिनकी सेवा की रोटी खाते हैं वो। सर सुन्दर लाल अस्पताल बीएचयू जिसके विषय में अखबार वाले भी छपने से कतराते हैं की स्थिति ये है की वहां पहुचने वाले रोगियों के साथ ये डाक्टर साहब लोग ऐसा व्यवहार करते है,मानो ये किसी दुसरे गृह से आये हों। सब तो सब जो रेसिडेंट अभी पीजी का छात्र होता है,और ट्रेनिंग के लिए रेजिडेंट डाक्टर के रूप में कार्यरत होता है,उसकी गति यह है की किसी बुजुर्ग को भी आप नहीं कह सकता तुम तो मानो उनकी छठी में दाल दिया गया हो। ये है सरकारी छुआछूत का ऐठन।
ऐसे में सबसे पहले जरूरी है की ,बढाई हुई छठां वेतन की तनख्वाह वापस करना तो हवा-हवाई हो जाएगा लेकिन कषम खा लेना की इनको अगले पच्चीस सालों तक अब इसी वेतन पर काम करना है,नीचे से ऊपर तक सारे महकमों के सारे कर्मचारियों के साथ। उसके बाद बदली तस्बीर सामने होगी,इनकी औकात की थाली में,क्योंकि सरकारी नौकरों का मन का बढ़ना लोकशाही का बढ़ना है,जो कभी सत्य का नुमैन्दगार नहीं हो सकता। इनके खिलाफ भी सड़कों पर देर सबेर उतरना ही होगा,तभी सच्चा भारत दिखेगा।
सोमवार, 29 नवंबर 2010
भारत के आर्थिक बदहाली की समीक्षा
भारत में आर्थिक तंगहाली के सबसे बड़े कारणों में यहाँ का भ्रष्टाचार है,चाहे वो आदर्श सोसाईटी का मामला हो,या राष्ट्रमंडल खेलों का। इस देश में एक घोटाले की कलई खुल नहीं पाती है की दुसरे हाजिर,उस पर बहस शुरू। पहले वाले को यूं ही निजात मिल गया। आजादी के बाद सिर्फ घोटालों का इतिहास खंगाल दिया जाय और उसे जनता में ईमानदारी से खर्च करने की सोंच लिया जाय तो ,आज भी हम अमीरों से अमीर है।
तंगहाली का दूसरा कारण सरकारी नौकरियों में तनख्वाह में बेतहासा ब्रिधि भी गरीबी-अमीरी की खाईं को बढाया । सामान्य जनता गरीबी को धोने और रोने में मशगूल होने को मजबूर होती है। तीसरा बड़ा कारण ,दुर्घटनाओं में मुआवजा पर आज इतना लम्बा चौड़ा खर्च हो रहा है,की किसी भी देश का देश निकाला हो जाए। इसके लिए सिर्फ राजनीतिज्ञों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता,जनता भी उतनी ही जिम्मेदार है। उसे सोचना चाहिए की ये आपका ही पैसा आपको एहसान तौर पर दिया जा रहा है,और अपने भी लूटा जा रहा है । इन तीन मामलो पर सकारात्मक बदलाव फिर से देश को सोने की चिड़िया बना सकते है,सिर्फ बहेलियों से बचाना है।
शुक्रवार, 26 नवंबर 2010
बहुरे राजनैतिक बदलाव के दिन
बिहार का बदलाव देश के लिए जहाँ एक शुभ सन्देश है वही राजनेताओं के लिए एक दिशा भी। काम करिए राज करिए । भाषण से देश नहीं चलने वाला। ऐसा नहीं है की अब वहा बदलाव नहीं होंगे कोई और लालू फिर से ढोंग रचा कर जनता को मंत्रमुग्ध कर आ सकता है ,लेकिन पुराने लालू को तो अब सन्यासी हो जाना चाहिए।
इस लिए राजनीती का एक ही फंडा,काम करो राज करो।
गुरुवार, 18 नवंबर 2010
नौजवानों के हिस्से केवल लालीपॉप
आज देश में युवाओं को साथ जोड़ने का जिम्मा चालीस वर्षीय राहुल गाँधी लेलिये हैं। जिन्होंने आन्दोलन तो शायद कभी देखा भी नहीं होगा । आज देश का एक खाशा पढ़ा लिखा युवा जो सामाजिक सरोकारों से जुदा है जुड़ना चाहता है,जीवन के ऐसे दो राहों पर खड़ा है,कि जाय तो जाय कहाँ ? क्या उन तक राहुल जी का नयनाभिराम हो प् रहा है,तो कत्तई नहीं ,अरे ऐसी जगह तो सच्चाई है कि सुध्धोधन टाईप में संगठन के पुराने लोग उन्हें भेजने से कतराते हैं कि कही इनका दिमाग न बदल जाय और किसी और कुशुनगर कि तलाश में न निकल पड़ें। लेकिन एक बात तो समझना चाहिए कि राहुल जी अप चालीस वर्ष के हो गए अब बच्चे नहीं रहे अपनी सोच होनी चाहिए ,क्या संगठन में किसी तरह से युवाओं कि बराबर कि भागीदारी लग रही है आपको,या आप भी सिर्फ लालीपॉप ही पकड़ा रहे है,इन लोगों को। सरपट यात्रा करने से ही देश का कल्याण नहीं होने वाला है। रोज घोटाले घोटने वालों का जन्म हो रहा है,और आप अपनी विजयगाथा गाने में मशगूल है। बदलाव अपने आप होता है, जिसका फायदा आपको मिल रहा है,इस भ्रम में रहने की जरूरत नहीं कि यह आपके सरपट यात्राओं का फल है। देश जरूर आपकी कद्र कर रहा है,लेकिन आपको भी समझना चाहिए कि जीतीं प्रसाद,ज्योतिरादित्य,और सचिंपाय्लत तथा उम्र के अलावा भी नौजवान यहाँ है,जो हर मामले में उनसे योग्य है,सिर्फ जन्म से मिली सोने के कटोरी उनके पास नहीं है। जब तक इनको साथ नहीं लेंगे ,आप साकार बना सकते है,लेकिन नेता नहीं हो सकते। इन्सान बनिए और इन्सान बनाईये।
जाय हिंद
शुक्रवार, 12 नवंबर 2010
गुलामी का आनंद ,स्वतंत्रता के खतरे
स्वतंत्रता जीवन के अंदाज को बदल देती है। जो एक अलग संस्कृति को जन्म देती है। स्वतंत्रता का अभिमान या वैचारिक दुरपयोग बिभिन्न संस्कृतियों में सामंजस्य स्थापित नहीं होने देते ,और स्वतंत्रता सामाजिक हाजमे को ख़राब करना शुरू कर देता है। अब इस स्वतंत्रता के खतरे के रूप में हमें सामना करना पड़ता है,लिव इन रिलेशन से लेकर माँ बाप के परवरिश के लिए सर्वोच्च न्यायलय के आदेश तक के के रूप में। एक तरफ जहाँ बचपन और बुढौती कि दुश्वारियों को इस स्वतंत्रता ने बढ़ा दिया तो वहीं विवाह जैसे पवित्र संस्था को भी तलाक के मकडजाल से उलझना आम हो गया। विवाह अब मर्यादा नहीं रही। माँ बाप अब दैवीय नहीं रहे।
अगर यही स्वतंत्रता है तो हमें हमारी गुलामी वापस कर दीजिये,शहीदों को उनकी शहादत वापस कर दीजिये ,रिश्तों के साथ गुलामी मंजूर है,रिश्तों को बेच आजादी का ढोंग अब और नहीं........
मंगलवार, 2 नवंबर 2010
कहीं दिया जले कहीं दिल
तो क्या इतने से ही राष्ट्र की रखवारी हो जायेगी। करोड़ों रूपये के भ्रष्टाचारी गुब्बारे दुनियां में भारत को भले ही एक मजबूत अर्थव्यवस्था वाले मुल्क के रूप में स्थापित करा दे लेकिन ओ बच्चे जो कभी अपने हाथ में खेलने वाले गुब्बारों की खुशी तक नहीं महसूस कर पाए ,उनके गुबार जब फूटेंगे तो वैचारिक बैसाखी पर चलने वाली सरकारों का क्या हश्र होगा। डॉ मनमोहन सिंह विश्व के सबसे बड़े अर्थशास्त्रियों में से एक ,उनके हाथ में सत्ता की एक मजबूत कमान। हालाँकि खुले बाजारों में सामान खरीदे शायद उन्हें तीस-चालीस बरस हो गए होंगे ,अगर खुद उन्हें दुकानों पर खाद्य सामग्री खरीदने भेज दिया जाय या किसी दुकान पर गरीबों की लाचारगी देखने के लिए बैठा दिया जाय तो उन्हें असली शाइनिंग इंडिया का ज्वलंत तस्बीर दिखेगा॥
पर क्या हुआ छोडिये कही दीप जले कहीं दिल की राग मल्हार को आइये मन ही ली जाय फिर से अपनों की दिवाली...................................ढेरों शुभकामनाओं के साथ।
गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010
आज के राजनेताओं की तुलनात्मक व्याख्या
गुरुवार, 23 सितंबर 2010
कहीं और कोई चापलूसी राष्ट्रगान न बन जाये
पुलिसिया नाटक से तंग लोग कहीं वाकई विद्रोह न मचाने लगें
वैसे तो मायावती सरकार अपने हिम मत के डींगे हांके जा रहे हैं लेकिन परोक्ष रूप से स्कूल,कालेज या हॉस्टल घूम-घूम कर बंद कराये जा रहे हैं। अगर ये कहा जाय कि जनता कुछ भी नहीं करने जा रही इन पुराने मुद्दों पर लेकिन अगर कुछ अस्वाभाविक घटना निर्णय आने के बाद होती है तो उसके लिए शत-प्रतिशत बहन जी के सिपहसालार जिम्मेदार होंगे। जिनको जनता कि रहनुमाई तो छोडिये अपनी वर्दी बचाना मुश्किल हो जायेगा।
गुरुवार, 16 सितंबर 2010
छात्र-युवा महापंचायत ,क्या खोया क्या पाया ?
गुरुवार, 9 सितंबर 2010
अयोध्या मसले के आने वाले फैसले में फिर भविष्य तलाशने लगे अस्तित्व के खतरे से जूझते लोग
लेकिन ऐसा नहीं हो पाया पहले से ही इतनी मुस्तैदी और हो हल्ला दिखाया जाने लगा कि न चाहते हुए भी लोग कुछ कर बैठे। ऐसे ही है जैसे किसी के मरने की तैयारी में पहले से ही कफ़न खरीद कर रख लिया जाय। अगर कोई हो हल्ला होता है,कोई विवाद होता है तो सबसे पहले मीडिया और चाँद नेताओं को जो पहले से ही शव-यात्रा के लिए कमर कास रहे हैं,उनको हमेशा-हमेशा के लिए जेल की काल कोठरी में डाल देना चाहिए जिससे फिर किसी जीवित के मरने के तैयारी करने की जुर्रत और हिम्मत जुटाने में इनकी रूह काप जाय ।
रविवार, 5 सितंबर 2010
किसानो के देश भारत में किसानो की बदहाली
आज अलीगढ़ के जमुना एक्सप्रेस कि बात चल रही थी वह किसानो के साथ जुर्म हुआ,बाद में राजनैतिक पार्टियाँ अपनी रोटी-सेकने के चक्कर में उनके साथ हो लिए। कभी सिंगूर तो कभी नैनो का विवाद। ये दर्शाता है कि आजादी के तिरसठ सालो बाद भी हमारे देश में किसानो के जमीन के अधिग्रहण से सम्बंधित कोई पुख्ता नीति नहीं बनी है। गुजरात में तो ऐसे विवाद नहीं होते कारण शायद वह जब ऐसे कारखाने या किसी तरह के प्रोजेक्ट लोअगाये जाते है तो किसानो के साथ बैठ कर सलाह मशविरा किया जाता है,उन्हें उनकी जमीन का उचित मुआवजा दिया जाता है। तो बाकी के प्रान्तों में ऐसा क्यों नहीं होता। हाँ एक बात जरूर है कि इसमें किसानो को भी अपनी जिद छोड़ इतना अधिक मांग नहीं रखनी चाहिए जो देय न हो।
देश के राजनेताओं का हाल यह है कि एक -एक सन्देश यात्राओं में करोड़ों रूपये खर्च हो रहे है और किसानो को मूर्ख बना उनके स्वार्थ के साथ टोपी पहनी जा रही.है। एक कांग्रेसी मित्र ने बताया जो प्रदेश पदाधिकारी भी है कि राहुल गाँधी के अहरौरा आगमन पर दस करोड़ खर्च हुए थे। क्या राहुल गाँधी ये दस करोड़ अगर दो चार महीने वही अहरौरा में रुक कर ये पैसा अपने हाथ से वहा के विकास में लगा देते तो क्या उनको अलग से कोई सन्देश यात्रा भी करनी पड़ती क्या?लेकिन नहीं इनको कितनी कलावती के सूखी रोटी को संसद में प्रचारित करना है,वह कैसे होगा। रत कर भासन देने वालों से आखिर कितनी उम्मीद कि जाय ।
अतः जिसका खा रहे हो उसका तो गावो भी नेताओं ।
गुरुवार, 19 अगस्त 2010
क्या राष्ट्रीय पर्व महज भ्रामक जिम्मेदारियां बनकर रह गयी हैं
इतना ही नहीं देश के प्रधानमंत्री का भी उदबोधन भी देश के प्रति उनकी कर्तव्यनिष्ठ कम और अपने संगठन और संगठन के मुखिया के प्रति ज्यादा दिखी।क्या -क्या देश पर एहसान उन लोगों ने किया अपने कार्यकाल में उसका ढिढोरा ज्यादा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री का उदबोधन सुना तो वहां नॉएडा से बालियाँ तक बन्ने वाले गंगा एक्सप्रेस जैसे अपने महान कारनामों और अपराधियों को जेल में डालने की खुशी के अलावा शायद कुछ भी बताने को नहीं था।हाँ एक चीज जरूर था की वो जयकार करते समय जय हिंद,जय भारत के साथ जय भीम और जय कांशीराम का उद्घोष करना नहीं भूली। कम से कम एक दिन तो ईमानदारी से हम राष्ट्र के नीव में दबे पुराने ईटों को याद कर लेते जिनके कपार पे एक से एक ईमारते हम तानते जा रहे हैं। लगता है अगर यही दशा बरकरार रही तो आने वाली पीढ़ी भगत सिंह और गाँधी को विदेशी किताबों के माध्यम से जानेगी। कितनी शर्म भरी खुशियाँ होती हैं जब हम सुनते हैं की गाँधी को साउथ अफ्रीका में भगवान् की तरह पूजा जाता है.उनका जन्मदिन २ अक्टूबर वहां का सबसे बड़ा जलसा होता है। और हमारे यहाँ अनी पीढ़ी गांधी को विचित्र-विचित्र शब्दों से गाली भरे अंदाज में सम्मान देती है। अगर हम सच्चाई पर पर्दा न डालें तो।
तो क्या सिर्फ और सिर्फ आने वाली पीढ़ी ही जिम्मेदार होगी इसके लिए तो कत्तई नहीं। क्योंकि सुने-सुनाये कुछ घटिया जुमले मानसिक रूप से महापुरुषों के प्रति विकृति लाने का काम करते है,जिनके पीछे कोई सत्य का बाँध नहीं खड़ा होता। अतः गुजारिश है देश के नीति नियंताओं से की कम से कम अपने नीव की ईट को भी कायदे से सलाम करने का मौका और संस्कार फिर से उसी तरह से जगाये जैसे १५ अगस्त १९४७ को उन्होंने दिखया था ,एक बध्याँ सन्देश हो सकता है।
गुरुवार, 12 अगस्त 2010
आजकल राजनीतिज्ञों को बड़े आर्थिक घोटालों का अवसर नहीं मिल रहा है क्या भाई?
बुधवार, 11 अगस्त 2010
डीएनए ,नार्को और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक जाँच विधियों पर रोक का स्वागत
लेकिन समयांतर में आज की स्थितियां भी करीब -करीब वैसी ही है। न जाने कितने शिशुपाल सड़कों पर ससम्मान सांड की तरह घुमते हैं,और बड़ी मजे की बात की चिन्हित भी नहीं हैं। जो पकड़ में आ गया वो चोर अन्यथा चोर सबसे बड़ा सिपाही। समाज में अपराधियों को दंड देने की विधा भी समय-समय पर बदलती रहती है.इतिहास गवाह है,सूली पर लटकाया जाना तो सबसे बाद का नियम है। इसके पहले हाथी से कुचलवा देना,सरेआम भुनवा देना ,विष का प्याला देना ,ये सब तो था लेकिन बात उगलवाने के लिए नारको और ब्रेन मैपिंग जैसे खतरनाक टेस्ट्स को निश्चय ही हमारी सुरक्षा व्यवस्था पर पेबंद लगाना कहा जा सकता है। आप सारे विद्वान और समाजशास्त्री मिलकर किसी का अपराध नहीं ढूढ़ पा रहे हैं तो फिर आप भी तो अपने काम के प्रति बहुत लोयल नहीं कहे जा सकते,एकबात।
दूसरी बात की क्या इस तरह के घटिया टेस्ट की कोई सही आदमी के ऊपर कर के कभी टेस्ट किया गया है,यदि हाँ तो किस पर और यदि नहीं तो क्या गारंटी है की ये सहे ही होता है। और अगर इतना ही सही और न्याय प्रिय हैं हम तो तमाम आतंकवादी जो पकडे जाते हैं सबसे पहले छूटते ही उनका नार्को और ब्रेन मैपिंग क्यों नहीं कराया जाता है। यहाँ गवाह को कटघरे में खड़ा करा कर पचहत्तर बार कसमें दिलाई जाती है की मैं जो भी कहूँगा सच कहूँगा,ऐसी कसम न्यायाधीश तो एक बार भी नहीं खता की वो जो निर्णय देगा सच ही देगा। तो पञ्च परमेश्वर को हम कब तक आत्म सात करते रहेंगे। खासकर ऐसे हालात में जब पूरी की पूरी बेंच बेची और खरेदी जाती हो।
ऐसे में यह निर्णय मानव मूल्यों की रक्षा करेगा बाकी अपराध सजा से कभी भी नहीं रुकता ,जरूरत है तो मानव सुधार और वैचारिक शिष्टता के छोटे से पहल की।
रविवार, 8 अगस्त 2010
फिर शुरू हो गयीं विदेशी गुलामी के खात्में और देशी गुलामी के जश्न की तैयारियां
कड़वा जरूर है पर बड़ा ही सच कि विदेशी गुलामी तो ख़त्म हुई आज के दिन यानि १५ अगस्त १९४७ को लेकिन देशी गुलामी कि नीव भी तो आज के ही दिन पड़ी। आप कह सकते हैं कि वो क्या जाने गुलामी का मतलब जिसने इसको ...............................
गुरुवार, 5 अगस्त 2010
देश की जनता क्या आकड़ों से अपना पेट भरेगी
देश में आजादी के बाद से आज तक सबसे ज्यादा कांग्रेसी सरकार शासन की है। जैसे किसी दुखांत नाटक के बीच में चुटकुले आजाये ,उसी माफिक गैर कांग्रेसी सरकारें बीच-बीच में आती जाती रहीं । देश की आर्थिक नीति काफी तंगहाल हो चली थी .विश्वनाथ प्रताप के आरक्षण के सामाजिक लालीपॉप के आस-पास। उसके बाद जब सरकार नरसिम्हा राव के हाथ में आई और यही मनमोहन सिंह वित्त मंत्री हुए तो अर्थव्यवस्था को इस कदर सुसंगठित और संचालित किया की आज तक हम घिस रहे है ,अन्यथा जाने कहाँ होते?
आज देश में पी चिदंबरम से लेकर स्वयं प्रधानमंत्री और प्रणव मुकर्जी इत्यादि सारे विद्वान भरे पड़े हुए हैं फिर भी हम देश की खस्ताहाल गरीबी और महगाईं को आकडे देकर दबाना चाहते हैं । देश की गरीब जनता जिसका इन आकड़ों से कोई लेना देना नहीं होता क्या आकडे खायेगी। आप लाख चिल्ला लें ,अपनी सफलता का डंका पीट लें लेकिन गवईं गरीब को आपके सब्सिडी से क्या लेना देना ,वो बस इतना जानती है की चीनी और दाल जैसे खाद्य पदार्थ भी उनके पहुच से बाहर हो रही है। देश का तो मई कत्तई नहीं कह सकता लेकिन तथाकथित कांग्रेस के राजकुमार बारात निकाल कर सन्देश यात्रायें कर रहे हैं। उनकी एक सन्देश यात्रा जो उत्तर प्रदेश के अहरौरा में आयोजित थी,में कई करोड़ रूपये खर्च हो गए ,जैसा की मेरे एक मित्र जो कांग्रेसी नेता हैं बताये। कास उस पैसे को ये राजकुमार उसी अहरौरा के विकास में खड़े होकर खर्च करा देते तो पूरे देश का भले नहीं लेकिन वहां के तो राजकुमार हो ही जाते। सांगठनिक विकास के लिए इतना कुछ कर रही है कांग्रेस सरकार वो सब सिर्ग जनता के विकास में ईमानदारी से खर्च करा दिया जाय तो अपने आप उनके संगठन का विकास हो जाएगा और इस पार्टी को देश की राजनीती में छोटे दलों को फेक पुनः स्थापित होने का मौका मिल जाएगा। आखिर छोटे दल कम से कम जनता के संपर्क में तो हैं यही कारन है उनके विकास का जो ईन राष्ट्रीय पार्टियों लिए खतरा बने हुए है। अभी समय है चेत जाओ
बुधवार, 4 अगस्त 2010
भारतीय संसद में अमेरीकी राष्ट्रपति का भाषण -ये कैसा गौरव
ठीक उसी तरह हमारे देश के महापुरुष चाहे वो गाँधी रहे हों,या सुभाष,विवेकानंद रहे हों या अरविंदो,सब ने अपनी भाषा से विदेशियों को इस कदर आशक्त किया की वो हमारे मुरीद हो गए। लेकिन आज विश्वगुरू कहलाने वाला देश दूसरों के नुस्खों पर चलेगा,दूसरों की कार्यशैली को अपना आदर्श बनाएगा तो फिर भारतीय विद्वता की पहचानखतरे में है। और ये कभी भी देशहित में न्याय सांगत नहीं होगा। अतः बराक ओबामा को बुलाये ,उसका विरोध नहीं है,उनका भाषण भी कराये उसका भी विरोध नहीं है,होसके और ज्यादे चापलूसी का शौक चर्राया हो तो उनका कसेट रख भजन की तरह सुने ,इसका भी विरोध नहीं है,लेकिन इसको इतना महिमा मंडित न करे की संस्कृति धूमिल हो अन्यथा विवेकानंद की खडाऊं और मदनमोहन मालवीय की छडी अभी भी सुरक्षित है।
मंगलवार, 3 अगस्त 2010
अब एक नया ढिढोरा -न्यायिक सुधार का
आजादी के तिरसठ सालों बाद भी इन मदांध ,घटिया और स्वार्थी राजनेताओं को सन्देश यात्राओं में,साइकिल यात्राओं में तो रूचि है जिससे वे भारत ही नहीं अमेरिका के भी राष्ट्रपति हो जाय लेकिन देश के गरीबों के कटोरे में रोटी भी नसीब है या नहीं ,उसकी जहमत ये क्यों लें। अभी चार-पांच साल पहले बनारस के पांडेपुर स्थित पागलखाने में सरला नाम की एक बुजुर्ग महिला का प्रकरण प्रकाश में आया था जिसे न्यायलय ने पागल करार दे पागलखाने पंहुचा तो दिया पर उसकी सुधि उतार दी,अब बेचारी सरला को जबरदस्ती पागल बन अपना जीवन कुर्बान करना पड़ा। उसके घर वाले भी उसे पहचानने से इनकार करतेरहेबाद में एक प्रतिष्ठित वकील रमेश उपाध्याय की निगाह पता नहीं कैसे उसकी बेबसी पर पडी उसे पागलखाने से तो छुटकारा मिल गया ,न्यायलय तो उसे भला ही चूका था ,उसके नाम से कुछ जमीन-जायदाद थी जिसके लालच में बुधिया के तथाकथित देवर उसको अपने साथ ले तो गए। लेकिन न्यायलय क्या सरला के बीते चालीस सालों को वापस कर पायेगा,उसकी नौजवानी जो काल कोठारी में बीतने को मजबूर थी उसको किसी भी तरह से भरपाई किया ज सकता है तो कत्तई नहीं।
दर इतना ही नहींहै की सरला के साथ ऐसा हुआ ,सरला तो देर-सबेर मुक्ति पा गयी,जाने कितनी सरला ऐसे ही सही न्याय के ललक में अंधे क़ानून के सामने दम तोड़ देती होंगी। उनका क्या होगा,क्या व्यवस्था की गयी सरकार द्वारा उनकी सुरक्षा के लिए। सबसे बड़ा कोढ़ समाज की पुलिस व्यवस्था है,जिस पर कोई रोकटोक नहीं। पहले तो महिलाए कम से कम मारी नहीं जाती थी अब दिन जैसे kal सुलतानपुर में एक अध्यापिका की गयी गयी तो में मौत
नई पीढ़ी रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है
लेकिन ये सवाल यही से शुरू होता है और यहीं पर ख़त्म भी हो जाता है, कारण कि देश का हर युवा रीयल लाइफ को रील लाइफ की तरह जीना चाहती है। ये तथाकथित नाम जो मैंने ऊपर दिया है,ये भी इनसे अछूते नहीं हैं। राहुल गाँधी का जूता लोट्टो का ही होता है जिसकी कीमत हजरोंमे है,अब ऐसे पैरों से दांडी मार्च की कितनी उम्मीद की जा सकती है। कहने को अखिलेश यादव चिल्लाते रहें की मैं किसान का बेटा हूँ लेकिन खेत की माटी पैर में लगने से इन्फेक्सन हो जाते हैं। कारण कहीं न कहीं रील लाइफ जीवन पध्हती है।
आज देश का हर युवा आगे तो जाना चाहता है लेकिन ,उसके पथ प्रदर्शक या आदर्श कभी शाहरुख़ खान तो कभी रितेश देशमुख हैं। तो वहीं लड़कियां भी बिद्या बालान या कैटरीना कैफ की होड़ में हैं। मैं ये तो नहीं कहता की ये गलत है लेकिन इन मासूम विचारों वाले कन्धों पर हम देश की बागडोर भी तो नहीं सौंप सकते । हेयर स्टाइल से लेकर मोबाइल और ड्रेसिंग सेन्स की तो हुबहू नक़ल है लेकिन क्या उतनी गंभीरता कापी ,कलम और किताब के प्रति भी है ये भी एक विचारणीय प्रश्न है। समसामयिक विकास होना कभी भी गलत नहीं होता लेकिन इस उन्माद में लक्ष्यों को भूल जाना क्या विकास को गति देना है। अब लक्ष्य भी क्या नौकरी ,तो क्यों ? क्योंकि कार ,बंगला घोडा .गाडी चाहिए ,परिवार तक के जिम्मेदारियों की अनदेखी खुलेआम हो रही है तो ऐसे में समाज के मददकितनी उम्मीद की जाय। और कब तक झूठे कोसते रहें की कुछ हाथ नहीं रहा युवाओं के ...............
शनिवार, 31 जुलाई 2010
आखिर किसने सुलाया बनारस को?
अस्सी के दशक तक का यदि ध्यान दिया जाय तो बनारस में इक्के-दुक्के अंग्रेजी मीडियम स्कूल हुआ करते थे ,नब्बे के दशक में इसमें काफी बढ़ोत्तरी हुई और दो हजार से अब तक में तो मानो इनकी बाढ़ सी आ गयी है। आज स्थितियां यहाँ तक पहुच चुकी हैं कि हर व्यक्ति आज अपने बच्चों को अंगरेजी मीडियम से ही पढ़ाना चाहता है। तो क्या दिया अब तक के तीस सालों में इन आंग्ल भाषी लोगों ने इस पर भी विचार होना जरूरी है। अब क्या वो लोग जो अंग्रेजियत के नाम पर आधुनिकता के अंधेपन में हमारी संस्कृति का नंगा नाच करवाए उन्ही के माथे हमारी संस्कृति चलेगी। ये स्कूल पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी तक को एक चाकलेट भी बच्चों को नसीब नहीं करा पाते और फ्रेंडशिप डे ,वेलेंटाइन दे और हसबैंड डे को केक काट बच्चों में बट्वाते हैं,वो आज जन यात्रा निकाल कर कौन सा सन्देश देना चाहते हैं। रही बात सड़कों की तो आये दिन अखबारों के पन्ने बस स्कूलों द्वारा किये गए दुर्घटनाओं से भरे पड़े हैं सुबह छः बजे से दश बजे तक सड़कों पर चलना दूभर कर दिया है ,इन स्कूल बसों ने। तो कहीं ये कई स्कूलों की श्रंखला चलने वाले शिक्षा के अंगरेजी व्यवसायियों का नाम चमकाने का रास्ता तो नहीं या कोई नया स्वार्थ आ टपका है,अन्यथा जो-जो लोग इस जन्जारण को अगुवाई कर रहे हैं उनसे किसी सामाजिक सुधर की उम्मीद तो नहीं ही की जा सकती। बनारस हमेशा से जीवंत शहर रहा है ढोल बजा कर नाटक करने की कोई जरूरत नहीं ।
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
राजतंत्र से भी बदतर भारतीय लोकतंत्र
लेकिन आज आजादी के तिरसठ सालों बाद भी हम ऐसे मानसिक दिवालियेपन कि स्थिति से गुजर रहे हैं कि संसद और विधानसभाओं तक में नेताओं को उठा के मार्शल से फेक्वाया जाता है,इतना ही नहीं महिला विधायिकाओं तक को। ये क्या है ,कहाँ चली गयी सत्तासीन नेताओं को ऊचीं मानसिकता ,जहाँ दो विरोधी ध्रुव के लोग भी एक दुसरे का सम्मान करते थे। ये तो राजतन्त्र से भी बदतर है। अतः ,इसके विरोध में व्यक्तिगत स्वार्थों से ऊपर उठ कर सारे दलों के नेताओं को आगे आना चाहिए जिससे देश कि संसद,विधायिका का तो कम से कम मटियामेट होने से बच जाय।
गुरुवार, 15 जुलाई 2010
कांग्रेस की दरबारी नीति
लेकिन आज के कांग्रेस की नीतियां तपो अब उबून हो रही हैं,जैसे लग रहा है कम,प्यूटर देश चला रहा है,कई विश्वविख्यात अर्थशास्त्री देश की स्थिति सुधारने के बहाने संगठन को सुदृढ़ बनाने में लगे हुए । नरेगा,या दुनिया भर ऐसी योजनाये जिसमे देश के विकास का पैसा तो खर्च होता ही है,ये गरीबों के नाम पर ही बनती भी हैं,पर अफ़सोस की इनसे एक तरफ गरीब जहाँ कामचोर बन खानदानी गरीब हो जाता है,वहीं इन नेताओं के चट्टे-बट्टे खा-खा कर सुगर ब्लाड्प्रेसर का इलाज करा रहे हैं फिर भी इनको होश नहीं आ रही है। गरीबों के नाम पर आने वाला पैसा अगर उन तक नहीं पहुचता है तो उसके खाने वाले बिचौलिए को कफ़न किरी करने वाले घिनौने कृत्यकारी से बेहतर नहीं समझा जा सकता। अब इन नेताओं को ही तय कर लेने दीजिये की इन्हें नेता बनाना पसंद है यां कफ़न की दलाली। बाद का काम तो उन मरे या मरने वाले लोगो की आत्माएं उनकी जीवित अस्थियाँ उकेल कर उनसे अपना हिसाब देर-सबेर पूरा कर ही लेंगी। ये हाल देश के राजनेताओं के कर्म्हीनता वजह से हुआ है,उसमे कोई दो राय नहीं ,अब तो कम से कम झोपड़ियों का झूठा दौरा करना बंद कर ,अपने किये की पछतावा कर इन लोगों को चेत लेना चाहिए ,अन्यथा वो दिन दूर नहीं जब देश में सिर्फ नेता रहेंगे और मृत गरीब आत्माए,जिसकी जिसकी जिम्मेदार सरकार होगी।
सोमवार, 12 जुलाई 2010
कमजोरों के पास शोषित होने के अलावा और कोई रास्ता नहीं
ऐसे में देश के राजनेताओं का रवैया देख तबीयत दंग रह जाती है कि क्या ये भी मनुष्य ही हैं। अब किसी नेता के आंसू नहीं टपकते ,किसी गरीब कि गरीबी पर,अब किसी मंत्री कीनिगाह नहीं पहुचती किसी गरीब झोपडी में ,निगाह पहुचती है तो बस इस पर की वोटर है की नहीं,यदि नहीं तो उसे कितना जल्दी वोटर बनवा दिया जाय और फिर उसके भूख से तड़पते कमजोर कन्धों पर झूठा और घिनौना हाथ रख चाँद रूपये में या दारू की कुछ बोतलों में उसकी गरीबी को अपने राजनैतिक बेसन में लपेट कर पकौड़े बनाकर अपने चखने का इंतजाम किया जाय। देश में कोई भी योजना बनाई तो इन गरीबों के नाम पर जाती है लेकिन उसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा इनके आलमारियों की शोभा बढ़ा रहा होता है।
तो क्या इन अमीर राजनेताओं के बस की बात है देश के गरीबों की गरीबी को समझना और उसे दूर करना तो कत्तई नहीं । इसके लिए अगर पहल की जरूरत है तो आम आदमी की। उसके लिए अलग से कुछ बहुत करने की भी जरूरत नहीं है,सिर्फ और सिर्फ एक सोंच विकसित करने के। हमारे आप के घरों में बहुत ऐसे कपडे होते है जो हम पहनते नहीं वो सिर्फ हमें पुराने यादों के अलावा कुछ भी नहीं देते ,उन कपड़ों को अगर किसी गरीब की झोपडी तक पहुचा दिया जाय,जिससे किसी का तन धक , घरों के उन गैर जरूरी सामानों और भोज्य पदार्थों तक को किसी गरीब को मुहैया करा दिया जाय तो वो दिन दूर नहीं जब इस कड़ी में वो सामान्य जन-जीवन से परिचित हो अपना जीवन स्तर उठा सकेंगे और सही मायने में अपने विकास को समझ सकेंगे। और गरीबों के नाम पर इन राजनेताओं को देश को लूटने का मौका भी नहीं मिलेगा । वश जरूरत है तो एक अनूठे पहल की अन्यथा ये तो शोषित होने के लिए जन्म ही लिए हैं । तो आगे हाथ बढ़ाइए .........क्योंकि
कौन कहता है कि आसमा में छेद नहीं होता ,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों ।
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
बंद का नाटक हो बंद
बड़ा विचित्र संयोग है जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और इन नेताओं को बंद सूझ रहा है .क्या ये बंद कराने वालों के दिमाग में कभी ये बात घुसती है की देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं जो रोज कूआं खोदना और रोज पानी पीना वाले जुमले को आज भी चरितार्थ करते हैं. कितने घरों में चूल्हे नहीं जले और कितने मासूमों की मुकान भूख के मारे आसुओं में तफ्दील होती रहीं.क्या जानने की भी कोशिश किया इन राजनीतिज्ञों ने की कितने रोगियों ने इलाज के अभाव में दम तोडा .एक बनावटी तर्क दिया जा सकता है कि इसीलिये तो लड़ाई लड़ी जा रही है कि और कोई गरीब भूखा न रहे तो ये महज एक राजनीतिक नाटक है जिसे आधिकारिक रूप से नहीं बलिकी मानवीय रूप से बंद किया जाना चाहिए.दासकैपिटल लिखते समय कार्ल मार्क्स कि बिटिया मर रही थी लोग जाकर बताये तो उनका जवाब था कि ठीक है मेरी बेटी मर रही है तो मर जाने दीजिये ,कम से कम कल से इस किताब के पूरी होने के बाद से किसी और मार्क्स कि बेटी गरीबी से नहीं मरेगी.कार्ल मार्क्स के भावनाओं का कद्र जरूरी है लेकिन क्या आज किसी गरीबों कि बेटियां अभावों में मरना छोड़ दी हैं ,तो नहीं ,जब कि आज के राजनेताओं का इतना स्पष्ट उद्देश्य और त्याग भी नहीं है।
गजब मजाक है केंद्र सरकार अपनी कमी को कमी मानने को तैयार नहीं है ,और ये पहला मजाकिया वाक्य दिख रहा है कि सत्तासीन लोग आन्दोलन और बंद करा रहे हैं,सिर्फ और सिर्फ जनता को गुमराह करने के लिए.अगर भारतीय जनता पार्टी विरोध करे तो बात समझ में आती है ,समाजवादी पार्टी विरोध करे बात समझ में आती है लेकीन बहुजन समाज पार्टी जिसकी सरकार है वो केंद्र के खिलाफ लगी हुई है और केंद्र सरकार याकि कांग्रेस बसपा के खिलाफ आन्दोलन करके जनता को किस असमंजस के चौराहे पर खड़ा करना चाहते हैं.बसपा कि इतनी ही औकात थी तो क्यों नहीं ५ जुलाई के भारत बंद में बाकि के संगठनों के साथ भाग लिया।
इतना ही नहीं इन बंदियों में भी अस्तित्व कि लड़ाई थी सारे लोग अलग-अलग अंदाज में विरोध कर रहे थे भले ही खेमा एक क्यों न हो.जब देश हित में बड़ा विरोध करना होता है तो पार्टी के अस्तित्व के खतरे से उपरकि सोंच रख कर लद्फ़ाइयन लादेन जाती है ,जनता पार्टी इसकी सबूत है।
अतः राष्ट्रहित में लोकहित में ,मानवहित में ऐसे हड़ताल और बंद का सबसे पहले विरोध इन राजनेताओं को करना चाहिए।
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
अपने खुद के धर्म की धज्जियाँ उड़ाते तथाकथित धार्मिक कट्टरवादी
कल एकाएक टीवी के एक चैनल पीस टीवी पर एक अंग्रेजी लिवास यानि कोट पैंट में भारतीय डाक्टर जो की मुस्लिम धर्म से थे ,अपने धर्म को श्रेष्ठ साबित करने के चक्कर में अपने धर्म की ही बंधिया उकेल रहे थे.उनके अनुसार मूर्ती पूजा गलत ही नहीं बल्कि धोखा है.अक्सर यही होता है जब आदमी अपने विषय से हट कर बहस करने बैठ जाता है तो,उनको मालुम होना चाहिए की हिन्दू धर्म की नीव ही शून्य पर टिकी है और कोई मूर्ती नहीं बल्कि प्रतिमूर्ति होती है ,जिसका मतलब हवा में तीर चलाने के बराबर धर्म को न समझा जाय ,इसलिए है अन्यथा उनका ये कहना की पृथ्वी के बीच में सृष्टि का संचालक निवास करता है तो आप अपने ही धर्म के लोगों को तो कटघरे में खड़ा कर रहे हैं ,"साकी शराब पी मस्जिद में बैठ कर ,वरना वो जगह बता दे जहाँ पर खुदा न हो"ये आपके ही लोगों ने ही कहा है।
इतना ही नहीं अपने भाषण में रिग वेद का भी उदाहरण दे डाला की यहाँ उल्लिखित है की प्रथ्वी का केंद्र मक्का -मदीना है .और ये सबसेश्रेष्ठ जगह है,इससे कोई उनकी बात तो नहीं मान ने जा रहा है लेकिन कुछ गैर मुसलमान भी जो कुरान या मुस्लिम धर्म की कद्र करते हैं ,उनकी विश्वसनीयता पे भीधब्बा लगा।
अतः मुलिम धर्म के लोगो को खुद आगे आ कर ऐसे लोगों का विरोध करना चाहिए जो उनकी थाली में खाते भी हैं और छेड़ करने से भी बाज नहीं आते हैं.
सोमवार, 28 जून 2010
वास्तविक समाजवादी विचारधारा के एक युग प्रवर्तक का अंत
कुछ दिन पहले यानि फरवरी २०१० में मैं और चौधरी राजेन्द्र उनके घर गए तो पता चला कि नेता जी कुम्भ स्नान करने गए हैं ,वापस आये तो बोले कि अब मैं फिर से चार्ज हो कर आ गया हूँ ,और लगे दौरा करने ,तपती दुपहरी में।
वैसे तो मूल रूप से रहनेवाले बनारस के गंगापुर के ही थे लेकिन ज्यादातर समय अपना बनारस शहर में ही गुजारे लेकिन इस बार आये तो उनका आशियाना नारिया स्थित जैन धर्मशाला का .बीएचयू के पूर्व छात्रनेता चौधरी राजेन्द्र का कमरा .बतौर चौधरी जी वो इधर काफी चिंतित से रहते थे देश कि स्थितियों को लेकर.और निरंतर दो महीने भाग दौड़ किये।
उसके बाद आया काल का वो दिन जब उन्हें अपने एक मित्र प्रहलाद तिवारी की बेटी कि शादी मेंकानपुर जाना पड़ा यानि २७ जुलाई .रस्ते में ही हृदयाघात हुआ और दम तोड़ दिया,ये ढलता सूरज जिसे अपनी लालिमा खोने का मलाल भी नहीं था.देश के कई नेताओं के वो गुरु थे जैसे नितीश रामबिलाश शरद यादव वगैरह के,लेकिन किसी से कोई मानसिक समझौता नहीं।अभी राहुल गाँधी के अहरौरा के सम्मलेन के बाद हुई मुलाक़ात में बताने लगे कि एक समय था कि मैं और जार्ज फर्नांडीस कभी उसी अह्रारा स्थल पर मुख्य वक्ता हुआ करते थे और आज मई बैरिकेटिंग के पास खड़ा हूँ .ये थी उनकी राजनैतिक साफगोई ,संच भी है याद किये भाषण देने वाले के कंधे पर रास्त्र कब तक और कहाँ तक चलेगा .
उस काशी कि माटी के अमर सपूत को शब्दों का आखिरी सलाम.किसी ने सच ही कहा है "न ही कोई गिरज और गुरजे गुबार है मस्तों कि जिन्दगी में हमेशा बहार है "
जय हो .
सोमवार, 21 जून 2010
राजनीती करने वाले अब चुने जायेंगे कैम्पस सेलेक्शन के माध्यम से
तो अब राष्ट्र को इस स्थिति में पंहुचा दिया इस महान युवराज ने की इनको राजनीतिज्ञों का कैम्पस प्लेसमेंट शुरू कर दिया.अब ये बचपना सोंच छोडिये राहुल बाबू आप चालीस के हुए और लोग भी पता नहीं कैसी -कैसी उमीदें
आपसे पालने लगे हैं ,कम से कम इसका तो ख्याल रखा कीजिये।
राजनेता एक विचार होता है,एक संस्कार होता है ,एक प्रवाह होता है,एक धारा होता है ,पर्सनालिटी डेवलपमेंट का कोर्स पढ़ा के आप किसी को नेता नहीं बना सकते ,हाँ बहुत आपकी दया दृष्टि रही तो ,विधायक,सांसद भले ही बनवा सकते हैं.अतः ,अनुरोध है की राजनीती जैसे शब्द को और शर्मशार न कराइए और स्कूल-कोलेजों में जा-जा कर नेता ढूढने का नाटक बंद कर दीजिये ,अरे अभी तो सब कुछ होते हुए भी आपके हाथ में बहुत कुछ नहीं है ,और अभी ही आप जो -जो वायदा कर-कर के गरीब झोपड़ियों का सामाजिक मजाक उड़वा रहे हैं ,उनको वडा कर के तत्काल की सहानुभूति और प्रेम का पापड़ खा रहे हैं जाने के बाद उसमे से एक भी वायदा पूरा कर पाए क्या आप ,या आपको याद भी है क्या तो शायद नहीं तो आप तो खुद ही आश्वासन वाले नेता होते जा रहे हैं ,क्या वैसे ही लोगो की तलाश में लगे हैं क्या ?
शुक्रवार, 18 जून 2010
सब कुछ निजी क्षेत्रों को अर्पण कर खुद को असफलता के कटघरे में खड़ी कर रही है सरकार
गुरुवार, 17 जून 2010
पुलिस अगर पूर्ण लिप्सा रहित सहयोगी तो फिर डर काहे का
पुलिस को सूचित करने का काम गाँव में चौकीदार कि होती है जिसको भी लोग बड़े अछे निगाह से नहीं देखते हैं,हालाँकि चौकीदार बिचारा सिर्फ कहने मात्र को ही सरकारी कर्मचारी होता है पर उसकी तनख्वाह सब्जी खरीदने के लिए भी पर्याप्त नहीं हो पाती ,वर्दी के नाम पर उसीक लाल पगड़ी दी जाती है जो उसकी पहचान होती है बस इतने के लिए अब चौकीदार भी गावों कि बात क्यों उन तक पहुचकर लोगों का दुश्मन बने.इसके बाद अगर आप थाने पहुच जाइए किसी भी तरह कि प्राथमिकी दर्ज कराने तो देखिये पहले तो आपको ही गुनाहगार साबित कर कहीं उठा के दरोगा साहब बंद न कर दें ,अगर उससे बचे तो रिपोर्ट लिखने के लिए इतना दौड़ लगवा देंगे कि आप उनका रास्ता तक भूल जायेंगे .वैसे तो वर्दी पहनने के बाद ये किसी को भी न पहचानने कि कषम खा लेते हैं लेकिन अगर पहचानेंगे भी तो वो सिर्फ और सिर्फ गांधीजी की तस्बीर लगी हरे लाल कागज के दो चार टुकड़ों का उपहार लेने के बाद.ये तो रही पुलिस स्टेशन तककी बाट .अब इनको कही भी आप पेड़ कि सुनसान छाया में गाड़ियों कि चेकिंग करते हुए पा जायेंगे जहाँ ये शरीफ नागरिकों को परेशां करना ही अपना दाइत्व समझते हैं .अगर इनको पता चलता है कि इसी रस्ते से कोई बड़ा अपराधी जा रहा है तो वो पान कि गुमटियों में घुस जाते हैं .इस समय संयोग से बनारस के डी आई जी खुद घटनाओं के पीछे दौरा करते हुए पाए जा रहे हैं इसमें कोई दो राय नहीं .अभी चार दिन पहले ही बड़ा ह्रदय विदारक घटना सारनाथ में हुआ एक ७५ साल के बुजुर्ग को चोरों ने मार डाला और लाखों कि लूट भी कि ,लूट का पर्दाफास भी हो गया और पुलिस चोरों को पकड़ लेने का दावा भी कर रही है ,शायद संयोग से भुक्तभोगी डी जीपी यशपाल जी के रिश्तेदार थे अगर ऐसा नहीं होता तो क्या पुलिस इतना तेजी दिखाती तो संशय है।
अक्सर सुना जाता है कानोकान कि पुलिस वालों को ऊपर पैसा भेजना होता बड़े अधिकारीयों को इसलिए वो घूस लेते हैं ,समझ में नहीं आता अगर ये सच सबको पता है तो लोग इसके खिलाफ लड़ते क्यों नहीं या फिर ये बड़ा अधिकारी है कौन जिसके बहाने पैसे वसूले जाते हैं और इनकी परिभाषा दूषित हो जाती है.इस पर भी संस्कारिक विमर्श होना चाहिए ।
बुधवार, 16 जून 2010
वर्तमान भारतीय नेताओं के पास देश का कोई मॉडल नहीं
पहले के नेताओं के पास अपना एक मॉडल था जिसको स्थापित करने के लिए वो लड़ते थे ,नेहरु के पास अगर पंचवर्षीय योजना थी,तो शास्त्री जी के पास त्याग ,लोहिया के पास समाजवाद था तो श्यामा प्रसाद मुकर्जी के पास ओज ,इंदिरा के पास अड़ियल पण और लौह विचार था तो फिरोज गाँधी और अटल बिहारी के पास भाषा ,संजय गाँधी के पास मारुती तो राजीव के पास मोबाइल ,जिस मॉडल को जिसने अपनाया उसके कार्य किया तो वो दिखा लेकिन आज के नेताओं के पास ऐसे किसी मॉडल का कदाचित अभाव है ,मॉडल की ही देन है किवर्षों से अपनी खानदानी राजनीती करने वाले लोगों को भी देश के सत्ता कि बागडोर से हटना तक पड़ा।
न आज पर्यावरण के लिए कोई सोंच है न ही जनता के लिए .डेनमार्क के कोपेनहेगेन में सम्मलेन होता है और उस में तय की जाने वाली साडी चीजें बाहर निकलते ही भुला दी जातीं हैं . मॉडल है तो कपड़ों का राहुल गाँधी के कुरते और पैंट का एक मॉडल है .अभी एक दिन पहले अख़बार के किसी कालम में पढने को मिला कि इस समय कांग्रेसी नेताओं में राहुल के कुरते का बड़ा क्रेज है ब्रांडेड जूते कि पूछ है ,अरे काम तो करो जूते की कमी नहीं पड़ेगी।
तो हकीकत में अगर जरूरत है तो विकास के मॉडल ,अन्यथा एक पक्ष हथियार से देश चलाना चाहता है और अपने को मार्क्सवादी कहता है तो दूसरा करोड़ों कि संपत्तियों का मालिक बन अपने को समाजवादी कहता है तो तीसरा धर्म से अलग हो खुद को धार्मिक कहता है और चौथे के पास तो लगता है कहने के लिए कुछ है ही नहीं ,तो क्या अब बंदूकों कि नोक पर राष्ट्र चलेगा और हम अपनी पहचान बनायेंगे तो कत्तई नहीं फिर जरूरत है नए भूगोल कि जो कि कल का इतिहास होने वाला है .
मंगलवार, 15 जून 2010
गंगा के बहाने सरकार से मोटी रकम वसूल करने में लगे तथाकथित बुद्धजीवी
बात थोड़ी कड़वी जरूर है लेकिन गंगा के हरिद्वार वाली धारा की तरह निर्मल और स्पष्टहै. अब तक जब भी गंगा के लिए सरकारी खजाने से रकम निकाली गयी ,वो कभी २०० करोड़ से काम नहीं रही ,फिर किसी दुसरे को ५०० करोड़ ,इस तरह से इतना अधिक पैसा सिर्फ गंगा के नाम पर अब तक सरकार द्वारा पास किया जा चूका है उतने में तो गोमुख से लेकर बंगाल की खाड़ी तक एक नयी गंगा खोद दी जाती और ये तथाकथित बुद्धजीवी ,महंत लोग गंगा के नालों तक को भी नहीं साफ कर पाए .अगर हम बनारस की बात करें तो पाएंगे कि यहाँ गंगा के नाम पर सरकार को सबसे अधिक छाला गया है,कभी वैज्ञानिकों द्वारा तो कभी बुद्धजीवियों द्वारा ,तो कभी महंतों द्वारा तो कभी संत-महात्माओं द्वारा और इतना पैसा मिलाने के बावजूद ये धर्म के पुरोधा लोग बनारस के रविदास पार्क के बगल से गुजरने वाले एक नाले तक का उपचार नहीं कर सके जो कि मिटटी तो दूर इतना पैसा मिला है इस नाम पर कि उन पैसे कि रेज्कारियों से ये खाइयाँ भरी जा सकती हैं.और सबसे बड़ा मजाक यह कि यह नाला कशी के सबसे बड़े धर्मगुरु और ,विश्व विख्यात पर्यावरण विद के लगभग घर से होकर ही गुजरता है.तो इस बार का पांच सौ करोड़ कहाँ जाने वाला है ये भी सोचने का विषय है,लग रहा है मुर्दे जलाने के शहर कि जनता भी मुर्दा हो चली है .इन बातों पर सोचने का ,और बनारसी जिन्दादिली मरना शुरू कर दी है।
अब सवाल उठता है कि क्या गंगा कि स्थिति पैसे से सुधर सकती है तो कभी भी नहीं फिर ये पैसा गोल मटोल लोगों के पेट में चला जायेगा .अगर जरूरत है तो मानसिक स्वच्छता कि,गंगा अपने आप साफ होजाएगी,निर्मल होजाएगी,पहले ये गंदे त्रिकुंड धरी जो कुण्डली मार कर गंगा को सुखाने पर लगे हैं ,पहले इनसे भी हिसाब चुकता करना होगा.जनता जिस दिन कषम खा लेगी गंगा को साफ़ रखने का उस दिन बिना पैसे के गंगा गंगा हो जायेगी।
अतः इस लेखनी के माध्यम से देश के मदांध नीति-नियंताओं से आग्रह है कि गंगा मरने के बाद मोक्ष देती है ,गंगा के नाम पर जीतेजी ही जनता को मोक्ष दिलाने का प्रयास इतनी मोटी रकम इन फिसड्डी हाथों पर कत्तई न दिया जाय अन्यथा गंगा के नाम पर ही महगाई इतनी परोक्ष रूप से बढ़ जाएगी कि गरीब जनता के पास कफ़न खरीदने के लिए पैसे नहीं होंगे और जब निर्वस्त्र लाशें पहुचेंगी तो मान गंगा दहाड़ें मार के रोने लगेंगी और फिर उसके आसूओं के बढ़ को रोक पाना सरकार के लिए मुश्किल होगा ।
सोमवार, 14 जून 2010
बेचने वालों ने क्या-क्या नहीं बेच डाला
एक स्कूल के बच्चे को युनिफोर्म इस लिए पहनाया जाता है कि लोगों में वैचारिक विभिन्नता नहीं हो पाए और यहाँ खुलेआम गरीबी-अमीरी की खाईं को बाबा के माध्यम से चौड़ा किया जा रहा है ,बहुत सारे रास्ते थे कम से कम भगवान को तो ये लांचन न लगे .समझ में नहीं आता की ऐसी बाते लोगों के दिमाग में आती कैसे हैं और अगर आ ही गयी तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक अपने त्रिकुंड की छटन भिखेर रहे बनारसी पंडितों क्या खनक छान रहे हो आप लोग या इसमें आप का भी हिस्सा तनी हो गया है ,रामदेव बोलते हैं तो इनके विरोध होते हैं लेकिन इतना बड़ा ह्रदय विदारक कदम उठा किसी की आत्मा नहीं दहली।
इस पर पुनर्विचार होना चाहिए अन्यथा लोगों की आस्था के साथ खिलवाड़ होगा और बनारस जैसे मस्तों के शहर के माथे पर लगे इस कलंक को धो पाना मुश्किल होगा।
भोपाल गैस त्रासदी का आधुनिक मंचन
सैकड़ो परिवारों को खुले आम तवाह कर देने वाले कसाब को सरकार मेहमान की तरह पल रही है उसकी परवरिश कर रही है ,मान लिया कसाब मुकदमों से बरी हो ही जय तो क्या ये मान लिया जाये की वो आतंकवादी नहीं है.कल उसे भी एडरसन की तरह रास्ता दिखा दिया जायेगा और पचास साल बाद जब रोपोर्ट आएगी तो काठ के विरोधियों तैयार रहना पुतला जलाने के लिए.आज तो घिघ्घी बड़ी है बोलने की मजाल नहीं है।
जाकब तक गरीबों के खून से खेले जाने वाले इस लहूलुहान मजाक का पटाक्षेप नहीं होगा ,कल कोई और एडरसन पैदा होगा और परसों कोई कसाब मशाल जलाये रखिये,हो सके दो शहरों में कफ़न की दुकान पहले से खुलवा लीजिये और अपना कुरता -पायजामा टाईट रखिये शंत्वाना देने भी तो जाना होगा .
सोमवार, 7 जून 2010
असहज होतीं भोले की नगरी की पार्किंग व्यवस्था
वाराणसी नगर-निगम का अधिकृत तथाकथित वर्षों पुराने स्थान जहाँ पार्किंग सुनिश्चित थी आज वहां चमकती इमारतें बन गयी है जिसको गिराने या हटाने का या तो वर्तमान प्रशासनिक व्यवस्था में माद्दा नहीं है या फिर अपने किसी स्वार्थ में इनसे पंगा नहीं लेना चाहते.हाँ एक विकास जरूर हुआ इन पार्किंग प्लेसेस को तो नहीं हटाया गया नए पार्किंग को जन्म दे दिया गया ,वर्तमान नगर आयुक्त द्वारा,शायद यही उनके लिए सबसे सहज रास्ता था।
अब तो हद तब पर हो गयी जब इन प्राइवेट पार्किंग का नगर निगम ने अधिकृत ठेका शुरू कर इसको अपने सरकारी झोले में जबरन डाल लिया ठेकेदार भी मस्त और उनका भी काम बनता.जालान का दुर्गाकुंड वाला ब्रांच हो या शाकुम्भरी काम्प्लेक्स गुरुधाम ऐसे कई जगहों पर ये गैर सरकारी स्टैंड ठेके के रूप में फल-फूल रहे है "जब सैंया भये कोतवाल तब डर काहे का"के तर्ज पर और जनता अपना असली जगह पैसेवालों या अपराधियों को अनजाने में दान कर या रखवालों की अकर्मण्यता का फल भुगत रही है।
मुख्यमंत्री का जब फरमान जारी होता है तो ये सारे बड़े अधिकारी न जाने किस स्वार्थ में सरकारी तंत्रों का दुरुपयोग कर रहे अपने साढ़ू भाईयों को नहीं छूना चाहते और जनता को खुली चक्की में किसी दुसरे पूजीपति के सहारे पिसने-पिसाने का ठेका दे देते है.इस पर भी एक कलम की जरूरत है.
शुक्रवार, 4 जून 2010
नचनिहों का राजनैतिक जलवा
एक आंधी चली कि अपने-अपने राजनीतिक पार्टी में जो जितने बड़े नचनिहें को जूता लेगा वो उतना बड़ा सत्ताधारी बनेगा,ये ऐसी होड़ मचाये कि भोजपुरी के निरहू भी चुनावों में स्टार प्रचारक हो गए तो राजनैतिक अभिलाषा पूरी करनी है राहुल भाई तो किसी हीरो पकड़ो न वैसे भी आपके पारिवारिक रिश्ते वाले हीरो-हीरोइन दुसरे खेमे में झांकी लगा रहें है ,उनको भी लेकर घूमना शुरू कर दीजिये क्योंकि जनता को नचनिहें बहुत पसंद हैं कल देश कि बागडोर रैम्प पर कैटवाक करती फिरेगी.
गुरुवार, 3 जून 2010
तसलीमा की हदें
अतः अपनी विद्वता और एकल सोंच पर धब्बा लगाने के बजाय अगर लोगों से गांधी कि नीतियों पर चलने और उसको आत्मसात करने कि अपील करें तो शायद उनको जम्में कि कमी नहीं पड़ेगी.
मंगलवार, 25 मई 2010
फिर संजने लगीं सडकों पर शिक्षा की दुकानें
ये तो रहा इनका पहला अंदाज.अब किसी तरह से अगर आप इनके तथाकथित कालेज या इंस्टिट्यूट में पहुँच गए तो फिर क्या उनको मुह मागी मुराद मिल गयी .झकाझक वातानूकूलित व्यवस्था में रिसेप्सन काउंटर पर बैठी कौन्सेलर बालाएं जिस मोहक अंदाज में आपको सारे डिटेल्स बतायेंगी कि विश्वामित्र का झक टूट गया तो आप में क्या खाक रखा है.और कुछ भी हो अब पढेंगे यहीं के वायदे के साथ अगले दिन हारे सिपाही को तरह आप उस संस्था से अनुबंधित हो जाते हैं ।
अब क्या जनाब ,अब आपका प्रवेश हो गया आपके भाग्य की इतिश्री हो गयी ,अब तक आप बोले वो सुने और अब वो बोलेंगे आप सुनेंगे .वो एसी जो देख के आप लालायित हुए थे वो तो सीजन भर के लिए भाड़े पर आया था आपको अब लगातार मौसम के हिसाब से ही रहना होगा ,क्यों कि ये मौसमी शिक्षा पद्ध्हती है ,अतः बच के रहना रे बाबा
बुधवार, 19 मई 2010
देश,सन्देश और दंतेवाडा
दंतेवाडा ही नहीं कई ऐसे अकह्य दंतेवाडा फल फूल रहे हैं जिस पर सरकारों की हिम्मत नहीं की चर्चा कर सकें.देश पानी ,बिजली की तो छोड़े रोजमर्रा की रोटी को जूझ रहा है और सन्देश यात्राओं में दुशाला पहनाया जा रहा है.बरेली में सोनिया जी के आवास में वातानुकूलित व्यवस्था नहीं हो पाई तो पूरा देश जान गया और कितनी झोपड़ियाँ जो कभी रोशन ही नहीं हुई उनका क्या कहा जाय.बनारस में प्रदेश के सांस्कृतिक मंत्री सुभास पाण्डेय के कमरे में विजली क्या चली गयी अधिकारियों की ऐसी की तैसी हो गयी ,जब की आम आदमी तो इन्हें अपना भाग्य बना लिया है ।
ऐसे में क्या किसी गरीब की झोपड़ी में भोजन का लेने से गरीबी का अंदाजा लग जायेगा ,तो कत्तई नहीं ,अरे ये तो हमारे संस्कार में है की मेहमानों को हम अच्छा खिलाते हैं ,अन्यथा बासी रोटी और बासी साग मिलने पर गरीब झोपड़ियों का नाटकीय दौरा भी बंद हो जायेगा.
सोमवार, 17 मई 2010
बेतरतीब महगाई में सरकारी नौकरियों का योगदान
आज देश राजनीतिक शून्यता के दौर से गुजर रहा है.जहाँ सिर्फ स्वार्थ का बोलबाला है.महगाई एक बड़ा मुद्दा है ,बड़ी समस्या है जहाँ राजनैतिक भठियों में सर वोट कि मोटी रोटियां सेकी जाती है।
अगर बिना किसी भुलावे के महगाई के प्रबल कारणों का जिक्र किया जाय तो बढ़ती महगाई में सरकारी नौकरियों का बड़ा योगदान है.यद्यपि इस मुद्दे पर मौन समर्थन मिलना तो आसान है पर खुल के विरोध भी झेलनी पद सकती है.लेकिन ये कटु सत्य है कि देश कि कुल जनसँख्या के ढाई प्रतिशत लोग सरकारी नौकरी में हाँ जिन्हें मोती तनख्वाह मिलती है और उनके पैमाने पर देश कि महगाई को गरीब जनता पर थोपा जा रहा है.ढाई प्रतिशत लोगों को लाभान्वित करने के लिए साढ़े अठान्बे प्रतिशत जनसँख्या को हाशिये पर ला दिया जाना कहा का न्याय हैकहाँ कि नीति है ।
देश के विद्वान अर्थशास्त्रियों का एक समूह इस बात का तर्क देता है कि सबकी आय बढ़ने का प्रयास किया जाना चाहिए न कि बढे हुए लोगों का विरोध.तो बाकी कि जनता अपने समस्याओं से ही नहीं उबार पा रही है तो आय कहाँ से बढ़ पायेगी .इस पर एक स्वस्थ बौधिक बहस कि जरूरत है न कि गलत तर्कों से ताल-मटोल की .
गुरुवार, 13 मई 2010
जल,जंगल,जमीन की हिफाजत ही मानवता की रक्षा
जीवन के तत्वों की बात करें तो "क्षिति जल पावक गगन समीर "ये ही पञ्च तत्व मिलकर शरीर की संरचना होती है.तो क्या इन तत्वों की रक्षा करना हमारा कर्तव्य नहीं बनता तो क्यों हम अपने जीवन दायिनी चीजों को नष्ट करने पर आमादा हो गए हैं.विज्ञान बाधा विकास हुआ ,जीवन स्तर ऊचा हुआ और लोग तालाब और झरनों की जगह बोतल का पानी पीने लगे .मौल और काम्प्लेक्स,डुप्लेक्स बनाने के चक्कर में हम पेड़ों को अपना दुश्मन बना लिए उनका गला इस कदर रेतना शुरू किये की पृथ्वी लगभग निर्वस्त्र सी हो गयी है गर्मी के मारे उसका हाल बेहाल होता जा रहा है लेकिन अब इतना देर हो चूका है की धरती की प्यास तो बिसलेरी की बोतल से बुझनी नहीं है।
इतिहास गवाह है की प्राकृतिक आपदाओं में अगर सबसे ज्यादा किसी का नुकसान होता हो तो गरीबों का ,जिन्हें पानी ताल-तलैया का पीना है,हवा बाग़ -बगीचों की खानी है और छत की चाहत खुला आसमान पूरा करता है.बड़े होटलों के या बहुमंजिली इमारतों के वातानुकूलित बंद कमरों को ही धरती का स्वर्ग समझने वाले वो लोग जिन्होंने खुले आसमान की चादर में कही सर न छुपाया हो उसे भला प्रकृति और उसके साथ होने वाले दुर्व्यवहार से क्या लेना देना.जाने -अनजाने में ये विपत्तियाँ जो आज हर गरीब के लिए असहज सी बन रही हैं ,उसकी नींव तो इन चंद धनपशुओं की आराम तलबी पर ही बनी है ।
अतः जल ,जंगल और जमीन तीनो हमसे नश्तावास्था में दूर हो रही हैं और जिनकी रक्षा एक गरीब तो आगे आकर कर सकता है पर बड़ों के बस की ये बात कत्तई नहीं है .
बुधवार, 12 मई 2010
राजनेताओं का गिरता चरित्र , कसाब से भी बड़ा खतरा
चाहे लोहिया रहें हों या नेहरु लाख विरोध के बावजूद ,आचरण कि प्रतिबधता इतनी थी कि दोनों एक दुसरे का सम्मान करते थे.अटल विहारी बाजपेयी आजीवन कांग्रेस के विरोध कि राजनीति किये लेकिन अच्छाई को सराहने के लिए उन्होंने भी इंदिरा गाँधी को दुर्गा का अवतार कहा।
लेकिन आज देश की राजनीति बड़े वैचारिक संक्रमण से गुजर रही है.आचरण तो पंद्रह साल पहले से ही ख़त्म हो गया था ,संसद,और विधान सभाओं तक में जूते -चप्पल की घटनाएँ आम होगयीं थी पर इससे पेट नहीं भरा तो इन लोगों को चरित्र तक को भी दाव पर लगाना पड़ा ,.तो मिलाजुला के इस संक्रमण का क्या उपाय है.एक तरफ तो आप एक आतंकवादी को फांसी पर चढ़ा के देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियां निभाने का नाटक कर रहे हैं और दूसरी ओर ये देशी आतंकवादी क्या कसाब से कम खतरनाक हैं जो आस्तीन के सांप की तरह हमारा ही दूध हमको डसने के लिए पीते रहते हैं.हम कसाब को बचाने की वकालत कत्तई नहीं कर रहे हैं लेकिन क्या कसाब को लटका देने मात्र से ये समस्या ख़त्म हो जाएगी,तो मुझे लगता है कत्तई नहीं.इसमे क्या अकेले कसाब की ही गलती है अगर हम अपनी सुरक्षा कर पाने में अपने को अक्षम पा रहे हैं तो क्या हमारे अधिकारी कटघरे के पात्र नहीं है.आखिर जल ,थल और वायु सेनाओं पर राष्ट्र का पैसा बर्बाद करना यानिआतंकवाद को बढ़ावा देना है।
अतः देशी कसाबों की भी तलाशी जरूरी है ये अगर छुट्टे सांड की तरह घुमते रहे तो बड़ा खतरा है बाकी बाहरी कसाब से तो हम देर सबेर निपट ही लेंगे.
मंगलवार, 11 मई 2010
आखिर सन्देश-यात्राओं से कब तक भरेगा पेट
विडंबना है देश की यह पहली सन्देश यात्रा है जिसका कोई सन्देश ही नहीं है.न ही इस यात्रा में जनता है ,यह तो सिर्फ नेताओं का या राजनैतिक लिप्सा रखने वाले लोगों को जमात है जो भी संगठित नहीं है.कांग्रेस के युवराज कहेजाने वाले राहुल गाँधी का २०१२ मिशन उनकी सांगठनिक प्रतिबध्हता को दर्शाता है ,निजता को दर्शाता है,राष्ट्र के खाते में तो कोई नीति है ही नहीं।
गजब हाल है हम कहते हैं लोकतंत्र है और अजब गजब शब्दों का इस्तेमाल आसानी से हम स्वीकार करते जा रहे हैं.और देश के युवाओं का मन सिर्फ और सिर्फ अनुशरण में लगा हुआ है.ऐसे कई जुमले जो किवास्तविकता को मजाक में तफ्दील कर देते हैं आखिर किस स्वार्थ में नहीं किया जाता इनका विरोध.कांग्रेस एक राजतन्त्र नहीं जिसका कि राजकुमार होगा,इसी तरह से पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा नेता लाल कृष्ण आडवानी को पीएम् इन वेटिंग और पीछे जाएँ तो महात्मा गाँधी जैसे देव सरीखे पुरुष को मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी जैसे जुमलों से नवाजा जाता हैऔर देश का युवा किसी न किसी का पिछलग्गू बना हुआ है।
आखिर स्वार्थ कि इस सन्देश यात्रा से कब तक छला जायेगा देश का युवा.अतीत कि नीव पर देश का भविष्य बनाने का नारा दिया जा रहा है और दूसरी तरफ नई ईटें तपती दुपहरी में नोना पकड़ वाने को आतुर हैं.एक मकान भी बनाया जाता है तो सबसे ज्यादा उसके नीव का ख्याल रखा जाता है यहाँ तो नीव ही पुरानी बनाई जा रही हैअब आगे देखिये ये ताजमहल कितना मुस्तकिल होता है.कहने को युवा शक्ति राष्ट्र शक्ति होती है लेकिन जब जब बूढ़े कमजोर होते है जैसे ही इन्हें राजनीतिक मजबूती हाशिल होती ये युवाओं को कोई न कोई लाली पाप पकड़ा ही दिया करते हैं और फिर हम धरासायी होते है,
अतः चलाओ साइकिल जब तक चला सको ,दादा चलाये ,बाप चलाये अब आप चलिए दूसरे को सांसद विधायक बनाने को और खुद पसीना पोछते रहिये.कल्याण हो ही जायेगा.
शुक्रवार, 7 मई 2010
गुरुवार, 6 मई 2010
मीडिया का लोकतान्त्रिक चरित्र
लेकिन आज मीडिया ने समाज के सकारात्मक पक्ष को तवज्जो देना कुछ कम सा कर दिया है ये एक बड़ा खतरा है.या इसे हम दूसरे शब्दों में ये भी कह सकते है की आज समाज में विघटनकारी कार्य या कारक इतने अधिक से हो गए हैं की अच्छे कार्यों को अखबारी कलम जगह ही नहीं दे पाते।
अब ऐसी दशा में जो भी चर्चित होने की अभिलाषा रखते हैं वो कुख्यात होने की तरफ ज्यादा अग्रसारित होना चाहता है क्योंकि वहां कम से कम छपने की स्वतंत्रता तो है.इससे भले लोग अपने भलाई पे तरस खा दूसरों की बुराइयों के बड़प्पन को मजबूरी बना लेते है जो समाज के लिए एक बड़ा खतरा है .अतः अपराधियों का इस कदर महिमा मंडन कत्तई उचित नहीं है अच्छे कार्यों की भी बड़ाई और सहकार जरूरी है जिससे बुराई का स्वतः प्रतिकार संभव हो सके.
गुरुवार, 29 अप्रैल 2010
सोमवार, 19 अप्रैल 2010
बरबादियों का जश्न मानते चलो चलें
दिल को बहलाने का ये ख्याल अच्छा है।
आज के राजनैतिक जामें में जहाँ हर व्यक्ति अपने को छला सा महसूस कर रहा है वहां नेताओं के अविश्वसनीयता भरे कदम उनके शक को हकीकत में बदल देते हैं.आज देश की माली हालत किसी से छिपी नहीं है,दुर्दशा और बेकरियां किलकारियां मार रही हैं लेकिन देश की राष्ट्रीय नीति से जुड़े हुए लोग अपनी राजनैतिक एकजुटता का प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं.कहीं कोई जम्मू में अपने पार्टी के कार्यकर्ताओं से मिल रहा है तो कोई मिशन २०१२ में परेशां प्रदेश भ्रमण करा रहा है.और सारे नेता उनके पीछे-पीछे भीड़ बढ़ने का काम कर रहे हैं. सबकी नैतिकता चुनाओं में ही समाहित है क्योंकि सबका एक मात्र उद्देश्य विधायक और सांसद बनाना है,कोई भी ऐसा नहीं है जो नेता बनना चाहता हो ,पहले उद्देश्य स्पस्ट होना जरूरी है सांसद और विधायक तो आप विशेष कर आज के परिस्थिति में बिना नेतागिरी के भी बन सकते है.तो पहले यह तय होना चाहिए,
नेता होना ज्यादे बड़ा काम है बनस्पत की विधायक बनना.देश में जितने भी बड़े चेहरेहुए चाहे वो गाँधी रहे हो चाहे वो जयप्रकाश रहे हों चाहे वो लोहिया रहे हों वो नेता बने कभी मंत्री विधायक बनाने को तवज्जो नहीं दिया,और जब जब कोई बदलाव आया तो इन्ही लोगों के द्वारा।
आज इन्ही लोगों का नाम भजने का काम करने वाले प्रधानमंत्री तक कुर्सी पर सत्तासीन हुए.पर आज देश में न तो कोई आन्दोलन है न ही कोई नीति है शिवाय स्वार्थ के.हँसी आती है पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की दुखद हत्या के
बाद बीबीसी ने एक बड़ा बढियां कमेन्ट दिया था की चंद्रशेखर एक नेता हैं जिसके पास कोई पार्टी नहीं है और कांग्रेस एक पार्टी है जिसके पास कोई नेता नहीं है.शायद चंद्रशेखर का भी अब अभाव हो गया .और देश में सब मंत्री और विधायक,सांसद बनाने वाले लोग है,जिनसे राष्ट्र नहीं चला करते ,ये एक सबसे अहम् सवाल है.
सोमवार, 12 अप्रैल 2010
शिक्षा का अधिकार एक राजनैतिक छलावा
आखिर क्यों गिर रहा है सरकारी संस्थाओं का शिक्षा स्तर और व्यक्तिगत संस्थान फल फूल रहे हैं.कारन कि शिक्षा में आज भी भयंकर भेदभाव है,एक भी सरकारी प्राइमरी स्कूल का अध्यापक अपने बच्चे को उस स्कूल में दाखिला नहीं दिलाना चाहता जहाँ कि रोटी वो खा रहा है कारन कि वो वहां क्या पढाता है यह उसे पता है.तो क्या यही शिक्षा सुधार है और इसी के बल बूते हम शैक्षणिक भारत कि नीव रख रहे हैं.
सच तो यह है कि जब तक जिलाधिकारी और चपरासी के लड़के एक साथ एक स्कूल में नहीं पढेंगे तब तक ये संभव नहीं है.इससे दोनों ही चीजे सुधरेंगी .जब जिलाधिकारी का लड़का स्कूल में पढ़ रहा होगा तो अध्यापक कि क्या मजाल कि पढाये न और दूसरा कि परस्पर संस्कृतियों के मेल से ये लाभ संभव हो पायेगा कि बड़े बाप का बेटा भी जमीनी चीजों को जान सकेगा और छोटे घर वाले बड़े लोगों के बीच रहना.तन जब कृष्ण और सुदामा एक साथ पढेंगे तो वो समान शिक्षा का अधिकार होगा अन्यथा ये महज एक राजनैतिक छलावा और सरकारी दोहन के अलावा कुछ भी नहीं है.
गुरुवार, 8 अप्रैल 2010
नक्सलवाद एक समस्या नहीं अपितु समाधान
क्या इससे ये समस्याएं ख़त्म हो जाएँगी तो कभी नहीं /जरूरत है तो चीजों को देखने के अंदाज बदलने का.इतनी भारी संख्या के नौजवान नकारात्मक उर्जा संचारित कर रहे हैं ,उन्हें मौका नहीं है,अवसर नहीं है,जिसका परिणाम हम लाश के ढेरों के रूप में देख रहे हैं.मैं उन नक्सलवादियों के घटिया कृत्य की कत्तई तरफदारी नहीं कर रहा हु बल्कि ये कहना चाहता हूँ की विचार कितने ही ऊंचे भले क्यों न हो लेकिन यदि उसके रस्ते हत्या और अपराधो से जुड़े हो तो उसे कदापि जायज नही कहा जा सकता । हा जरुरत है तो इनके सकारात्मक दिशा निर्देशन की जिसका लाभ पुरे रास्त्र को मिल सकता है । आज देश की संसद और बिधान सभाएं अपराधियों से भरी पड़ी है और हम विकास की तरफ अग्रसर होते हुए कहे जा रहे है तो अगर इन नक्सलवादी सिपाहियों को सीमा पर लगा दिया जाय तो क्या पाकिस्तान और चीन जैसी समस्याए हमें परेशां कर पाएंगी ।
अतः नक्सलवाद एक समस्या नहीं अपितु समाधान है जरुरत है तो अच्छे पहल की ....
मंगलवार, 30 मार्च 2010
पुरुषों के हाथ से छिनती समाज की प्रधानता
यह था कारण जो वह भारतीयों के प्रेम में उलझ गया और कहा ऐसा आत्मसम्मान मैंने कही नहीं देखा.ऐसे भारत को आज आजादी के पैसठ सालों बाद क्या होगया,मर गयी वो लड़की या नैतिकता.बात तोदिकदावी जरूर है लेकिन सोचने योग्य है .हमारे देश का विकास एक आरक्षण तो रोके ही हुए था अब महिलाओं को भी इसी रस्ते में घसीट दिया गया.ताज्जुब है की इसे महिलाये हसते हुए अपनी उपलब्धि समझ स्वीकार भी की नाचीं भी क्यों।
आरक्षण माने दया तो क्या महिलाये दया की पात्र हैं.एक तरफ देश किरण बेदी और कल्पना चावला का प्रचार कर रहा है दूसरी तरफ उसे दया की वस्तु समझी जा रही है.तैतीस प्रतिशत आरक्षण हर महिला को संसद तो नहीं बना सकता लेकिन हर महिला को कमजोर कर उसका नारीत्व छीन सकता है।
घटिया राजनीतिक सोंच रखने वाले लोग और संगठन इस बात को उपलब्धि बता रहे हैं,वो भी उस समय जब देश के तीन शीर्ष पदों.राष्ट्रपति,लोकसभा अध्यक्ष और सत्ता दल की मुखिया ही नहीं अपितु कई प्रदेशों की मुखिया भी महिलाएं है.हाँ इतना जरूर है की इससे घुरहू को पतोहू तो कभी संसद नहीं जाएगी लेकिन ये नेता अपने पतोहू को संसद बनाने के चक्कर में पुरुषों को समाज से झंडी दिखने का कम कर रहे हैं.स्वागत है हर उस महिला का आज के परिपेक्ष्य में जो महिला विधेयक को ठुकराने की बात करे।
जयहिंद
अभाव में बदलता स्वभाव
अब भी शहरी तो नहीं हो पाया हूँ लेकिन सोंच थोड़ी जरूर बदली है फिर भी देहाती परछाई पीछा नहीं छोड़ती.अंतर इतना ही है की यहाँ कुतिया की कहानी से थोडा ऊपर उठा और एक बच्चे के ऊपर सामायिक और बैचारिक बदलाव का सामना यह सुनते हुए करना पड़ा जोकि अपने बाबा दादी को आम न देने की बात चिल्ला-चिल्ला कर किये जा रहा था.परिवार के गिरते हुए ढांचे को अगर नहीं वक्त रहते सम्हाला गया तो यह खँडहर बनकर ही दम लेगा .बचा लो यारों.
शनिवार, 27 मार्च 2010
पेड़ों की कटाई का जश्न जरी फिर भी पर्यावरण सुधार सुरजोरों पर
दूसरा हर जगह रोड बन रहे हैं शहर में भी और शहर के बाहर भी.कहीं भी रस्ते में पेड़ आया तो बे झिझक सरकारी कम का हवाला देते हुए लोग इसे काटते फिर रहे है.अभी रथयात्रा चौराहे पर पेड़ कटा,गोल्गाद्दा में बस स्टैंड से थोड़े पहले का नीम का पेड़ कटा,ऐसे सैकड़ों पेड़ रोज कट रहे हैं और सरकार तमाशगीर बनी हुई है।
अतः होश में आओ भाई नहीं तो ऐसे ही एयर कंडीसन ने गरीबों कि गर्मी बढ़ा दी है शायद सरकार नहीं चेती तो उनसे आक्सीजन भी छीन जायेगा,बड़े लोगों का क्या है उनके सेहत पर तो असर पड़ना नहीं है लेकिन अस्सी प्रतिशत देश के लोग गरीब ही है जो कि गावों में ही शहर तलाशते है/तो देर किस बात कि हाथ बढ़ाये इस पुण्य काम की ओर बचा लें देश को जलने से /
बुधवार, 24 मार्च 2010
बीएचयू आईटी को आईआईटी वाराणसी बनाया जाना कत्तई न्यायसंगत नहीं
आज विश्वविद्यालय के इंजीनीयरिंग कॉलेज को आईआईटी वाराणसी बनाने की पहल सुरजोरों पे है/मेरा मानना है कि विश्वविद्यालय के मूल चूल ढांचे में परिवर्तन कर और इसको दूसरा नाम दे ,इसके लिए अलग से गवर्निंग बॉडी नियुक्त करना जनभावनाओं के साथ खिलवाड़ है जिसको जनता कभी नहीं स्विका करेगी.मै इसका विरोधी नहीं हू लेकिन तरीके का धुर विरोधी हूँ जो अपनाया जा रहा है.अलग से आईटी को फंडिंग करे सरकार,शोध कार्यों को महत्व दे लेकिन परिसर में दूसरी संस्था के नाम से इसे संचालित किया जाना एकदम सरासर गलत है/क्या मजाक है जो अच्छा लगा वो आपका बताना चाहूँगा को ये सरकारी फंड से बना विश्वविद्यालय नहीं है ,यहाँ कि जनता मालवीय जी के एक आवाहन पर भक्ति भाव से जमीन ही नहीं दी थी श्रमदान भी किया था क्या इसीलिए कि आज आईटी को आईआईटी वाराणसी बना दीजिये कल आईएम्एस को एम्स वाराणसी बना दीजिये ,परसों ऍफ़एम्एस को आईआईएम् वाराणसी बना दीजिये और फिर महामना कि प्रतिमा उखाड़ कर प्रयाग भेजवा दीजिये/मुझे समझ में नहीं आता कि विश्वविद्यालय प्रशासन इसे अपनी उपलब्धि के रूप में क्यों देख रहा है।
रही बात कैम्पस सेलेक्शन की तो कभी भी बीएचयू आईटी का प्लेसमेंट आईआई टी से कमजोर नहीं रहा है/अतः ये जनता की भावनाओं के साथ राजनैतिक छेड़छाड़ है जो की बर्दाश्त से बाहर है/
अतः गुजारिश है की इसपर पुनः विचार किया जाय अन्यथा बाबरी मस्जिद से भी बड़ा सांप्रदायिक तनाव हो सकता है जिसके लिए सरकार जिम्मेदार होगी और मालवीय जी हाथ में कटोरा लिए थे विश्वविद्यालय बनाने लिए और जनता हाथ में कटोरा ले विश्वविद्यालय बचने के लिए सडकों पर उतर आएगी और हाथ मलने और पश्चाताप के अलावा कुछ भी नहीं हाशिल होगा.
शुक्रवार, 19 मार्च 2010
एक महापुरुष का जीता-जागता सपना काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
ऐसे ही महा मनीषियों में थे पंडित मदन मोहन मालवीय /प्रयाग से काशी के इस महा संगम को भला कौन नहीं जानताकाशी की तत्कालीन शिक्षा के गिरते स्तरको नहीं पचा पाने वाले इस महा मानव की तपस्या की साक्षात् प्रतिमूर्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय आज देश ही नहीं वरण विश्व में अपनी छटा बिखेर रहा है
आखिर क्या थी जो इतनी बड़ी ईमारत खड़ा करने को एक साधारण मनुष्य को सक्षम बना दी /तो वह थी सामान्य जानता को सस्ती शिक्षा ,सस्ता स्वास्थ्य और समुचित रोजगार दिलाने का करुणित ह्रदय और उससे उपजा दृढ विश्वास
लेकिन कष्ट ही नहीं क्षोभ है की आज का वर्तमान विश्वविद्यालय परिदृश्य उनके सपनो से दूर होता नजर आ रहा है/आज नहीं यहाँ सस्ती शिक्षा है न ही सेवा भाव वाला सस्ता स्वास्थ्य /आज से बीस साल पहले के विश्वविद्यालय और आज के विश्वविद्यालय में बहोत अंतर है/अंतर होना भी चाहिए ,लेकिन कष्ट यह की यहाँ भी अब घुरहू के लड़के पढाई नहीं कर सकते /दिनोदिन फीस व्रिध्ही और चिकित्सा में अनाचार यहाँ का पर्याय बन चूका है/कारण लोगों में मदद को भावना का निरंतर लोप /
एक बार मालवीय जी महाराज के समय में छात्रों ने मेस की समस्याओं को लेकर हड़ताल शुरू कर दिया,अब क्या महराज जी पहुचे ,उन्होंने छात्रों से कहा की तुम लोग नहीं भोजन करोगे तो मैं भी यही हड़ताल पर तुम्हारे साथ बैठ रहा हु/अब क्या था छात्रों को अपनी जिद छोडनी पड़ी /पर आज ऐसा नहीं है यहाँ के वर्तमान प्रशाशन से ऐसे प्रेमालाप जैसे रूप की तो उम्मीद नहीं की जा सकती अपितु ये लड़कियों तक पर भी लाठी बरसाने से बाज
नहीं आते/
अतः सब कुछ वही है बदला क्या हमारी सोच/पिछले साल मार्च २००८ में प्रधान मंत्री डा .मनमोहन सिंह का यहाँ दीक्षांत समारोह में आना हुआ ,छात्रनेताओं का एक समूह उनसे मिलाने की अनुमति किसी तरह से लेकर तत्कालीन कुलपी प्रो पंजाब सिंह के रवैये का जिक्र किया गया तो प्रधानमंत्री जी पूछ उठे की अकेडमिक काउन्सिल के लोग क्या कर रहे हैं ,तब तक मेरे धैर्य का बाँध टूट चूका था औरबोल उठा की काउन्सिल में सारे अपराधी भरे हुए हैं आप चाहे तो आई.बी से जाँच करा लीजिये और गलत होने पर मुझे सजा करा दीजियेगा/इसका हश्र ये हुआ की प्रधानमंत्री जी ने कुलपी के साथ भोजन करने तक से मन कर दिया/
अतः जरूरत है तो विश्वविद्यालय को हरा भरा रखने का नहीं की सुखाने का प्रयास करने का और आज के विश्वविद्यालय के लोग इसे ले डूबने पर आमादा है,अच्छा है की मालवीय जी स्वर्ग सिधार गए हैं अन्यथा ये लोग उन्हें दहाड़ेमार कर रोने पर विवश कर देते और मानवता भी शर्मसार हो जाती/
बुधवार, 17 मार्च 2010
लोकतंत्र में छात्रसंघों की भूमिका
ये सच है की जिंदगी भर छात्र राजनीती नहीं की जा सकती लेकिन छात्रहितों को जब वही लोग नजर अंदाज करेंगे जिन्होंने यहीं से पहचान हासिल की तो यही हश्र होगा/अब बात आती है छात्रसंघ क्या और क्यों?कोई भी संगठन अपने सदस्यों की समस्याओं इत्यादि से लड़ने का एक मंच रुपी माध्यम होता है जिसका होना उतना ही जरूरी है जितना की देश के संसद का होना/आज देश में राजनीतिक अपराध बढ़ रहा है कारण छात्रसंघों का लोप/इसके माध्यम से तेज और ईमानदार युवा की राजनीती में निःस्वार्थ इंट्री होती थी जो राष्ट्र को एक नयी दिशा देता था/आज ये सांसद ,विधायक जब हासिये पर आ जाते हैं तो इन्हें छात्र संघों की यद् आती है और फिर अपनी खोई पहचान जुटाने के फेरे में नए छात्रों को राजनीतिक छलावा देकर गुमराह करते है/छात्र छात्र होता है वह किसी दल का नहीं होता है यही कारण है की जब-जब कोई लड़ाई युवाओं के हाथ में आई उसको जीत मिली क्योंकि वहां कोई लोभ और लालच नहीं होता था/
लोकतंत्र की पौधशाला है छात्रसंघ ये सभी कहते है तो उसको सुखाने पर क्यों अमादा हुए हो/सच तो यह है की छात्रसंघों से आज के नेता डरते हैं इनको अपने अस्तित्व का खतरा है/मैं छात्रसंघों का हिमायती हु काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की छात्र राजनीती से सरोकार रहा है /आज लोग चाहे जो कह ले अगर अपवादों को छोड़ दिया तो यहाँ अपराध और बहुबल का अवसर कम है ये जरूरी है छात्रों को उनकी कक्षा का दरवाजा भी मालूम होना चाहिए /
अतः कब तक सायकिल चलाएंगे अखिलेश यादव के पीछे,कब तक राहुल गाँधी की माला जपेंगे और कब तक मायावती को नोटों की माला पहनाएंगे,अब तो चेतिए /छात्र जब विद्रोह पे उतरा तो इतिहास गवाह है इंदिरा जी जैसी कुशल प्रशाशिका को भी मुह की खानी पड़ी थी/अतः छात्रनेताओं अपने हौशले को बुलद कर आवाज उठाओ हम तुम्हारे साथ हैं/
बुधवार, 10 मार्च 2010
अर्थहीन शिक्षा -प्रणाली को थोप रहे हैं-सिब्बल साहब
आज भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल साहब शिक्षा के परिवर्तन में लगे हुए हैं/इसी क्रम में उन्होंने सी बी एस सी बोर्ड के स्कूलों में कक्ष नौ की परीक्षा का भी जिम्मा बोर्ड को पकड़ा दिया पेपर तो वह से आये ,सारे स्कूलों को एक व्यक्तिगत कोड दिया गया जिससे पेपर उपलब्ध हो जायेगा/सारे स्कूलों के परीक्षा की डेट एक राखी नहीं गयी ,और परिणामस्वरूप हर स्कूल का पेपर एक दम एक जैसा है बच्चों की चांदी ही चांदी/दस साल पहले यूं पी बोर्ड ने यह उपक्रम चलाया था जो सुपर फ्लाप घोषित हुआ था यद्यपि इससे सफल था,तो ध्यान देने की जरूरत है नहीं टी बच्चे तो तू डाल-डाल- तो मैं पात -पात की राह चलने पे विश्वास रखते है/
शुक्रवार, 5 मार्च 2010
संजनी हमहूँ राजकुमार
सच तो यह है कि "सुपवा हसे तो हसे चलनियो ,जेकरे बहत्तर छेद",जो लोग खुद कभी जनता को अपना कर्तव्य नहीं समझे वो भी आज संजनी हमहू राजकुमार के तर्ज पर विरोध कर राजनीती चमकाने में लगे हुए है,लेकिन अब क्या हो सकता है अब तो बहुत देर कर चुके है ये लोग क्योंकि प्रणव दा कि पीठ भी अब तो ठोकी जा चुकी है ,बड़ा मुश्किल है लेकिन काम छ है/और नीति और नीयत से किये जाने वाले काम में सफलता खुद चलकर साथ देने उतर आती है /अतः चलते रहिये शायद कहीं शाम हो ही जाय/
गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010
होली भी आखिर हो ही ली
वक्त बदला वक्त की धारा बदली लोगों के जीने और जिलाने की तहजीब बदली /भंग और ठंढई की जगह चिकेन और अंगूर की बेटी ने ले ली /एक तरफ महगाई ने कमर तोड़ कर रख दी है लेकिन दूसरी तरफ मधुशाले की भीड़ आलिशान अंदाज में बढ़ रही है/सामान्य घरेलू खाद्य रसोई की पहुच से बाहर होते नजर आने लगे हैं,निःसंदेह गुझिया और चिप्स की तरफ से लोगों का आकर्षण कुछ कम हुआ है लेकिन क्या उसमे महगाई का ही सारा योगदान है तो नहीं ,हमारी सोंच भी ठिगनी हुई है/
हम बाज़ार में चावल खरीदने जाते हैं तो उसकी कीमत बढ़ी हुई देख कहते हैं महगाई बहुत हैजोकि एक परिवार में अगर प्रति माह बीस किलो चावल खर्च होता है तो अधिकतम सौ रूपये अधिक देने होंगे अच्छे चावल खरीदने के लिए /अगर हम बारीकी से अध्ययन करे तो पाएंगे अक्सर लोग ऐसी जगह महगाई का जिक्र करते हैं पर अगर उस घर में एक भी आदमी पान मसाला खाने वाला है और दस रूपये का भी मसाला खाता है तो महीने में तीन सौ का मसाला खा जाता है /
एक और फैशन बढ़ा है अगर कोई दुबला -पतला शक्ल का दिखता है तो खुले आम लोग आज उसे बीयर पीने की सलाह देते हैं ताज्जुब लोग मान भी जाते हैं/एक बीयर की कीमत सत्तर रूपये है जितने में लाख महगाई के बावजूद तीन लीटर दूध आ जायेंगे और क्या तीन लीटर दूध से ज्यादा सेहतमंद साबित हो सकता ये जौ का पानी जाने जानेवाला बीयर/
अतः परेशां तो लोग अपनी सोंच से होते हैं सामाजिक परेशानियाँ तो सामूहिक है जो सभी झेलते हैं/इसलिए प्रेम ,उन्माद ,हर्ष ,उल्लास ,रंग ,गुलाल ,भंग ,ठंढाई ,गोझिया ,पापड़,कुरता,पायजामा ,लहगा ,चुंदरी ,इत्यादि गहनों से सजे इस मिलन के पर्व पर महगाई का असर न होने दे ,अपनों सोंच बदलें और जियें जी भर के...............
होली की ढेरों मुबारकबाद ..........
मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010
अमीरों की सरकार-कांग्रेस
कांग्रेस के तथाकथित राजकुंवर राहुल गाँधी जोर शोर से नवयुवकों के राजनीती में आगे आने की बात कर रहे है,लेकिन क्या राजनैतिक विरासत रखने वाले जितिन प्रसाद, सचिन पायलट ,ज्योतिरादित्य सिंधिया और उमर अब्दुल्लाह ही बस देश के नवयुवकों में आते हैं.क्या किसी सामान्य परिवार के ,राजनैतिक सोंच रखने वाले को आगे बढाने या भेजने का प्रयास भी किया महोदय ने/तो जवाब मिलेगा कत्तई नहीं,.
तो क्या इन्ही लोगों के भरोसे २०१२ फतह करने चले हैं राजकुमार,देखिये इस आनन् -फानन में कहीं हाथ में आया २०१४ भी न खिसक जय/इस समय कांग्रेस संगठन में पद बाटने का काम जोरों पर है,जिसका पैमाना ये है कि जो जितने सदस्य बनाएगा उसे उस तरह के अधिकार सौंपे जायेंगे/इसमें होता था क्या कि चंद बड़े नेता जिनके पास पैसे कि कमी नहीं है या जो नेता कम ठेकेदार ज्यादा हैं वे घर बैठ कर फर्जी नाम भर के खूब पैसे भेज देते थे और उन्हें आँख मूद कर आई .सी .सी .मेम्बर ,पी.सी सी मेम्बर या प्रदेश या देश क़ी संगठन क़ी बागडोर सौप दी जाती रही/ लेकिन इस बार उनकी एक न चली क्योंकि सदस्यों क़ी फोटोग्राफी भी हो रही थी/सबके हवा-हवाई सदस्य गायब हो गए,तो होना क्या था ये लोग इतने मुर्ख थोड़े ही हैं/बनारस में कांग्रेस कार्यालय में ही चोरी हो गयी और विशेष रूप से वही रजिस्टर जिसमें उल्लिखित था क़ी कौन कितने मेम्बर बनाया,गायब कर दिया गया/अब फिर इन नेताजी लोगों क़ी चाँदी ही चाँदी है,जो एक समर्थक नहीं खोज सकते अब वो भी हजारो मेम्बर बनने का किला फतह कर रहे है ,लग रहा है अब फिर आँख मूद कर अपने हित नात रिश्तेदारों को पद बाँट दिया जायेगा/मारा जायेगा वो छोटा नेता या कार्यकर्त्ता जो लखनऊ या दिल्ली तक अपनी जड़ें नहीं जमा पाया है/फिर अनाचार होगा/
तो इस बार क्या करोगे राहुल बाबू अब आपकी शराफत का क्या होगा,या ए बात आपको पता ही नहीं है,आपको आपकी लखनऊ क़ी लोकप्रिय नेत्री रीता जी ने कुछ नहीं बताया क्या?
अब बताइए क्या इन्ही नेताजी लोगों के बल पर आप बांह चढ़ाये फिरते हैं अगर यही सच है तो मित्रवत सलाह है इनसे सावधान हो जाइये अभी भी वक्त है ,दोनों काम हो जायेगा २०१२ वाला भी और २०१४ वाला भी ,क्योंकि जनता में तो आपकी पूछ बढ़ी है इससे कत्तई नहीं नकारा जा सकता /उसका फायदा भी उठा लीजिये और ........./